मंगलवार, 5 अगस्त 2008

लघुकथाएं- पृथ्वीराज अरोड़ा

घर की रोटी

“देवदास बने बैठे हो साले !” साथी ने धोल जमाते हुम पूछा। उसने आँखें ऊपर उठायीं। डबडबाईं आँखें देखकर धोल जमाने वाला साथी सकते में आ गया, “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं यार! इसी गाड़ी से उतरा हूँ। उतरते-उतरते रोटियों की एक पोटली उठा लाया हूँ।”
“रोटियों की पोटली?” कहकहाना चाहता था वह। स्थिति भांपते हुए यह कहते-कहते रुक गया कि पॉकेटमारी छोड़कर यह भिखारियों वाला धंधा कब से अपनाया ?
अपने दर्द को उलीचते हुम वह बोला, “सालों बीत गए माँ के हाथ की बनी भीनी-भीनी सुगंध वाली रोटियां खाए ! इस पोटली की रोटियों की सुगंध सह नहीं पाया और चुरा लाया।”
सुनकर साथी का चेहरा भी डूब-सा गया। भीगे स्वर में बोला, “अकेले मत खा लेना। मुझे भी खिलाना।”
“एक ही खायी है, देखो।” उसने पोटली खोली, नरम-नरम मुलायम-सी रोटियां थीं, साथ में आम का अचार। साथी ने ललचाई नज़रों से हाथ बढ़ाया। उसने उसके हाथ को बीच में ही रोक लिया, “अभी नहीं।” साथी ने प्रश्नभरी नज़रों से देखा। वह आगे बोला, “रोटी खाते हुए मेरी नज़र उस डिब्बे में चली गयी। उधर देखो, तीसरे डिब्बे में दूसरी खिड़की के पास जो अधेड़ औरत बैठी है और टकटकी लगाए पकौड़ेवाले को देख रही है, उसी की रोटियां हैं। मुझे लगा कि मेरी माँ भूखी है, इसलिए मुझसे दूसरी रोटियां नहीं खायी गयीं।”
“फिर ? क्या रोटियां लौटा दें ?”
“माँ के हाथ की तरह बनी रोटियों के स्वाद का मोह नहीं छोड़ा जा रहा। इसका मैंने बंदोबस्त कर दिया है।”
“क्या ?”
“जैसे ही गाड़ी रेंगेगी, पकौड़ेवाला गर्म-गर्म पकौड़े और डबलरोटी उसको पकड़ा देगा कि सामने जो हाथ हिला है, उसने भेजी है, शायद आपका कोई रिश्तेदार है। उसे माँ समझते हुए विदा देने के लिए हाथ हिला दूँगा। फिर हम दोनों बैठकर अपनी-अपनी माँ को याद करते हुए इन रोटियों को खायेंगे।”
“अच्छा। मैं भी हाथ हिला दूँगा।” कहते हुए दोनों गलबाही डालते हुए रो पड़े।
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योगाभ्यास

बाजू हिल रहे थे। टांगें हिल रही थीं। चेहरे हिल रहे थे। पेट हिल रहे थे। सांसें हिल रही थीं। रंग-बिरंगे कपड़े सतरंगी दृश्य उपस्थित कर रहे थे।
वे यह दृश्य देखकर ठिठक गये।
एक ने पूछा, “रघु भैया, आप हमार मुखिया हैं। हमका समझावा ई लोग का कर रहे हैं ?”
रघु ने बैनर पर लिखा पढ़कर सुनाया, “योगाभ्यास शिविर पखवाड़ा। यहाँ योग का अभ्यास करवाया जा रहा है। देखते नहीं कि सामने ऊँचे आसन पर बैठा भगवे कपड़े पहने व्यक्ति जो योगासन करता है, सभी उपस्थित लोग उसी को दोहराते हैं।”
दूसरे ने जिज्ञासा प्रगट की, “हम भी थोड़ी देर के लिए इनमें शामिल हो जाएँ ?”
रघु ने पल भर घड़ी पर नज़र डाली। मुस्कराकर बोला, “क्या करोगे शामिल होकर ? यह हमारे लिए नहीं है। यह उनके लिए है, जो ठंडे-ठंडे कमरों में बैठते हैं, कुछ फास्ट-फूड के शौकीन हैं, कुछ ठूंस-ठूंस कर खाते हैं, कुछ निठल्ले हैं।” वह पलभर रुका, फिर बोला, “हम तो सारा दिन योगाभ्यास करते हैं, मसाला बनाते हुए, तसले में डालते हुए, भाग-भाग कर उसे मिस्त्री तक पहुँचाते हैं। हमारे बाजू हिलते हैं, टांगें हिलती हैं, सांसें हिलती हैं। हमारा यहाँ क्या काम ? देर हो रही है, जल्दी चलो।”
वे गुनगुनाते हुए अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए।
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जन्म : बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान)
प्रकाशित कृतियाँ : तीन न तेरह, पूजा, आओ इन्सान बनाएं(कथा-संग्रह)
प्यासे पंछी (उपन्यास)
पुरस्कार/सम्मान : लघुकथा में शिखर सम्मान।
सम्पर्क : कोठी नं0 854-III, विक्रम मार्ग,
सुभाष कालोनी, करनाल- 132001(हरियाणा)
दूरभाष : 09213583570

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