गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

साहित्य सृजन- फरवरी 2008

मेरी बात

रूप सिंह चन्देल

हाशिये पर अनुवादक

अनुवाद के माध्यम से हम विश्व साहित्य से जुड़ते हैं । किसी भी भाषा-साहित्य की समृद्धता के लिए अन्य भाषाओं के साहित्य का अनुवाद आवश्यक है । इससे पाठक और साहित्यकार दोनों ही लाभान्वित होते हैं । यद्यपि विश्व का लगभग समस्त उत्कृष्ट साहित्य अंग्रेजी में उपलब्ध है लेकिन कितने ऐसे पाठक हैं जो अंग्रेजी में उसे पढ़ते हैं ? पाठक ही क्यों लेखक भी । अनेक अनुवादकों ने विश्व-साहित्य का इतना उत्कृष्ट अनुवाद प्रस्तुत किया कि पाठकों को, यहां तक कि उस भाषा को जानने वाले विद्वानों जिससे उस रचना का अनुवाद किया गया, यह अनुभव ही नहीं हुआ कि वे मूल नहीं अनुवाद पढ़ रहे थे । उदाहरण के लिए कथाकार स्व. अमृतराय द्वारा किए गए अनुवाद ('आदिविद्रोही' और 'अग्निदीक्षा')। स्पष्ट है कि अनुवाद दो भाषाओं के मध्य 'सेतु' का कार्य करता है । यह दायित्वपूर्ण और गंभीर कार्य होता है और उसके लिए चुनौती पूर्ण भी । अत: उसका महत्व किसी रचनाकार से कम नहीं होता । लेकिन हिन्दी में विगत कुछ समय से अनुवादक को हाशिए पर डाला जा रहा है – दूसरे शब्दों में उसकी उपेक्षा की जा रही है ।
उदाहरणार्थ पंजाबी सहित अनेक भारतीय भाषाओं के वरिष्ठ रचनाकारों की रचनाओं के साथ उनके अनुवादकों के नाम प्रकाशित नहीं होते । अनुवादक ही वह प्राणी था जिसने अमृता प्रीतम, कर्तारसिंह दुग्गल, अजित कौर आदि रचनाकारों को हिन्दी पाठकों से परिचित करवाया था । जिनके माध्यम से ये रचनाकार अपनी मूल भाषा से अधिक हिन्दी में चर्चित और समादृत हुए। अतंत: अपनी रचनाओं में उनके नामोल्लेख को अनावश्यक मानने लगे । ऐसा क्यों हुआ ? शायद रचनाकार जब हिन्दी में प्रकाशित होकर बहुचर्चित हो जाता है, अनुवादक को महत्व देना आवश्यक नहीं मानता । इस बात के लिए किसी हद तक वे अनुवादक भी दोषी हैं जो व्यावसायिक कारणों से इन रचनाकारों के नाम प्रकाशित न करने की शर्त को स्वीकार करते हुए अनुवाद करते रहते हैं ।
अनुवादकों के नाम प्रकाशित न करने की कुप्रवृत्ति का प्रारंभ संभवत: प्रकाशकों ने अपने व्यावसायिक कारणों से प्रारंभ किया जिसने अन्य भाषाओं के लेखकों में हिन्दी लेखक की पहचान पाने की दबी-छुपी आकांक्षा को उभारा । इसका परिणाम यह हुआ कि आज दूसरी भाषाओं के अनेक ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें पाठक हिन्दी का रचनाकार मानते हैं । 'वातायन' फरवरी 2008 में प्रकाशित सुशील कुमार के आलेख से अनेक हिन्दी पाठकों को पहली बार यह सूचना प्राप्त हुई कि निर्मला पुतुल हिन्दी की नहीं, मूल संथाली की कवयित्री हैं ।
मुझे आज तक अंग्रेजी में अनूदित एक भी ऐसी कृति नहीं मिली जिसमें अनुवादक का नाम प्रकाशित नहीं था। स्पष्ट है कि वहां बेईमानी नहीं है और न ही उन भाषाओं के लेखकों को किसी अन्य भाषा का लेखक बन जाने की आकांक्षा । लेखक जिस भाषा में लिखता है यदि उस भाषा में लेखन उसमें हीनताबोध उत्पन्न करता है तो उसे लिखना छोड़ देना चाहिए । पंजाबी के रचनाकार बलवंत गार्गी को किसी ने कहा था कि उन्हें अंग्रजी में नहीं अपनी मातृभाषा में लिखना चाहिए और आजीवन गार्गी पंजाबी के लेखक रहे । उन्होंनें शायद यह कभी नहीं चाहा कि वह हिन्दी या अंग्रेजी में अनूदित होकर उन भाषाओं के लेखक कहलाएं । दरअसल, यह एक ऐसा विषय है जिस पर प्रकाशक (अपने व्यावसायिक हितों से ऊपर उठकर), मूल भाषा के लेखक और अनुवादक को विचार करना है, जिससे हिन्दी पाठक भ्रम की स्थिति से बच सके । किसी भी भाषा के रचनाकार की महानता से प्रभावित होकर उसकी शर्तों के समक्ष समर्पित हो जाने वाले अनुवादकों को भी यह सोचना होगा कि वे हिन्दी का कितना अहित कर रहे हैं । जिन अनुवादकों को अंधकार में रखकर रचनाकार या प्रकाशक उनका नाम न प्रकाशित करने की धृष्टता करते हैं उन्हें इस वास्तविकता को पाठकों में उद्घाटित करने का प्रयास करना चाहिए ।
अनुवाद के विषय में एक और कुप्रवृत्ति पिछले कुछ दिनों से देखने को मिल रही है । कुछ प्रकाशक कापीराइट से बाहर विश्व के महान रचनाकारों के वर्षों पूर्व प्रकाशित अनुवादों को कुछ शब्दों के परिवर्तन के साथ छद्म नामों या अपने किसी परिचित के नाम से प्रकाशित कर रहे हैं। ऐसा फ्रांसीसी, रशियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के साहित्य के अनुवादों के साथ अधिकाशंत: हो रहा है और ऐसा उन रचनाओं के अनुवादकों के जीवित रहते ही हो रहा है । अर्थात पूंजी का खेल जारी है और अनुवादक हाशिए पर ।
यह एक ऐसी समस्या है जिस पर विद्वान रचनाकारों, अनुवादकों और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं, जो अनुवाद को प्रोत्साहन देती हैं, को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए ।

बी-3/230 , सादतपुर विस्तार ,
दिल्ली -110094
ई-मेल :roopchandel@gmail.com


हिंदी कहानी

मोबाइल
एस आर हरनोट


उसके छोटे-छोटे पांव थे। देख कर नहीं लगता था कि किसी बच्ची के होंगे। लम्बे, बेतरतीब बढ़े हुए नाखूनों से ढके उंगलियों के छोर। चमड़ी ऐसी मानो किसी नाली में कीचड़ के बीच महीनों से पड़ा पुराने जूते का चमड़ा हो। नंगे पांव जैसे ही ज़मीन पर पड़ते, बिवाईयां उधड़ने लगतीं। दर्द की टीस उठती पर भीतर ही भीतर कहीं दब कर रह जाती। उनसे खून रिसता रहता। लोगों की नजरें उन पर कम, बच्ची की अधनंगी टांगों पर ज्यादा फिसलती रहती। इससे पहले कि आखें कुछ टटोलती हुई मैली-फटी फ्राक के बीच जाए, वह झटपट कटोरा उनके मुंह के आगे कर देती-

“दे दो बाबू, दे दो… भगवान के नाम से दे दो। भला होगा।"

वह कुछ पल उनके हाव-भाव परखती। तिलों में तेल न देख कर आगे चल देती। वही सब दुहराते-गिड़गिड़ाते। किसी ने कभी एक-दो रूपए का सिक्का कटोरे में फेंक दिया तो टन्न की आवाज से उसके चेहरे पर धूप की चमक छा जाती। पथराई और उनींदी सी आंखे सहज ही भोर होने लगती। यह सिलसिला सूर्य से सूर्य तक चलता रहता। दिन भर सिक्के समेटने के चाव में उसकी भूख-प्यास उसी तरह गायब रहती जैसे उसकी देह से बचपना।

उसके हाथ का कटोरा खाली नहीं रहता। उसमें दिन-वार के हिसाब से भगवान जी बैठे रहते। सोमवार को भगवान शिवजी की मैली-सी फटी फोटो और उसके आगे धूप की जलती हुई बत्ती। इस रोज शिव सेना के कार्यकर्ता और सोमवार के व्रती लोग खूब सिक्के डाल कर पुण्य कमा लेते। शिव मन्दिर के आगे उसने कई बार बैठने का प्रयास भी किया लेकिन उधर पहले से अड्डा जमाए सीनियर भिखारी उसे भगा देते। उस वक्त अपने छोटे होने का मलाल उसे अवश्य होता।

मंगल को भगवान जी बदल जाते। शिवजी की जगह हनुमान जी ले लेते। कटोरे के ओर-छोर सिंदूर पुता रहता। इस दिन वह घूमती नहीं थी। हनुमान मन्दिर के रास्ते एक जगह डेरा जमा देती। लेकिन पूरे दिन मुश्किल से दस–बारह सिक्के भी नसीब न होते। लेकिन कटोरा प्रसाद से अवश्य भर जाया करता। कभी भाग्य में वह भी न होता। मांगते-मांगते दिन भर की थकान से अनायास जब भी उसकी आंख लगती तो हनुमान भक्त शरारती बन्दर कटोरा छीन लेते। आधा उनके पेट में तो आधा नीचे बिखर जाता। उसकी आंख जगती तो वह उन्हें भगाने-डराने की बहुत कोशिश करती पर बन्दरों पर कोई असर न होता। उल्टा जैसे उसी की खिल्ली उड़ा रहे हो। देवदार के पेड़ पर चढ़ते हुए कटोरा फेंक देते। परसाद के बीच रखे सिक्के जगह-जगह बिखर जाते। नालियों में। ढलानों पर उगी हरी घास के बीच। वह मन में रोती-विलखती उन्हें तलाशती रहती। अच्छी-खासी मशक्कत करनी पड़ती। उसके बैठने की जगह के आसपास सिंदूर पुता रहता। बाहर से आए पर्यटकों के लिए यह जगह भी श्रद्धेय हो गई थी। कई बार तो बच्ची जब वहां नहीं होती तो दो-चार सिक्के उधर फेंके रहते।

बुध और वीरवार को बच्ची का कटोरा खाली होता। उस दिन पता नहीं क्यों कोई भगवान उसमें नहीं होते। वह जगह-जगह भटकती रहती। जैसे ही कोई विदेशी पर्यटक दिखता, दौड़ती उनके पास पहुंचती। मुंह से कुछ न कहती। जानती होगी कि ‘दे दो न बाबू' से यहां काम चलने वाला नहीं। अंग्रेजी तो वह नहीं जानती। जिस अंग्रेज का पीछा पकड़ती उससे लेकर ही कुछ हटती। दिन भर यदि चार-छ: अंग्रेज भी मिल गए तो और दिनों की बनिस्बत कटोरे में अधिक धन इकट्ठा हो जाता। शाम ढलते ही वह खिलखिलाती अपनी झोंपड़ी की ओर भागती। झोंपड़ी सड़क के नीचे एक पैरापिट के बीच बनी थी। उतरते-उतरते उसका वास्ता कभी बकरी, कभी कुत्ते और कभी बच्चों से पड़ जाता। पर वह अपने में मस्त उन्हें प्यारती-दुलारती चली जाती। क्षणों में जैसे उसका बचपना लौट आया करता। उसके अम्मा-बापू भी इस कमाई से बहुत खुश हो जाते। एवज़ में उस दिन उसे खूब खाना मिल जाता।

शुक्रवार को संतोषी माता की तस्वीर कटोरे की मालिक हो जाती। कंवारी लड़कियों का पीछा बच्ची तब तक नहीं छोड़ती जब तक वह एक-आध रूपया न ले ले। शनिवार को कटोरा शनिदेव जी का हो जाता। सरसों के तेल से भरे कटोरे में एक पुराने टीन के जंग लगे टुकड़े का भगवान डोलता रहता। बच्ची को इस दिन बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती। असली पंडों से बचती-बचाती वह कई बार गिर भी पड़ती।

इतवार को बच्ची नहीं दिखती थी। शायद अवकाश पर रहती होगी।


आज जब वह काम पर निकली तो सड़क में पहुंचते ही उसका सामना एक चुनाव पार्टी से हो गया था। उसे यह पता नहीं था कि चुनाव का मौसम आ गया है। और दिनों की बनिस्बत हर जगह चहल-पहल हो गई थी। पार्टी ने उसे घेर लिया और कटोरे में पहले से विराजमान भगवान जी की जगह उन्होंने देवी-नुमा मुकुट पहने किसी महिला की तस्वीर सजा दी। पल भर में उसका कटोरा सिक्कों से भर गया। नए भगवान से बच्ची खूब प्रसन्न हो गई। उससे पहले कभी भी उसने उस तस्वीर को नहीं देखा था।

लेकिन दूसरे दिन उसका सामना एक दूसरी पार्टी से हो गया। उन्होंने बच्ची को खूब गालियां दीं। उसका कटोरा नीचे फेंक दिया। कटोरे में विराजमान तस्वीर को अपने पैरों तले रौंद दिया। जो कुछ सिक्के उसमें थे, उन्हें भी गिरा दिया। लेकिन एक नेता ने अपने साथियों को तत्काल समझा बुझा कर शान्त कर दिया। वह बच्ची के पास गया और उसे प्यार से दुलारा। खूब स्नेह जताया। फिर अपने झोले से एक भगवे रंग में रंगा कटोरा निकाला और उसके हाथ में पकड़ा दिया। फिर एक फोटो उसमें रख दी। कहा कि यह भगवान राम की है। बच्ची एकटक देखती रही। उसके लिए भगवान राम नए रूप में थे। रथ पर बैठे, पगड़ी बांधे, हाथ में धनुष पकड़े हुए हल्की छोटी मूछों वाले भगवान। उनके गले में लाल-हरे रंग का पट्टा था। जैसे ही फोटो कटोरे में सजी, सिक्कों की बरसात होने लगी। कई बार कटोरा भर जाता तो वह घर भाग कर उसे मां को दे आती और फिर निकल जाती। स्टिक्करनुमा धनुरधारी भगवान उसे दूसरे भगवानों से ज्यादा पावरफुल लगे थे।

अगले दिन जब इसी भगवान को कटोरे में सजा कर वह सड़क पर पहुंची तो अचानक उसका सामना पहले वाली पार्टी से हो गया। कार्यकर्ता उसके कटोरे में धनुषधारी भगवान को देख कर आग बबूले हो गए। एक-दो कार्यकर्ता जैसे ही उसकी तरफ बढ़े, दूसरी पार्टी अचानक धमक गई। फिर क्या था सभी एक दूसरे पर टूट पड़े। बच्ची जान बचा कर भाग निकली। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस दिन हर जगह शहर में दंगे हुए थे। बच्ची के मां-बाप ने उसे कई दिनों बाहर नहीं भेजा। लेकिन न कमाने का मलाल उन दोनों के चेहरों पर बना रहा।


चुनाव का मौसम शान्त हुआ तो एक दिन जैसे ही बच्ची अपने काम पर निकली, एक नई पार्टी से उसका सामना हो गया। उस पार्टी ने उसे प्यार से अपने पास बिठाया। घर का अता-पता पूछा और उसे वापस घर ले आए। उसके मां-बाप घर पर ही थे। उन्होंने बच्ची का सौदा अपने मोबाइल के विज्ञापन के लिए तय कर दिया। मां-बाप को एक बार ही इतने पैसे मिल गए जितने बच्ची ने आज तक की मेहनत से भी न कमाए थे। इस पर हर महीने पांच हजार और। उन्हें क्या चाहिए था।

अब बच्ची के हाथ में न कोई कटोरा होता और न कोई भगवान। न मैली फ्राक से उसका बदन ही ढका रहता। वह बिल्कुल नंगी होती। उसके नंगे बदन पर कम्पनी के नाम और मोबाइल फोन के स्टिक्कर चिपके रहते। वह दिन भर कम्पनी के बताए रास्तों पर चलती रहती। शाम होती तो कम्पनी वाले उसके बदन से अपने विज्ञापन उतार देते और वही पुरानी फ्राक पहनाकर उसे घर भेज देते।

उस मोबाइल कम्पनी ने पहाड़ों के दूर-दराज इलाकों तक पहुंचने की जद्दोजहद में अब भोले-भाले लोगों और उनके बच्चों का पुरजोर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। लेकिन लोगों के पास यह सोचने का समय ही नहीं था कि यह घुसपैठ, बाजार को उनकी बहु-बेटियों के कमरों तक ले जा रही है।


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तीन ग़ज़लें
देवी नागरानी




कोई षडयंत्र रच रहा है

क्या जन्मदाता बना हुआ है

क्या राहगीरों को मिलके राहों पर

राह को घर समझ रहा है

क्या रात दिन किस ख़ुमार में है

तू तुझ को अपना भी कुछ पता है

क्या सुर्खियां जुल्म की हैं चेहरे पर

इस पे खुश होने में मज़ा है
क्या दुष्ट 'देवी' हो कोई तुमको क्या

छोड़ इस सोच में रखा है क्या
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ये सायबां है जहां, मुझको सर छुपाने दो

करम ख़ुदा का है सब पर, वो आज़माने दो.

जो दिल के तार न छेड़े थे हमने बरसों से

उन्हें तो आज अभी छेड़ कर बजाने दो.

ख़फा न तुम हो किसी से भी देखकर कांटे

कि फूल कहता है जो कुछ, उसे बताने दो.

कभी तो दर्द भुलाकर भी मुस्कराओ तुम

न दर्द के वो पुराने कभी बहाने दो.

ख़फ़ा हुई है खुशी इस क़दर भी क्यों हमसे

ग़मों का जश् ने-मुबारक हमें मनाने दो.

उदासियों को छुपाओ न दिल में तुम 'देवी'

कभी लबों को भी कुछ देर मुस्कराने दो.

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बाकी न तेरी याद की परछाइयां रहीं

बस मेरी ज़िंदगी में ये तन्हाइयां रहीं.

डोली तो मेरे ख़्वाब की उठ्ठी नहीं, मगर

यादों में गूंजती हुई शहनाइयां रहीं.

बचपन तो छोड़ आए थे, लेकिन हमारे साथ

ता- उम्र खेलती हुई अमराइयां रहीं.
चाहत, ख़ुलूस, प्यार के रिश्ते बदल गए

जज़बात में न आज वो गहराइयां रहीं.

अच्छे थे जो भी लोग वो बाक़ी नहीं रहे

'देवी' जहां में अब कहां अच्छाइयां रहीं. 0




कवयित्री परिचय-
जन्म : 11 मई 1949, कराची में।
शिक्षा : बी ए अर्ली चाइल्ड हुड, एन जे सी यू
कृतियाँ : दो ग़ज़ल संग्रह सिन्धी में तथा एक ग़ज़ल संग्रह हिन्दी में प्रकाशित।
संप्रति : शिक्षिका, न्यू जर्सी, यू एस ए।
ई-मेल : devi1941@yahoo.com


दो लघुकथाएं
अशोक भाटिया

कपों की कहानी

आज फिर ऐसा ही हुआ। वह चाय बनाने रसोई में गया तो उसे फिर वही बात याद आ गई। उसे फिर चुभन हुई कि उसने ऐसा क्यों किया।
दरअसल उसके घर की सीवरेज पाइप कुछ दिन से रुकी हुई थी। आप जानते हैं कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति घर में सहज रूप में नहीं रह पाता। यह आप भी मानेंगे कि यदि जमादार न होते, तो हम सचमुच नरक में रह रहे होते। ख़ैर ! दो जमादार जब सीवरेज खोलने के लिए आ गए, तो उसकी सांस में सांस आयी। वे दोनों पहले भी इसी काम के लिए आ चुके हैं। एक आदमी थक जाता, तो दूसरा बांस लगाने लगता। कितना मुश्किल काम है! वह कुछ देर पास खड़ा रहा, फिर दुर्गन्ध के मारे भीतर चला गया। सोचने लगा कि इनके प्रति सवर्णों का व्यवहार आज भी कहीं-कहीं ही समानता भरा दिखता है। नहीं तो अधिकतर अमानवीय व्यवहार ही होता है। इतिहास तो जातिवादी व्यवस्था का गवाह है ही, आज भी हम सवर्ण इनके प्रति नफरत दिखाकर ही अपने में गर्व अनुभव करते हैं। यह संकीर्णता नहीं तो और क्या है? उसके मन में ऐसा बहुत कुछ उमड़ रहा था कि बाहर से आवाज़ आयी- “बाबूजी, आकर देख लो।" वह उत्साह से बाहर गया। पाइप साफ हो चुकी थी।
“बोलो, पानी या फिर चाय,” उसने पूछा।
“पहले साबुन से हाथ धुला दो,” वे बोले। शायद, वे उसकी उदारता को जानते थे। वह उनके प्रति अपनी उदारता को याद कर खुश होने लगा। हाथ धुलवाते हुए उसने जान-बूझकर दोनों के हाथों को स्पर्श किया ताकि उन पर उसकी उदारता का सिक्का जमने में कोई कसर न रह जाए। पैसे तो पूर देगा ही, पर लगे हाथ एक अवसर मिल गया। बोला- “एक बार साबुन लगाने से हाथों की बदबू नहीं जाती। रसोई की नाली रुकी थी तो मैंने कल हाथ से गंद निकाला था। उसके बाद तीन बार हाथ धोये, तब जाकर बदबू गई।"
“बाबूजी, हमारा तो रोज़ का यही काम है। थोड़ी चाय पिला दो।"
वह यही सुनना चाहता था। यह तो मामूली बात है। इनके प्रति हमारे पूर्वजों द्वारा किए अन्याय से प्रायश्चित के रूप में हमें बहुत कुछ करना चाहिए। लेकिन क्या? यह वह नहीं सोच पाया। वह रसोई में बड़े उत्साह के साथ चाय बनाने में जुट गया। चाय का सामान डालकर उसने तीन कप निकाले। एक कप बड़ा लिया और दो कप छोटे। फिर सोचा, यह भेदभाव ठीक नहीं। उन्हें चाय की ज़रूरत मुझसे ज्यादा है। सोचकर उसने तीनों कप एक-से उठाये। ऐसे और कई कप रखे थे लेकिन उसने एक कप साबुत लिया और दो ऐसे लिए जिनमें क्रैक पड़े हुए थे। उधर चाय में उफान आया, तो उसने फौरन आंच धीमी कर दी।

बेपर्दा

नज़मा आज सुबह तक लियाकत अली की पहली बीवी थी। वह तमाम वक्त शौहर के हुक्म की तामील करती रही थी। उसने भी रिवायत के मुताबिक नज़मा को पैरों की जूती बनाकर रखा था।
लेकिन आज न जाने क्यों लियाकत ने “तलाक, तलाक, तलाक” कहकर नज़मा पर क़हर बरसा दिया। नज़मा ने कहा, “खुदा के वास्ते ऐसा न करो।"
लियाकत बोला, “अब तुम जहाँ चाहो, जा सकती हो।"
नज़मा पढ़ी-लिखी थी। वह भावना में बहकर बोली, “सुनो, तुम्हारे बिना मैं नहीं रह सकती।"
“बेगैरत, हमारी रवायत में आज तक किसी ने अपने शौहर से ऐसे लफ्ज नहीं कहे। मेरी तरफ से चाहे तुम ज़हन्नुम में जाओ।"
यह सुनकर नज़मा के दिलो-दिमाग में आँधियाँ चलने लगीं। पलभर में बहुत कुछ नेस्तोनाबूद हो गया। उसने कहा, “जो सुख मैंने तुम्हें दिया है, उसके बदले क्या यह ज़हन्नुम ही मुझे मिलेगा?” लियाकत फुंकार भरकर बोला, “कमबख़्त, बदजात कहीं की! मेहर की रकम मैंने तुम्हें किसलिए दी थी?”
“तुमने तो पहली रात मुझे अपने तन-मन में बसाने का वादा भी किया था। वो क्या हुआ?”
“देखो, हमारे यहाँ एक अच्छी बीवी हमेशा अपने शौहर का हुक्म मानती है। औरत को एक औरत से ज्यादा होना शोभा नहीं देता।"
नज़मा तीखी हो गई, “ये फतवे पुराने हो चुके हैं। मेरा क्या दिल नहीं, कोई तमन्ना नहीं जो तुम…”
लियाकत ने बीच में टोक दिया, “जबान सम्हालो, वरना तुम्हें ज़हन्नुम में भी जगह नहीं मिलेगी।"
नज़मा ने उठते हुए कहा, “ज़हन्नुम में मैं और रहना भी नहीं चाहती।"
वह बेटों का हाथ थामकर उठी और बोली, “चलो बेटा, तुम्हारा बाप मर चुका है।" कहकर दहलीज लाँघ गई।
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भाषांतर
धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-1)

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

‘हाजी मुराद' लियो तोलस्तोय द्वारा उम्र के आखि़री दौर में लिखा गया ऐतिहासिक उपन्यास है। यह एक ऐसी उत्कृष्ट कृति है, जो उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हुई थी या जिसकी पर्याप्त चर्चा नहीं हो सकी थी। इस उपन्यास का नायक वास्तविक जीवन से लिया गया है, जो तत्कालीन इतिहास का अति महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। वह काकेशस प्रांत के क़बीलाई फौजों का जनरल था, जिसने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में रूसी प्रभुसत्ता का प्रतिरोध किया था, लेकिन वह चेचेन्या के शासक शमील का भी विरोधी था और उससे प्रतिशोध लेने के लिए उसने रूसियों के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। हाजी मुराद के माध्यम से तोलस्तोय ने चेचेन्या समस्या का गंभीर अध्ययन प्रस्तुत किया है।

‘हाजी मुराद' का हिन्दी अनुवाद वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल ने किया है और पहली बार यह उपन्यास ‘संवाद प्रकाशन' आई.-499, शास्त्रीनगर, मेरठ-250004 (उ प्र) से प्रकाशित हुआ है। “साहित्य सृजन” के इस अंक से हम इस उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन प्रारंभ कर रहे हैं। प्रस्तुत है- “हाजी मुराद” की पहली किस्त…

हाजी मुराद की भूमिका

मध्य गर्मियों का दिन था, मैं खेतों के रास्ते घर जा रहा था । खेतो में घास मौजूद थी और राई कटने के लिए तैयार थी । वर्ष के इन दिनों में खिले फूलों का चुनाव अदभुत था । लाल-सफेद-गुलाबी, सुगन्धित और रोंयेदार तिपतिया; दूध जैसे सफेद पर केन्द्र में चमकीले, पीले एवं मधु-कटु गन्ध वाले अक्षिपुष्प; मधुर सुगन्धि फैलाती पीली जंगली सरसों; लंबे, गुलाबी और सफेद धतूरे के घण्टाकार फूल; मोठ की चढ़ती बेलें; पीले, लाल और गुलाबी खुजलीमार पौधे; शान्त- गम्भीर बैंजनी कदली, जो नीचे पीली होने का सन्देह देती है और जिसमें से एक तीखी सुवास फूटती है; चमकीली नीली अनाज बूटियॉं जो सन्ध्या होने पर अरुणिम हो जाती हैं तथा बादामी गंध वाली कोमल वल्लरियॉं खिली हुईं थीं।
मैंने अलग-अलग फूलों के बडे़-बड़े गुच्छ तोड़ लिए थे और मैं घर की ओर बढ़ रहा था। तभी मैंने खाईं में उगा और पूरी तरह खिला बैंजनी गोखरू का एक शानदार पौधा देखा। इसे हम ‘तातार' कहते हैं। यह कभी दरांती से काटा नहीं जाता और यदि कभी संयोग से कट भी जाये तो घसियारे अपने हाथों को इसके कांटों से बचाने के लिए इसे घास में बीन कर फेंक देते हैं। मैंने सोचा, मैं इस कंटीले फूल को उठा लूं और इसे अपने फूलों के गुच्छे के बीच रख लूं। बस, मैं खाईं में उतर गया। एक झबरा-सा भौंरा तृप्त होकर फूल के बीच गहरी नींद में सोया पड़ा था। पहले मैंने उसे वहॉं से भगाया। अब मैंने फूल तोड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन यह दुष्कर सिद्ध हुआ, क्योंकि डंठल कांटों से भरा हुआ था। मैंने अपने हाथ पर रूमाल लपेट लिया था, लेकिन वे रूमाल को बेध गये। डंठल भयंकर रूप से इतनी मजबूत थी कि मैं पॉंच मिनट तक उससे जूझता रहा और उसके रेशों को एक-एक करके तोड़ता रहा। अंतत: जब मैं फूल तोड़ने में सफल हुआ, तब डण्ठल फूटकर छितर चुकी थी। यह फूल भी उतना ताजा और सुन्दर प्रतीत नहीं हुआ। उसका रुक्ष स्थूल स्वरूप गुच्छे के दूसरे फूलों से मेल नहीं खा रहा था। मुझे पश्चाताप हुआ कि मैंनें एक फूल को खराब कर दिया, जो अपनी जगह खिला हुआ ही सुन्दर था। मैंने उसे फेक दिया। ‘‘कितनी ऊर्जा और जीवन-शक्ति!" अपने उस प्रयास को याद करते हुए मैंने सोचा, जो मैंने उसे तोड़ने में किया था। ‘‘कैसी निराशोन्मत्तता के साथ उसने अपना जीवन बचाने के लिए संघर्ष किया और फिर कैसे प्यार के साथ स्वयं को समर्पित कर दिया था।"
मेरे घर का रास्ता ताजे जुते और परती पड़े खेतों के बीच से होकर धूल भरी काली धरती पर से ऊपर की ओर जाता था। जुती हुई जमीन एक बहुत विस्तृत धर्मशुल्क भूमि थी और इसके दोनों ओर और सामने जहाँ तक नजर जाती थी, बस हल से बने सीधे खांचे, जिन पर अभी हेंगा नहीं चलाया गया था, ही दीख पड़ते थे। खेतों को भलीभॉंति जोता गया था, जिससे एक भी पौधा या घास की कोई पत्ती ऊपर निकली दीख नहीं रही थी। केवल काली जमीन ही सामने थी। ‘‘मानव कितना विध्वसंक प्राणी है ! अपने जीवन निर्वाह के लिए वह किस प्रकार प्राकृतिक जीवन को ही नष्ट कर डालता है," उस जड़ काली धरती पर किसी सचेतन जीव को अनजाने ही खोजते हुए मैंने सोचा। तभी सामने मार्ग के दाहिनी ओर एक गुच्छा-सा कुछ मुझे दीख पड़ा। जब मैं निकट गया तो मैनें देखा कि यह भटकटैया (तातार) का एक गुच्छा था।
इस ‘तातार' की तीन शाखाएं थीं। एक टूट कर नीचे पड़ी हुई थी। इसका बचा हुआ भाग, कटी बांह के टुकडे़ की भॉंति पौधे से चिपका हुआ था। शेष दो में से प्रत्येक में एक फूल था। वे फूल कभी लाल रहे होगें लेकिन अब काले पड़ चुके थे। एक डंठल टूटी हुई थी। इसका ऊपर का आधा भाग अपने अंतिम छोर पर एक बदरंग फूल को लिए लटक रहा था। लेकिन इसका दूसरा हिस्सा ऊपर की ओर सीधा तना हुआ था। पूरा पौधा हल के पहिए के द्वारा कुचला जाकर विखंडित हो वक्राकार हो गया था। लेकिन वह तब भी खड़ा हुआ था, जबकि उसके शरीर का एक भाग विनष्ट हो चुका था, इसकी अंतडि़यॉं निकल आयी थीं, इसका एक हाथ और एक आँख समाप्त हो चुके थे, फिर भी वह उद्धत खड़ा दिख रहा था, इसके बावजूद कि मनुष्य ने इसके आस-पास के सहोदरों को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। ‘‘कितनी ऊर्जा" मैंने सोचा, ‘‘मनुष्य ने सब कुछ जीतने में, घास की लाखों पत्तियों को नष्ट करने में खर्च की होगी, फिर भी यह अपराजित-सा खडा़ है।"
तभी मुझे काकेशस की एक पुरानी कहानी याद आ गयी, जिसके कुछ हिस्से को मैंने स्वयं देखा, कुछ प्रत्यक्षदर्शियों से सुना और शेष को मैंने अपनी कल्पना से पूरा किया। वही कहानी, जिस रूप में मेरी स्मृति और कल्पना में साकार हुई, यहॉं प्रस्तुत है …
-तोलस्तोय
हाजी मुराद

॥ एक ॥

1851 के नवम्बर की एक ठण्डी शाम। रूसी सीमा से लगभग पन्द्रह मील दूर चेचेन्या के एक लड़ाकू गांव मचकट में जलते हुए उपलों का तीखा धुआं उठ रहा था, जब हाजी मुराद ने वहॉं प्रवेश किया। अजान देनेवाले मुअज्जिनों का उच्च तीखा स्वर अभी-अभी रुका था और जलते उपलों की गंध से भरी शुद्ध पहाड़ी हवा में नीचे झरने के पास इकट्ठे, बहस करते पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों की कंठ ध्वनियॉं सुनाई दे रही थीं। ये ध्वनियॉं बाड़ों में बन्द किए जा रहे पशुओं और भेड़ों के रंभाने और मिमियाने से ऊपर उठी सुनी जा सकती थीं। पशु और भेड़ें बाड़ों में वैसे ही ठूंसी जा रही थीं जैसे मधुमक्खी के छत्ते में मधुमक्खियॉं।
हाजी मुराद शमील का एक लेफ्टीनेण्ट था जो रूसियों के विरुद्ध शौर्यपूर्ण कार्यों के लिए विख्यात था। वह उसे घेर कर चलते दर्जनों मुरीदों-अनुयाइयों या शिष्यों के साथ, अपने निजी ध्वज के नीचे ही युद्धों में भाग लिया करता था। वह सिर पर टोपी पहने हुए था और उसने लबादा ओढ़ रख था। उसकी राइफल की नाल बाहर निकली दीख रही थी। अपने एक मुरीद के साथ, सड़क पर मिले ग्रामीणों के चेहरों पर अपनी सतर्क काली, तेज आँखों से एक सरसरी दृष्टि डालता हुआ और अपनी ओर उनका ध्यान कम से कम आकर्षित करने का प्रयास करता हुआ वह आ रहा था। हाजी मुराद जब गॉंव के बीच में पहुंचा, तो चौराहे तक जाने वाली सड़क के बजाय वह बांयीं ओर संकरी गली में मुड़ गया। गली में वह दूसरे मकान के सामने पहुंचा, जो पहाड़ी के नीचे दबा-सा दीखता था। यहॉं वह रुका और उसने चारों ओर देखा। उस मकान के आगे सायबान के नीचे कोई नहीं था, लेकिन छत पर नया पलस्तर की गई मिट्टी की चिमनी के पीछे फर का कोट पहने एक आदमी खड़ा था। हाजी मुराद ने चाबुक फटकार कर और जीभ से ट्क-ट्क की आवाज कर उसका ध्यान आकर्षित किया। रात की टोपी और फर के कोट से झिलमिलाता हुआ दिखाई देता एक पुराना वस्त्र पहने वह एक वृद्ध व्यक्ति था। उसकी धुंधली आँखों पर बरौनियाँ नहीं थीं और पलकों को खोलने के लिए वह उन्हें मिचका रहा था। हाजी मुराद ने रिवाजी ढंग से उसे ‘सलाम आलेकुम' कहा और अपना चेहरा दिखाया।
‘आलेकुम सलाम' वृद्ध ने कहा, जिससे उसके दंतहीन मसूढ़े दीखाई पड़े। हाजी मुराद को पहचानते ही वह अपने दुर्बल पैरों को घसीटते हुए चिमनी के पास पड़ी लकड़ी के तलों वाली अपनी चप्पलों तक ले गया। फिर घीमे से और सावधानीपूर्वक उसने अपनी बाहें सकुड़नों भरी मिरजई की आस्तीनों में डालीं और छत से लगी सीढ़ी से चेहरा सामने करके नीचे उतरने लगा। वृद्ध ने धूप से झुलसी दुबली-पतली गर्दन पर टिका सिर हिलाया और दंतहीन जबड़ों से निरंतर बुदबुदाता रहा। जब वह नीचे पहुंचा तब उसने विनम्रतापूर्वक हाजी मुराद के घोड़े की लगाम और दाहिनी रकाब पकड़ ली, लेकिन हाजी मुराद का मुरीद फुर्ती से घोड़े से उतरा और उसने वृद्ध का स्थान ले लिया। उसे एक ओर हटाकर उसने घोड़े से उतरने में हाजी मुराद की सहायता की। हाजी मुराद घोड़े से उतरकर हल्का-सा लंगड़ाता हुआ सायबान के नीचे आया। लगभग पन्द्रह वर्ष का एक लड़का दरवाजे से निकलकर उसकी ओर आया और अपनी छोटी चमकदार आँखों से आगन्तुक को विस्मयपूर्वक देखने लगा।

‘‘दौड़कर मस्जिद तक जा और अपने पिता को बुला ला।" वृद्ध ने उससे कहा। इसके पश्चात् उसने बत्ती जलाई और चरमराहट के साथ हाजी मुराद के लिए घर का दरवाजा खोला। जिस समय हाजी मुराद घर में प्रवेश कर रहा था पीले ब्लाउज और नीले पायजामे पर लाल गाउन पहने एक कृशकाय वृद्धा कुछ गद्दे लिए हुए अंदर के दरवाजे से आयी।

‘‘आपका आगमन सुख-शान्ति लाए," वह बोली और अतिथि के लेटने के लिए सामने की दीवार के साथ दुहरा करके गद्दे बिछाने लगी।

‘‘आपके बेटे जीवित रहें”, हाजी मुराद ने अपना लबादा, राइफल और तलवार उतारकर वृद्ध के हवाले करते हुए कहा।

वृद्ध ने सावधानीपूर्वक राइफल और तलवार गृहस्वामी के हथियारों के साथ दो बड़े प्लेटों के बीच खूंटी पर लटका दिये जो अच्छे ढंग से पलस्तर की हुई सफेदी पुती दीवार पर चमक रहे थे। हाजी मुराद ने पिस्तौल को संभालकर अपने पीछे रख लिया। वह गद्दे के पास आया। उसने अपनी ट्यूनिक उतारकर रख दी और गद्दे पर बैठ गया। वृद्ध अपनी नंगी एडि़यों पर टिककर उसके समने बैठ गया। उसने अपनी आँखे बंद कर लीं और हथेलियों को उभारते हुए हाथ ऊपर उठाये। हाजी मुराद ने भी वैसा ही किया। फिर दोनों चेहरे पर धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए इस प्रकार सस्वर नमाज अदा करने लगे कि उनके हाथ दाढ़ी की नोक का बार-बार स्पर्श करते रहे।

‘‘ ने हबार ? (कोई समाचार)? " हाजी मुराद ने वृद्ध से पूछा।

‘‘हबार योक (कोई समाचार नहीं है)।" वृद्ध ने लाल और उदासीन आँखों से हाजी मुराद के चेहरे के बजाय उसकी छाती की ओर देखते हुए उत्तर दिया। ‘‘मैं मधुमक्खियों में गुजारा करता हूँ, और इस समय मैं अपने बेटे को देखने आया हूँ। समाचार वही जानता है।"

हाजी मुराद ने अनुमान लगाया कि वृद्ध बात नहीं करना चाहता। उसने अपना सिर हिलाया और अधिक कुछ नहीं कहा।
‘‘अच्छा समाचार नहीं है।" वृद्ध बोला, ‘‘समाचार केवल यह है कि खरगोश सदैव चिन्तित रहते हैं कि उकाबों को किस प्रकार दूर रखा जाये और उकाब उन्हे एक-एक कर झपट रहे हैं। पिछले सप्ताह रूसी कुत्तों ने मिशिको में भूसा जला डाला था। लानत है उनकी आँखों को," वृद्ध गुस्से से बुदबुदाया।
हाजी मुराद का मुरीद मजबूत लंबे डग भरता हुआ धीमे से प्रविष्ट हुआ। अपना लबादा, राइफल और तलवार उसने उतार दी जैसा कि हाजी मुराद ने किया था और उन्हे उसी खूंटी पर टांग दिया जिस पर उसके स्वामी के टांगे गये थे। केवल अपनी कटार और पिस्तौल उसने अपने पास रखी।
‘‘ वह कौन है?” मुरीद की ओर देखते हुए वृद्ध ने पूछा।
‘‘वह एल्दार है, मेरा मुरीद," हाजी मुराद ने कहा।
‘‘बिल्कुल ठीक" वृद्ध बोला और हाजी मुराद के पास गद्दे पर आसन गृहण करने के लिए उसे इशारा किया। एल्दार पैर पर पैर रखकर बैठ गया और बातें कर रहे वृद्ध के चेहरे पर अपनी बड़ी खूबसूरत आँखें स्थिर कर दीं। वृद्ध ने उन्हें बताया कि उनके योद्धाओं ने सप्ताह भर पहले दो रूसी सैनिकों को पकड़ा था। एक को मार दिया था और दूसरे को शमील के पास भेज दिया था। हाजी मुराद ने दरवाजे की ओर सरसरी दृष्टि डाली और बाहर से आने वाली आवाज पर ध्यान केन्द्रित करते हुए अन्यमनस्क भाव से वृद्ध की बात सुनी। घर के सायबान के नीचे कदमों की आहट थी। तभी दरवाजा चरमराया और गृहस्वामी ने प्रवेश किया।
गृहस्वामी, सादो, लगभग चालीस वर्ष का व्यक्ति था। उसकी दाढ़ी छोटी, नाक लंबी और आँखें उसी प्रकार काली थीं, यद्यपि उतनी चमकदार नहीं थीं, जैसी उसके पन्द्रह वर्षीय पुत्र की थीं जो उसे बुलाने गया था। वह भी अंदर आया और दरवाजे के पास बैठ गया। सादो ने अपने लकड़ी के जूते उतार दिए। बिना हजामत किए हुए ठूंठी जैसे काले बालोंवाले बड़े सिर पर से जीर्ण-शीर्ण फर की टोपी को उसने पीछे हटाया और तुरंत हाजी मुराद के सामने पाल्थी मारकर बैठ गया।
उसने उसी प्रकार आँखें बंद कर लीं, जिस प्रकार वृद्ध ने की थीं और हथेलियों को उभारते हुए हाथों को ऊपर उठाया। उसने सस्वर नमाज अदा की और बोलने से पहले चेहरे पर धीरे-धीरे अपने हाथ फेरे। फिर उसने कहा कि शमील ने हाजी मुराद को जीवित या मृत पकड़ने का आदेश भेजा था। शमील का दूत कल ही वापस गया था, और इसलिए सावधान रहना उनके लिए आवश्यक था।
‘‘मेरे घर में, जब तक मैं जीवित हूँ” सादो ने कहा, ‘‘कोई भी मेरे मित्र को नुकसान नहीं पहुँचा सकता। लेकिन बाहर के विषय में कौन जानता है ? हमें इस पर विचार करना चाहिए।"
हाजी मुराद ने एकाग्रतापूर्वक उसकी बात सुनी और सहमति में सिर हिलाया, और जैसे ही सादो ने बात समाप्त की, वह बोला -
‘‘हूँ … अब मुझे पत्र देकर एक आदमी रूसियों के पास भेजना है। मेरा मुरीद जाएगा, लेकिन उसे एक मार्ग-दर्शक की आवश्यकता है।"
‘‘मैं अपने भाई बाटा को भेजूंगा," सादो ने कहा। ‘‘बाटा को बुलाओ," उसने अपने बेटे से कहा।
लडका उत्सुकतापूर्वक अपनी टांगों को उछालता और बाहों को लहराता हुआ तेजी से घर से बाहर निकल गया। दस मिनट बाद वह गहरे ताम्बई रंग, छोटी टांगों वाले एक हृष्ट-पुष्ट चेचेन के साथ लौटा। उसने आस्तीनों पर रोंयेदार मुलायम चमड़े का पैबंद लगा चिथड़ा पीला ट्यूनिक, और लंबी काली पतलून पहन रखी थी। हाजी मुराद ने आगन्तुक को अभिवादन किया और एक भी शब्द व्यर्थ किए बिना तुरंत बोला :
‘‘क्या तुम मेरे मुरीद को रूसियों के पास ले जाओगे ?"
‘‘मैं ले जा सकता हूँ।" बाटा ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया। ‘‘मैं कुछ भी कर सकता हूँ। कोई भी चेचेन ऐसा नहीं है जो मुझसे बढ़कर हो। कुछ लोग आते हैं और आपसे दुनिया भर के वायदे करते हैं, लेकिन करते कुछ नहीं, लेकिन मैं यह कर सकता हूँ।"
‘‘अच्छा" हाजी मुराद बोला। ‘‘इस काम के लिए तुम्हें तीन रूबल मिलेंगे।" तीन उंगलियॉं दिखाते हुए उसने कहा।
बाटा यह प्रदर्शित करता हुआ सिर हिलाता रहा कि वह समझ गया है, लेकिन उसने आगे कहा कि वह पैसा नहीं चाहता, वह केवल आदर भाव के कारण हाजी मुराद की सेवा के लिए तैयार हुआ था। पहाड़ों में सभी इस बात को जानते हैं कि हाजी मुराद ने किस प्रकार रूसी सुअरों की पिटाई की थी।"
‘‘इतना ही पर्याप्त है।" हाजी मुराद बोला, ‘‘एक रस्सी को लंबा होना चाहिए, लेकिन भाषण छोटा होना चाहिए।"
‘‘तो मैं चुप रहूंगा।" बाटा बोला।
‘‘झरने के सामने जहॉं आर्गुन मोड़ है, वहॉं जंगल में एक खुला स्थान है और वहॉं सूखी घास के दो ढेर हैं। तुम्हे उस स्थान के विषय में मालूम है ?"
‘‘ मुझे मालूम है।‘‘
‘‘मेरे तीन घुड़सवार वहॉं मेरा इंतजार कर रहे हैं।" हाजी मुराद ने कहा।
‘‘अहा।" सिर हिलाते हुए बाटा बोला।
‘‘खान महोमा को पूछना। खान-महोमा जानता है कि क्या करना है और क्या कहना है। क्या तुम उसे रूसी प्रधान, प्रिन्स, वोरोन्त्सोव के पास ले जा सकते हो ?"
‘‘मैं ले जा सकता हूँ।"
‘‘उसे ले जाओ और वापस ले आओ। ठीक ?"
‘‘बिल्कुल ठीक।"
‘‘उसे लेकर जंगल में वापस आओ। मैं वहीं हूंगा।"
‘‘मैं यह सब करूंगा," अपनी छाती पर अपने हाथों को दबाकर, उठकर खड़े होते हुए और बाहर जाते हुए बाटा ने कहा।
‘‘एक दूसरा आदमी मुझे घेखी के पास भेजना आवश्यक है," बाटा के चले जाने के बाद हाजी मुराद ने अपने मेजबान से कहा। ‘‘यह घेखी के लिए है," ट्यूनिक की एक थैली को पकड़ते हुए उसने कहना जारी रखा, लेकिन जब उसने दो महिलाओं को कमरे में प्रवेश करते हुए देखा, उसने तुरन्त हाथ बाहर निकाल लिया और रुक गया।
उनमें से एक सादो की पत्नी थी। वही दुबली-पतली अधेड़ महिला, जिसने लाकर गद्दे बिछाये थे। दूसरी लाल पायजामे पर हरे रंग का वस्त्र पहने एक युवती थी जिसके वस्त्र के वक्ष भाग में धागे से चॉंदी के सिक्के जड़े हुए थे। चॉंदी का एक रूबल उसके मांसल स्कंधस्थल के बीच लटकती मजबूत काली चोटी के अंत में लटका हुआ था। वह कठोर दिखने का प्रयास कर रही थी, लेकिन पिता और भाई की भॉंति मनकों जैसी उसकी आँखें उसके चेहरे पर झपक रही थीं। उसने आगन्तुकों की ओर नहीं देखा, लेकिन स्पष्ट रूप से वह उनकी उपस्थिति से अवगत थी।
सादो की पत्नी एक नीची गोल मेज में चाय, मक्खनवाले मालपुआ, चीज, पावरोटी और मधु लेकर आयी थी। लड़की एक कटोरा, एक सुराही और एक तौलिया लायी थी।
जब तक दोनों महिलाएं मुलायम तलों वाले जूतों से खामोश कदम रखती हुई मेहमानों के सामने सामान रखती रहीं; तब तक सादो और हाजी मुराद चुप रहे। जब तक महिलाएं कमरे में रहीं एल्दार अपनी बड़ी आँखें आड़े-तिरछे रखे पैरों पर गड़ाये पूरे समय मूर्तिवत बैठा रहा था। जब दोनों महिलाएं कमरे से बाहर चली गयीं और दरवाजे के पीछे उनके कदमों की आवाज आनी बंद हो गयी, तब एल्दार ने राहत की ठण्डी सांस ली और हाजी मुराद ने अपनी ट्यूनिक की एक थैली को पकड़ा, उसके अंदर ठुंसी एक गोली, और उसके नीचे लपेट कर रखा पत्र निकाला।
‘‘इसे मेरे बेटे तक पहुँचाना है।" पत्र दिखाते हुए वह बोला।
‘‘ और उत्तर ?" सादो ने पूछा।
‘‘तुम उसे ले लेना और उसे मुझे भेज देना।"
‘‘यह हो जाएगा,” सादो ने कहा और पत्र को अपनी ट्यूनिक की जेब में रख लिया। फिर उसने सुराही अपने हाथ में पकडा और कटोरा हाजी मुराद की ओर सरकाया। हाजी मुराद ने बाहें उघाड़ी, जिससे उनका गोरापन और मांसपेशी दिखाई दीं। उसने अपने हाथों को स्वच्छ ठण्डे पानी की धार के नीचे किया जिसे सादो सुराही से ढाल रहा था। जब हाजी मुराद ने मोटे साफ तौलिये से हाथ सुखा लिये, वह भोजन के लिए मुड़ा। एल्दार ने भी वैसा ही किया। जब वे भोजन कर रहे थे, सादो उनके सामने बैठा रहा था और उनके आगमन के लिए उसने उन्हें अनेक बार धन्यवाद कहा था। लड़का दरवाजे के पास बैठा, अपनी चमकती काली आँखों से उन पर मुस्करा रहा था मानो वह अपने पिता के शब्दों की पुष्टि कर रहा था।
यद्यपि हाजी मुराद ने चौबीस घण्टों से अधिक समय से भोजन नहीं किया था, फिर भी उसने बहुत थोड़ी ब्रेड और चीज खायी और ब्रेड पर चाकू से थोड़ा-सा मधु लगाया।
‘‘हमारा शहद अच्छा है। यह वर्ष शहद के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, और अच्छी गुणवत्ता वाला है," वृद्ध ने कहा और यह देखकर प्रसन्न हुआ कि हाजी मुराद उसका शहद खा रहा था।
‘‘शुक्रिया," हाजी मुराद ने कहा और भोजन लेना छोड़ दिया। एल्दार अभी भी भूखा था, लेकिन अपने स्वामी की भॉंति ही वह भी मेज से हट गया और उसने हाजी मुराद की ओर कटोरा और सुराही बढ़ाया।
सादो जानता था कि हाजी मुराद को रखकर वह अपने जीवन को खतरे में डाल रहा था। जब से हाजी मुराद का शमील के साथ झगड़ा हुआ था, मृत्यु का भय दिखाकर सभी चेचेन- वासियों के लिए उसका स्वागत ममनूअ (निषिद्ध) कर दिया गया था। वह जानता था कि ग्रामीणों को किसी भी क्षण उसके घर में हाजी मुराद के मौजूद होने की जानकारी हो सकती है और वे उसके आत्मसमर्पण की मांग कर सकते हैं। लेकिन घबड़ाने के बजाय वह प्रसन्न था। वह मानता था कि यह उसका कर्तव्य है कि वह अपने मेहमान की रक्षा करे, भले ही इसके लिए उसे अपने प्राण गंवाने पड़ें। उसने इस बात से अपने को प्रसन्न और गौरवान्वित अनुभव किया कि वह एक ‘ड्यूटी कमाण्डेण्ट' की भॉंति व्यवहार कर रहा था।
‘‘जब तक आप मेरे घर में हैं और मेरा सिर मेरे कंधों पर है, कोई भी आपको नुकसान नहीं पहुँचा पायेगा," उसने पुन: हाजी मुराद से दोहराया।
हाजी मुराद ने उसकी चमकदार आँखों की ओर देखा और समझ गया कि वह सच कह रहा था।
‘‘ तुम्हे खुशी और लंबी उम्र मिले।" उसने औपचारिकतापूर्वक कहा।
सादो ने नेक शब्दों के लिए इशारे से इल्तज़ा करते हुए अपनी छाती को अपने हाथों से दबाया।
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जब हाजी मुराद ने किवाड़ बन्द किये और जलाने के लिए तैयार लकडि़यॉं अंगीठी में डालने लगा, सादो विशेषरूप से प्रसन्नचित और सजीव मन:स्थिति में कमरे से विदा हुआ और घर के पीछे की ओर परिवार के लिए बने कमरों में चला गया। महिलाएं उस खतरनाक मेहमान के विषय में बातें करतीं हुई, जो आगे के कमरे में रात बिता रहा था, अभी तक जाग रही थीं।
(क्रमश: जारी…)

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गतिविधियाँ

छठा अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव : एक रिपोर्ट
हिन्दी का उत्सवी विमर्श

''हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के बढ़ते प्रयोग और समन्वय से हिन्दी और अधिक समृद्ध होगी... हिन्दी के संबंध में जो भी अभियान चलाया जाना है वह गैर सरकारी संस्थाओं की पहल से ही संभव हो सकेगा... हिन्दी के बढ़ते आयामों और वैश्विक प्रभाव को देखते हुए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी अब सही मायनों में विश्व भाषा बन गई है...'' भारत के गृहराज्यमंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल की इस उद्धोषणा के साथ अक्षरम् का छठा अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव प्रारंभ हुआ।
वैश्विक हिन्दी विमर्श और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से सजा-धजा यह त्रिदिवसीय हिन्दी उत्सव 1 से 3 फरवरी, 2008 को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और हिन्दी भवन में भव्यता और गरिमा के साथ चला। विश्व में प्रतिवर्ष होने वाला हिन्दी का यह सबसे बड़ा अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव देश-विदेश में चर्चा का विषय बना है। उत्सव में बड़ी संख्या में प्रवासी साहित्यकारों, हिन्दी सेवियों, हिन्दी के विदेशी विद्वानों की सक्रिय भागीदारी से इसका अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप सामने आता है जो कि वैश्विक स्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के प्रयासों को निरन्तर पुष्ट कर रहा है। इस उत्सव को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, साहित्य अकादमी और उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान का विशेष सहयोग तो प्राप्त हुआ ही साथ ही अन्यान्य व्यक्तियों, संस्थानों और न्यासों ने भी हिन्दी के इस महायज्ञ में अक्षरम् को यथासंभव सहयोग-सहायता प्रदान की है।
उत्सव की उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि इस बार एक ही समय में तीन-तीन समानान्तर आकादमिक सत्रों के आयोजन का अभिनव प्रयोग किया गया। हिन्दी से जुड़े कई नये विषयों को समाहित किया गया और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के स्वरूप में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए ताकि उत्सव में और निखार आ सके।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् के महानिदेशक पवन वर्मा, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा. गोपीचन्द नारंग, उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के उपाध्यक्ष गोपाल चतुर्वेदी, अक्षरम् के संरक्षक डा. प्रभाकर श्रोत्रिय, डा. अशोक चक्रधर, डा. सीतेश आलोक, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव 2008 की आयोजन समिति के अध्यक्ष और गीतांजलि बहुभाषी समुदाय, बर्मिंघम ;ब्रिटेन के अध्यक्ष डा. कृष्ण कुमार के मार्गदर्शन में आयोजित इस हिन्दी महोत्सव में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् की ओर से गगनांचल के संपादक अजय गुप्ता और साहित्य अकादमी की ओर से उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने सक्रिय भागीदारी करते हुए समुचित समन्वय किया।
तीन दिन के इस उत्सव का मुख्य संयोजन अक्षरम् के संयोजक अनिल जोशी ने किया। उत्सव के समन्वय का दायित्व अक्षरम् के अध्यक्ष नरेश शांडिल्य ने संभाला और सभी अकादमिक संत्रों के संयोजन में हिन्दी के प्रखर विद्वान डॉ. विमलेश कांति वर्मा ने प्रमुख भूमिका निभाई।
उद्धाटन समारोह
'हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के बढ़ते प्रयोग और समन्वय से हिन्दी और अधिक समृद्ध होगी' तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव का उद्धाटन करते हुए माननीय गृह राज्यमंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने यह बात कही।
भाषाई समन्वय विषय पर आयोजित उद्धाटन सत्र में विचार रखते हुए वरिष्ठ साहित्यकार कन्हैयालाल नंदन ने कहा कि हिन्दी और उर्दू के बीच की खाई में हाल के वर्षों में काफी कमी आई है और इस दिशा में हिन्दी प्रेमियों को और अधिक प्रयास करना चाहिए। अमेरिका के टैक्सास विश्वविद्यालय के प्रो. हरमन वॉन ऑल्फन ने विभिन्न देशों के संदर्भ में पिछले 10 वर्षों में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की उपलब्धियों को महत्वपूर्ण मानते हुए भारत से बाहर के देशों में हिन्दी और उर्दू में किसी भी प्रकार के अन्तर की स्थिति से इंकार किया। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति प्रो. जी. गोपीनाथन ने डॉ. रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति की अवधारणा को अस्वीकार करते हुए कहा कि हिन्दी जाति का विस्तार अब उत्तर भारत ही नहीं दक्षिण भारत और गैर हिन्दी क्षेत्रों में भी तेजी से हो रहा है। इस अवसर पर भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् के महानिदेशक डॉ. पवन वर्मा ने उत्सव के सफल आयोजन की शुभकामना दी, जबकि आन्ध्राप्रदेश हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष वाई. लक्ष्मी प्रसाद ने दक्षिण के हिन्दी लेखकों को हिन्दी में समुचित स्थान देने की बात पर जोर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रो. सादिक ने अनेक उदाहरणों के माध्यम से हिन्दी के धार्मिक ग्रन्थों और साहित्य के उर्दू में अनुवाद को महत्वपूर्ण माना।
भाषाई समन्वय विषय का प्रवर्तन करते हुए ब्रिटेन के गीतांजलि बहुभाषी समुदाय के अध्यक्ष डॉ. कृष्ण कुमार ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के समन्वय की दिशा में काम करने की जरूरत पर बल दिया। उत्सव की प्रस्तावना करते हुए उत्सव के मुख्य संयोजक अनिल जोशी ने कहा कि हिन्दी के लिए अब किसी राजनैतिक आन्दोलन की नहीं एक रचनात्मक अभियान की जरुरत है, जिसके लिए समन्वयकारी सोच और प्रयासों की आवश्यकता है ताकि हिन्दी का अत्याधुनिक तकनीक जैसी चीजों से समन्वय हो सके। उत्सव का संचालन चैतन्य प्रकाश ने किया। वाणी प्रकाशन के प्रमुख अरूण माहेश्वरी इस सत्र के स्वागताध्यक्ष थे। सत्र का संयोजन डॉ. कृष्ण कुमार ने किया।

वैश्वीकरण के दौर में मीडिया
उत्सव के पहले दिन वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी मीडिया विषय पर अपना वक्तव्य देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. सुधीश पचौरी ने कहा कि हिन्दी क्षेत्र को मीडिया ने अंग्रेजी के चश्मे से देखा है जो ठीक नहीं है। साथ ही उन्होंने मीडिया में हो रहे बदलावों का स्वागत भी किया। वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने आशंका व्यक्त करते हुए कहा कि आने वाले 20 वर्षों में हिन्दी मीडिया का अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका होगा, जबकि माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्राकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानन्द मिश्र ने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के अखबारों में गम्भीर विमर्श के लगभग गायब रहने पर चिन्ता व्यक्त की। अपना अध्यक्षीय व्यक्त्व देते हुए डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध पूरी ताकत के साथ किए जाने की वकालत की। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार एवं आउट लुक के सम्पादक आलोक मेहता ने वैश्वीकरण की चुनौतियों से निपटने के सूत्र खोजने की जरूरत बताई। अजीत द्विवेदी, पंकज दूबे, संजय तिवारी आदि ने विषय पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे। सत्र का संयोजन एवं संचालन प्रख्यात पत्रकार ओंकारेश्वर पांडे ने किया। हिन्दी जागरण से जुड़े पत्रकार चंडीदत्त शुक्ल सत्र के सह-संयोजक थे।

दलित सन्त साहित्य
उत्सव में दलित सन्त साहित्य विषय पर आयोजित सत्र में पूर्व राज्यपाल श्री माता प्रसाद ने जहां दलित का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए संतों का व्यापक संदर्भ दिया वहीं इष्ट देव सांकृत्यायन ने भक्ति आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में कबीर, तुलसी आदि भक्तों-संतों का मंतव्य रखा, जबकि संतों के आर्थिक दृष्टिकोण को रखते हुए उनकी आर्थिक प्रासंगिकता तथा वैश्विक सार्थकता को रामसजन पांडेय ने उद्धाटित किया। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात साहित्यकार डॉ. महीप सिंह ने कहा कि वेद समर्थक और वेद विरोधी दो समानान्तर चिंतन परम्पराएं मिलती हैं, लेकिन संसार में सभी धर्मों को उन धर्मों के पुरोहितों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए दिग्भ्रमित किया है। सत्र में रमेशचन्द्र मिश्र, डा. सुनीता रानी आदि वक्ताओं ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस सत्र में विषय प्रवर्तन हिन्दी के प्रसिद्ध कवि-लेखक डा. बलदेव वंशी ने किया। सत्र का संचालन डा. जवाहर कर्नावट ने किया। डा. बलदेव वंशी इस सत्र के संयोजक भी थे।




रचना संसार
राजनीतिक दलों अथवा विचारधाराओं से परे हिन्दी साहित्य ही हिन्दी समाज का वास्तविक प्रतिपक्ष हैं यह बात अंतरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव के दूसरे दिन आयोजित 'रचना संसार' सत्र के दौरान प्रख्यात आलोचक अशोक वाजपेयी ने कही। इस अवसर पर ब्रिटेन से आए प्रवासी साहित्यकार श्री सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि प्रवासी लेखकों की पीड़ा भारत के लेखकों से भिन्न है और इंग्लैंड के प्रवासियों ने इस दिशा में शून्य से शुरूआत की है। समकालीन रचना संसार के संबंधा में अपना विचार व्यक्त करते हुए प्रसिद्ध आलोचक प्रो. अजय तिवारी ने कहा कि बाजारवाद के इस दौर में शिक्षा, धर्म, पुण्य सब कुछ खरीदा और बेचा जा रहा है और साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। सत्र का विषय प्रवर्तन कथाकार डा. हरजेन्द्र चौधरी ने किया। संचालन साहित्य अकादमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने किया। डा. हरजेन्द्र चौधरी सत्र के संयोजक और सुधा उपाधयाय सह-संयोजक थे।

हिन्दी और प्रौद्योगिकी
हिन्दी और प्रौद्योगिकी विषय पर आयोजित तीसरे सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. अशोक चक्रधर ने कहा कि आशा और निराशा के बीच में हिन्दी अपने विकास के लिए फड़फड़ा रही है और ज्ञान का सृजन भाषा प्रौद्योगिकी के सहयोग से होगा। ओम विकास ने बीज वक्तव्य में कहा कि हिन्दी का प्रसार अंग्रेजी की शब्दावली का प्रयोग करते हुए ही बढ़ेगा। डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा कि कम्प्यूटर, सूचना और नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग को मिलाकर भाषा विकास के लिए काम करना चाहिए जबकि जयदीप कर्णिक का कहना था कि अभी हिन्दी में नौ भारतीय भाषाओं में देश का एकमात्र 'पोर्टल' वेब दुनिया है, यह स्थिति चिन्ताजनक है। सत्र में बालेन्दु दाधीच डा. एस. एस. अग्रवाल, स्वर्णलता, डा. वी.एन. शुक्ल आदि ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। सत्र का संयोजन व संचालन डा. कृष्ण कुमार गोस्वामी ने किया। डा. संजय सिंह बघेल ने सह-संयोजक की भूमिका निभाई।



हिन्दी ग़ज़ल और दोहा
हिन्दी ग़ज़ल और दोहा विषय पर आयोजित दूसरे सत्र में प्रख्यात ग़ज़लकार कुंअर बेचैन ने कहा कि चीजें अच्छी भी बनती हैं और बुरी भी किन्तु परिपक्वता ही रचना को कालजयी बनाती है। इस अवसर पर अपने आलेख पाठ में कमलेश भट्ट 'कमल' ने कहा कि कविता को मरने से लयात्मकता ही बचा सकती है। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार बालस्वरूप राही का कहना था कि विधा हमेशा अपने शिल्प के साथ आती है और शिल्प या व्याकरण को छोड़कर केवल विधा को अपनाने से रचना प्रभावशाली नहीं होती। सत्र में नरेश शांडिल्य ने बीज वक्तव्य दिया। इसके अतिरिक्त नवाब शाहाबादी, शशिकांत, हरेराम समीप ने भी अपने विचार रखे। सत्र का संयोजन व संचालन लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने किया।

रचनाओं और रचनाकारों पर बनी फिल्में
इस सत्र में छोटी अवधि की दो फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। पहली फिल्म 'कालजयी मनीषा' प्रख्यात साहित्यकार स्व. रामविलास शर्मा के जीवन पर आधारित थी। इस फिल्म का लेखन-निर्देशन प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश ने किया है। दूसरी फिल्म 'कगार की आग' वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी के उपन्यास पर आधारित थी। जिसके निर्माता-निर्देशक शैलेन्द्र गोयल हैं। उल्लेखनीय बात यह रही कि स्व. डा. रामविलास शर्मा के अनुज रामशरण शर्मा 'मुंशी' इस मौके पर उपस्थित रहे और उन्होंने कुछ मार्मिक प्रसंग भी सुनाए। सत्र का संचालन व संयोजन अलका सिन्हा ने किया।

अन्तरराष्ट्रीय कवि गोष्ठी
उत्सव में होने वाले अन्तरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन की रूपरेखा में कुछ बदलाव करते हुए पहली बार कवि सम्मेलन के अतिरिक्त 'अन्तरराष्ट्रीय कवि गोष्ठी' का आयोजन भी किया गया। कवि गोष्ठी की अध्यक्षता गगनांचल के संपादक अजय गुप्ता ने की। कवयित्री मंजू जैन, प्रवासी टुडे के संस्थापक दयाल शर्मा विशिष्ट अतिथि के रूप में विद्यमान थे। कवि गोष्ठी में देश-विदेश से लगभग 30 कवि-कवयित्रियों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। प्रवासी कवियों में जहां अजय त्रिपाठी, उषा वर्मा, विमल शर्मा, जय वर्मा आदि प्रमुख थे, वहां देश से डा. शेरजंग गर्ग, नवाब शाहाबादी, राजेश राज, गायत्री आर्य, सत्या त्रिपाठी, सुधा उपाध्याय, शशिकांत, बरखा रानी, नमिता राकेश आदि ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इस अवसर पर डॉ. कृष्ण कुमार द्वारा संपादित पुस्तक 'सूरज की सोलह किरणें' का लोकार्पण कमला सिंघवी ने किया। प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में गीतांजली बहुभाषी समुदाय; बर्मिंघम, के सोलह कवि-कवयित्रियों की रचनाएं संकलित है। गोष्ठी का संचालन प्रसिद्ध ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव ने और संयोजन नरेश शांडिल्य ने किया।

अनुवाद विमर्श
अनुवाद विमर्श विषय पर आयोजित सत्र की अध्यक्षता कर रहे रूस से आये वरिष्ठ साहित्यकार मदन लाल मधु ने कहा कि हिन्दी और रूसी साहित्य के अनुवादों के माध्यम से भारत और रूस के बीच मजबूत पुल बनाने में महत्वपूर्ण सहायता मिली है, जबकि मुख्य अतिथि जिलियन राइट ने अनुवाद की अनेक बारीकियों और चुनौतियों को उद्धाटित किया। केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो के निदेशक दंगल झाल्टे ने सरकारी क्षेत्र में हो रहे अनुवाद के महत्व को रेखांकित किया। अन्य वक्ताओं में एन.टी.पी.सी. के राजेन्द्र मिश्र, जे.एन.यू. के डॉ. रंजीत साहा, दि.वि.वि. के डा. पूरण सिंह टंडन और यूनियन धारा पत्रिका की संपादिका सुलभा कोरे ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। मिनी गिल और दयाशंकर पांडेय ने संवादी की भूमिका में अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संयोजन व संचालन विनोद संदलेश ने किया।

देश में हिन्दी
'बोलियों ने ही हिन्दी को समृद्ध किया है और बोलियों को समृद्ध करना हिन्दी को ही समृद्ध करना है' यह बात 'देश में हिन्दी' विषय पर आयोजित सत्र के दौरान प्रभाकर श्रोत्रिय ने कही। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि हिन्दी के संबंध में शुद्धतावादी और स्वछंदतावादी दोनों ही दृष्टिकोणों को छोड़कर एक समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाना होगा। इस सत्र में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो. शम्भूनाथ ने हिन्दी शिक्षण को आधुनिक बनाने पर बल देते हुए कहा कि आधुनिक तकनीक की सहायता से ही हिन्दी से संबंधित धरोहर को सुरक्षित रखा जा सकता है। इस अवसर पर वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष के. विजय कुमार का मानना था कि हिन्दी की वैज्ञानिक और तकनीकी कठिनाईयों के संबंध में प्रचलित धारणाएं ठीक नहीं हैं और व्यवहार में प्रयोग से इसे और आसानी से स्वीकारा जा सकेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रो0 रमेश गौतम ने कहा कि अंग्रेजी और हिन्दी का बंटवारा केवल भाषिक ही नहीं आर्थिक भी है। सत्र में बीज वक्तव्य भारत भवन के प्रमुख मनोज श्रीवास्तव ने पेश किया। कवि-पत्रकार हरेन्द्र प्रताप, मानव संसाधन मंत्रालय की अपर निदेशक कुसुमवीर, साहित्य अकादमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने भी अपने विचार रखे। सत्र का संचालन नरेश शांडिल्य ने किया। हिन्दी विद्वान नारायण कुमार इस सत्र के संयोजक थे। इस दौरान युवा लेखक नवरत्न पांडे के कहानी संग्रह 'चिंदी चिंदी अक्स' का लोकार्पण प्रभाकर श्रोत्रिय के हाथों सम्पन्न हुआ।

हिन्दी अध्ययन और अनुसंधान
हिन्दी अध्ययन और अनुसंधान विषय पर आयोजित सत्र में अपना बीज वक्तव्य देते हुए डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा ने पाठय सामग्री की अनुपलब्धता के कारण विदेशी छात्रों को भारत में हिन्दी भाषा सीखने में होने वाली कठिनाईयों को चिन्ताजनक माना और विश्वभर में हिन्दी की स्वीकार्यता और अध्ययन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में हो रही प्रगति की जानकारी दी। दूसरी तरफ गिरिराजशरण अग्रवाल ने शोध को रोजगार से जोड़ने की आवश्यकता जतायी। सत्र की अध्यक्षता कर रहे टैक्सास विश्वविद्यालय, अमेरीका के प्रो0 हरमन वान ऑल्फन ने विदेशों में हिन्दी में शोध की स्थिति की जानकारी देते हुए यह दावा किया कि एक दिन अमेरीका विश्व का सबसे बड़ा हिन्दी महाद्वीप बनेगा। सत्र में महेन्द्र वर्मा; (यू.के.), अरविन्द कुमार, डा. नवीनचन्द्र लोहानी आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन व संयोजन डा. राजेश कुमार ने किया।

तुलसी साहित्य की विश्व व्यापकता
तुलसी साहित्य की विश्व व्यापकता विषय पर आयोजित सत्र में अपना बीज वक्तव्य देते हुए प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित ने तुलसी के जन्म स्थान से जुड़ी विभिन्न भ्रान्तियों के संबंध में बहुत से उदाहरण देते हुए किसी सर्वसम्मत निर्णय तक पहुंचने पर जोर दिया। जबकि राम मूर्ति त्रिपाठी ने तुलसी की समन्वयकारी दृष्टि को उजागर करते हुए भक्ति के माध्यम से विश्वभर में इसकी लोकप्रियता को उद्धाटित किया। डॉ0 कृष्ण कुमार ने तुलसी के जन्म से जुड़े किसी भी निर्णय तक पहुंचने के लिए वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाने की बात पर जोर दिया। विशिष्ट अतिथि डॉ0 सीतेश आलोक ने सम-सामयिक परिस्थितियों में रची जा रही साहित्यिक कृतियों के सामाजिक, राजनैतिक आधार को तुलसी साहित्य से जोड़कर उसकी सार्थकता को प्रकाशित किया। सभा की अध्यक्षता कर रहे लल्लन प्रसाद व्यास ने रामकृपा को आधार बनाकर रचे गए तुलसी साहित्य की व्यापकता के विभिन्न पक्षों को उजागर किया। इस अवसर पर पूर्व राजदूत डा. वीरेन्द्र ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। सत्र का संचालन हरजेन्द्र चौधरी ने किया। सत्या त्रिपाठी सत्र संयोजक की भूमिका में रहीं।

विदेश में हिन्दी
विदेश में हिन्दी विषय पर आयोजित सत्र में अपना बीज वक्तव्य मधु गोस्वामी ने दिया। इसके वक्ता प्रो. अश्विनी श्रीवास्तव एवं संवादी (देश) सुभाष कुमार एवं रवि टेकचन्दानी तथा संवादी (विदेश) भूदेव शर्मा, ऊषा वर्मा, बी.एम. गुप्ता, जय वर्मा, स्नेह ठाकुर और अजय त्रिपाठी थे। सत्र का संचालन डॉ. हरीश नवल द्वारा किया गया।


कारपोरेट जगत और हिन्दी
अंतिम दिन 3 फरवरी 2008 को भोजन के बाद इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्सी में आयोजित सत्र में 'कारपोरेट जगत और हिन्दी' विषय पर चर्चा हुई। इस सत्र की अध्यक्षता कलकत्ता विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष, मीडिया एवं प्रौद्योगिकी से जुड़े समाज शास्त्रीय विवेचन के विशेषज्ञ डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने की। सत्र के मुख्य अतिथि सीएनबीसी आवाज चैनल के एक्जक्यूटिव प्रोडयूसर दिलीप मंडल थे। विशिष्ट अतिथि के रूप में इंस्टीटयूट ऑफ कॉस्ट एंड वर्क्स अकाउंट्स के अध्यक्ष चन्द्र वधावा तथा पंजाब नेशनल बैंक के अंचल प्रबंधक आर.के. दूबे उपस्थित थे। सत्र के प्रारंभ में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर डॉ. सुधा सिंह ने बीज वक्तव्य रखते हुए हिन्दी के बदलते हुए स्वरूप की व्यावहारिकता को रेखांकित करते हुए कहा कि हिन्दी जनभाषा के रूप में विकसित होने से ही बाजार के लिए उपयोगी हो सकेगी। फिक्की के व्यापार मेला निदेशक संजय गंजू ने कहा कि हिन्दी की संप्रेषणीयता को समृद्ध किये जाने की जरूरत है। वॉग कमर्शियल कंपनी के गोपाल अग्रवाल ने हिन्दी को बाजार की जरूरतों के अनुसार ढालने की आवश्यकता प्रतिपादित की। चार्टर्ड अकाउंटेंट कैलाश गोदूका ने बाजार के प्रभाव से मुक्त हिन्दी की वकालत की। मुख्य अर्थशास्त्री डॉ. हरबंस सिंह गिल ने विभागों में हिन्दी के नाम पर हो रही औपचारिकता के बजाय इसे सामान्य जन तक पहुंचाने पर जोर दिया। विशिष्ट अतिथि श्री चन्द्र वधवा ने व्यावहारिक और उपयोगी हिन्दी के कारपोरेट जगत में उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं को उद्घाटित किया। श्री आर.के. दूबे ने हिन्दी की समृद्धी के लिए इसे सामान्य समाज के लिए सरल और सुगम बनाए जाने का विचार रखा। मुख्य अतिथि दिलीप मंडल ने कारपोरेट जगत में हिन्दी की उपयोगिता और महत्ता पर प्रकाश डाला। अध्यक्षता करते हुए डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने मीडिया, समाज और कारपोरेट जगत के संबंधों को विद्वतापूर्ण शैली में स्पष्ट करते हुए हिन्दी को देश के स्वाभाविक जनजीवन की भाषा की तरह विकसित करने और भारतीय भाषाओं के साथ जुड़े रहने की जरूरत पर जोर दिया। डॉ. चतुर्वेदी ने ऐतिहासिक उतार चढ़ावों की मीमांसा करते हुए बाजारवाद के दुष्प्रभाव में भाषाओं की दुर्गति पर चिंता व्यक्त की। संचालन चैतन्य प्रकाश ने किया।
वैश्विक प्रभाव और हिन्दी बाल साहित्य
अक्षरम् के अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव 2008 के अन्तर्गत प्रख्यात बाल साहित्यकार और अपने समय की बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका 'पराग' के संपादक डॉ. हरिकृष्ण देवसरे की अध्यक्षता में 3 फरवरी को अपराह्न 2 बजे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कांफ्रेंस रूम में 'वैश्विक प्रभाव और हिन्दी बाल साहित्य' विषय पर एक अकादमिक सत्र का आयोजन किया गया। विमर्श की शुरुआत करते हुए श्री ओमप्रकाश कश्यप ने कहा कि बाल साहित्य सदैव हमारे घर-परिवार और लोकाचार का हिस्सा रहा है लेकिन तीव्र शहरीकरण की मार से किस्सागोई की परंपरा को भुला दिया गया। अब वही बाल साहित्य इंटरनेट के अलावा सीडी, डीवीडी जैसे इलेक्ट्रानिक माध्यमों से अपने पाठकों तक पहुंचने का प्रयास कर रहा है। हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी की प्रतिष्ठित बाल साहित्य लेखिका श्रीमती सुरेखा पाणंदीकर ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए जोर देकर कहा कि आज के समय में हमें बच्चों के प्रश्नों से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उनका समुचित जवाब देना चाहिए। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए अनेक पुस्तकें लिख चुके साहित्यकार श्री रामकुमार कृषक ने हिन्दी और तमाम भारतीय भाषाओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य की चर्चा में हस्तक्षेप किया तो बाल मनोविज्ञानी डॉ. कविता अरोड़ा ने कहानियों के शैक्षिक प्रभाव पर जोर देते हुए हिन्दी में ऐसी किताबों के अभाव की बात की जिनसे बच्चे तादात्म्य स्थापित कर सकें। कुल्लू मनाली से आये लोकप्रिय बाल साहित्यकार श्री सैन्नी अशेष ने टूटे हुए परिवारों के बच्चों को केन्द्र में रखकर कहा कि हमारा ध्यान हाशिए के इन बच्चों पर भी जाना चाहिए। प्रतिष्ठित हिन्दी कवि और आलोचक डॉ. दिविक रमेश, जो इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि थे, ने कहा कि ऐसा लगता है जैसे हमसे बच्चों के पालन-पोषण में ही चूक हो रही है। संवादी विजय मिश्र ने बच्चों के पाठयक्रम में रंगमंच को शामिल करने की जोरदार मांग की। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि राष्ट्रीय बाल भवन की पूर्व निदेशक डॉ. मधु पंत ने बच्चों में सकारात्मक बालचेतना विकसित करने की बात की तो अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने मीडिया द्वारा बच्चों को अंधविश्वासी बनाये जाने की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि आज की विचार गोष्ठी से जो मुद्दे सामने आये हैं, निश्चित तौर पर उनके दूरगामी प्रभाव होंगे और ये गोष्ठी आगे और भी विमर्शों का मार्ग प्रशस्त करेगी। इस पूरे कार्यक्रम का संयोजन युवा कवि और आलोचक देवेन्द्र कुमार देवेश ने किया था और संचालन युवा साहित्यकार रघुवीर शर्मा ने किया।
सम्मान अर्पण समारोह एवं कवि सम्मेलन
तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव के समापन समारोह में देश-विदेश के हिन्दी के विविध क्षेत्रों के 18 विद्वानों जिनमें डॉ कैलाश वाजपेयी को अक्षरम् साहित्य शिखर सम्मान, राहुल देव को अक्षरम् मीडिया शिखर सम्मान, महामहिम मुकेश्वर चुन्नी; (मॉरीशस) को अक्षरम् प्रवासी शिखर सम्मान, अरविन्द कुमार को अक्षरम् विशिष्ट हिन्दी सेवा सम्मान, दाऊजी गुप्त को अक्षरम् हिन्दी सेतु सम्मान, डॉ. गोविन्द व्यास को अक्षरम् वाचिक परम्परा सम्मान, पंकज जैन; (वेब-दुनिया - सी.ओ.ओ.) को अक्षरम् हिन्दी प्रौद्योगिकी सम्मान, विश्वनाथ को अक्षरम् हिन्दी प्रकाशन सम्मान, गिरिराज शरण अग्रवाल को अक्षरम् हिन्दी सेवा सम्मान, मीना अग्रवाल को अक्षरम् हिन्दी सेवा सम्मान, जगदीश मित्तल को अक्षरम् हिन्दी सेवा सम्मान, डा. नरेन्द्र व्यास को अक्षरम् विशिष्ट हिन्दी सेवा सम्मान, जिलियन राइट (ब्रिटेन) को अक्षरम् अनुवाद सम्मान, भूदेव शर्मा (अमेरीका) को अक्षरम् विशिष्ट हिन्दी सेवा सम्मान, प्रो. हरमन वॉन ऑलफन (अमेरीका) को अक्षरम् हिन्दी शिक्षण सम्मान, बी.एम. गुप्ता (ब्रिटेन) को अक्षरम् संस्कृति सम्मान, महेन्द्र वर्मा (ब्रिटेन) को अक्षरम् प्रवासी हिन्दी शिक्षण सम्मान, उषा वर्मा (ब्रिटेन) को अक्षरम् प्रवासी साहित्य सम्मान, गंगाधार जसवानी (दुबई) को अक्षरम् हिन्दी सेवा सम्मान से सम्मानित किया गया।
इस अवसर पर विश्व हिन्दी सचिवालय की महानिदेशक श्रीमती विनोद बाला अरुण ने अपना उदगार व्यक्त करते हुए कहा कि भारतीय डायसपोरा के देश मिलकर हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करेंगे। जबकि साहित्यकार व राजनेता श्री रत्नाकर पांडेय ने कहा कि अब वह समय आ गया है जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र में उचित स्थान मिलना चाहिए।
समापन समारोह के अवसर पर अक्षरम् के अध्यक्ष नरेश शांडिल्य द्वारा उत्सव प्रतिवेदन पढ़ा गया, जिसमें उत्सव के दौरान आयोजित विभिन्न अकादमिक सत्रों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जानकारी दी गई। छठे अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव के मुख्य संयोजक अनिल जोशी ने इस अवसर पर सातवें अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव के 26, 27, 28 दिसंबर 2008 के आयोजन की घोषणा की और उपस्थित विद्वानों एवं आयोजन से जुड़े सदस्यों का धन्यवाद ज्ञापन किया।

सांस्कृतिक कार्यक्रम
वैश्विक-हिन्दी विमर्श से जुड़े भिन्न-भिन्न विषयों पर केन्द्रित 15 अकादमिक सत्रों में गंभीर विचार-मंथन के साथ-साथ हमेशा की तरह इस बार भी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव में सायंकालीन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के कारण ही इस भव्य आयोजन को एक उत्सवी रूप मिलता है। ऐसे सत्रों की लोकप्रियता के कारण इनमें भारी मात्रा में दर्शक-श्रोता भाग लेते हैं, जिससे उत्सव को सार्थकता तो मिलती ही है साथ ही साथ भाषा और संस्कृति का परस्पर लगाव भी दृष्टिगोचर होता है। इस बार 'अक्षरम्' ने पूर्व की तरह नाटक और भव्य अन्तरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन का कार्यक्रम तो रखा ही, इसके साथ-साथ पहली बार एक रंगारंग 'संगीत संध्या' का आयोजन भी किया जिसमें देश-विदेश के प्रतिष्ठित व नवोदित रचनाकारों की रचनाओं का गायन किया गया। कवि सम्मेलन में इस बार कवियों की संख्या को बहुत सीमित रखा गया ताकि प्रत्येक कवि को पर्याप्त समय मिल सके और श्रोता काव्य-पाठ का भरपूर आनन्द ले सकें। इन सभी कार्यक्रर्मों में दर्शकों-श्रोताओं की उत्साहजनक भागीदारी ने हमें भी स्फूर्ति और उल्लास से भर दिया। इन सभी कार्यक्रमों का आयोजन हिन्दी भवन के मुख्य सभागार में किया गया।

नाटक
उत्सव के पहले दिन प्रतिष्ठित नाटय संस्था 'अस्मिता थिएटर ग्रुप' द्वारा तैयार नाटक 'कोर्ट मार्शल' का प्रदर्शन किया गया। स्वदेश दीपक द्वारा लिखित और सुप्रसिद्ध नाटय-निर्देशक अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित यह नाटक पहले से ही काफी चर्चित रहा है। इस नाटक को 'दलित-विमर्श' की एक सशक्त रचना के रूप में भी देखा जा सकता है। किस प्रकार एक छोटी जाति में पैदा हुआ व्यक्ति प्रतिभावान होते हुए भी जातिगत विसंगति को उम्र भर 'अभिशाप' की तरह ढोता है, यहां तक कि सेना जैसे अनुशासित सेवा क्षेत्र में भी। नाटक में दिखाया गया है कि कैसे रामचन्दर नाम का छोटी जाति में पैदा हुआ एक सिपाही सवर्ण जाति के अपने अधिकारियों के तानों और शोषण से इस कदर तंग आ जाता है कि वह अपने एक अधिकारी की हत्या तक कर बैठता है। सेना, जहां जाति के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है, वहां भी जातिगत वितृष्णा के कुत्सित-स्वरूप से रूबरू कराता यह नाटक हमें झकझोर कर रख देता है। 'कोर्ट मार्शल' हमें एक साथ कानूनी और कविताई न्याय का आस्वाद भी देता है, जिसे एक कुशल निर्देशक ने मंझे हुए कलाकारों के जरिए बड़ी ही खूबसूरती और कसे हुए अंदाज में पेश किया है। अपने चुस्त संवादों, नाटकीय पहलुओं और धारदार व्यंग्य के कारण भी यह नाटक दर्शकों की स्मृति में देर तक रहेगा। अक्षरम् की ओर से इस सत्र का संयोजन डॉ. विक्रम सिंह ने किया। सह-संयोजक के रूप में गीता जोशी व श्रीकांत की भूमिका सराहनीय रही।
संगीत संध्या
उत्सव के दूसरे दिन एक शानदार और रंगारंग 'संगीत संध्या' का आयोजन किया गया। इसमें देश-विदेश के प्रतिष्ठित हिन्दी कवियों-ग़ज़लकारों की प्रसिद्ध रचनाओं की शर्मा बहनों द्वारा संगीतमय प्रस्तुति ने श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया। लगा कि मानो मंच पर साक्षात संगीत की 'त्रिधारा' आन मिली तो - माधुरी शर्मा, कीर्ति शर्मा और विधि शर्मा के रूप में संगीत की 'गंगा-यमुना-सरस्वती' का यह अनूठा संगम एक आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति करा रहा था। देश के कोने-कोने में 200 से अधिक संगीत-कार्यक्रम देने के अतिरिक्त इन बहनों के चार संगीत-एलबम जारी हो चुके हैं। विधि शर्मा तो हाल ही में आयोजित ए.आर. रहमान की गायन-प्रतियोगिता 'एफ.एम. फीवर-104' में उप-विजेता भी रही हैं।
इस कार्यक्रम का शुभारम्भ अक्षरम् के मुख्य संरक्षक रहे, स्व. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के हिन्दी-गीत - 'हिन्दी हम सबकी परिभाषा' के गायन से किया गया। विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए विशेष तौर पर लिखे उनके इस गीत को जब श्रद्धांजलि स्वरूप गाया गया तो पूरा सभागार अश्रुमिश्रित करतल ध्वनि से गूंज उठा। आदरणीया कमला सिंघवी की मौजूदगी ने भी इन क्षणों को और अधिक यादगार बना दिया। उनकी डबडबाई आंखें न बोलते हुए भी बहुत कुछ बोल रही थीं।
इसके अतिरिक्त कार्यक्रम में माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद के गीत, बालस्वरूप राही व सोहन राही (ब्रिटेन) की ग़ज़लें, मदनलाल मधु (रूस) व सत्येन्द्र श्रीवास्तव (ब्रिटेन) के गीतों के साथ-साथ शशिकांत की ग़ज़ल व नरेश शांडिल्य के दोहों की भी संगीतमय प्रस्तुति हुई। श्रोताओं की जबरदस्त तालियों ने इस कार्यक्रम की सफलता पर अपनी मुहर लगाई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता पद्मभूषण विदुषी डॉ. शन्नो खुराना ने की। विशिष्ट अतिथि पुंज लॉयड के सत्यनारायण पुंज, समाज सेवी संतोष तनेजा, नन्दकिशोर गर्ग, भुवन मोहन, ब्रजमोहन गुप्ता (ब्रिटेन) आदि की उपस्थिति ने कार्यक्रम को और अधिक गरिमा प्रदान की। कार्यक्रम का संचालन नरेश शांडिल्य ने किया। शशिकांत ने कार्यक्रम के संयोजक की भूमिका निभाई।

अन्तरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन
अक्षरम् के इस चर्चित और प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन में इस बार देश-विदेश के जाने-माने मंचीय कवियों को ही आमंत्रित किया गया था। कवि सम्मेलन की अध्यक्षता देश के प्रख्यात गीतकार ग़ज़लकार बालस्वरूप राही ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे अग्रवाल पैकर्स एवं मूवर्स के प्रमुख रमेश अग्रवाल और महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज, अग्रोहा के उपाध्यक्ष जगदीश मित्तल ने आमंत्रित कवियों को 'स्मृति चिन्ह' भेंट कर सम्मानित किया।
प्रवासी कवियों में जहां वेदप्रकाश 'वटुक' (अमेरीका) और मदनलाल मधु (रूस) ने अपनी कविताओं और गीतों से समा बांधा, वहीं डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव (ब्रिटेन) ने अपने ही अंदाज और तेवर की कविताएं प्रस्तुत कर खूब वाहवाही लूटी।
डा. अशोक चक्रधर के हास्य-व्यंग्य का अपना ही अंदाज था। उन्होंने 'नैनो' कार पर एक बहुत ही चुटीली रचना पेश की। डॉ. कुंवर बेचैन का आती-जाती सासों वाला गीत खूब सराहा गया। गजेन्द्र सोलंकी ने राष्ट्रीय चेतना के स्वर गुंजाए तो मुम्बई से पधारे राजेश रेड्डी ने रोजमर्रा जिन्दगी से जुड़ी अपनी ग़ज़लों के एक-एक शेर पर भरपूर दाद दी। बालस्वरूप राही अपनी पूरी फार्म में दिखे। अपने चिरपरिचित अंदाज में उन्होंने ग़ज़लों और गीतों को अत्यंत प्रभावी ढंग से पेश किया।
कवि सम्मेलन का कुशल संचालन व संयोजन आज के प्रसिद्ध कवि राजेश चेतन ने किया।
प्रस्तुति : नरेश शांडिल्य

18वाँ नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला(2 फरवरी- 10 फरवरी 2008)



नई दिल्ली के प्रगति मैदान में नेशनल बुक ट्र्स्ट, इंडिया की ओर से 18वाँ विश्व पुस्तक मेले का आयोजन (2 फरवरी 2008 से 10 फरवरी 2008) किया गया। इस मेले में हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी प्रकाशकों की पुस्तकों के स्टाल भी लगे। इस अवसर पर अनुराग प्रकाशन से प्रकाशित चेतना भाटिया की पुस्तक “ प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया”, भावना प्रकाशन से सुभाष चंदर की पुस्तक “हिंदी व्यंग्य का इतिहास”, राजकमल प्रकाशन से भगवानदास मोरवाल के उपन्यास “रेत” तथा एक कहानी संग्रह आदि पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित कथाकार रूपसिंह चंदेल द्वारा लिखित /अनुदित दो पुस्तकें - लियो तोलस्तोय का ऐतिहासिक उपन्यास “हाजी मुराद” और “दास्तोएवस्की के प्रेम” (जीवनी) आकर्षण का विषय रहीं।

इस पुस्तक मेले में 9 फरवरी को आलेख प्रकाशन के तत्वावधान में ‘भूमंडलीकरण से साहित्यिक पुस्तक–प्रकाशन जगत पर पड़ने वाले प्रभाव’ से उठते सवालों पर ‘भूमंडलीकरण के दौर में पुस्तक की भूमिका’ विषय पर एक सेमीनार का भी आयोजन किया गया। दो सत्रों के इस सेमीनार के विषय थे– ‘बदलती दुनिया, बदलता पाठक’ तथा ‘पुस्तक को लोकप्रिय कैसे बनाया जाए?’ सेमीनार के उद्घाटन के अवसर पर सुप्रतिष्ठित शिक्षाविद् एवं आलोचक डा0निर्मला जैन ने कहा कि ग्लोबलाइजेशन की चमक–दमक से हर वर्ग प्रभावित हुआ है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से खतरे भी हैं, पर निराश हो जानेवाली स्थिति नहीं है। उन्होंने कहा कि विश्व में भारत के बढ़ते प्रभाव से हिंदी भाषा का प्रचार–प्रसार बढ़ा है। अमेरिका, यूरोप के अलावा विश्व के अन्य देशों में हिंदी भाषा और साहित्य को पढ़ाया जा रहा है।
विश्व पुस्तक मेले के उदघाटन सत्र की अध्यक्ष एव नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की निदेशक नुज़रत हसन ने कहा कि फेंकफर्ट पुस्तक मेले में भारत को अतिथि देश बनाकर सम्मान दिया गया था। उन्होंने कहा कि इंटरनेट तो केवल एक इंफोमे‍र्शन टूल है। वह आपको कौन–कौन सी पुस्तकें छपी हैं और उनके विषय क्या है, इसे बताने में आपकी सहायता करता है। उदघाटन सत्र का संचालन युवा कवि एवं आलोचक सुरेश यादव ने किया।
‘बदलती दुनिया, बदलता पाठक’ विषय पर आयोजित सत्र के अध्यक्ष रत्नाकर पांडेय ने कहा कि आज के वैज्ञानिक समाज में सिर्फ साहित्य की पुस्तकों का प्रकाशन करने से काम नहीं चलेगा। ज़रूरत इस बात की है कि पाठक के अनुकूल ही पुस्तकों का प्रकाशन होना चाहिए। इलैक्ट्रॉनिक मंत्रालय के निदेशक ओम विकास, बाल भवन की पूर्व निदेशक मधु पंत, लघु उद्योग मंत्रालय के निदेशक हरीश आनंद, पत्रकार ज्योतिष जोशी, दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ0 पूरनचंद टंडन ने भी इस विषय पर अपने-अपने विचार रखे। इस सत्र का संचालन केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के सेवानिवृत्त प्रो0 कृष्ण कुमार गोस्वामी ने किया।
‘पुस्तक को लोकप्रिय कैसे बनाया जाए ?’ सत्र की अध्यक्षता करते हुए सुप्रतिष्ठित लेखिका मृदुला गर्ग ने कहा कि बच्चों में पुस्तकों के पढ़ने के संस्कार डालने होंगे। विडम्बना यह है कि हिंदी समाज के लोग भी बच्चों में अंग्रेजी वर्चस्व बना रहे हैं। हिंदी के प्रति उनकी रुचि कम हो रही है। बच्चों में पढ़ने की रुचि डालने का काम अभिभावक और शिक्षक को मिलकर करना होगा। स्कूलों में भी हिंदी भाषा के ज्ञान के अलावा साहित्य को भी अलग से पढ़ाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। बच्चों से कहानी सुनाने को अनिवार्य बनाना चाहिए। लेखक महेश दर्पण ने कहा कि पुस्तकों को जनोपयोगी बनाकर मनुष्य की चेतना से जोड़ा जाना चाहिए। कादम्बिनी के कार्यकारी संपादक विष्णु नागर ने कहा कि सरकारी खरीद बंद होनी चाहिए। इससे प्रकाशन जगत में एक भ्रष्टाचार पनपा है और पुस्तकों की कीमतें बढ़ गई हैं। पुस्तकों को सस्ते मूल्य पर छाप कर पाठकों तक पहुँचाया जाए। ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा कि इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रभाव से पठन–पाठन कम हुआ है। विडंबना यह भी है कि 50 करोड़ हिंदीभाषी क्षेत्र में 50 हजार भी ऐसे लोग नहीं है जो साहित्य और पुस्तकों से जुड़े हों। जबकि हमारे समाज में बहुत बड़ा ऐसा वर्ग भी है जो अभी निरक्षर है।
सुप्रसिद्ध लेखक एवं ग़ज़लकार शेरजंग गर्ग ने कहा कि पुस्तकों को पाठकों तक पहुँचाने के रास्ते बनाने होंगे। पुस्तक अब भी एक संभावना है। आवश्यकता इस बात की है कि कर्मठता के साथ एक आस्था और संकल्प लिया जाए। पुस्तकों को लोक तक पहुँचाकर उसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है। लेखक–प्रकाशक विकास नारायण ने कहा कि सस्ती, आकर्षक और समाज की रुचि की किताबों को छोटी बस्तियों तक पहुँचाने के सार्थक परिणाम सामने आए हैं। हरियाणा को एक संस्कृतिविहीन प्रदेश के नाम से प्रचारित किया गया है जबकि वहाँ साहित्य की किताबों की अच्छी–खासी बिक्री हो रही है। इनके अतिरिक्त, अमरनाथ अमर, से.रा. यात्री ने भी अपने विचार रखे। संगोष्ठी के संयोजक उमेशचंद्र अग्रवाल ने कहा कि पुस्तक को लेकर पाठक, लेखक और प्रकाशक के बीच संवाद होना चाहिए तथा आज के पाठक की मांग के अनुरूप् आधुनिक विषयों पर स्तरीय एवं विश्वसनीय पुस्तकें लिखी जानी चाहिएं। पांडुलिपि का सही चयन एवं सटीक संपादन पुस्तकों के प्रति पाठकों के विश्वास को बनाने में सहायक होगा। राष्ट्रीय स्तर पर पुस्तक अकादमी की स्थापना होनी चाहिए जिसका कार्य केवल पुस्तकों का मानकीकरण एवं स्तरीय पांडुलिपि तैयार कराने तक ही सीमित हो। पुस्तक प्रकाशन को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि इसका समुचित विकास हो सके। इस अंतिम सत्र का संचालन कथाकार बलराम अग्रवाल ने किया।
प्रस्तुति : अवधेश श्रीवास्तव


अगला अंक

मार्च 2008

-मेरी बात
-महेश दर्पण की कहानी।
-सुभाष नीरव की कविताएं।
-कमल चोपड़ा की लघुकथाएं।
-“भाषान्तर” में लियो ताल्स्ताय के उपन्यास “हाजी मुराद” के धारावाहिक प्रकाशन की दूसरी किस्त। हिंदी अनुवाद : रूपसिंह चन्देल।
-“नई किताब” के अंतर्गत द्रोणवीर कोहली के उपन्यास “चौखट” की समीक्षा
-“गतिविधियाँ” के अंतर्गत माह जनवरी 2008 में सम्पन्न हुई साहित्यिक/सांस्कृतिक गोष्ठियों की रपट तथा संक्षिप्त समाचार।