मंगलवार, 5 अगस्त 2008

साहित्य सृजन – जुलाई-अगस्त 2008(संयुक्तांक)



मेरी बात


दलित विमर्श और हिन्दी उपन्यास
रूप सिंह चन्देल


लगभग दो दशक से हिन्दी दलित साहित्य चर्चा में है. १९८८ के पश्चात दलित समाज में जो सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से होना ही था. आज हिन्दी में अनेक रचनाकार विभिन्न विधाओं में निरन्तर सृजनरत हैं. इतने अल्प-समय में दलित-साहित्य का विकास आश्वस्तिकारक है. प्रारम्भ में भले ही 'दलित-साहित्य' और 'दलित-साहित्यकार' की अवधारणा ने जन्म न लिया हो लेकिन गत कुछ समय से यह चर्चा का विषय बन गया है कि क्या वही साहित्य दलित -साहित्य की परिधि में आता है जो दलित-साहित्यकारों द्वारा लिखा जा रहा है या वह साहित्य भी दलित साहित्य है जिसके लेखक गैर दलित हैं, लेकिन जिनमें दलित जीवन की सघन, विश्वसनीय और वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है.

इस विषय में दलित आलोचक डॉ. तेज सिंह का कथन है, "अभी पिछले दिनों दलित साहित्यकारों ने 'स्वानुभूति' और 'सहानुभूति' दो अनुभूतिपरक शब्दों को बहस के केन्द्र में लाकर दलित-साहित्य को गैर दलित-साहित्य से पूरी तरह अलग कर दृढ़तापूर्वक अपनी स्थापना रखी कि दलित जीवन पर गैर दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य 'सहानुभूति' का साहित्य है और उसे किसी अर्थ में दलित-साहित्य नहीं कहा जा सकता और न ही उसे उसमें शामिल ही किया जा सकता." (आज का दलित-साहित्य, पृ० ५९) . इस तर्क से साहित्य के विषय में अब तक स्वीकृत यह मान्यता खंडित हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि साहित्यकार 'स्वानुभूत' विषयों की ही भांति 'परानुभूत' विषयों को भी उतनी ही गहनता से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान करता है. कितनी ही बार वह दूसरों के भोगे यथार्थ को कहीं अधिक गहराई से लिख पाता है बजाय अपने भोगे यथार्थ के. यदि अपने भोगे यथार्थ की अवधारणा के साहित्य को ही साहित्य माना जाता तो शायद ही हमें 'अन्ना कारिनिना' जैसा विश्व प्रसिद्ध उपन्यास प्राप्त होता. प्रेमचन्द का तो यहां तक मानना था कि कहानी के 'प्लॉट' ट्रेन में यात्रा करते हुए- अखबार पढ़ते हुए (किसी अन्य के साथ घटी घटना को देखते हुए) भी ग्रहण किये जा सकते हैं. आवश्यकता होती है कि लेखक ऎसे विषयों को कितनी गहराई तक अपने अन्दर जीता है. अर्थात यथार्थ अपना भोगा हुआ हो या दूसरे का जब तक वह गहन मानवीय संवेदना से आवेष्टित होकर रचनाकार को उद्वेलित नहीं कर देता, वह रचनात्मक स्वरूप ग्रहण नहीं करता. एक अच्छी रचना दीर्घ अन्तर्यात्रा के पश्चात ही जन्म लेती है. अस्तु, मैं यहां उन हिन्दी उपन्यासों पर संक्षिप्त चर्चा करना चाहूंगा, जिनमें दलित जीवन की सघन अभिव्यक्ति हुई है. यद्यपि हिन्दी कथा साहित्य के उद्भव से आज तक सैकड़ों रचनाएं हैं, जिनमें किसी-न-किसी रूप में दलितों के जीवन पर प्रकाश डाला गया है; किन्तु वह मूल कथा के एक अंग के रूप में ही उद्भाषित हुआ, न कि विशेष रूप से उन्हें चुना गया अर्थात वह केन्द्रीय विषय कभी नहीं रहा. लेकिन गोपाल उपाध्याय का उपन्यास 'एक टुकड़ा इतिहास', अमृतलाल नागर का 'नाच्यो बहुत गोपाल', जगदीश चन्द्र का 'नरक कुण्ड में बास (यह उनके उपन्यास-तृयी - धरती धन न अपना, नरककुण्ड में बास और यह ‘ज़मीन तो अपनी थी’ का दूसरा भाग है), मदन दीक्षित का 'मोरी की ईंट' तथा गिरिराज किशोर का 'परिशिष्ट' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण उपन्यास हैं; क्योंकि इनमें केवल और केवल दलित जीवन ही विषय-वस्तु के रूप में व्याख्यायित हुआ है.

यह आश्चर्यजनक संयोग है कि उपरोक्त उपन्यासों में पहले चार के लेखक ब्राम्हण हैं. यहां मुझे कथाकार कमलेश्वर की बात याद आती है ( जो मुझसे उन्होंने एक साक्षात्कार के समय कही थी ) कि इन उपन्यासों पर से यदि उनके लेखकों के नाम हटा दिये जायें और किसी ऎसे व्यक्ति से पूछा जाये जो उनके विषय में न जानता हो कि वे किसकी कृतियां हैं तो वह उन्हें केवल 'दलित-साहित्य' ही कहेगा. सच यह है कि लेखक वह प्राणी होता है जो परकाया प्रवेश करता है और वह उसके दुख-दर्द को आत्मसात कर अभिव्यक्ति प्रदान करता है. अतः आवश्यक नहीं कि वह अपने भोगे यथार्थ को ही गहनता से अभिव्यक्त करे.

'मोरी की ईंट' के विषय में कहा गया है, "नरक बटोरने वाले, अछूत जातियों के लिए भी अछूत-मेहतरों के जीवन की आंतरिक झांकी." और मेहतरों की इस आंतरिक झांकी को अंदर से देखने-पाने के लिए मदन दीक्षित नाम का किशोर मेहतर बस्ती का अंग बन जाता है. दीक्षित इस उपन्यास के विषय में कहते हैं, "इसी अपनेपन की पूंजी के सहारे मुझे दूसरी जगहों के मेहतर समाजों से अंतरंतगता कायम करने में कभी कोई कठिनाई सामने नहीं आई और उनकी परम्पराएं, मर्यादाएं, व्यथा-कथाएं, संघर्ष गाथाएं और ढेर सारे निर्बल-सबल चरित्रों के संस्मरण मेरे अपने ज्ञान-कोष के अभिन्न अंग बन गये. इसी बीच अन्य बहुत-सी बातों के साथ मुझे इस बात का भी खूब अच्छी तरह से अहसास हो गया कि सवर्ण और मध्यम जातियां तो क्या, अधिकांश अनुसूचित जातियां भी मेहतरों को अछूत ही समझती हैं और धर्म बदल लेने पर भी भारतीय समाज में मेहतरों की मेहतरियत में कोई अंतर नहीं आता." (वाजिबुल अर्ज़).

'मोरी की ईंट' उपन्यास मुख्य रूप से दलितों (मेहतरों) के धर्म परिवर्तन को उद्घाटित करता है और यह बताता है कि धर्मांतरण के बाद भी धर्मांतरित लोगों का दर्जा नये समाज में पूर्व जाति के आधार पर ही निर्धारित होता है. कर्नल ब्राउन का खानसामा खैराती कर्नल के प्रयास से मेहतर से क्रिस्टान हो जाता है और उसका बेटा सैम्युअल उच्च शिक्षा प्राप्त करता है, लेकिन विक्टर पंत और एडगर जोशी, जो कभी अल्मोड़ा के नन्दलाल पन्त और मोहन चन्द्र जोशी थे, सैमुअल को वह सामाजिक सम्मान देने को तैयार नहीं थे, नये समाज में जिसका वह हकदार था; क्योंकि उनके पूर्व ब्राम्हणवादी संस्कार धर्मांतरण के पश्चात भी उनके अन्दर मौजूद थे. ऎसे ही अनेक दलित-परिवारों के संघर्ष और मार्मिक जीवन प्रसंगों को 'मोरी की ईंट' में प्रमाणिकता के साथ चित्रित किया गया है.

जगदीश चन्द्र का उपन्यास 'नरक कुण्ड में बास' में चमारों की दारुण जीवन-स्थितियों का वास्तविक चित्रण किया गया है. कथानायक काली गांव के चौधरी से अपने प्राण बचाकर जालन्धर आ जाता है. बैलों के स्थान पर स्वयं जुतकर रेहड़ा खींचने से लेकर मजूरी के अन्य ढंग- कुलीगिरी के बरास्ते वह एक ऎसी कम्पनी में काम करने लगता है जहां चमड़ा तैयार करने का काम होता है. काली को मांस और खून से सनी मक्खियों के अम्बार से ढकी खालों को नमक और चूने के पानी में डूबकर दिनभर में साफ करना और सुखाना होता है. उपन्यास हमें जिस दुनिया की यात्रा करवाता है उसे यदि 'जीवित नर्क' कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी. हिन्दी में दलित जीवन पर यह एक श्रेष्ठ उपन्यास है. सम्भव है कोई दलित रचनाकार जिसने काली जैसा जीवन जिया हो, काली और उस जैसे मजदूरों के जीवन की नारकीयता को और बेहतर कहने की कोशिश करता, लेकिन जगदीश चन्द्र से कुछ भी तो नहीं छूटा. चमड़ा कारखाना के पास बहते गन्दे नाले में कारखाने का सड़ांध युक्त पानी बहकर उसे इतना अधिक बदबूदार बना देता है कि किसी भी सभ्य समाज की बस्ती उस नाले के किनारे रह नहीं सकती , लेकिन गरीब मजदूरों की झोपड़ बस्ती उस नाले के किनारे सड़ांध , मक्खियों और अनेक संक्रामक रोगों से जूझती रहने को अभिशप्त है. काली के अनेक साथी नमक युक्त पानी में दिनभर रहकर चमड़ा तैयार करने के कारण गले पंजो(पैर) और असह्य खुजली का शिकार बन कारखाने के काम के लिए अयोग्य बन मृत्यु की कामना करते उसी बस्ती में रहते हैं.

यहां यह ध्यातव्य है कि जगदीश चन्द्र पंजाब की अनेक दलित संस्थाओं से सम्बद्ध थे और दलित आन्दोलन (पंजाब) में उनकी अहम भूमिका होती थी. यह सुखद तथ्य है कि पंजाबी दलित साहित्यकारों द्वारा वे सदैव समादृत रहे और यदि यह उपन्यास पंजाबी भाषा में प्रकाशित हुआ होता तो निश्चित ही इसका उचित मूल्यांकन हुआ होता. हिन्दी की तरह उपेक्षित न रहा होता, जबकि एक सत्य यह भी है कि अन्तिम दशक के श्रेष्ठतम उपन्यासों में एक होने का यह अधिकारी है.

'नाच्यो बहुत गोपाल' और 'एक टुकड़ा इतिहास' में ऎसी दो नारी पात्रों के माध्यम से दलित जीवन चित्रित किया गया है, जिनमें एक निर्गुणिया (नच्यो बहुत गोपाल) ब्राम्हण पुत्री होकर एक मेहतर मोहना की पत्नी बन जाती है और दूसरी चनुली (चन्दा देवी - 'एक टुकड़ा इतिहास') दलित होकर एक ब्राम्हण कान्तिमणी की पत्नी बनकर ब्राम्हणी होने का स्वप्न देखती है. दोनों पात्रों के संघर्ष भिन्न हैं. चनुली तो ब्राम्हणी नहीं बन पाती - प्रताड़ित होकर पुनः दलित समाज में धकेली जाने के बाद एक दुर्द्धर्ष दलित महिला के रूप में जिस प्रकार अपना विकास करती है और सवर्ण समाज के लिए चुनौती बनती है वह आश्चर्यचकित करता है. गांव की उपेक्षित-शोषित युवती जिजीविषा और संघर्ष का दामन पकड़ अपने समाज के उत्थान के लिए जिस प्रकार कटिबद्ध दिखती है, वह प्रेरणादायी है - आज की दलित नारी के लिए. दलित चेतना तो दो दशक पूर्व जागृत हुई जबकि यह उपन्यास उन्नीस सौ चौहत्तर में प्रकाशित हो चुका था. निर्गुणिया का संघर्ष पूर्ण मेहतरानी बन जाने का है. वह बनती भी है, लेकिन उस सबके लिए उसे जैसी शारीरिक, मानसिक यन्त्रणाओं से होकर गुजरना पड़ता है वही उसकी शक्ति है और वह इस उपन्यास को 'दलित साहित्य की परिधि में ला खड़ा करता है. गिरिराज किशोर के उपन्यास 'परिशिष्ट' में भी दलित जीवन को गम्भीरता से चित्रित किया गया है. अपने समय का यह चर्चित उपन्यास है.

उपरोक्त उपन्यास इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ईमानदार लेखक सदैव दुख-दर्द, पीड़ा - शोषण-दमन के साथ खड़ा होता है, चाहे वह दलित हो या गैर दलित. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाएं भी युगों से दलित-शोषित जीवन जीने के लिए अभिशप्त रही हैं. आज भी हैं. भले ही वह निम्न वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, मध्य वर्ग या फिर आभिजात्य वर्ग की ही क्यों न हों ! आज की महिला कथाकार यदि यह मांग करने लगें कि नारी जीवन की अभिव्यक्ति का अधिकार मात्र उन्हें ही है- यह पुरुष कथाकारों का क्षेत्र नहीं है तो हमें शरत चन्द्र की रचनाओं को खारिज कर देना होगा. वास्तव में बहस वही सार्थक होती है जो विकास की ओर अग्रसर करे और जब बहस अपने में ही उलझकर श्रम/प्रतिभा का क्षरण करने लगे तब वह अवरोधक हो जाती है. अतः दलित साहित्य 'क्या' और 'किसका' से आगे जाकर साहित्यकारों को केवल साहित्य और अच्छे साहित्य पर अपने को केन्द्रित करना चाहिए . अच्छी रचनाओं का मूल्यांकन समय स्वयं करता है. चर्चित हो जाने की हड़बड़ाहट में कभी उत्कृष्ट साहित्य नहीं रचा जा सकता. उत्कृष्ट दलित-साहित्य को भी इन्हीं शर्तों से होकर गुजरना होगा, उसे चाहे दलित रचनाकार लिखें या गैर - दलित.

कहानी




शरूआत
नूर ज़हीर

साहिरा नदी के किनारे एक पत्थर पर बैठ गई। उसके सामने से नदी का किनारा काट कर एक तेज़ सोता, पास ही की पनचक्की में जा रहा था। पनचक्की की ‘खरर हुन, खरर हुन’ उसे साफ सुनाई दे रही थी। शायद अभी-अभी किसी ने गेहूं डाला था। उसने नदी के दोनों तरफ नज़र दौड़ाई। एक औरत नदी के किनारे किलटा रखे, उसमें से कपड़े निकाल कर साबुन से घिस रही थी। गेहूं भी शायद उसी ने पनचक्की में डाला होगा।
साहिरा ने अपने दुखते हुए घुटने पर हाथ रखा और खड़ी हो गई। अभी तो सर्वरी नदी की डिप्पी पार करके दोबारा चढ़ाई चढ़नी थी, तब कहीं जाकर पक्की सड़क आएगी, जहाँ से भूटी से आने वाली सवा चार की अन्तिम बस मिलेगी।
यह ‘लग’ वैली थी। अलग पड़ने वाली वैली को उच्चारण में दिया गया- ‘लग’। कुल्लू शहर से बहुत दूर नहीं थी यह वैली मगर उसको तहसील से जोड़ने वाली सड़क अभी कोई दो साल पहले ही बनी थी। इसी सर्वरी नदी पर तीन जगह पुल बांधकर यह सड़क बनाई गई थी। साहिरा को एजूकेशन डिपार्टमेंट की तरफ से कुल्लू के स्कूलों में सांस्कृतिक मूल्यबोध की स्कीम के तहत भेजा गया था। दूर, बिखरे पड़े गांवों के स्कूलों में नाटक द्वारा बच्चों में भारतीय मूल्यों का ज्ञान और सम्मान कराना। काम मुश्किल होगा, यह उसे मालूम था। समतल की रहने वाली, उसे पहाड़ों पर चढ़ने-उतरने की आदत पड़ते-पड़ते समय तो लगेगा। डुगीलग गाँव का चयन भी उसने अपनी मर्जी से ही किया था। नौ किलोमीटर बस की यात्रा और फिर ढाई किलोमीटर की चढ़ाई के बाद, एक शिखर की चोटी की सपाट ज़मीन पर बना मिडिल स्कूल। पहली बार तो उसकी हर जोड़ और मांसपेशी को मज़ा आ गया। सारा शरीर ऐसे चरमराने लगा जैसे उसकी नानी कहा करती थी, बिटिया, हाड़-हाड़ पिरात है। लेकिन डुगीलग गाँव और उसके चारों तरफ के प्राकृतिक सौंदर्य ने उसका दिल मोह लिया। इसलिए वह इन मुश्किलों के बाद भी, डी.ई.ओ. के सुझाव पर स्कूल बदलने को राजी नहीं हुई।
मगर आने-जाने की तकलीफ़, चढ़ाई-उतराई, सरकारी स्कूल के टीचरों की बेरूखी, एक-आध की फिकरेबाजी, सब झेलने के बाद, यह एक ऐसी मुश्किल थी जिसे वह पार नहीं कर पा रही थी।
स्कूल के पास जगह बहुत थी, मगर कमरे कम थे। कच्ची इमारत में कुल मिलाकर पाँच कमरे थे जिनमें से चार में आठ क्लासें चलती थीं और एक स्टाफ-रूम था। मुख्याध्यापिका ने हर क्लास के 10 मिनट कम करके, नाट्य शिविर के लिए डेढ़ घंटा तो अलग कर दिया था लेकिन कमरा वह कहाँ से लाती। साहिरा ने सबसे पहले तो स्कूल के बीच में छोड़ी गई जगह, जो बच्चों के खेलने के काम में भी आती थी, पर ही शिविर लगाया। पर नाटक का शोर क्लासों में जाता और पढ़ रहते बच्चों का ध्यान बंटता। स्कूल के पीछे की जगह थी तो बहुत सुन्दर, देवदार और चीड़ के जंगलों से घिरी हुई, मगर उसमें गाँव के लोग अपनी गाय-बकरियाँ भी चराते थे। जैसे ही नाटक की खबर फैली, वहाँ भीड़ जमा होने लगी। पहली बार नाटक कर रहे बच्चे वैसे ही डरे-सकुचाए से थे। जान-पहचान वालों की भीड़ देखकर ऐसा घबराए कि आधे से ज्यादा ने तो शिविर से अपने नाम वापस ले लिए। जो बच गए, उनके मुँह पर ताले लग गए। गाँव के बेरोजगार लड़के जिनके सिर गाय-बकरी चराने का काम मढ़ दिया जाता था, गिरोह बनाकर इन बच्चों पर तानाकशी करते, फ़ब्तियाँ कसते। तीन दिन से लगातार यह हो रहा था कि वह सब बच्चों को जमा करके, रिहर्सल करने की कोशिश करती और दो घंटे उन लौण्डों-लपाड़ों को डाँटते, फटकारते, भगाने में गँवा कर, बिना कुछ काम किए परेशान लौट आती।
इन्हीं सब मुश्किलों के बीच, एक छठी क्लास का लड़का चैतराम उसका साथी बन गया। वह गाता बहुत अच्छा था। दो-तीन दिन के बाद, नीचे बस स्टॉप के पास ही वह मिल जाता और फिर चढ़ाई पर, कहे बगै़र साहिरा का बैग ले लेता। वर्कशाप खत्म होने के बाद, साथ ही नदी तक आता और अक्सर कपड़ों का किलटा या सूखी लकडि़यों या घास का गट्ठर लिए लौटती हुई अपनी माँ के साथ वापस चला जाता। उसका घर गाँव से ज़रा अलग, बायें को चलकर, दस-बारह घरों के झुण्ड में था। भारत के गाँवों में वर्ग-दर-वर्ग की मौज़ूदगी को जानते हुए साहिरा समझ तो गई थी कि यह अनुसूचित जाति की बस्ती है लेकिन इसे महत्व न देना या नकारना, उसने अपने हिसाब से सांस्कृतिक मूल्यबोध का ज़रूरी अंग समझा था।
वह माँ के साथ अकेला रहता था। उसका बापू गर्मियाँ शुरू होते ही, आसपास की भेड़ें लेकर लाहौल-स्पिति की तरफ चला जाता और जाड़ों के शुरू में ही लौटता। आमदनी का दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। जब फल बिकने लगते तो महीना, दो महीना तोड़ने के समय, पलम, खुर्बानी, नाशपती और सेब, किलटा भर-भरकर नीचे सड़क तक पहुँचाने का काम मिल जाता। थोड़ी-सी ज़मीन थी जिस पर सब्ज़ी उगती थी। चैतराम पढ़ने में तेज़ था। पूरा नाटक भी चार दिन के अन्दर याद कर लिया। सबके साथ हँसता, बोलता, सारी टीचरें उसे काम देकर दौड़ाती रहतीं और उसकी तारीफ़ें करती रहतीं।
चैतराम भी उन कारणों में से एक था जिनके चलते वह डुगीलग स्कूल छोड़ना नहीं चाहती थी। मगर अब ऐसा लगने लगा था जैसे इसके अलावा और कोई चारा नहीं था।
यही सोचती हुई वह सड़क के किनारे पर आकर खड़ी हो गई। अभी बस आने में पंद्रह मिनट थे। वह सोच रही थी कि क्या किया जाए कि उसे सुनाई दिया, “मैडम ! मैडम !” वह पलटी और चाय के गिलास से टकरा गई जो उसके थामे हुए हाथ पर छलक गया। ‘सॉरी’ कहते हुए उसने जल्दी से गिलास ले लिया, फिर ज़रा खिसियाकर बोली, “चाय मेरे लिए है ?”
लड़का अपने घिसे हुए पतलून पर हाथ पोंछते हुए बोला, “हाँ जी, हाँ जी, ठाकुर साहब ने भेजी है, जी।”
पैंतीस साल की साहिरा को मालूम था कि वह दिखने में अच्छी नहीं तो बुरी भी नहीं है। अकेली अनजान इलाकों में घूमती है, यह बात भी फैलते देर नहीं लगती। अब यह ठाकुर साहब क्या चीज़ हैं ? उसने पलट कर सड़क के किनारे बनी हुई चाय की दुकान पर नज़र डाली। एक लम्बे से खूबसूरत, चालीस के करीब उम्र, हिमाचली टोपी, कुर्ता-पाजामा पहने हुए सज्जन ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वह बढ़ी और उनके सामने वाली बैंच पर बैठ गई। उसकी बेबाकी पर वह पल भर हैरान होते हुए, फिर मुस्कुराकर बोले, “चाय लीजिए, मैडम जी।”
“हाँ, चाय की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही है। आपका शुक्रिया। मैं...।”
“आप साहिरा जैदी हैं। मैं जानता हूँ।”
“तो अपने बारे में ज़रा बता दीजिए।” साहिरा ने पूछा।
“मैं रघुवीर सिंह ठाकुर हूँ। डुगीलग गाँव का प्रधान। आपको पिछले आठ-नौ दिन से इधर से जाते देख रहा हूँ। अच्छी परेड हो रही है आपकी भी।”
उसकी चढ़ाई-उतराई को परेड कहा जाना साहिरा को अच्छा लगा। ज़ोर से हँसी। वह ज़रा-सा झेंप गए और गोरे गालों पर दो गुलाबी चकत्ते नज़र आने लगे।
“देखिए, कितने दिन यह परेड कर पाती हूँ।”
“क्यों जी, क्या आपका काम खत्म हो गया ?” उन्होंने ज़रा उत्सुकता से पूछा।
“शुरू ही कहाँ हुआ। शुरू होने की उम्मीद भी नहीं है।”
“ऐसा क्यों, मैडम जी ? क्या स्कूल के अध्यापक कोऑपरेट नहीं कर रहे ?”
“नहीं, नहीं। ऐसा नहीं है।” फिर उसने ठाकुर साहब को पूरी बात समझानी शुरू की। आधी बात हुई थी कि बस आ गई। वह जल्दी से दौड़कर चढ़ ही रही थी कि पीछे से उसका भारी, स्क्रिप्टों से भरा बैग कन्धे से किसी ने ले लिया। आमतौर पर उसे खड़े-खड़े बाशिंग तक जाना पड़ता था, जहाँ आधे से ज्यादा सवारियाँ उतरती थीं। आज क्योंकि प्रधान जी साथ थे, खुद-ब-खुद दो सीटें खाली हो गईं। बैठते ही उन्होंने फिर बात की डोर पकड़ी और पूरे रास्ते सवाल पूछते रहे। कुल्लू उतरकर साहिरा को ख़याल आया कि यह तो ‘लग’ वैली की आख़िरी बस है। अब प्रधान जी वापस कैसे जाएंगे ?
“ओ जी, यह पहाड़िया पैदल ही निकल लेगा। दो साल पहले तक तो हम कुल्लू पैदल ही आते-जाते थे। वे जल्दी से पलटे और ढालपुर की ढलान पर रेंग रही खरीदारों की भीड़ में गायब हो गए।
अगले दिन सुबह, जब वह बस में उतरी तो वह चाय की दुकान के बाहर खड़े थे। साहिरा ज़रा चौकन्ना हुई। यह ज़रूरत से ज्यादा हो रहा था। तेज़ी से दुकान को अनदेखा करती हुई ऊपर की तरफ़ जाने वाली पगडण्डी की तरफ़ बढ़ रही थी कि वे लपकते हुए आए और साथ-साथ चलते हुए बोले, “ऐसा है मैडम जी, मैंने आपकी प्रॉब्लम का हल निकाल लिया है।”
“कौन-सा प्रॉब्लम, कैसा हल ?” साहिरा ने ज़रा रुखाई से पूछा।
“वह जो कमरे वाली, एक कमरे का इन्तजाम हो गया है, स्कूल के पास।”
“क्या, कहाँ ? कैसे ? कौन ?”
उसकी खुशी भरी हैरानी पर वह वैसे ही ज़रा-सा झेंप कर हँसे। स्कूल के पास पहुँचकर उन्होंने एक अलग जा रही पगडण्डी की ओर इशारा किया। कुछ दूर चलकर पगडण्डी मुड़ गई और सामने एक नए मकान पर आकर खत्म हो गई। उसी मकान की पहली मंजिल पर एक बड़ा-सा कमरा था। साफ़-सुथरा और हवादार।
“मैडम जी, यह कमरा आपके काम के लिए चलेगा ?”
“चलेगा ? यह तो ऐसा दौड़ेगा कि कहीं इसे ओलंपिक्स में भेजा जा सकता होता तो मेडल जीत लाता। कौन मुझ पर यह उपकार कर रहा है ?”
वे ज़रा बिगड़ गए, “उपकार आप पर क्यों ? उपकार तो आप कर रही हैं इस गाँव पर। क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता ?”
“तो यह घर आपका है। नया बना लगता है, यहीं रहते हैं आप ?”
“नहीं जी, अभी तो बनवाया ही है। मैं तो नीचे गाँव में रहता हूँ। अभी तो यहाँ कोई नहीं रहता। बाद में शायद छोटा भाई और उसके बाल-बच्चे यहाँ आ जाएँ।”
“आपका धन्यवाद कैसे करूँ, प्रधान जी ?”
“न कीजिए। आपको ठीक दो बजे कमरा खुला मिल जाएगा। जाते हुए आप बन्द करके किसी भी लड़के को चाबी दे दीजिएगा। कोई और ज़रूरत हो तो बताइएगा।”
काम तेज़ी से चल पड़ा। कुछ टीचरों ने बच्चों के स्कूल से बाहर जाने पर ज़रा परेशानी जताई थी, लेकिन गाँव प्रधान के खिलाफ़ बोलने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। साहिरा तो उनकी इतनी एहसानमन्द थी कि उसने प्रधान रघुवीर सिंह ठाकुर को नायक बनाकर एक नया नाटक सोचना शुरू कर दिया। शायद इसी वजह से वह तक़रीबन रोज़ ही उनके साथ बैठकर दोपहर की चाय पीती। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि वे शिमला यूनिवर्सिटी के स्नातक हैं। जब उसने उनके एक पिछड़े हुए गाँव में पड़े रहने पर ज़रा हैरानगी जताई तो वे मुस्कराए और बोले, “मेरे बापू तो जी, मुझे आठवीं के बाद पढ़ाना ही नहीं चाहता था। लड़-झगड़कर मैंने दसवीं और बारहवीं की। उसने समझा कि चलो, छुट्टी हुई बारहवीं के आगे तो इसके लिए पढ़ना सम्भव है ही नहीं।”
“वह क्यों, ठाकुर साहब ?” साहिरा ने ज़रा हैरानी से पूछा।
“जी, कुल्लू में तो डिग्री कॉलेज उस समय था ही नहीं ना। शिमला जाना पड़ता था, सो उसने सोचा, इतनी लम्बी उड़ान कहाँ भरेगा यह कुल्लू का उल्लू।” अपनी बात पर हँसते-हँसते उनकी आँखों में पानी आ गया, “फिर भी, मैंने अपने ही घर में चोरी की। माँ के सोने के कंगन लेकर शिमला भाग गया। जब वह चुक गए तो ढाबों में नौकरी की, टूरिस्ट गाइड रहा, बड़े पापड़ बेलकर, बी.ए. करके घर लौटा तो बाप फिर मुझे घर में रखने को राजी नहीं।”
“क्यों ? क्या वे अब तक नाराज़ थे ?”
“थे तो, पर अब नाराज़गी दूसरी थी। अब वे चाहते थे कि बी.ए. हो गया है तो सरकारी नौकरी कर ले। पर मेरी भी जिद। नौकरी नहीं करनी किसी की, सेवा जितनी मर्जी करवा लो।”
साहिरा के दिल में उनके लिए इज्जत बढ़ गई। अगर पढ़े-लिखे लोग गाँवों की उन्नति का भार संभाल लें तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। देश तरक्की ज़रूर करेगा, देहात ज़रूर जागेगा और अपना भविष्य खुद गढ़ेगा।
दो-तीन दिन के अन्दर, जब गाँव प्रधान के साथ उसकी दोस्ती की खबर फैली तो गाँव के दूसरे लोग भी उससे खुल गए। आते-जाते लोग नमस्ते करते, साथ चलने लगते, उसे गाँव और चारों तरफ़ की दिलचस्प चीज़ें दिखाते, लोक कथाएँ सुनाते। कोई चलते-चलते हाथ में चार खुर्बानियाँ या पलम रख देता, कोई ज़बरदस्ती घर बुलाकर छाछ पिता देता। उसे प्रधान के बारे में और जानकारी भी मिलती गई। डुगीलग में केवल प्राथमिक स्कूल था। पाँचवी के बाद आगे पढ़ने के लिए दस-ग्यारह साल के बच्चों को चार किलोमीटर दूर भूटी जाना पड़ता था। ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई छूट जाती। प्रधान जी ने डी.ई.ओ. और डी.सी. के दफ्तर के चक्कर लगाकर इसे माध्यमिक विद्यालय करवाया, अब यह कुल्लू के संसद सदस्य के पीछे पड़े थे कि वे कुछ पैसा दें ताकि एम.पी. फंड से स्कूल के तीन-चार और कमरे बन सकें। महिला-मंडल को भी अपने मिलने-मिलाने के लिए एक कमरा पंचायत घर के ऊपर बनवा कर दिया, छोटी बचत योजना चलाना समझाने के लिए कुल्लू से समाज सेविका बुलवाई, गाय खरीदने के लिए गाँव की नौ महिलाओं को बैंक से लोन दिलवाया। आजकल प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र खुलवाने की चिन्ता में बार-बार कुल्लू जाते हैं, इसीलिए चाय की दुकान पर बैठे मिलते हैं।

साहिरा के दिल में उनके लिए इज्जत बराबर बढ़ रही थी और दिमाग में उनके बारे में नाटक एक पुख़्ता शक्ल ले रहा था। बस, अब कहीं से अगर ऐसी किसी घटना का पता चल जाता जिसमें उन्होंने कोई प्रगतिशील कदम उठाने की कोशिश की थी और उसका विरोध हुआ और उस विरोध का सामना करके अपनी दृढ़ता और सच्चाई के सहारे, उन्होंने लोगों को अपने मत की तरफ़ झुकाया हो, तो ड्रामाटिक एलिमेंट मिल जाता और नाटक पूरा हो जाता।
“विरोध ? ठाकुर साहब का ? वे तो हमेशा हमारे भले की ही सोचते हैं, उनका कोई कैसे विरोध करेगा ?” इस तरह के जवाब पाकर साहिरा अपने नाटक के भविष्य के लिए तो निराश हो जाती मगर गाँव की तरक्की के बारे में उसे यकीन हो जाता। जब आम लोग इतना आप पर भरोसा करें और आपकी नीयत में भी कोई खोट न हो तो भला कामयाबी में क्या बाधा आ सकती है।

वह तेजी से चलती हुई ठाकुर साहब के घर की तरफ जा रही थी। आज एक अजीब बात हुई थी। चैतराम बस-स्टॉप पर नहीं था और न ही रास्तें में कहीं मिला। घर पर कुछ काम होगा या शायद स्कूल में। पगडण्डी पर चलती हुई वह घर के पास पहुँच गई। लेकिन उसमें कुछ बदला हुआ था। भला एक रात में क्या बदल सकता है ? वह सोच रही थी कि उसे एहसास हुआ कि एक अजीब तरह का सन्नाटा घर के चारों तरफ़ मंडरा रहा है। ज़रा घबराहट हुई। क्या बात है ? हमेशा तो बच्चे उसके पहुँचने से पहले ही आ जाते हैं और इतना शोर मचा रहे होते हैं कि दूर तक सुनाई देता है। उसके कदम तेज़ हो गए और वह तक़रीबन दौड़ती हुई घर तक पहुँची। सामने आँगन में चार बच्चे, एक झाड़ी के पीछे बिलकुल चुपचाप बैठे, ज़मीन के कंकड़ों से गिट्टे खेल रहे थे।
“क्या बात है ? तुम लोग अन्दर क्यों नहीं गए और बाक़ी बच्चे कहाँ हैं ?”
“कमरे में ताला लगा है। बाकी बच्चे स्कूल लौट गए हैं।” एक बच्चे ने जवाब दिया।
“ताला लगा है तो प्रधान जी के यहाँ जाकर चाबी क्यों नहीं मांगी ?” उसने ज़रा डांट कर पूछा।
“मांगी थी। उन्होंने मना कर दिया। कहते हैं, अब और चाबी नहीं देंगे।”
“क्या बकवास कर रहे हो ? ऐसा हो ही नहीं सकता। ज़रूर कोई गड़बड़ है। जाओ, जाकर दूसरे बच्चों को बुलाकर लाओ। मैं अभी चाबी लाती हूँ।”
बच्चे आपस में खुसुर-फुसुर करते स्कूल की तरफ़ चल दिए और वह प्रधान जी के रिहायशी मकान की तरफ़ वाली ढलान उतरने लगी। उनकी पत्नी बाहर रस्सी से कपड़े उतारते हुए मिलीं। बैठने और चाय की जब वह इसरार करने लगी तो साहिरा ने अपने आने की वज़ह बताई और हँसकर यह भी जोड़ दिया कि बच्चे भी पता नहीं क्या का क्या सोच जाते हैं।
उनका चेहरा गंभीर हो गया। संभल कर बोलीं, “बच्चे गलत नहीं समझे। ठाकुर साहब ने चाबी देने से मना कर दिया है।”
“कारण ?” साहिरा के मुँह से अपने आप निकला।
“कारण तो वे ही बताएँगे।”
“ठीक है, तो मैं उन्हीं से बात कर लेती हूँ।”
“वे तो हैं नहीं। डी.सी. के दफ्तर गए हैं।”
साहिरा की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। दो सप्ताह की मेहनत बरबाद हो जाएगी। पता चलना भी ज़रूरी है कि आखि़र कल और आज के बीच उसने ऐसा क्या कर दिया है कि उसे यह सज़ा दी जा रही है और उसके साथ-साथ इन मासूम बच्चों को भी।

डी.सी. के दफ्तर के बराबर में ही कुल्लू कोर्ट भी है और उसी से मिला हुआ जानवरों का सरकारी अस्पताल। यहाँ वकीलों, गवाहों, भेड़-बकरियों, गायों, गधे-घोड़ों और पुलिसवालों की बराबर भीड़ रहती है। साहिरा सोच ही रही थी कि प्रधान जी को किस सिरे से ढूँढ़ना शुरू करे कि पीछे से किसी ने कहा, “अरे मैडम, इस समय आप यहाँ कैसे ?” वे हमेशा की तरह मुस्करा रहे थे। उनकी मुस्कुराहट और उनका आप आकर मिलना, दोनों ने ही साहिरा को विश्वास दिलाया कि कुछ पलों में ही यह ग़लतफ़हमी साफ हो जाएगी। ढालपुर का मैदान पार करके दिल्ली हाइवे के किनारे बस-स्टॉप पर पहुँचकर, उसे खाली बेंच पर बैठने का इशारा करके, वे पास की जूस की दुकान से दो बड़े गिलास बनवा कर ले आए।
जूस लेकर साहिरा ने खखार कर गला साफ किया, “प्रधान जी, आज हमें कमरा बन्द मिला और चाबी भी नहीं दी गई। आपको मालूम है ?”
“हाँ जी, मालूम है।” उनके सीधे जवाब से वह थोड़ा सकपकाई। दिल के एक हिस्से ने कहा, आगे बात न बढ़ाओ, लेकिन दिल के दूसरे हिस्से ने वज़ह जाने बिना पीछे हटने से इनकार कर दिया।
“क्या जान सकती हूँ, मुझसे क्या भूल हो गई जो आपको यह कदम उठाने की ज़रूरत पड़ गई ?”
उसके वाक्य के बीच में ही उन्होंने गिलास रखकर हाथ जोड़ लिए थे। विनम्रता से बोले, “यह बाप क्या कह रही हैं ? आप तो गाँव के बच्चों के लिए इतना कर रही हैं।”
“तो फिर क्या बात है ?”
“वो जानना आपके लिए सही नहीं।”
“न सही, मगर जाने बिना मानूंगी भी नहीं।”
उन्होंने एक बेबसी भरी साँस छोड़ी और बोले, “मैडम, आप शहर की रहने वाली हैं। गाँव में, खासकर इस क्षेत्र में बहुत-से रिवाज ऐसे हैं जो आपकी समझ में नहीं आएँगे। ‘लग’ वैली में एक चलन है कि घर की निचली मंजिल में जानवर रहते हैं और उन्हें ऊपर वाली मंजिल पर नहीं आने दिया जाता।”
“यह तो ठीक है,” वह उनकी बात स्वीकारते हुए बोली, “अक्सर ऐसी प्रथाओं के पीछे गाढ़ी लॉजिक होती है। यह प्रथा ज़रूर सफ़ाई रखने और बीमारियों से बचने के लिए बनाई गई होगी।”
“लेकिन आप बराबर ऐसा करती रहीं।” उन्होंने सीधा आरोप लगाया।
“मैं ?...कहाँ ? जानवर तो... कभी नहीं...” सरासर झूठे आरोप से उसका सिर घूम गया।
“ऐसा करके आपने हमें सबके सामने नीचा दिखाया। हमें बड़ा दुख दिया।”
अब तक वह संभल गई थी, “नहीं, ठाकुर साहब, आपसे किसी ने झूठ कहा। जानवर तो कभी रिहर्सल के आसपास भी नहीं फटके, अन्दर कमरे में आना तो दूर की बात है।”
“मैंने कहा था न, आप समझेंगी नहीं। क्या आपके शिविर में चैतराम नहीं आता ?”
“वह छठी क्लास का लड़का ? हाँ आता है, पर जानवर तो उसके साथ कभी नहीं...”
“वह अछूत है, आपको मालूम नहीं ?”
“हाँ, बताया था किसी टीचर ने, पहले पहल के दिनों में।”
“तब जानते हुए भी आपने उसे ऊपर आने दिया। किसी ने हमें बताया भी नहीं। हमें तो तब पता चला, जब हमारा विरोधी दल यह प्रचार करने लगा कि हम अछूतों, जानवरों को ऊपर आने देते हैं और हमने आपका शिविर बन्द कर दिया।”
“प्रधान जी, जानवर और शिड्यूल कास्ट बराबर हैं ?”
“नहीं,” वे जूस का घूँट भरते हुए बोले, “जानवरों में कई उनसे ऊँचे हैं। गाय और उसकी बछिया ऊपर आ सकते हैं।”
साहिरा ने पहलू बदला, “प्रधान जी, मैं मुसलमान हूँ। आपने मेरे आने-जाने पर तो कभी कोई आप​त्ति नहीं जताई ?”
“क्या कहती हैं मैडम जी। आप जै़दी है, सैय्यद। आप लोग तो ब्राह्मण जैसे हैं।”
“आपको कैसे पता, जै़दी सैय्यद होते हैं ?”
“वाह जी, राजनीति में रहकर वर्गों, जातियों की खबर न रखें ? यह तो हमारी पहली ड्यूटी। न जाने, कब, कैसी परिस्थिति का सामना हो जाए।”
“और जिन्हें नीच जाति समझा जाता है, उन्हें बराबरी दिलाना आपकी ड्यूटी नहीं है?”
“जिन्हें भगवान ने छोटी जात बनाकर इस धरती पर भेजा है, उनसे इस जन्म में दुख भोगकर, अगला जन्म सुधारने का हक़ हम कैसे छीन सकते हैं। हाँ, कुछ मजबूरियाँ हैं, सरकारी नियम हैं। उन्हें स्कूल में दाखिला देना पड़ता है। लेकिन हमारे बच्चों से अलग अपने टाट पर बैठें। बर्तनों की अदला-बदली न हो, इसलिए मैंने खुद दोपहर का खाना देने की बजाय, कच्चा चावल ने की मंजूरी दिलवाई। उनके माँ-बाप भी खुश, टीचर भी फ्री, गन्दा भी नहीं और सवर्ण भी सुरक्षित। आप बाहर की हैं, भला आपका क्या दोष ? उस चैतराम या उसकी माँ को आपको बताना चाहिए था। खैर, उनकी तो कल रात को गाँव वालों ने अच्छी धुनाई की। आज अगर हम उन्हें ऊपर की मंजिल पर चढ़ने देगें तो कल तो वे हमारे सिरों पर चढ़ जाएंगे।”
वे दोनों गिलास लौटा कर, डी.सी. ऑफिस की तरफ़ चल दिए। साहिरा अकेली उस बेंच पर बैठी सोचती रही... वह यहाँ क्या करने आई थी ? यहाँ स्कूल खोले जा सकते हैं, इसलिए कि पढ़े-लिखे इंसानों की गिनती बढ़े, स्कूलों-आँगनबाडि़यों में दिन का खाना बाँटा जा सकता है ताकि सेहतमन्द इंसान बनें, उसके जैसे रंगकर्मी यहाँ आ सकते हैं ताकि सच्चाई और मूल्यों का बोध कराके ईमानदार इंसान जन्में, लेकिन यहाँ पर एक वर्ग दूसरे वर्ग को इंसान मानने से ही इंकार कर दे, उन्हें जानवरों से भी नीचा समझे, ऐसी जगह में मनुष्य को मनुष्य का दर्जा दिलाने के लिए कौन-से मूल्यों का सहारा लिया जाए, लड़ाई की शुरूआत कहाँ से, कितने नीचे से की जाए ?


लेखिका संपर्क : 20/17, गुलमोहर रोड, शिप्रा सनसिटी,
इंदिरापुरम, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)
फोन : 09811772361, 09305267913

कविताएं

योगेंद्र कृष्णा की कविताएं


कम पड़ रहीं बारूदें

आसान नहीं था
शवों को गिनना
मुकम्मल शवों को
ढोया जा रहा था
पर जिनके चिथड़े उड़ चुके थे
वे मरने के बाद भी
मृतकों में शुमार नहीं थे

किसी हवाई जहाज दुर्घटना
या महामारी ने
नहीं लीं उनकी जानें
नहीं मरे वे भूख से

मारे गए क्योंकि
सहमे डरे नहीं थे वे
वे नंगे पांव नंगे हाथ
लड़ रहे थे
अपने समय के
सबसे बड़ झूठ से

शवों की गिनती जरूरी थी
कि समय रहते
पता लगाया जा सके
कितने लोगों ने
झूठ के विरोध में
कितने सच बोये
कितने कंधों ने
कितने शव ढोये

ताकि वे जान सकें
कि कल और कितनी
बारूदों की जरूरत
उन्हें पड़ सकती है

वे माहिर थे
आंकड़ों के इस खेल में
बड़े हिसाब से लगाते थे
बारूदी सुरंग
इसलिए कि
पथरीले अनगढ़ सच की तुलना में
बहुत कम थीं
बारूदें इस प्रदेश में...



प्रेम का अनगढ़ शिल्प

काटने से पहले
लकड़हारे ने पूछा
उसकी अंतिम इच्छा क्या है

वृद्ध पेड़ ने कहा
जीवन भर मैंने
किसी से कुछ मांगा है क्या
कि आज
बर्बर होते इस समय में
मरने के पहले
अपने लिए कुछ मांगूं

लेकिन
अगर संभव हो
तो मुझे गिरने से बचा लेना
आसपास बनी झोपिड़यों पर
श्मशान में
किसी की चिता सजा देना
पर मेरी लकड़ियों को
हवनकुंड की आग से बचा लेना
बचा लेना मुझे
आतंकवादियों के हाथ से
किसी अनर्गल कर्मकांड से

मेरी शाख पर बने
बया के उस घोंसले को
तो जरूर बचा लेना
युगल प्रेमियों ने
खींच दी हैं मेरे खुरदरे तन पर
कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं
बड़ी उम्मीद से
मेरी बाहों में लिपटी हैं
कुछ कोमल लताएं भी

हो सके तो बचा लेना
इस उम्मीद को
प्रेम की अनगढ़ इस भाषा
इस शिल्प को
मैंने अब तक
बचाए रखा है इन्हें
प्रचंड हवाओं
बारिश और तपिश से
नैसर्गिक मेरा नाता है इनसे
लेकिन डरता हूं तुमसे

आदमी हो
कर दोगे एक साथ
कई-कई हत्याएं
कई-कई हिंसाएं
कई-कई आतंक

और पता भी नहीं होगा तुम्हें
तुम तो
किसी के इशारे पर
काट रहे होगे
सिर्फ एक पेड़...




मर्द की मूंछ

सपने में एक रात
गांव-गांव के बीच
दीवारों को गिराता
वह
विश्वग्राम की संकल्पना को
साकार कर रहा था...

सभी गांव शहर और देश
सिमट कर एक हो रहे थे
और वह
अपनी ही बनाई सड़कों पर
तेज रफ्तार
आगे बढ़ रहा था...

तभी
पीछे से
जैसे किसी ने आवाज दी
मुड़कर देखा
बहुत पीछे
एक नंगी देह औरत
अपने सफेद-पुते चेहरे ढोती
सड़कों पर चलाई जा रही थी-
जैसे गायें या भैंसे चलाई जाती हैं-
पीछे सारा गांव था
मर्द थे
जो अपनी मूंछें
औरत की नंगी देह में
उगी देखना चाहते थे

सड़कों के किनारे
दोनों तरफ खड़ी औरतें
मजबूर थीं
उस नंगी औरत की देह में उगी
अपने मर्दों की
मूंछ देखने को

नंगी औरत
जिस सड़क पर चल रही थी
हमारी सड़क की तरह
विश्वग्राम की ओर
नहीं जाती थी
एक बियाबान में
गुम हो जाती थी

उस औरत पर
ढाए गए जुल्म की कहानी
विश्वग्राम तक आने वाली
सड़कों से चल कर
एक दिन तड़के
हाईटेक मीडिया की
सुर्खियों में आईं
और एक ग्राम में सिमटे
नींद के हाशिए पर
लेटे-अधलेटे
नंगे-अधनंगे
संपूर्ण विश्व ने
इस हादसे को
सूरज निकलने के पहले
सुबह की पहली चाय के साथ
सुड़क ली

सूरज निकलने तक
यदि उन्हें याद रह गए हैं
तो बस
आज के शेयर बाजारों के भाव
उनके उतार-चढ़ाव
और कुछ बहुमूल्य धातुओं
की बढ़ती चमक से झांकते
अपने भविष्य के सपने
जो उन्हें
बहुत कुछ दे सकते हैं

बहुत पीछे छूट गई
वह नंगी सफेद-पुती औरत
उन्हें क्या दे सकती है

उसकी नग्नता भी
तो दरअसल
उन्हीं की है



पूर्वजों के गर्भ में ठहरा समय

मैं तुम्हें
अपने हिस्से का आकाश
अपनी नदी के दोनों पाट सौंपता हूं
दो पाटों के बीच का
अनंत विस्तार भी तुम्हारा है

मैं तो सिर्फ
इस पाट से उस पाट तक
अनंत इस विस्तार में
शांत उदात्त लहरों के साथ
डूबना उतराना चाहता हूं
तुम्हारी आंखों की नदी के बीच
कुछ लम्हा ठहर जाना चाहता हूं
तुम्हारी जिज्ञासा, सहज कौतुहल बन
उस पाट का स्पर्श कर
इस पाट तक लौट आना चाहता हूं
बहना चाहता हूं
तुम्हारे मन-प्रांतर के कोने-कोने तक
एक नदी बन कर
ले जाना चाहता हूं
मैं तुम्हें
पहाड़ की उन कंदराओं में
जहां होठों से निकले शब्द
संगीत की तरह बजते हैं

मैं नहीं जानता
यह ऋषियों फकीरों की
निरंतर साधना का प्रतिफल है
या तुम्हारे प्यार का
कि मेरे हिस्से का आकाश
पहाड़ और घाटियों का अनवरत संगीत
आज भी सुरक्षित है तुम्हारे लिए

चलो, अच्छा हुआ
इस आकाश और पृथ्वी के बीच
बहुत कुछ देख चुकी आंखों का
अनदेखा जादुई संसार
अब तुम्हारा है

सुदूर गांव से आई
नेह की गुहार लगाती
इस मुनिया के सुख-दुख
की सौगात भी तुम्हारी है
चुन्नू काका के नंगे पांव से
लिपट कर आई
गांव की मिट्टी से
तुम्हारे फर्श पर सज गई अल्पना
अब तुम्हारी है

हमारे पूर्वजों की अस्थियों में
अनजाने सपनों और दुआओं
की सुलगती राख
और उनके गर्भ में
ठहर गए समय का
उफनता ज्वार भी...
तुम्हारा है


अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर। हिन्दी व अंग्रेजी में कविता एवं कहानी लेखन। कहानी, पहल, हंस, कथादेश, वागर्थ, साक्षात्कार, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, पल-प्रतिपल, आउटलुक, आजकल और लोकायत में रचनाएं प्रकाशित। ‘खोई दुनिया का सुराग’ तथा ‘बीत चुके शहर में’ (कविता संग्रह)। ‘गैस चैम्बर के लिए इस तरफ़’ ‘संस्मृतियों में तालस्तॉय’(अनुवाद)। नेट पर “शब्द सृजन” तथा “उर्वर प्रदेश” ब्लाग्स।

सम्पर्क : 82/400, राज वंशी नगर, पटना-800023
दूरभाष : 09835070164
ई-मेल : yogendrakrishna@yahoo.com

लघुकथाएं- पृथ्वीराज अरोड़ा

घर की रोटी

“देवदास बने बैठे हो साले !” साथी ने धोल जमाते हुम पूछा। उसने आँखें ऊपर उठायीं। डबडबाईं आँखें देखकर धोल जमाने वाला साथी सकते में आ गया, “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं यार! इसी गाड़ी से उतरा हूँ। उतरते-उतरते रोटियों की एक पोटली उठा लाया हूँ।”
“रोटियों की पोटली?” कहकहाना चाहता था वह। स्थिति भांपते हुए यह कहते-कहते रुक गया कि पॉकेटमारी छोड़कर यह भिखारियों वाला धंधा कब से अपनाया ?
अपने दर्द को उलीचते हुम वह बोला, “सालों बीत गए माँ के हाथ की बनी भीनी-भीनी सुगंध वाली रोटियां खाए ! इस पोटली की रोटियों की सुगंध सह नहीं पाया और चुरा लाया।”
सुनकर साथी का चेहरा भी डूब-सा गया। भीगे स्वर में बोला, “अकेले मत खा लेना। मुझे भी खिलाना।”
“एक ही खायी है, देखो।” उसने पोटली खोली, नरम-नरम मुलायम-सी रोटियां थीं, साथ में आम का अचार। साथी ने ललचाई नज़रों से हाथ बढ़ाया। उसने उसके हाथ को बीच में ही रोक लिया, “अभी नहीं।” साथी ने प्रश्नभरी नज़रों से देखा। वह आगे बोला, “रोटी खाते हुए मेरी नज़र उस डिब्बे में चली गयी। उधर देखो, तीसरे डिब्बे में दूसरी खिड़की के पास जो अधेड़ औरत बैठी है और टकटकी लगाए पकौड़ेवाले को देख रही है, उसी की रोटियां हैं। मुझे लगा कि मेरी माँ भूखी है, इसलिए मुझसे दूसरी रोटियां नहीं खायी गयीं।”
“फिर ? क्या रोटियां लौटा दें ?”
“माँ के हाथ की तरह बनी रोटियों के स्वाद का मोह नहीं छोड़ा जा रहा। इसका मैंने बंदोबस्त कर दिया है।”
“क्या ?”
“जैसे ही गाड़ी रेंगेगी, पकौड़ेवाला गर्म-गर्म पकौड़े और डबलरोटी उसको पकड़ा देगा कि सामने जो हाथ हिला है, उसने भेजी है, शायद आपका कोई रिश्तेदार है। उसे माँ समझते हुए विदा देने के लिए हाथ हिला दूँगा। फिर हम दोनों बैठकर अपनी-अपनी माँ को याद करते हुए इन रोटियों को खायेंगे।”
“अच्छा। मैं भी हाथ हिला दूँगा।” कहते हुए दोनों गलबाही डालते हुए रो पड़े।
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योगाभ्यास

बाजू हिल रहे थे। टांगें हिल रही थीं। चेहरे हिल रहे थे। पेट हिल रहे थे। सांसें हिल रही थीं। रंग-बिरंगे कपड़े सतरंगी दृश्य उपस्थित कर रहे थे।
वे यह दृश्य देखकर ठिठक गये।
एक ने पूछा, “रघु भैया, आप हमार मुखिया हैं। हमका समझावा ई लोग का कर रहे हैं ?”
रघु ने बैनर पर लिखा पढ़कर सुनाया, “योगाभ्यास शिविर पखवाड़ा। यहाँ योग का अभ्यास करवाया जा रहा है। देखते नहीं कि सामने ऊँचे आसन पर बैठा भगवे कपड़े पहने व्यक्ति जो योगासन करता है, सभी उपस्थित लोग उसी को दोहराते हैं।”
दूसरे ने जिज्ञासा प्रगट की, “हम भी थोड़ी देर के लिए इनमें शामिल हो जाएँ ?”
रघु ने पल भर घड़ी पर नज़र डाली। मुस्कराकर बोला, “क्या करोगे शामिल होकर ? यह हमारे लिए नहीं है। यह उनके लिए है, जो ठंडे-ठंडे कमरों में बैठते हैं, कुछ फास्ट-फूड के शौकीन हैं, कुछ ठूंस-ठूंस कर खाते हैं, कुछ निठल्ले हैं।” वह पलभर रुका, फिर बोला, “हम तो सारा दिन योगाभ्यास करते हैं, मसाला बनाते हुए, तसले में डालते हुए, भाग-भाग कर उसे मिस्त्री तक पहुँचाते हैं। हमारे बाजू हिलते हैं, टांगें हिलती हैं, सांसें हिलती हैं। हमारा यहाँ क्या काम ? देर हो रही है, जल्दी चलो।”
वे गुनगुनाते हुए अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए।
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जन्म : बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान)
प्रकाशित कृतियाँ : तीन न तेरह, पूजा, आओ इन्सान बनाएं(कथा-संग्रह)
प्यासे पंछी (उपन्यास)
पुरस्कार/सम्मान : लघुकथा में शिखर सम्मान।
सम्पर्क : कोठी नं0 854-III, विक्रम मार्ग,
सुभाष कालोनी, करनाल- 132001(हरियाणा)
दूरभाष : 09213583570

भाषांतर

धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-5)



हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

॥ पाँच ॥

भोर के समय, जब अभी अंधेरा ही था, पोल्तोरत्स्की की कमान में कुल्हाडि़यों से लैस दो कम्पनियों ने कतारबद्ध संतरियों के पहरे में शगीर गेट के बाहर पाँच मील जाने के लिए प्रस्थान किया। उन्होंने प्रकाश होते ही जंगल काटना प्रारंभ कर दिया। आठ बजे के लगभग कोहरा, जिसमें सीत्कारती और चिटखकर जलती आद्र टहनियों का सुगन्धित धुआँ मिश्रित हो गया था, छंटने लगा था। लकड़ी काटने वाले जो पहले पाँच गज तक भी नहीं देख सकते थे और एक दूसरे को कोहरे में केवल सुन ही पा रहे थे, अब उन्हें आग और पेड़ों से ढके जंगल का रास्ता साफ दिखाई देने लग था। कोहरे में सूर्य एक चमकदार बिन्दु की भाँति रुक-रुककर प्रकट हो रहा था और छुप रहा था। जंगल के एक खुले स्थान में सड़क से कुछ दूर कुछ लोगों का एक दल ड्रमों पर बैठा हुआ था। उनमें पोल्तोरत्स्की और उसका अधीनस्थ तिखोनोव, तीसरी कम्पनी के दो अफसर और द्वन्द्व युद्धाभ्यास के दौरान किसी त्रुटि के कारण कार्यमुक्त हो चुका गारद रेजीमेण्ट का एक पूर्व सैनिक, संचार कोर में पोल्तोरत्स्की का पुराना साथी बैरन फ्रेशर था। सैण्डविच की लपेटन, सिगरेट के टुकड़े और खाली बोतलें उनके चारों ओर छितराये हुए थे। उन्होंने वोदका और स्नैक ली थी और ‘स्टाउट‘ (एक प्रकार की काली बियर) पी रहे थे। ढोल बजाने वाला तीसरी बोतल खोल रहा था। पोल्तोरत्स्की, यद्यपि कम सोया था, पर प्रसन्न और चिन्तामुक्त मन:स्थिति में था, जैसा कि सदैव अपने आसपास खतरा होने पर वह अपने सैनिकों और साथियों के बीच हुआ करता था।
अधिकारी उन दिनों चर्चा का विषय बने हुए जनरल स्लेप्स्तोव की मृत्यु पर उत्तेजनापूर्ण वार्तालाप कर रहे थे। उस मृत्यु में स्लेप्स्तोव के जीवनकाल के महत्वपूर्ण क्षणों, उसके अंत और उसकी मृत्यु के कारणों पर किसी ने विचार नहीं किया। उन्होंने सिर्फ़ एक साहसी अफसर की वीरता पर चर्चा की, जिसने अपनी तलवार से कबाइलियों पर आक्रमण किया था और निर्भीकतापूर्वक उन्हें काट गिराया था।
यद्यपि सभी अधिकारी, विशेषरूप से जिन्हें व्यावहारिक अनुभव था यह जानते थे कि न तो काकेशस में और न हीं कहीं अन्यत्र आमने-सामने तलवारों से युद्ध होता है जैसा कि प्राय: कल्पना की जाती थी और बताया जाता था (अगर ऐसा हुआ भी तो वह भागने वाले के साथ ही होता था जिसे या तो तलवार से काट दिया जाता था या संगीन से घायल कर दिया जाता था)। आपने-सामने लड़ने की कहानी को जो अफसर स्वीकार करते थे वे शांत गर्व और प्रसन्नता से प्रेरित होकर, ड्र्मों पर बैठकर कुछ दिलेरी से, शेष संकोच से तम्बाकू पीते, शराब पीते और मजाक करते हुए उसकी चर्चा किया करते थे। वे मृत्यु की किंचित भी चिन्ता न करते थे, जो उन्हें किसी भी क्षण घेर सकती थी, जैसा कि स्लेप्स्तोव को आ घेरा था। और सचमुच, वार्तालाप में जिस समय वे अपनी अपेक्षा को प्रमाणित करने वाले थे, उस समय राइफल की गोली की एक तीव्र आवाज से उनकी बातचीत बाधित हुई जो सड़क के बायीं ओर तेज कड़क के साथ पुन: सुनाई दी थी। गोली सनसनाती हुई कोहरा मिश्रित हवा को चीरती हुई तेज आवाज के साथ एक पेड़ में जा लगी थी। सैनिकों की राइफलों से भी तेज आवाज करती अनेकों गोलियों ने शत्रु की गोलीबारी का उत्तर दिया था।
‘ओह’ पोल्तोरत्स्की प्रसन्नतापूर्वक चिल्लाया, ‘‘वह सीमा की ओर से आयी थी। क्या वह उधर से नहीं आयी थी? कोस्त्या, तुम्हारा भाग्य” उसने फ्रेशर से कहा, “तुम अपनी कम्पनी में चले जाओ। एक मिनट में हम एक शानदार युद्ध लड़ेंगे। हम एक सैन्य-प्रदर्शन प्रस्तुत करेगें।”
बरखास्त बैरन उछलकर खड़ा हुआ और धुंए में तेजी से अपनी कम्पनी की ओर बढ़ा। पोल्तोरत्स्की अपना छोटा चित्तकबरा घोड़ा ले आया, उस पर सवार हुआ, अपनी कम्पनी में पहुंचा और गोली चलने की दिशा में सीमा की ओर उसका नेतृत्व किया। सीमा रेखा जंगल के किनारे हल्के ढलान वाली छोटी घाटी के सामने थी। हवा जंगल की ओर बह रही थी, और न केवल घाटी की ढलान बल्कि उससे बहुत दूर तक साफ दिखाई दे रहा था।
पोल्तोरत्स्की जब सीमा के निकट पहुंचा, सूर्य कोहरे के बाहर झांकता दिखाई पड़ा। घाटी से दूर; विरल जंगल में वह पुन: प्रकट हुआ। वहाँ से एक फर्लांग की दूरी पर उसने अनेक घुड़सवारों को देखा। वे चेचेन थे जो हाजी मुराद का पीछा करते हुए वहाँ तक आ पहंचे थे और अब रूसी सेना के समक्ष उसको आत्म-समर्पण करते देखना चाहते थे। उनमें से एक ने सीमा रेखा की ओर फायर किया था। सैनिकों ने उसका प्रत्युत्तर दिया था। चेचेन रुक गये थे और फायरिंग बंद हो गयी थी। पोल्तोरत्स्की अपनी कम्पनी के पास पहुँचा और उसने फायर शुरू करने का आदेश दिया। और जैसे ही आदेश दिया गया एक साथ सैनिकों की गोलियाँ कोहरे को भेदती रमणीय शोर करती हुई सनसनाने लगीं। सैनिक इस मनोरंजन का आनंद ले रहे थे। वे उन्मत्त हो रायफलें लोडकर गोलियों की बौछार-दर-बौछार कर रहे थे। प्रकट रूप से चेचेन बहुत क्रुद्ध दिखे। सैनिकों पर लगातार गोलियाँ दागते हुए वे सरपट दौड़ रहे थे। उनकी गोली से एक सैनिक घायल हो गया। यह सैनिक वही आवदेयेव था, जो रात में पहरेदारी कर रहा था। जब उसके साथी उसके निकट पहुँचे, वह दोनों हाथों से अपने पेट का घाव पकड़े मुँह के बल लेटा हुआ था। वह लगातार कांप रहा था और धीमे स्वर में कराह रहा था।

“मैं अभी अपनी राइफल लोड कर ही रहा था कि मैनें एक धमाका सुना,” उसके पास खड़ा सैनिक बोला, “मैनें मुड़कर देखा और इनके हाथ से रायफल गिर गयी थी।”
आवदेयेव पोल्तोरत्स्की की कम्पनी में था। सैनिकों के एक समूह को एकत्रित देखकर पोल्तोरत्स्की वहाँ आ गया।
“क्यों, तुम्हे चोट लगी है ? कहॉं ?” वह बोला।
आवदेयेव ने उत्तर नहीं दिया ।
“सर, मैं अभी अपनी राइफल लोड कर ही रहा था,,” सैनिक ने कहा जो उसके पास खड़ा था, “कि मैनें एक धमाका सुना। मैनें मुड़कर देखा और इनके हाथ से रायफल गिर गयी थी।”
“टट…टट…,” पोल्तोरत्स्की ने अपनी जीभ टटकारी। “अच्छा, आवदेयेव, क्या दर्द अधिक हो रहा है ?”
“सर, अधिक चोट नहीं है, लेकिन मैं चल नहीं सकता। सर, मुझे ड्रिंक करना अच्छा लगेगा।”
उन्हें थोड़ी-सी वोदका मिली जो सैनिकों ने काकेशस में पी थी। पानोव ने निष्ठुरता से त्योरियाँ चढ़ाते हुए आवदेयेव को ढक्कनभर शराब दी। आवदेयेव ने एक घूंट ली, लेकिन तुरंत ढक्कन दूर हटा दिया।
“इसे गिराओगे नहीं,” उसने कहा, “तुम इसे स्वयं पी लो।”
पानोव ने वोदका समाप्त कर दी। आवदेयेव ने उठने का प्रयास किया और एक बार फिर ढह गिरा। वे एक ओवरकोट ले आए और उसे उसके ऊपर डाल दिया।
‘‘सर, कर्नल साहब आ रहे हैं।” सार्जेंट मेजर ने पोल्तोरत्स्की से कहा।
‘‘बहुत अच्छा, उनके लिए तैयार हो जाओ, ” पोल्तोरत्स्की बोला और अपना चाबुक फटकारा। वह वोरोन्त्सोव से मिलने के लिए तेजी से चल पड़ा।
वोरोन्त्सोव एक अंग्रेजी नस्ल के पांगर स्टैलियन पर सवार था। एक कज्जाक रेजीमेण्टल एड्जूटेण्ट, और एक चेचेन दुभाषिया उसके साथ थे।
“यहाँ क्या घटित हुआ ?” उसने पोल्तोरत्स्की से पूछा।
“उनका एक दल निकलकर एकदम बाहर आया और उसने हरावल पर आक्रमण कर दिया।”
“हूँ, मैं समझता हूँ कि यह सब तुमने प्रारंभ किया !”
“नहीं, मैनें नहीं, प्रिन्स, ” पोल्तोरत्स्की मुस्कराता हुआ बोला, “वे ही हम पर चढ़ आये थे।”
“मैनें सुना, यहाँ कोई व्यक्ति घायल हुआ है ?”
“हाँ, यह खेदजनक है। वह एक अच्छा सैनिक है।”
“गंभीररूप से ?”
“मैं ऐसा ही सोचता हूँ, पेट में…”
“और आप जानते हैं मैं कहाँ जा रहा हूँ ?” वोरोन्त्सोव ने पूछा।
“नहीं।”
“सच, तुम अनुमान नहीं लगा सकते ?”
“नहीं।”
“हाज़ी मुराद आया है और हमसे लगभग मिलने ही वाला है।”
“असम्भव।”
“कल उसका एक प्रतिनिधि आया था,” वोरोन्त्सोव संतोषजनक मुस्कान को दबाने का भरसक प्रयत्न करता हुआ बोला, “वह इस समय शालिया के जंगल में हमारी प्रतीक्षा कर रहा होगा, इसलिए अपने रायफलधारियों को जंगल में तैनात करो और मुझे रिपोर्ट दो।”
“जी, सर।” सैल्यूट मारते हुए पोल्तोरत्स्की बोला, और अपनी कम्पनी की ओर चला गया। उसने अपने दाहिनी ओर सैनिकों को पंक्तिबद्ध किया और सार्जेंट मेजर को बायीं ओर पंक्तिबद्ध करने का आदेश दिया। इसी बीच सैनिक घायल आवदेयेव को छावनी वापस ले गये।
पोल्तोरत्स्की वारोन्त्सोव के पास वापस जाते हुए अभी रास्ते में ही था कि उसे पीछे की ओर से आते हुए कुछ घुड़सवारों की झलक दिखाई दी। वह रुक गया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा।
आगे, सफेद ट्यूनिक, फर का टोप और पगड़ी पहने हुए, स्वर्ण जटित रायफल लिए प्रभावशली व्यक्तित्ववाला एक व्यक्ति, सफेद घोड़े पर सवार था। यह हाजी मुराद था। वह पोल्तोरत्स्की के पास आया और तातारी में उससे कुछ कहा। पोल्तोरत्स्की ने त्योरियॉं चढ़ाईं, कुछ न समझ पाने का भाव प्रदर्शित करते हुए अपनी बाहें फैलायीं और मुस्कराया। हाजी मुराद भी उत्तर में इस ढंग से मुस्कराया कि पोल्तोरत्स्की को उसकी मुस्कराहट में एक बच्चे जैसी निर्दोषता दिखी। पोल्तोरत्स्की को किंचित् भी यह आशा न थी कि पहाड़ों का यह पुनर्संदिग्ध व्यक्ति ऐसा होगा। उसने उसकी एक निर्दय, रूखे और भयावह व्यक्ति के रूप में कल्पना की थी और यहाँ एक अति सरल व्यक्ति उपस्थित था जो इस प्रकार से मुस्करा रहा था मानो वह पुराना मित्र था। उसमें केवल एक ही विशिष्टता थी, वह थी उसकी बड़ी-बड़ी आँखें जो दूसरे लोगों की आँखों में सतर्क, बेधक और शांतभाव से दखती थीं।
हाजी मुराद अपने साथ चार लोगों को लेकर आया था। उनमें से एक खान महोमा था, जो पिछली रात वोरोन्त्सोव से मिला था। वह गुलाबी गोल चेहरे वाला व्यक्ति था। उसकी खुली आंखें काली और चमकदार थीं और चेहरे पर मुस्कराहट और प्रसन्नता का भाव था। दूसरा, स्थूल, सांवला, घनी भौहों वाला व्यक्ति था। वह हनेफी था, एक तवलियन, जो हाजी मुराद का प्रबंधक था। वह सामग्री से भरे पिट्ठू बैग लादे घोड़े पर चल रहा था। दल के दो लोग विशेषरूप से बाहर रुके हुए थे। उनमें से एक पतली कमर, चौड़े कंधे ,सुन्दर दाढ़ी, बड़ी और खुली आँखों वाला खूबसूरत नौजवान एल्दार था। दूसरा व्यक्ति एक आँख से काना, बिना भौहों या बरौनियों वाला, लाल दाढ़ी और नाक के आर-पार चेहरे तक फैले घाव के निशान वाला व्यक्ति था। वह चेचेन हमज़ालो था।
पोल्तोरत्स्की ने हाजी मुराद से वोरोन्त्सोव की ओर इशारा किया जो सड़क पर दिखाई दिया था। हाजी मुराद उसके निकट पहुंचा और अपना दाहिना हाथ अपने सीने पर रखकर तातारी में कुछ कहा और रुक गया। चेचेन दुभाषिये ने उसके शब्दों का अनुवाद किया।
“मैनें स्वयं को जा़र के समक्ष आत्म-समर्पित कर दिया है,” वह कहता है “मैं चाहता हूँ,” वह कहता है, ‘‘उनकी सेवा करूं। मैं बहुत पहले से ऐसा करना चाहता था। लेकिन शमील ने मुझे छोड़ा ही नहीं।”
दुभाषिये को सुनने के बाद वोरोन्त्सोव ने हिरण की खाल वाले दस्ताने में से अपना हाथ बाहर निकाल हाजी मुराद की ओर बढ़ाया। हाजी मुराद ने हाथ की ओर देखा और एक सेकेण्ड के लिए संकुचित हुआ, लेकिन फिर दृढ़ता से हाथ मिलाया और पहले दुभाषिये की ओर फिर वोरोन्त्सोव की ओर देखता हुआ पुन: बोला -
“वह कहता है कि वह आपके अतिरिक्त किसी अन्य के समक्ष आत्म-समर्पण नहीं करना चाहता, क्योंकि आप सरदार के पुत्र हैं। वह आपका बहुत आदर करता है।”
वोरोन्त्सोव ने धन्यवाद प्रकट करते हुए सिर हिलाया। हाजी मुराद ने अपने दल की ओर इशारा करते हुए आगे कुछ और कहा।

“वह कहता है कि ये लोग उसके अंगरक्षक हैं और उसीकी भाँति रूसियों की सेवा करेंगें।”
वोरोन्त्सोव ने मुड़कर उनकी ओर देखा और उनकी ओर भी सिर हिलाया।
काली और खुली आँखों वाले खान महोमा ने भी सिर हिलाते हुए स्पष्ट रूप से उत्तर में हंसकर कुछ कहा, क्योंकि सांवला अवार मुसकराहट में अपने धवल दांतों को चमकने से नहीं रोक पाया। हमज़ालो ने अपनी एक लाल आँख से क्षणभर के लिए वोरोन्त्सोव की ओर देखा, फिर एक बार और अपने घोड़े के कानों पर अपनी दृष्टि स्थिर कर एकटक देखने लगा।
जब वोरोन्त्सोव और हाजी मुराद, अपने दल के साथ छावनी की ओर वापस गये, सैनिक पंक्ति से बाहर आ घेरा बना खड़े हो गये और अपने-अपने अनुमान लगाने लगे।
“इस शैतान ने कितने लोगों की हत्याएं की, और देखो, वे उसके साथ लार्ड जैसा व्यवहार करने जा रहे हैं।”
“देखो, अल्पकाल में ही वह शैम्मूल का शीर्ष कमाण्डर बन गया था। जरा अब उसे देखो।”
“स्वागतम, यह तुम्हारे सोचने का अपना ढंग है, लेकिन वह एक ‘हीरो’ एक ‘भद्रव्यक्ति‘ है।”
“उस लाल बालों वाले, और भेंगीं आँखों वाले शैतान को तो देखों।”
“सुअर होगा।”
वे विशेषरूप से लाल बालोंवाले व्यक्ति पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे।
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जहाँ जंगल की कटाई प्रगति पर थी, सैनिक हाजी मुराद को एक नजर देखने के लिए दौड़कर सड़क के निकट तक आ गये थे। एक अधिकारी उन पर चीखा, लेकिन वोरोन्त्सोव ने उसे रोक दिया।
“उन्हें अपने पुराने साथी को देख लेने दो। तुम जानते हो यह कौन है ?” वोरोन्त्सोव ने अंग्रेजी लहजे में धीरे से शब्द उच्चारित करते हुए बिल्कुल पास वाले सैनिकों से पूछा।
“नहीं हुजूर, हमें कोई जानकारी नहीं है।”
“हाजी मुराद, तुम लोगों ने उसके विषय में सुना है ?”
“हाँ, हुजूर, हमने उसे अनेकों बार हराया था।”
‘‘उसके साथ एक छोटा दल भी आया है।”
‘‘बहुत अच्छा, हुजूर,” सैनिक ने उत्तर दिया। वह इस बात से प्रसन्न था कि अपने प्रधान से बात करने में वह सफल रहा था।
हाजी मुराद ने अनुमान लगाया कि वे उसके विषय में ही बातें कर रहे थे, और एक हल्की मुस्कान उसकी आँखों में चमक गयी थी। वोरोन्त्सोव हृदय में अच्छा भाव लिए छावनी वापस लौट आया था।
(क्रमश: जारी…)

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पुस्तक समीक्षा

उम्मीदें जगाती कहानियां
जाहिद खान

तरुण भटनागर नई सदी की पहली दहाई के उन युवा कथाकारों में से एक हैं, जिनकी कहानियों ने अल्प समय में ही हिन्दी कथा साहित्य पर अमिट प्रभाव छोडा। ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित उनके पहले कहानी संग्रह “गुलमेंहदी की झाडियां” में कुल जमा 7 कहानियां हैं, प्रत्येक अपनी भाषा, शिल्प, कथा, रुप-विन्यास के लिहाज से बिल्कुल जुदा। कहीं भी दोहराव नहीं है और एक मंजे हुए किस्सागो की तरह तरुण जिस तरह अपनी कहानियां पेश करते हैं, उसके मोहपाश से पाठक बच नहीं सकता। पाठकों को बांध रखने में सफल इन कहानियों पर वरिष्ठ आलोचक परमानंद श्रीवास्तव की टीप्पणी बिल्कुल सही है ,‘संग्रह कई समयों के द्वंद्व का रोचक आख्यान है।’
संग्रह की प्रतिनिधी कहानी “हैलियोफोबिक” है, यद्यपी संग्रह का टाइटल एक अन्य कहानी पर “गुलमेंहदी की झाडियां” है। यह कहानी जब पहल-85 में आई थी, काफी चर्चा में रही थी। अफगान युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी युद्ध और शरणार्थी कैंपों की विभीषिका को बडे प्रभावशाली ढंग से दिखाती है। जंग की सियासत पर क्रिटिक की तरह, यह खान जो इसका मुख्य पात्र है, सिर्फ़ उसका ही नहीं बल्कि हमारे समय का कडवा सच है। कहानी को लेखक ने 1988 तक सीमित करके अमेरिकी साम्राज्यवाद को इसका हिस्सा नहीं बनाया है, बावजूद इसके यह एक नायाब कहानी है। अपने कथ्य और विषयवस्तु के लिहाज से हिन्दी कथा साहित्य में पहली भी।

जिंदगी में अभावग्रस्तता कैसे-कैसे मुहावरे गढ लेती है, कहानी गुणा भाग इसका अहसास कराती है। संपेरों की बस्ती और एक अल्हदा संसार जहां जीवन से नहीं, बल्कि मौत से उम्मीद है। चंपालाल का बेटा देव स्कूली पढाई के दौरान भी जिंदगी और मौत का गुणा-भाग लगाता रहता है – ‘लडके का गुणा भाग कठिन हो गया। शिव का प्रसाद… सांप देवता... जहर अच्छा है, मरने पर खुशी का गीत… बुजुर्गों की खुद को सांप से डसवाने की कहानी… सरकार के पचास हजार रुपये वह भी सात दिनों में… फिर जिंदा रहना बडी बात कैसे ? हर जगह मरना बडा है, तब जीना बडी बात कैसे ?....फिर क्या गुणा भाग ठीक है ? ऐसे में गुणा भाग ठीक कैसे ? कतई नहीं… कहीं तो गडबड है, गुणा भाग गडबड है...।’ कहानी में ब्यौरे और मंजर इतने नायाब हैं, कि सपेरों की दुनिया साकार हो जाती है। हाशिये पर खडे समाज की जिंदगी को इतनी बारीकी से देखना काबिले तारीफ है। यही बात “गुलमेंहदी की झाडियों” में भी है, जिसमें लेखक ने कचरा बीनने वाले बच्चों के जीवन में झांकने की कोशिश की है ।
“बीते शहर से फिर गुजरना”, “फोटो का सच” और “कौन सी मौत” कहानियों पर ‘निर्मलीय प्रभाव’ दीखता है। कहानियों में जज्बातों का अंधड बाकी तत्वों को उडा ले जाता है, हां, भाषाई चमत्कार खूब है – ‘वह नहीं होती तो यह एक बीता हुआ शहर होता। उन बीते शहरों में से एक जहां फिर से जाने का कोई कारण नहीं बचा है। ऐसे बहुत से शहर हैं जो बीत गये। जहां जाना समय को खोना है। जहां जाकर कुछ नहीं हो सकता। पर वह थी और आज यूं यह शहर पूरी तरह से बीत नहीं पाया है। उसके होने के कारण यह शहर मर नहीं पाया है। लगता है कुछ रह गया है। कुछ रह गया है बीतने से। कुछ रह गया है, इसे पूरी तरह से बेजान बनाने से। यह शहर अभी खोया नहीं है। इस शहर को अभी गुम होना है। उसने अभी इसे गुमने नहीं दिया है।’(बीते शहर से फिर गुजरना)

“हंसोड हंसुली” संग्रह की वह कहानी है, जो बरसों में एकाध ही लिखी जाती है। किस्सागोई, भाषा और शिल्प इतना अद्भुत है, कि यह किसी नये रचनाकार की प्रारंभिक कहानी नहीं लगती है। झारखण्ड के छोटा नागपुर के गांव लोरमी की यह कहानी बडी रोचक है। गांव से एक के बाद एक लोग गायब होते चले जाते हैं और पूरा गांव लडइय्यों के आतंक से हिल जाता है। पर लडइय्यों की हकीकत क्या है ? कौन है इसके पीछे ? यह कहानी को पढकर ही जाना जा सकता है । कहानी का अंत क्लासिक है, जो अप्रत्याशित है और चौंकाता भी है– ‘यह कहानी आज सिर्फ़ बाबू जी जानते हैं। दुनिया में और किसी को यह नहीं पता। बाबू जी के साथ ही यह अनजानी कहानी भी एक दिन गुमनाम हो जायेगी। किसी को पता नहीं चलेगा कि, क्या हुआ था। इस कहानी का कुछ नहीं हो सकता है। यह कहानी कही नहीं जा सकती है। कुछ कहानियां बिना किसी को पता चले खत्म होती हैं। यह वैसी ही कहानी है। इसीलिए शुरु में ही बता दिया गया है, कि यह एक झूठी कहानी है। इस कहानी को ना तो किसी ने किसी को बताया और ना कभी बतायेगा। इस कहानी का होना, इसका पता चलना नहीं है। बाबू जी कभी नहीं कहेंगे। यह कहानी कभी भी किसी को पता नहीं चल सकती।’

अपनी कहानियों में तरुण शब्दों के साथ खूब खिलवाड़ करते हैं । कहानी का नैरेशन कई बार कविताई और शब्दों के चुनाव से जोरदार बन पडता है –‘एक से काकभगाऊ और एक से कौए । सबके लिए रांपे से एक सी अंगार झौंकती धूप। मिट्टी, गोबर और गेरुये की एक सी कडवी गंध वाली दीवारों पर लुढकी, एक सी गांवडी खपरीली छतें। ढेकी और हालर की एक सी किडरकिडर। एक सी आडी टेढी जोंक सी खेतों की मेड। एक से कुंये। एक सी कुण्डि, डबरा-डबरी…। एक सी कुंओं की पार। एक सी लोहे की किरर-खिडर घिर्रियां। एक से यतीम खलिहान। और... । और बस शकलों से अलग चेहरे।’

कुल मिलाकर यह संग्रह खूब उम्मीदें जगाता है और आश्वस्ति भी देता है, कि तरुण की कलम से ऐसी और कहानियां निकलेंगी जो पाठकों को नई दुनिया से रुबरु करायेंगी और साहित्य को समृद्ध करेंगी ।
-महल कालोनी शिवपुरी ,म.प्र.
कहानी संग्रह – गुलमेंहदी की झाड़ियां
लेखक– तरुण भटनागर ,
प्रकाशक– भारतीय ज्ञानपीठ ,
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया,
लोदी रोड, नई दिल्ली-110003
पृष्ठ संख्या – 152 ,मूल्य–120 रुपये।

गतिविधियाँ

चार पुस्तकों का लोकार्पण

ग़ज़ल में तखल्लुस का काफी महत्व : डा. शेरजंग गर्ग

दिनांक 4 जुलाई 2008 को नई दिल्ली में साहित्य अकादेमी सभागार में आयोजित पुस्तक लोकार्पण सामारोह के दौरान हिंदी के वरिष्ठ कवि, ग़ज़लकार डा. शरेजंग गर्ग अपने विचार रखते हुए कहा कि अमूमन ग़ज़लकार कोई न कोई तखल्लुस रख लेते हैं, लेकिन उसको साकार नहीं कर पाते हैं। कम भी ऐसे ग़ज़लगो हुए हैं जिन्होंने अपने तखल्लुस को सार्थक किया है। गालिब, मीर जैसे महान शायर भी इसको सार्थक करने में उतने सफल नहीं हो सके। पूरे ग़ज़लकारों पर नज़र दौड़ाई जाए तो बलवीर सिंह ‘रंग’ ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने अपने ‘रंग’ उपनाम को सार्थक किया है। उसी प्रकार श्री देवेन्द्र ‘मांझी’ ने भी अपने ‘मांझी’ उपनाम को तमाम उपमाओं में पिरोकर ग़ज़ल को एक नई दिशा देने का काम किया है। मांझी को ग़ज़ल की व्याकरण और काफिया-रदीफ की मुक्कमल जानकारी है, लिहाजा वह औरों से अलग दिखता है।
‘हिंदी साहित्य मंथन’ और ‘मंजुली प्रकाशन’ के बैनर तले आयोजित पुस्तक लोकार्पण सामरोह के दौरान एक साथ चार पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। जिसमें इशारे हवाओं के (ग़ज़ल संग्रह), समन्दर के दायरे (ग़ज़ल संग्रह), झुकी पीठ पर बोझ (दोहा संकलन)– तीनों के रचनाकार श्री देवेन्द्र मांझी और तीन कदम (ग़ज़ल संग्रह) जिसका संपादन श्री धीरज चौहान ने किया है, का लोकार्पण किया गया। तीन कदम में तीन ग़ज़लकारों, श्री अशोक वर्मा, श्री देवेन्द्र मांझी और श्री आर.के. पंकज की ग़ज़लें हैं। पुस्तक का विमोचन डा. शेरजंग गर्ग ने किया।
इस अवसर पर श्री रमाशंकर श्रीवास्तव ने कहा कि ‘तीन कदम’ का मिजाज, शायर की रवानगी प्रशंसनीय है। काल्पनिक उड़ानवाली रचनाएं पाठक को प्रभावित नहीं कर पाती हैं, इसको ध्यान में रखकर ही तीनों रचनाकारों ने कलम चलाई है। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक डा. राजेंद्र गौतम ने कहा कि सहयोगी संकलन निकाली जानी चाहिए, इससे एक नई प्रेरणा मिलती है। देवेंद्र मांझी की पुस्तकों पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि मांझी की जूझना साबित करता है कि उन्होंने जिंदगी को काफी शिद्दत के साथ जिया है। मांझी जीवन-संग्राम के एक जुझारू नेता हैं और उनके संघर्षों की आंच उनकी ग़ज़लों में देखने को मिलती है। प्रसिद्ध ग़ज़लकार-कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने मांझी को एक आदमी का रहनुमा बताया और कहा कि वह आम आदमी की पीड़ा-घुटन-एहसास को रूपायित करते हैं। जो बात वे करते हैं वे हर दौड़ में किसी न किसी रूप में प्रासंगिक होती है और यही बात किसी भी रचनाकार को नयी उंचाई और पाठक के डायरी को समृद्ध करती है।
इसके अतिरिक्त डा. अशोक लव और डा. हरीश अरोड़ा ने भी तीनों रचनाकरों के रचनाओं पर अपने विचार रखे और कहा कि मिजाज में थोड़ा अलगाव लिए हुए भी तीनों की मंजिल एक है और तीनों का कथ्य भी; इसी कारण तीन कदम का प्रकाशन संभव हो पाया। कार्यक्रम का मंच-संचालन हिंदी के जाने-माने कवि सुरेश यादव ने बेहद खूबसूरती से किया और तीनों ग़ज़लकारों की चुनिंदा ग़ज़लों का उदाहरण देते हुए बीच-बीच में अपनी बात भी रखी।
रिपोर्ट : सुभाष चन्द्र