बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

साहित्य सृजन – सितम्बर-अक्तूबर 2009



‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में आप पढ़ेंगे – हिन्दुस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर की पुण्य-तिथि(30 अक्तूबर) पर “मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत कथाकार अशोक गुप्ता का मार्मिक आलेख “जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....”, समकालीन हिंदी कविता में अपनी विशिष्ट और पृथक पहचान रखने वाली कवयित्री कात्यायनी की कविताएं, सुपरिचित हिंदी कवयित्री-कथाकार अलका सिन्हा की कहानी “फिर आओगी न”, एक अरसे बाद लेखन में पुन: सक्रिय हुए लेखक सुधीर राव की लघुकथाएं, ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की नौवी किस्त, वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की पुस्तक “आम औरत, ज़िन्दा सवाल” की समीक्षा तथा गतिविधियाँ…
संपादक : साहित्य-सृजन


मेरी बात

बेगम अख़्तर की पुण्यतिथि पर विशेष
जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....
-अशोक गुप्ता

“जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है, जो साज़ पे गुज़री है वो किस दिल को पता है ? ”
यह एक बहुत पुराना शे’र है जो मुझे याद आ गया है। यह शे’र अचानक नहीं याद आया, अचानक याद आयीं बेगम अख्तर, जब मैंने किसी को यूँ ही गुनगुनाते सुना,
“जिस से लगाई आँख उसी को दिल का दुश्मन देखा है...”
तस्कीन कुरैशी के यह बोल जब भी, जैसे भी कानों में पड़ते हैं, कद्रदान श्रोता झूम उठते हैं, एक बार नहीं, सौ सौ बार.. लेकिन इसके आगे कभी किसी की नज़र बेगम अख्तर की ज़िन्दगी के उन पन्नों की तरफ नहीं जाती जहाँ इबारत खून से लिखी हैं और उस कलम पर बाकायदा नामज़द उँगलियों के निशान देखे जा सकते हैं। वहां तक तो न किसी नज़र गयी न किसी का वास्ता रहा। बेगम अख्तर गाती रहीं, हम सब सुनते रहे..
“तमाम उम्र रहे हम तो खैर काँटों में...”

इत्तेफाक से इस समय मेरे हाथ में उन्हीं पन्नों से उठाए हुए दर्द के कुछ टुकडे हैं, जिन्हें जानना, जो साज़ पर गुज़री है, उसे जानने जैसा है... कहता हूँ ।

मुश्तरी उस बीबी अख्तर की माँ का नाम है, जिसे पहले अख्तरी बाई के नाम से जाना गया फिर, बेगम अख्तर के नाम से. मुश्तरी जब कमसिन ही थीं, जनाब असगर हुसैन उन पर फ़िदा हो गए। वह एक नौजवान वकील थे, बाकायदा कानून से वाकिफ थे, सो बावजूद उस वक्त एक बीबी के शौहर होने के, उन्होंने मुश्तरी से शादी की। उस शादी से मुश्तरी ने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया जो जोहरा और बीबी अख्तरी कहलाईं। उसके बाद असगर हुसैन साहब ने अपनी इस मुश्तरी बेगम को उनकी दो दुधमुहीं बच्चियों के साथ घर से निकाल फेंका.... हो गया उनका इश्क का शौक पूरा।

अख्तरी और जोहरा को ले कर मुश्तरी ने संघर्ष किया। दोनों लड़कियों को कुदरत ने गायन का हुनर दिया था और बाप ने दर्द का समंदर.. खारे पानी में कोई आसानी से कहाँ डूबता है.. धीरे-धीरे अख्तरी बाई की गायकी पहचान पाने लगी, शोहरत उसके दरवाज़े पर आ खड़ी हुई, लेकिन शोहरत और नाम एक चीज़ है और मर्द की फितरत एकदम दूसरी। इसी रवायत के चलते एक दिन अख्तरी बाई के एक सरपरस्त ने उन्हें अपनी हवस का शिकार बना डाला। खुदा ने भी अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। अख्तरी बाई लड़की से औरत तो बनी ही, औरत से माँ भी बनने की दुर्गति में फंस गईं। सन तीस के सालों में, न तो लोगों में जानकारी थी, न ही सहूलियत, हिम्मत भी थी तो उसे जज़्बात ने अपनी मुठ्ठी में कर रखा था। तो नतीजा यह हुआ कि अख्तरी बाई ने एक बेटी तो जनी लेकिन उम्र भर उसे अपनी बेटी कह कर पुकार नहीं सकीं। परवरिश तो दी, लेकिन बतौर उस यतीम की रिश्तेदार। अख्तरी बाई को बाप नसीब नहीं हुआ था लेकिन उसे बाप का नाम तो मिला था और माँ भी उसके पास थी। अख्तरी बाई की बेटी को न तो बाप का मान मिला और न माँ का दामन...

अख्तर बाई गाती हैं-
“मेरे दुःख की दवा करे कोई...”
ग़ालिब के शे’र में अख्तरी बाई के लिए सिर छुपाने की जगह है. ओह ग़ालिब, अगर तुम न होते तो...?
वक्त के अगले दौर में जब अख्तरी बाई अपनी शोहरत और अपने हुनर की बुलंदी पर थीं, सन पैंतालिस का साल, बीबी अख्तरी की तीस को छूती उम्र, उन्होंने भी एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी कर ली। फिर, ढाक के तीन पात, शौहर की पाबन्दी बरपा हुई कि गायकी बंद।

पांच लम्बे बरसों तक बेगम अख्तर की आवाज़ उनके भीतर घुटती रही और बाहर आने को तरस गई. दुनिया जानती थी कि गायन बेगम अख्तर की जिंदगी का दूसरा नाम है, लेकिन बतौर शौहर, बैरिस्टर साहब का हुकुम आखिरी अदालत था..

दिनोंदिन बेगम अख्तर कि सांसें गर्क होती गईं, पहले एहसास और फिर शरीर गहरी बीमारी की लपेट में आ गया। गनीमत हुई कि एक डाक्टर ने मर्ज़ को समझा और कहा कि गाना शुरू करना ही मरीज़ का इलाज़ है, वरना मौत तो दरवाज़े पर ही खड़ी है।

बेहद मजबूरी में अब्बासी साहब में बेमन से हामी भरी और बेगम अख्तर ने गाना शुरू किया। सबसे पहले लखनऊ रेडियो स्टेशन पर बेगम अख्तर ने तीन गज़लें गाईं और उसके बाद वहीँ वह फूट-फूट कर रोने लगीं। उनका वह रोना हज़ार हज़ार ग़ज़लों से ज्यादा मन को झग्झोरने वाला था लेकिन वह किसी सीडी, किसी कैसेट में दर्ज नहीं है. किसी को उसकी तलब भी नहीं है।

30 अक्तूबर 1974 को जब उन्होंने दम तोडा, तब वह अहमदाबाद के एक सम्मलेन में गाने गईं थीं और अपने फेफडों की हैसियत पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा कर बैठीं, लेकिन फेफडे उन्हें दगा दे गए।

दगा तो बेगम अख्तर को उम्र भर किसी न किसी ने दिया, लेकिन उनको दिल पर भरोसा करने की बीमारी थी. वह मीर तकी मीर कि ग़ज़ल गाती थीं न -
“देखा इस बीमारिए दिल ने, आखिर काम तमाम किया...”

कितना सही था उनका अंदाज़, अपने बारे में और अपनी उस दुनिया के बारे में भी, जिसमे हम और आप आज भी हैं.
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29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली – 110089 मोबाईल नं- 09871187875

कविता


कात्यायनी की पाँच कविताएँ

(1) कला और सच

कला को
माँजा और निखारा जाय
इस हद तक कि
सच के बारे में
लिखी जा सके
एक सीधी-सादी छोटी-सी
कविता !

(2) बेहतर है...

मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है
ज़िन्दा रहने की
ख्वाहिश के हाथों मारा जाना !

(3) ऐसा किया जाए कि...

ऐसा किया जाए कि
एक साज़िश रची जाए।
बारूदी सुरंगे बिछाकर
उड़ा दी जाए
चुप्पी की दुनिया।

(4) बारिश के बाद

दिपदिपाती हैं
पनीली ललछौंह आँखें
जी भर रो लेने के बाद
प्यार से भरकर।

धुले-पुँछे खड़े हैं पेड़
तरोताज़ा, साफ़-दाफ़,
मुस्कुराते-हिलते हैं
नन्हें पौधे जंगली फूलों के
बारिश के बाद।

(5) पुराना अलबम

आसमान से बरसते जुगनू हैं
मम्मी के चेहरे का नूर है
एक झरना है पुराने अलबम में
हँसी की एक लहर
वह एक विस्मृत दोपहर
हवा में उड़ते रुई के फाहे
धुनकी की आवाज़
फुलसुँघनी चिड़िया और खिरनी का पेड़
बारिश की एक शाम में
पकौड़ी खाते
हम सभी दर्ज़न भर भाई-बहन
तूफ़ान और सन्नाटा और भेड़ें
और धूसर नंगे पहाड़
दादी का पायदान और
बुआ का कजरौटा भी मौजूद है
लोगों के बीच
पुरानी अलबम में।

वहाँ एक खाली जगह भी है
पासपोर्ट साइज़
दिल में रिसते नासूर जितना ही
क्षेत्रफल वाला
अपना अपना ढंग है
पुरानी चीज़ों को देखने का
बीत गई बातों पर
सोचने का -
अलबम का अपना
और
मेरा सपना !
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जन्म : 7 मई 1959
शिक्षा : एम.ए., एम.फिल.(हिन्दी)
विगत 24 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन। लगभग सात वर्षों तक 'नवभारत टाइम्स' और 'स्वतंत्र भारत' की संवाददाता के रूप में भी काम किया। संप्रति : स्वतंत्र लेखन।
कविताएँ हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कुछ कविताएँ अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में अनुदित-प्रकाशित। आधा दर्जन कहानियाँ प्रकाशित।
चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, फुटपाथ पर कुर्सी, राख अँधेरे की बारिश में(सभी कविता संकलन), दुर्ग द्वार पर दस्तक (स्त्री-प्रश्न विषयक निबन्धों का संकलन), षडयंत्ररत् मृतात्माओं के बीच(साम्प्रदायिक, फासीवाद, बुद्धिजीवी प्रश्न और साहित्य की सामाजिक भूमिका पर केन्द्रित निबन्धों का संकलन), कुछ जीवन्त, कुछ ज्वलन्त(समाज, संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित निबन्धों का संकलन), प्रेम, परम्परा और विद्रोह( शोधपरक निबन्ध) प्रकाशित।
समकालीन भारतीय स्त्री कवियों के पेंगुइन द्वारा प्रकाशित संकलन 'इन देयर ओन वॉयस' में कविताएँ शामिल।
क्रान्तिकारी वामपंथी राजनीति से अनुप्रमाणित सामाजिक सक्रियता, सांस्कृतिक मोर्चे व नारी मोर्चे के साथ साथ मज़दूर मोर्चे पर भी सक्रिय।
सम्पर्क : डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226020
ई-मेल :katyayani.lko@gmail.com
दूरभाष : 09936650658

लघुकथाएं


दो लघुकथाएं/सुधीर राव

कोशिश

एक महीना अस्पाल में रहने के बाद वह आज घर लौटा। बैसाखियों के सहारे चलता-चलता अंदर आया और बिस्तर पर लेट-सा गया।

शाम होते-होते घर में लोगों का आना-जाना शुरू हो गया। सभी हमदर्दी जता रहे थे। पड़ोस के शर्मा जी बोले- ''भैया, परमात्मा का शुक्र मनाओ, जो बच गए। कहीं बदन पर से पहिया निकल जाता तो बच्चे अनाथ हो जाते।'' तभी पांडे जी बोले, ''यह भौजाई का पुण्य है जो काम आया।''

रात का खाना परोसते हुए पत्नी ने पूछा, ''क्यों जी, कम्पनी भी तो कुछ मुआवजा देगी, कितना देगी ?''
''पांच-दस हजार शायद !'' उसने कहा।
तभी छोटे लड़के ने कहा, ''पापा, कल से फैक्टरी जाओगे ?''
''नहीं बेटा, अभी दर्द है, आराम करूँगा।''
''महीने भर के इलाज में पंद्रह-बीस हजार खर्च हो गए और तुम हो कि आराम करोगे ! मैं अकेली क्या-क्या देखूँ, कहाँ जाऊँ ? लाख-दो लाख का मुआवजा हो तो बात है। पांच-दस हजार में क्या होता है ? कल जाकर कोशिश करके देखना।'' पत्नी ने परेशान स्वर में कहा।
'हाँ, सच ही कहती है,' निवाला मुँह में रखते हुए उसने सोचा। वह कैसे कहे कि पांच-दस हजार नहीं, लाख-दो लाख के लिए ही उसने कोशिश की थी। अब पहिया सिर्फ पैर पर चढ़ा तो उसका क्या कसूर ?
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फैसला

वह एक आदर्शवादी नवयुवक था। हर महकमें में फैले भ्रष्टाचार को देखते हुए उसने एक निजी स्कूल में अध्यापक की नौकरी करना अच्छा समझा। वह बच्चों को बड़ी मेहनत और लगन से पढ़ाता था। शिक्षा सत्र के अन्त में बोर्ड की परीक्षाओं में निरीक्षक के रूप में उसकी डयूटी लगी। एक-दो दिन बाद ही प्रिंसीपल ने उसे ऑफिस में बुलवा लिया।

''आइए शर्मा जी, कैसे हैं? भई आप जिस मेहनत से बच्चों को पढ़ाते हैं, उससे मैं ही नहीं, बल्कि ट्रस्टीगण भी काफी खुश हैं।''
''जी, सब आपकी कृपा है।''
''पर देखिए मास्टर जी, स्कूल चलता रहे इसके लिए अच्छा रिजल्ट भी बहुत ज़रूरी है। बोर्ड की परीक्षा का रिजल्ट अपने हाथ में नहीं होता, इसलिए आप ज़रा परीक्षार्थियों के साथ ज्यादा से ज्यादा उदार रहे। समझ रहे हैं न, मैं जो कहना चाहता हूँ।''
''तो क्या नकल करने दूँ?'' वह तड़प कर बोला, ''आप चाहते हैं मैं उनके भविष्य से खिलवाड़ करूँ ? इससे बेहतर है कि मैं इस्तीफा दे दूँ।''
''न-न जोश से नहीं, होश से काम लीजिए।'' प्रिंसीपल साहब बोले, ''इन बच्चों के माँ-बाप के भी कुछ सपने हैं और इन्हें तोड़ने का आपको कोई हक नहीं बनता। सब आपकी तरह मास्टरी कराने के लिए अपने बच्चों को नहीं पढ़ा रहे हैं। सोच लीजिए, मन हो तो कल दोपहर की पाली में । ड्यूटी पर आ जाना। ''

रात देर तक वह इसी कशमकश में करवट बदलता रहा कि क्या करे। इस भ्रष्टाचार से बचने के लिए यह नौकरी की थी, वह तो यहाँ भी निकला। यही सोचते-सोचते कब नींद आ गई, मालूम नहीं।
सुबह पत्नी ने झकझोर कर उठाया, ''आज क्या ड्यूटी पर नहीं जाना है, जो अभी तक सो रहे हो?''
उसने अधखुली आँखों से पत्नी की ओर देखा, बोला, ''नहीं, आज दोपहर की पाली में जाना है।''
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जन्म : 25 मई 1955
शिक्षा : बी.काम।
प्रारंभिक दौर में सुधीर 'अज्ञात' नाम से लेखन और अनेक कहानियों, लघुकथाओं और लेखों का प्रकाशन। वर्तमान में इन्दौर से प्रकाशित 'नई दुनिया' में लघुकथाएं और भोपाल से प्रकाशित 'समरलोक' में लघुकथाएं सुधीर राव नाम से प्रकाशित।
संप्रति : पंजाब नेशनल बैंक में प्रबंधक।
सम्पर्क : 101/45, लोकमान्य नगर, इन्दौर-454009
दूरभाष : 09855500140(मोबाइल)

हिंदी कहानी



फिर आओगी न
अलका सिन्हा

अब गाड़ी भीतरी सड़क पर आ गई थी। इसी सड़क की दूसरी तरफ- ठीक वहाँ, वो रहा वो मैदान, जहाँ हम खेला करते थे। स्कूल से लौटते ही इस मैदान में आ जमा होते थे। सारी दोपहर, सारी शाम बीत जाती थी, पर हमारे खेल खत्म नहीं होते थे। ''अच्छा तेरी बारी आई तो अब देर हो रही है।'' सब एक-दूसरे को घेर लेते थे। पापा वहाँ उस कोने के मकान से ही हांक लगाते थे, ''जल्दी आओ, रात हो रही है।''
''शीलू... शीलू....।'' कौन पुकार रहा है ? लगा जैसे सड़क ने पहचान लिया था, वही पुकार रही थी- बचपन के नाम से। ''रोको गाड़ी रोको।'' जी किया दो पल इस सड़क से बतिया लूँ। कितने बरस बीत गए यहाँ आए। बस, बचपन ही यहाँ बीता। स्कूल के शैतानियों भरे खट्टे-मीठे दिन। फिर माइक्रो बायजली की पढ़ाई के लिए झांसी चली गई। होस्टल में रही। फिर वहीं नौकरी लग गई, झांसी में। बीच में आना-जाना हुआ मगर इस तरह नहीं। इसबार लम्बी छुट्टी में आ रही हूँ। भास्कर कालेज के सेमिनार में भोपाल गए हैं। हफ्ते भर बाद वे यहीं लौट आएंगे। फिर हम साथ-साथ लौट जाएंगे। वैसे मैके में अकेले ही रुकने का मजा है। तभी तो बीते दिनों में लौटा जा सकता है। वरना वही शीलू, वही चाय, वही पत्नी होने का अहसास ! अरे मैं सिर्फ शीलू होकर जीना चाहती हूँ, शीलू जो अपने गैंग की लीडर थी, जिसकी शरारतों से मोहल्ला परेशान रहता था। रास्ते भर मैं खुद से बतियाती आ रही थी। मगर यहाँ पहुँचकर शब्द मौन हो गए थे, दृश्य धुंधला गए थे। गाड़ी अपनी मंजिल पर आ पहुँची थी। पर सब कितना अनजान लग रहा था।
रात के दस बज चुके थे। कोने का ये मकान एकदम खामोशी से देख रहा था, ''अरे मैं... शीलू, शायद पहचान नहीं पाया।'' पहचानता भी कैसे ! मैं भी कहाँ रह गई पहले सी। साड़ी पहनने पर तो उस उम्र में भी नहीं पहचानी जाती थी। लंबी सांस भरकर द्वार का स्पर्श किया, हल्के से थपथपाया। लगा जैसे लकड़ी का ये दरवाजा थरथरा उठा हो, उसका अंग-अंग चटख गया। उसने अपने दोनों बाहें खोलकर मेरा स्वागत किया।
''बड़ी देर हो गई पहुँचने में। हम तो ताला लगाकर सोने की तैयारी में थे।'' द्वार पर खड़ी भाभी ने आगे बढ़कर गले लगा लिया। मैंने ध्यान से देखा- यह वही दरवाजा था जिसे मैं चुपके से भिड़ाकर बाहर निकल जाती थी और सारी दोपहर ये दरवाजा यों ही भिड़ा रहता था। फिर, मम्मी के जागने से पहले मैं चुपके से भीतर आकर इसे फिर से लगा देती थी। हवा तेज थी और द्वार हिल-हिलकर पुरानी शरारतें दोहरा रहा था।
मेरी निगाहें बच्चों को खोज रही थीं
''सुबह मिलवाऊँगी बच्चों से, '' भाभी ने मिन्नत की, ''अभी जग गए तो सुबह स्कूल नहीं जाएंगे।''
भाभी को खुद की भी चिंता थी। बच्चों को स्कूल भेजकर उन्हें भी अपने बैंक जाना था। कलेजे के भीतर उफनती बाढ़ को बरबस ही काबू में कर लिया। मैं भी थकी थी, सोचा, सुबह ही ठीक रहेगा।
खाने में पालक पनीर के साथ भरवां करेले देखकर माँ की याद ताजा हो गई, ''माँ बड़ी खूबसूरती से करेले भरती थी।''
''ये कैसे भरे हैं ?'' भाभी ने मुझे दुविधा में डाल दिया।
''ये !'' मैंने एक करेला हाथ में उठा लिया, चारों तरफ घुमाकर देखा, ''ये तो भरे ही नहीं हैं भाभी, साबुत ही तल दिए हैं।''
दोनों हँसने लगे। ननद-भाभी का रिश्ता पुराने चावल-सा महकने लगा, ''तुम्हारी ये साड़ी बड़ी सुंदर है भाभी...।''
''ठीक है, तुम ले जाना। काम वाली बाई को मैं कोई और साड़ी दे दूँगी।''
''भाभी... मुझे गुस्सा मत दिलाओ।'' मैंने लाड़ से कहा और कटोरी से दही लेकर भाभी के गाल पर लगा दी, ''होली हय...''
''बस...बस... यही मजाक मुझे नहीं पसंद।''
''पर मुझे तो है...।''
''तू तो बिलकुल नहीं बदली।'' भाई ने कहा तो लगा, मैं सचमुच बचपन के दिनों में लौट आई, ''पर तू बदल गया है भाई !''
''कैसे ?''
''तेरी बीवी अकेली पड़ गई और तू बीच-बचाव करने नहीं आया अब तक।'' मैंने कहा तो भाई ने झूठे गुस्से से एक धौल मेरी पीठ पर जमा दी, ''चल, जल्दी निपटकर सो जा, फिर सुबह सबको काम पर जाना है।''
भाई की बात पर भाभी ने एतराज किया, ''क्यों ? तुम कल छुट्टी ले लो। बहन को कहीं घुमाने नहीं ले जाओगे ?'' भाभी ने मेरा पक्ष लिया तो मुझे अच्छा लगा।
''घुमाने ? अरे यही घुमा देगी मुझे सारा शहर...'' भाई हँसने लगा, ''कौन कहाँ रहता है, गली-मुहल्ले में कौन किसका माई-बाप लगता है, इससे पूछ लो।''
सचमुच पुराने दिन हरे हो गए थे। सारा मुहल्ला मुझे जानता था। बदमाशी तो भाई भी करता था, पर नाम सब मेरा ही पुकारते थे। एक बार हम बबलू के मकान में लगे अमरूद तोड़ रहे थे कि तभी बबलू की मम्मी सामने आ गईं। सब तितर-बितर हो गए। दीवार फांदकर मैं बाहर भागी। जल्दी से घर में घुसी। दरवाजे को कुंडी चढ़ाई और फ्राक बदलकर सो गई। इतनी देर में तो बबलू की मम्मी लगी दरवाजा पीटने।
माँ हैरान, ''शीलू तो घर में बंद गहरी नींद में सो रही है। खुद देख लो बहन जी।'' बेचारी बहन जी चकरा गईं, जिसे कूदते देखा था, वह तो लाल फ्रॉक पहने थी जबकि ये तो आसमानी रंग की स्कर्ट पहने सो रही थी। बेचारी बहन जी शर्मिंदा होकर लौट गईं।
ऐसी कितनी ही कहानियाँ यहाँ के चप्पे-चप्पे में बसी थीं। भाभी ने सोने की व्यवस्था कर दी थी। मेरी इच्छा थी कि मैं भाभी से कहती कि मेरी खाट आँगन में ही बिछा दें, पर उनके चेहरे का उनींदापन देखकर हिम्मत नहीं पड़ी।
''अकेले सोते डर तो नहीं लगेगा ?'' उन्होंने मेरे गाल पर चिकोटी काट ली और दरवाजा भेड़ कर चली गईं। मैंने बत्ती बुझा दी। नींद आँखों से कोसों दूर थी। वह तो हरे रंग की फ्रॉक पहने तीज का झूला झूलने की जिद्द ठाने बैठी थी। आखिर बाबा को जिद्द माननी पड़ी। उन्होंने आँगन में मोटी रस्सी का झूला डाल दिया था।
''शीलू, इसे दांत से पकड़ सकती है ?'' भाई ने झूले की छत से लटकती मोटी रस्सी के टुकड़े की ओर इशारा किया।
''नहीं पकड़ पाई... नहीं पकड़ पाई'' मैं जब तक कुछ समझ पाती, तब तक झूला इस पार से उस पार जा पहुँचा था। अगली पींग पर फिर भाई ने रस्सी की ओर इशारा किया, ''मुँह से पकड़ना है।'' मैंने लपकना चाहा मगर झूला आगे सरक गया। भाई फिर हँसने लगा। मगर कब तक हँसता, अगली झूल में रस्सी मेरे दांतों के बीच थी। पर यह क्या ? झटके से झूला आगे सरका तो लगा मेरा दांत उखड़ जाएगा। मेरा सिर चकरा गया। मैंने रस्सी छोड़ दी। भाई ताली बजाकर हँसने लगा, मगर मैं रोने लगी। मेरे जैसी लड़की रोने लगी...भाई घबरा गया। उसने दौड़कर झूला थाम लिया। मेरे दांतों से खून बह रहा था। रोना सुनकर बाबा आ गए। खून से भरा मेरा मुँह देखकर घबरा उठे, ''ज़रूर तूने तेज का धक्का दिया होगा कि ये गिर जाए।'' बाबा ने गुस्से में भाई पर हाथ तान दिया। भाई घबरा गया। मगर इससे पहले कि बाबा उसे मारते, मैंने रोक लिया, इशारे से बताया कि मैं खुद ही गिर पड़ी। झटपट मुझे डॉक्टर के पास ले जाया गया।
मैंने जीभ दांत के ऊपर फिराई। ऊपर का दांत अब तक नीला है। हम दोनों भाई बहन लड़ते भी खूब थे, पर प्यार भी उतना ही था। एक दूसरे के बिना एक दिन नहीं कटता था। मैं करवट छोड़कर चित्त हो गई। पंखा तेजी से घूम रहा था, फिर भी घुटन लग रही थी। मेरी आदत थी आँगन में सोने की। खुला-सा आँगन मेरा बहुत अपना था। अपना दुख-सुख मैंने इसी आँगन से बांटा था। सभी तारों से मेरी दोस्ती थी। कुछ तारों का तो मैंने नाम भी रख छोड़ा था। दीप्ति मेरी प्रिय तारा सखि का नाम था। मैं दीप्ति से लिने को अकुला गई। अरे, उसे तो अब तक पता लग ही चुका होगा कि मैं यहाँ आई हूँ। वह भी ज़रूर इसी तरह व्याकुल होगी। मैं बिस्तर छोड़कर खिड़की के पास आ गई। बाहर अंधकार था, गहन अंधकार। उसी अंधकार में उभर रहा था अमरूद का पेड़, जिसकी डाल झूम-झूमकर मेरा स्वागत कर रही थी। ''इतने दिनों में क्यों आई, भूल गई हमें ?'' डाल उलाहना दे रही थी। मैंने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाहा, मगर वहाँ तो कुछ भी नहीं था। ''अच्छा, सुबह होने दो, सबसे मिलूँगी।'' मैंने खुद से ही वादा किया।
पानी के तेज शोर से आँख खुली। दिन चढ़ आया था। मैं हड़बड़ाकर उठी। भाभी मेरा नाश्ता हाट केस में रख रही थी, मुझे देखकर मुस्करा दी, ''नींद पूरी हुई या नहीं ?''
''मैके में सोने-जागने का कोई रूटीन नहीं होता। जिम्मेदारी जो भाभी के सिर होती है।'' मैंने अपनी बाहें भाभी के कमर में डाल दीं, ''बंटी जाग गई ?''
''वह तो स्कूल भी गई। दो बार झांक गई, तुम सो रही थी।'' भाभी ने बताया कि वो दो बजे तक लौटेगी।
''मैं भी कोशिश करुँगी कि तीन बजे तक लौट आऊँ। क्या करूँ, महीने के पहले सप्ताह में बैंक में छुट्टी नहीं...।'' भाभी ने मिन्नत की।
''ठीक है, ठीक है। नाश्ते में क्या बनाया है, बताओ।''
''कुछ सरप्राइज भी रहने दो।'' भाभी ने फ्रिज पर रखी चाभी की ओर इशारा किया, ''कहीं गली-मोहल्ले में जाना चाहो तो ताला लगा देना, बंटी के पास दूसरी चाभी है।''
भाभी चली गई। उस घर में मैं अकेली रह गई, जहाँ कभी मेरा एक छत्र राज था। एक पल को लगा, मुझे दुनिया की सारी जायदाद मिल गई है, वो खोया हुआ बचपन मिल गया है, जहाँ मैं सचमुच रानी थी, अपनी मर्जी की मालिक, जिद्दी-शैतान लड़की, चुहल-शरारतों से भरी। मन किया दौड़कर अपनी अलमारी से हरी फ्रॉक निकालकर पहन लूँ और वैसे ही दरवाजा भिड़ाकर गली-मोहल्ले का चक्कर काटा आऊँ। पैर यकबयक अपने कमरे की ओर बढ़ गए। मगर कहाँ, यह तो पहचान में ही आना मुश्किल था। यहाँ डबल बैड सजा था, साफ, धुली चादर बिछा। बाईं ओर वहाँ जहाँ मेरी किताबों की रैक थी, उसकी जगह ड्रेसिंग टेबल सजा था, मेरी कार्टून किताबें लिपिस्टक, नेल पालिश में तब्दील हो चुकी थीं और अलमारी में हरे फ्रॉक, नीली स्कर्ट की जगह साड़ियाँ टंगी थीं।
मन थोड़ा बुझ गया। मुझे याद है, शादी के कुछ पहले मेरी किताबों के रैक हटाने की बात हुई थी।
''इतनी बड़ी हो गई, अभी तक चंदामामा और नंदन पढ़ती है क्या? इसे बाहर निकालने दे।'' भाई झल्ला रहा था।
बात सही थी, मेरी उम्र इन किताबों की नहीं थी और तब मैं वो किताबें पढ़ती भी नहीं थी। मगर उनमें मेरा बचपन सोया था। बाद में तो मैं हॉस्टल चली गई, वरना शायद खुद-ब-खुद दूसरी किताबें इन बचकानी किताबों को खदेड़ देतीं।
यह घर मेरे बचपन का घर था। दुनिया के सबसे खूबसूरत और खुशनुमा अहसास से भरा, जिसे मैं दुनियादारी और जिम्मेदारी के अहसास से बदलने को कतई तैयार नहीं थी। मैंने दोनों हाथों से रैक को थाम लिया था, ''ये रैक यहाँ से नहीं हटेगा। तू चाहे कुछ भी कर ले।''
''मैं अपनी किताबें कहाँ रखूँ ?'' भाई का गुस्सा काफी तेज था।
''खिड़की में सजा ले।''
भाई गुस्से में बढ़ा था रैक की ओर, मगर बाबा ने रोक दिया, ''पड़े रहने दे ये रैक यहीं। आखिर थोड़ा हक तो उसका भी है इस घर पर...।''
हाय ! बाबा ने ये क्या कह दिया ? थोड़ा हक ? बराबर क्यों नहीं ? मैं भीतर-भीतर तड़पती रही, पर किसी से कुछ नहीं कहा। हालांकि रैक भी नहीं हटा। आज समझ रही हूँ, वह थोड़ा-सा हक कितना थोड़ा था। चलो छोड़ो, सच्चाई तो यही है। मैंने बैड के कार्नर में पड़ा डैक ऑन कर दिया। कोई रीमिक्स बजने लगा- पुराना गाना, नए अंदाज में। मैंने जल्दी से स्टॉप का बटन दबाया। पता नहीं आज कल के बच्चों को ये कैसे पसंद आता है। ओरिजनल गानों की सारी खूबसूरती का सत्यानाश पीट दिया है।
मैं कमरे से बाहर निकल आई। बरामदे के दूसरी तरफ सदा से ड्राइंग रूम था। मगर अब यहाँ बरामदे को घेर कर लिविंग रूम बना दिया था, नौ सीटर सोफा, पारदर्शी शीशे की टेबल, जिसके नीचे रखे खूबसूरत बनावटी फूल, ऊपर से भी साफ दिखाई दे रहे थे। मगर यहाँ जगह तो इतनी अधिक नहीं थी। मैंने रेलिंग की तरफ देखा तो पाया कि बाहर का छज्जा तोड़कर इसी में मिला लिया है। आधी दीवार और फिर कांच की खिड़कियाँ।
बराबर में बनी बड़ी सी किचन के दो हिस्से कर दिए थे और खाने की मेज वहीं फिट कर दी थी। मैंने ढका हुआ नाश्ता झांका। आलू के भरवां परांठे, घीये का रायता और साथ में मेवों से सजी खीर। सच में किसी जमाने में यह सब मुझे कितना प्रिय था। मगर उम्र के साथ-साथ पसंद बदल गई थी। अब बहुत तेल-मसाला मुझे नहीं भाता है और मीठा तो बिलकुल ही नहीं। मुझे लगा, ये घर ही नहीं, मैं भी बदल गई हूँ। दोनों अजनबी हो गए हैं। एक-दूसरे का पता पूछ रहे हैं।
बरामदा पार कर दूसरी ओर निकल आई। रात में तो घर की काया-कल्प का कुछ पता नहीं लग रहा था। इस वक्त कुछ टटोल रही थी। मगर हर स्थान मुझे अपरिचय से देख रहा था। माँ-बाबा का कमरा स्टडी में बदल चुका था। सामने की दीवार पर माँ-बाबा की बड़ी-सी तस्वीर लटक रही थी, जिस पर ताजा फूलों की माला सज रही थी। माँ-बाबा रोड एक्सीडेंट में चल बसे, भाई अचानक बड़ा हो गया, सारी जिम्मेदारी भाई पर आ गई। आँखों के कोरों में धुंधलका उतर आया था। मैंने माँ-बाबा की तस्वीर को प्रणाम किया और नज़र दूसरी तरफ घुमा ली।.... सारा कमरा व्यवस्थित और साफ-सुथरा। माँ के लाख समझाने पर भी मैं बहस करने से कहाँ चूकती थी, ''बिखरी पड़ी किताबें जिंदा लगती हैं, सांस लेती... लगता है, इन्हें किसी ने पढ़ा है।''
माँ मेरी दलील के सामने हाथ जोड़ देती। मेरा कमरा, मेरी किताबें हमेशा बिखरी ही रहतीं, बेतरतीब...। मुझे इसी में राहत मिलती थी। पर यहाँ की हर चीज करीने से रखी थी, सजी हुई। लगता ही नहीं, इस घर में कोई बच्च भी रहता है। जिम्मेदारी के अहसास से भरी लाइब्रेरी मेरी ओर देख रही थी। मैं सकपका गई, नहीं-नहीं, यह मेरी जगह नहीं है। मैं उल्टे पांव बाहर लौट आई।
अरे ये क्या ? यहाँ तो आँगन का द्वार था- खुला आसमान नीचे झांकता था, कहाँ गया ? मैं व्याकुल हो गई। आँगन के तीन चौथाई हिस्से में कमरा और एक चौथाई हिस्से में ज्वाइंट टायलट-बाथ ! मैं चकरा गई। भइया, ये तूने क्या कर डाला? मेरा आँगन, मेरे बचपन के साथी- दीप्ति ! मंदाकिनी !! वैभव...!!! मैंने ऊपर की ओर देखा- सफेद छत टुकुर-टुकुर मेरी ओर ताक रही थी, ''किसे ढूंढ रही हो ? हमने तुम्हें पहचाना नहीं ।'' घर के कोने कोने से एक ही आवाज आ रही थी- हमने तुम्हें पहचाना नहीं। मैंने दोनों हाथ कानों पर रख लिए। वहीं कोने में मेरा सूटकेस पड़ा था। मेरी पहचान बस वहीं तक थी। मैंने सूटकेस खोला, बिट्टू-बंटी के कपड़े निकाले और भी जो तोहफे भाई-भाभी के लिए लाई थी, निकाल कर सामने की मेज पर रख दिए।
''तू तो लंबी छुट्टी लेकर आई थी, फिर प्रोग्राम कैसे बदल दिया?'' भाई पूछ रहा था।
''लंबी छुट्टी के चक्कर में ही तो इतने साल आ नहीं सकी, सो अब इतने ही समय के लिए आ गई। वरना इस साल भी नहीं आ पाती..'' मैंने टैक्सी मंगवा ली थी।
''फिर आऊँगी भाभी।'' मैंने भाभी से विदा ली।
बाहर निकलने लगी तो दरवाजे की सिटकनी ने चुन्नी पकड़ ली, ''सच कहो, फिर आओगी न ?'' मैं बिना कोई जवाब दिए टैक्सी में बैठ गई।
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जन्म : 9 नवंबर 1964, भागलपुर, बिहार ।
शिक्षा : एम.बी.ए., एम.ए. पी.जी.डी.टी. केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, गृह मंत्रालय द्वारा संचालित अनुवाद प्रशिक्षण पाठयक्रम में रजत पदक।
रचना कर्म : 'काल की कोख से', 'मैं ही तो हूँ ये' और 'तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ' (कविता संग्रह), 'सुरक्षित पंखों की उड़ान'(कहानी संग्रह)।
कविताएं, कहानियाँ और समीक्षात्मक निबंध प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित और आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर प्रसारित। अनेक कविताओं का पंजाबी और उर्दू में अनुवाद देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। अंतर्राष्ट्रीय लेखन से जुड़ी हिंदी की साहित्यिक पत्रिका 'अक्षरम् संगोष्ठी' की सह-सम्पादक।
सम्मान : कविता संग्रह 'मैं ही तो हूँ ये' पर हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार द्वारा साहित्यिक कृति सम्मान 2002 से सम्मानित। विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा 'कवि रत्न' की उपाधि 2007 ।
संप्रति : एअर इंडिया में कार्यरत।
संपर्क : 371, गुरु अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं0 2, सेक्टर-6, द्वारका, नई दिल्ली-110075
फोन : 01128082534(निवास),09910994321(मोबाइल)
ई मेल : alka_writes@yahoo.com

भाषांतर


धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-9)

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

॥ नौ ॥

माइकल साइमन वोरोन्त्सोव की शिक्षा इंग्लैण्ड में हुई थी। वह रूसी राजदूत का पुत्र था और उस समय के ऊँचे पद वाले रूसी सैनिकों और अधिकारियों में विशिष्ट यूरोपीय संस्कृति का पोशक था। वह महत्वाकांक्षी, मृदुभाषी, अपने कनिष्ठों के प्रति सहृदय और वरिष्ठों के साथ जटिल और कूटनीतिज्ञ था। प्रभुत्व और सम्मान के बिना जीवन उसकी समझ से बाहर था। उसने सभी उच्च पद और पदक प्राप्त किये थे और एक अच्छे सैनिक के रूप में उसकी प्रतिष्ठा थी। क्रैस्नोई में उसने नेपोलियन पर विजय प्राप्त की थी। 1851 में वह सत्तर वर्ष से ऊपर था, लेकिन वह पूरी तरह से चौकस था। उसकी चाल में फुर्तीलापन था और सबसे ऊपर, दक्षता की समस्त योग्यताओं और मुआफिक मनोदशा पर उसका पूर्ण अधिकार था, जिनका प्रयोग वह अपने प्रभुत्व, और दृढ़कथनों की रक्षा में और अपनी लोकप्रियता के प्रचार में करता था। वह अपनी और अपनी पत्नी काउण्टेस ब्रैनीत्स्काया, दोनों की विपुल सम्पत्ति का उपभोग कर रहा था और सर्वोच्च कमाण्डर के रूप में मोटा वेतन ले रहा था। अपनी आय का बड़ा हिस्सा उसने क्रीमिया के दक्षिणी तट पर अपने महल और बाग पर खर्च किया था।
चार दिसम्बर, 1851 की षाम एक द्रुत-संदेश वाहक तिफ्लिस में उसके महल तक आया। थका, धूल-धूसरित अधिकारी, जनरल कोजलोव्स्की से हाजी मुराद के रूसियों की ओर पहुंचने का समाचार लेकर लड़खड़ाता हुआ। सुप्रीम कमाण्डर के महल के विशाल प्रवेश द्वार से होकर संतरी के पास पहुंचा। उस समय छ: बजा था, और वोरोन्त्सोव रात्रि भोज के लिए जा रहा था जब संदेशवाहक के आने का समाचार उसे बताया गया। वोरोन्त्सोव ने संदेशवाहक को तुरंत बुला लिया और इसलिए रात्रिभोज के लिए कुछ मिनट का विलंम्ब हुआ। जब उसने डायनिंग रूम में प्रवे्श किया, लगभग तीस अतिथि, जो प्रिन्सेज एलिजाबेथ के इर्दगर्द बैठे हुए थे और कुछ खिड़की के पास खड़े हुए थे, उठ खड़े हुए और उसकी ओर मुड़े। वोरोन्त्सोव ने कंधों पर सादे पट्टे और गर्दन पर सफेद क्रास वाले साधारण विभागीय कपड़े पहन रखे थे। उसके पटु, सफाचट चेहरे पर मनोहर मुस्कान खेल रही थी। उसकी आँखें संकुचित थीं, मानो उसने उपस्थित लोगों का पर्यावलोकन कर लिया था।
विलंब से पहुंचने के लिए महिलाओं से क्षमा मांगते, पुरुषों से अभिवादन का आदान-प्रदान करते कोमल और तेज कदमों से चलते हुए उसने प्रवेश किया। वह पैंतालीस वर्षीया, लंबी, पूर्वदर्शीय सुन्दरतावाली, एक जार्जियन प्रिन्सेज मनाना ऑर्बेलियानी का हाथ पकड़कर उसे मेज तक ले गया। प्रिन्सेज एलिजाबेथ ने अपना हाथ लालबालों और खुरदरी मूंछों वाले एक जनरल को सौंप दिया था। जार्जियन प्रिन्स ने अपना हाथ प्रिन्सेज की मित्र काउण्टेस च्वायसुएल के हाथ में दे दिया। डाक्टर एण्डे्रयेव्स्की, परिसहायक और दूसरे अन्य लोगों ने, कुछ महिलाओं सहित और कुछ अकेले दोनों युगलों के बैठने के पश्चात् अपने स्थान ग्रहण किये। कुर्तें, जुर्राबें और स्लीपर्स पहने बैरों ने कुर्सियाँ छोड़ दी थीं, क्योंकि अतिथियों ने अपनी सीटें ग्रहण कर ली थीं और प्रधान बैरा शाही ढंग से चाँदी की रकाबी से गर्म सूप परोसने लगा था।
वोरोन्त्सोव बड़ी मेज के मध्य में बैठा था। उसके सामने प्रिन्सेज, उसकी पत्नी, जनरल के साथ बैठी थी। उसके दाहिनी ओर उसकी महिला मित्र सुन्दरी ऑर्बेलियानी और उसके बायीं ओर खूबसूरत, गहरे और गुलाबी गालों वाली, शानदार पोशाक में एक युवा जार्जियन महिला थी, जो लगातार मुस्करा रही थी।
''उत्तम, मेरी प्रिये '' वोरोन्त्सोव ने प्रिन्सेज के यह पूछने पर कि दूत क्या समाचार लाया था, उत्तर दिया, ''साइमन का भाग्य अच्छा है।''
और उसने विस्मयकारी समाचार का अंश ऐसे स्वर में बताना प्रारंभ किया कि मेज में बैठे सभी लोगों द्वारा सुना जा सके … एक मात्र वही था जिसके लिए वह समाचार विस्मयकारी नहीं था, क्योंकि बातचीत बहुत पहले से चल रही थी… कि विख्यात और शमील का निर्भीक समर्थक हाजी मुराद ने रूसियों के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया था और एक दिन के अंदर उसे तिफ्लिस लाया जायेगा।
भोजन करने वाले सभी लोग, यहाँ तक कि नौजवान, सहायक और अधिकारी जो मेज के आखिरी छोर पर बैठे थे और उस समय तक किसी विषय पर लतीफे का आनंद ले रहे थे, चुप हो गये थे और सुनने लगे थे।
''जनरल, आप इस हाजी मुराद से मिल चुके हैं ?'' प्रिन्स ने जब बात समाप्त की, प्रिन्सेज ने लाल बालों और खुरदरी मूंछोंवाले अपने पड़ोसी जनरल से पूछा।
''हाँ, प्रिन्सेज, अनेकों बार।''
और जनरल वर्णन करने लगा कि किस प्रकार 1843 में कबीलाइयों द्वारा गेरगेबिल पर अधिकार कर लेने के बाद, हाजी मुराद ने जनरल पासेक की सेना पर आक्रमण किया था और ठीक उनकी आँखों के सामने कर्नल जोलोतुखिन को लगभग मार ही दिया था।
वोरोन्त्सोव ने जनरल को मधुर मुस्कान के साथ सुना। उसे इतना विस्तार से सुनकर वह प्रकटरूप से प्रसन्न हुआ। लेकिन अचानक उसकी मुद्रा विश्शण और उदासीन हो गयी ।
उल्लसित जनरल ने किसी अन्य समय हाजी मुराद के साथ हुई मुठभेड़ के विषय में बताना प्रारंभ कर दिया था।
''महामहिम, शायद आपको स्मरण हो?'' जनरल बोला, ''बचाव अभियान के दौरान उसने खाद्य सामग्री से भरी ट्रेन के लिए घात लगायी थी।''
''कहाँ ? '' आंखों को सिकोड़ते हुए वोरोन्त्सोव ने पूछा।
वास्तव में बहादुर जनरल ने जिसे 'बचाव अभियान' कहा था, वह निष्फल डार्गो युद्ध के दौरान घटित एक घटना थी, जिसमें प्रिन्स वोरोन्त्सोव सहित, जो उसका नियंत्रक था, पूरी सेना निश्चित ही नष्ट हो गयी थी, यदि उसके बचाव के लिए नयी सेना न आ जाती। यह जानकारी आम थी, कि वोरोन्त्सोव द्वारा निर्देशित सम्पूर्ण डार्गो युद्ध, जिसमें अनेक रूसी सैनिक हताहत हुए थे और अनेक तोपें नष्ट हुई थीं, एक असफल युद्ध था और वोरोन्त्सोव की उपस्थिति में यदि कोई उसका उल्लेख करता था तो वह उसे उसी प्रकार कहता था जैसा वोरोन्त्सोव ने जार को भेजी अपनी रपट में उसे 'रूसी सेना का शानदार पराक्रम' बताया था। 'बचाव' शब्द स्पष्टतया यह संकेत देता था कि वह एक 'शानदार पराक्रम' नहीं था, बल्कि एक भूल थी, जिसके कारण अनेकों जानें गयी थीं। सभी ने यह अनुभव किया, और कुछ ने ऐसा अभिनय किया कि वे जनरल के शब्दों का अर्थ नहीं समझे थे। कुछ सशंकितभाव से यह सुनने की प्रतीक्षा करने लगे कि इसके बाद वह क्या कहेगा और शेष ने केवल आपसी मुस्कान का आदान-प्रदान किया था। केवल लाल बालों और खुरदरी मूंछोंवाले जनरल ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया था और अपनी कहानी जारी रखते हुए गहरा प्रभाव डालने का प्रयास करते उसने कहा :
''बचाव अभियान में, महामहिम !''
और, एक बार अपने प्रिय विषय पर ध्यान आकर्षित कर जनरल ने विस्तार से वर्णन किया कि किस चतुराई से हाजी मुराद ने सेना को दो भागों में बांट दिया था, कि यदि बचाव सेना हमारी सहायता के लिए न पहुंचे … 'मुक्ति वाहिनी सेना' शब्द का मुहावरे की -सी प्रतीति देते हुए एक विशेष ढंग से उसने उल्लेख किया, ''वहाँ हम सभी बचे रह गये क्योंकि…।''
वह कहानी समाप्त नहीं कर पाया, क्योंकि मनाना ऑर्बेलियानी ने, स्थिति समझकर, हस्तक्षेप करते हुए तिफ्लिस में उसके आवास के सुख - सुविधाओं के विषय में पूछा। जनरल चौंका, उसने अपने सहायक सहित, जो दूर मेज के अंतिम छोर पर बैठा अर्थपूर्ण भाव से उसे ही देख रहा था, घूमकर सभी की ओर देखा और सहसा वस्तुस्थिति समझ गया। प्रिन्सेज को कोई उत्तर न दे उसने त्योरियाँ चढ़ाईं और चुप हो गया, और प्लेट की ओर बिना देखे और बिना स्वाद जाने उसने भोजन निगलना शुरू कर दिया।
वातावरण में सामान्य अकुलाहट थी, लेकिन प्रिन्सेज वोरोन्त्सोव के दूसरी ओर बैठे जार्जियन प्रिन्स ने इसे संभाल लिया था जो एक बहुत मूर्ख किस्म का व्यक्ति था लेकिन उच्चकोटि का कुशल चापलूस और दरबारी था। उसने इस प्रकार वर्णन करना प्रारंभ किया, मानो कुछ हुआ ही न था, कि किस प्रकार हाजी मुराद ने मेख्तूलियन अहमद खाँ की विधवा को कैद कर लिया था।
''रात के समय वह समझौते की स्थिति में पहुंचा था। उसे जो कुछ चाहिए था वह लेकर अपने दल के साथ तेज गति से दौड़ गया था।''
'' लेकिन विशेषरूप से वह उसी स्त्री को क्यों चाहता था ?'' प्रिन्सेज ने पूछा ।
''वह उसके पति का शत्रु था और उसका पीछा करता रहा था, लेकिन उसके जीवन काल में उसे कभी नहीं पकड़ पाया था, इसलिए उसका प्रतिशोध उसने उसकी पत्नी से लिया था।''
प्रिन्सेज ने अपनी मित्र काउण्टेस च्वायसिएल, जो जार्जिया के प्रिन्स के बगल में बैठी थी, के लिए उसका फ्रेंच में अनुवाद किया ।
''कितना भयानक था!'' काउण्टेस ने आँखें बंदकर सिर हिलाते हुए कहा।
''ओह, नहीं,'' मुस्कराते हुए वोसेन्त्सोव ने कहा, ''मुझे बताया गया था कि उसने अपने कैदी से उदात्त और आदरपूर्वक व्यवहार किया था और फिर उसे छोड़ दिया था।''
''हाँ, फिरौती के लिए।''
''निश्चित ही,, लेकिन तब भी उसने मर्यादित व्यवहार किया था।''
प्रिन्स के इन शब्दों से हाजी मुराद के विषय में आगे सभी के किस्सों पर विराम लग गया था। उपस्थित लोगों ने अनुभव किया कि अधिक महत्व इस बात का था कि हाजी मुराद के प्रति जितनी अनुरक्तता प्रदर्शित की जाये, वोरोन्त्सोव उतना ही प्रसन्न होगा।
''उस व्यक्ति में कितना आश्चर्यजनक शौर्य है ! वह एक असाधारण व्यक्ति है।''
ß1849 में उसने दिन दहाड़े तमीर खाँ षूरा पर आक्रमण किया था और व्यवसाय उजाड़ दिया था।''
मेज के अंत में बैठे एक आर्मेनियन ने, जो उन दिनों तमीर खाँ षूरा की सेना में था, हाजी मुराद की इस उल्लेखनीय सफलता पर विस्तार से प्रकाश डाला। कमोबेश पूरा रात्रिभेज हाजी मुराद संबन्धी कहानियों में ही समाप्त हुआ। सभी को उसके शौर्य, बौध्दिकता और औदार्य की प्रशंसा करने की हड़बड़ाहट थी। किसी ने कहा कि किस प्रकार उसने छब्बीस कैदियों की हत्या का आदेश दिया था, लेकिन इस पर सामान्य प्रतिक्रिया ही हुई थी।
'' इससे क्या ? अंतत:, युद्ध युद्ध होता है।''
''वह एक महान व्यक्ति है।''
''यदि वह यूरोप में पैदा हुआ होता, तो वह दूसरा नेपोलियन हो सकता था,” मूर्ख जार्जियन प्रिन्स ने चापलूसी की अपनी योग्यता प्रदर्शित करते हुए कहा।
वह जानता था कि नेपोलियन का प्रत्येक उल्लेख वोरोन्त्सोव को आनन्दित करता था, जिसने उस पर विजय के प्रतीक स्वरूप कंधे पर सफेद क्रॉस धारण किया हुआ था।
''हूँ, शायद नेपोलियन तो नहीं, लेकिन घुड़सवार सेना का प्रतिभाशाली जनरल अवश्य होता। मैं तुमसे सहमत हूँ ।'' वोरोन्त्सोव ने कहा।
''यदि नेपोलियन नहीं, तब मुराद ।''
''वस्तुत: उसका नाम हाजी मुराद है ।''
''हाजी मुराद भाग आया है, और शमील का भी यही अंत है।'' किसी ने कहा ।
''वे अनुभव करने लगे हैं कि अब (इस ''अब'' का अर्थ था वोरोन्त्सोव के सामने ) वे डटे नहीं रह सकते, '' दूसरे ने कहा।
''बस इतना ही। आप सबको धन्यवाद,'' मनाना ऑर्बेलियानी बोली।
प्रिन्स वोरोन्त्सोव ने चापलूसी की लहर को संयत करने का प्रयत्न किया, जिसने उन्हें अभिभूत करना प्रारंभ कर दिया था। लेकिन उसने उसका आनंद लिया, और अपनी महिला मित्र को अच्छी मनोदशा में मेज से ड्राइंगरूम की ओर ले गया।
रात्रि भोज के बाद ड्राइंगरूम में जब कॉफी परोसी गई, प्रिन्स का व्यवहार सभी के प्रति सौजन्यपूर्ण था। वह लाल मूंछोंवाले जनरल के पास आया और उसने उसे यह अनुभूति देने की कोशिश की कि उसने उसकी त्रुटियों पर ध्यान नहीं दिया था।
जब प्रिन्स सभी अतिथियों की ओर घूम आया, वह ताश खेलने के लिए बैठ गया। वह एक पुराने प्रचलन का 'ओम्बर' खेल खेलने लगा। प्रिन्स की पार्टी में जार्जिया का प्रिन्स, एक आर्मेनियन जनरल, जिसने 'ओम्बर' खेलना प्रिन्स के नौकर से सीखा था, और अंतिम था डाक्टर आन्द्रेयेवस्की , जो अपने प्रभाव के लिए भलीभंति प्रसिद्ध था।
वोरोन्त्सोव ने अलेक्जेण्डर प्रथम के चित्र वाला सुनहरा तंबाकू केस बन्द किया, लिनेन ताश के पत्ते खोले ओर उन्हें बांटने वाला ही था कि उसका इटैलियन नौकर ग्यूवानी चाँदी की तस्तरी में एक पत्र लिए हुए प्रविष्ट हुआ।
''महामहिम, एक और समाचार।''
वोरोन्त्सोव ने अपने ताश बंद किये, व्यवधान के लिए क्षमा मांगी और पत्र पढ़ना प्रारंभ किया।
यह उसके पुत्र की ओर से था। उसने हाजी मुराद के पहुँचने और मिलर जकोमेल्स्की के साथ अपनी भिड़ंत का वर्णन किया था।
प्रिन्सेज आ पहुंची और पूछा कि उनके पुत्र ने क्या लिखा था।
''अभी भी वही विषय। उसने स्थानीय कमाण्डर के साथ झगड़ा किया है। साइमन की गलती थी। लेकिन '' अंत भला तो सब भला '' पत्र पत्नी की ओर बढ़ाते हुए उसने कहा, और अपने सहयोगियों की ओर मुड़ते हुए, जो सम्मानपूर्वक उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे, उनको उनके पत्ते समेटने के लिए कहा।
जब वे पहला हाथ खेल चुके, वोरोन्त्सोव ने अपना तंबाकू केस खोला और वही किया जो वह प्राय: किया करता था जब वह अच्छे मिजाज में होता था। उसने अपनी गोरी झुर्रियोंदार उंगलियों में एक चुटकी फ्रेंच तंबाकू ली, उसे नाक पर रखा और झटके से ऊपर की ओर खींच लिया।
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(क्रमश: जारी…)

अनुवादक संपर्क:
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दिल्ली-110 094
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09810830957(मोबाइल)
ई-मेल : roopchandel@gmail.com

पुस्तक समीक्षा

आम औरत, जिन्दा सवाल
लेखिका – सुधा अरोड़ा
सामयिक प्रकाशन
3320-21 , जटवाड़ा , नेताजी सुभाष मार्ग ,
दरियागंज , नई दिल्ली- 110 002 .
मूल्य : सजिल्द संस्करण रुपए 300 /- पेपरबैक 120/-



आम औरत के सवालों पर लिखी गई एक खास किताब
-शालिनी माथुर

इक्कीसवी शताब्दी के इस पहले दशक में एक प्रश्न यह है कि विचार धाराओं और मूल्यों के प्रति टूटते सम्मोहन के बीच में होने वाला परिवर्तन दूसरे क्षेत्र में भी हलचल मचाता है। इस हलचल की अनगूंज साहित्य में भी सुनाई पडनी चाहिए क्योंकि साहित्य व्यक्ति के भीतरी जगत को प्रभावित करता है - उसकी भावभूमि और उसके मूल्य बोध का निर्माण करता है। क्या आज के समय में रचा जा रहा साहित्य ऐसा कर पा रहा है? क्या साहित्यकार अपनी भूमिका निभा पा रहे हैं? प्रख्यात वरिष्ठ रचनाकार सुधा अरोडा की सामाजिक सरोकारों को लेकर रची गई कृति ''आम औरत, जिन्दा सवाल'' सन् 2008 में प्रकाशित इसी प्रश्न के आलोक में पढ़ी जानी चाहिए।
समसामयिक प्रवृत्तियों, घटनाओं और सामाजिक परिवर्तनों पर यह एक महिला कथाकार की टिप्पणियों का संकलन है, जिनमें लेखिका की दृष्टि सिर्फ कथानक के पात्रों की आन्तरिक करुणा पर नहीं है, वे एक सक्रिय जागरूक नागरिक के रूप में उन कारणों की शिनाख्त करती है, जिन्होंने स्त्री की दशा को गिराया है और उनके विरूद्ध विरोध का स्वर उठाती हैं। ये एक ऐसे साहित्यकार की टिप्पणियां है जिसने स्वयं भी ज़मीनी काम में दखल रखा है और जिसने ज़मीनी काम करने वाले सामाजिक कर्मियों के काम को भी गौर से देखा है।
भंवरी देवी के बलात्कार और उस पर हुई अपमानजनक अदालती कार्यवाही, नारी संगठनों द्वारा प्रतिरोध में की गई रैलियां और बाद में उस पर बनी फिल्म ‘बवंडर’ और फिल्म निर्माता जगमोहन मूंघडा द्वारा पहले से ही अपमानित भंवरी देवी का अपनी फिल्म की पब्लिसिटी के लिए इस्तेमाल और पैसे के लेन देन के मामले मे छलकपट, सारे विवरण टिप्पणियों में इस प्रकार आते है कि पाठक समझ सकता है, लेखिका इस पूरे घटना क्रम के बीच लगातार उपस्थित है, बहस करती हुई, भाग लेती हुई, अपना ठोस नजरिया प्रस्तुत करती हुई, दो टूक भाषा में बेबाकी से प्रतिरोध करती हुई।
मटुकनाथ चौधरी और जूली के प्रकरण पर मीडिया द्वारा प्रायोजित भौंडी चर्चाएं, राजकुमारी डायना की मृत्यु पर लिखी गई शोभा डे की हृदयहीन खिल्ली उड़ाती टिप्पणी, इमराना पर उसके ससुर द्वारा बलात्कार या आई आई टी की छात्रा चंद्राणी हालदार की मौत, लेखिका एक सजग और प्रतिबद्ध रचनाकार की तरह इन्हें अपनी टिप्पणियों का विषय बनाती हैं। खास बात यह है कि वे केवल घटनाओ की भर्त्सना नही करतीं, वे यह भी बताती चलती हैं कि असली मुद्दा है क्या और इसका तोड़ क्या हो सकता है।
नारीवाद का मखौल उड़ाने वाली, नारीवाद को पश्चिम से आयातित दर्शन और भारत के लिए महत्वहीन समझने वाली, नारीवाद को खिलवाड़ समझ कर हास्य व्यंग्य के खिलंदडेपन से पृष्ठ रंगने वाली और नारीवाद को कलावादी समझ से परखने वाली लेखिकाओं से अलग यह एक रचनात्मक लेखिका का एक्टिविस्ट के रूप में किया गया काम और लिखा गया दस्तावेज है। आज ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है, जो कविता-कहानी-उपन्यासों की रचना करने के बजाय विमर्श कर रहे है और साहित्य के क्षेत्र में प्राप्त प्रतिष्ठा का लाभ उठाते हुए विमर्शकार कहला रहे है। ऐसे लेखक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, जो किसी जमीनी काम, दंगों या विसंगतियों पर शोध और साक्षात्कार या आंकड़ों के बिना केवल अपनी कल्पना, भावना और कामना के आधार पर स्त्री-विमर्श कर रहे हैं। हिन्दी पुस्तकों की दुकानों पर स्त्री-विमर्श नाम से अलग से ऊंचे-ऊंचे शेल्फ ऐसी पुस्तकों से लदे-फंदे पड़े हैं। ऐसे में यह पुस्तक एक ईमानदार ज़मीनी काम और अनुभव के आधार पर तैयार किया गया दस्तावेज माना जाएगा।
पुस्तक में संग्रहीत 1995 से 2001 के बीच लिखी गई टिप्पणियों से साफ जाहिर होता है कि रचनाकार सुधा अरोड़ा का व्यक्तित्व तथा कृत्तित्व बहुआयामी है। वे लेखन, फिल्म, टी वी सीरियल के पटकथा लेखन, परिचर्चाओं, पत्र-पत्रिकाओं के नियमित स्तंभों, कार्यशालाओं से सीधे जुडी रही है। एक बानगी देखें -
'' हकीकत यह है कि एक घरेलू औरत या हाउस वाइफ का दर्जा एक सम्भ्रान्त भिखारी से ज्यादा नहीं होता। घर खर्च के लिए जो मिलता भी है , वह एहसान के तौर पर उसकी फैली हुई हथेली पर आता है।'' (पृ. 45) सुधा एक सामान्य पाठक को स्पष्टता से संदेश दे रही है कि गृहणियां अपनी बेटी को सब कुछ दें पर यह 'भिक्षापात्र' उनके हाथ में न थमाएं। यह 'भिक्षापात्र' विरासत में देने के लिए नहीं है – (पृष्ठ 43)
उधर, शादी की मंडी में अप्रवासी भारतीय, एक सामयिक विषय है। अमरीका में बसे एन आर आई लडकों के प्रति भारतीय, खास कर पंजाब के, लडकियो के मां-बाप का आकर्षण, और एन.आर.आई. लडकों द्वारा पंजाबी लडकियों को विलायत ले जाकर उनका अपमान और शोषण एक जवलंत समस्या है। ऐसे मामलो की संख्या हजारों में है। इतने हजार कि राष्ट्रीय महिला आयोग को अलग से एक एन.आर.आई. सेल का गठन करना पडा है। अपने ''बिगडे हुए'' आधे देशी, आधे अमरीकी लडकों को राह पर लाने के लिए उनके पुरातनपंथी एन.आर.आई. बाप पंजाब से लड़की चुन लाते हैं, जो अमरीका में नौकरानीनुमा जीवन व्यतीत करती हैं और कुछ दिन बाद ''बिगडे हुए'' पति द्वारा पिट कर या जला दी जाकर उसकी कहानी पर पूर्णाहुति होती है।
'' कितना ही संभ्रान्त पढ़ा-लिखा उच्च मध्यवर्गीय परिवार हो, अपने इंजीनियर डॉक्टर बेटे को एक ''ब्लैंक चैक'' समझता है - जिसकी कीमत चुकानी पडती है - एक उतनी ही जहीन, तमीजदार लडकी को '' सुधा अरोड़ा के कांउसिलिंग के अनुभव जगह जगह टिप्पणी के रूप में उतर आते हैं - ''अर्चना अंबाती और अनु टंडन दोनों पढी-लिखी आधुनिक सोच वाली, समझदार लडकियां थीं फिर उन्हें इतनी शारीरिक और मानसिक यातना झेलने की, भूखे रहने, बासी खाना खाने और यौन शोषण सहने की क्या जरूरत थी? सीधा उत्तर यह है कि एक भारतीय लडकी को अपने मां-बाप के प्रति गहरा लगाव होता है। वह अपने मां-बाप के रंगीन सपने कि उनकी बेटी सुखी है - को नहीं तोड़ना चाहती।'' शादी की मंडी में अप्रवासी भारतीय ( पृष्ठ - 53 )
सुधा अरोड़ा का एक्टिविज्म केवल हाशियाग्रस्त महिला तबके के सरोकारों तक सीमित नहीं है। वे अपनी लेखक बिरादरी की खबर लेने के लिए भी जानी जाती हैं। अपने सहकर्मी साहित्यकारों की करतूतें लेखिका ने स्वयं देखी हैं । उनकी पत्नियों की व्यथा सीधे उन्हीं की जबानी सुनी भी है। प्रगतिशील कहलाने के शौकीन फिल्मकारों, लेखकों, कवियों, संपादकों द्वारा अपने सम्पर्क में आने वाली स्त्रियों का यौन शोषण, अपनी पत्नी के प्रति हिंसा, उदासीनता तथा चारित्रिक लंपटता सुधा जी के निशाने पर रही है। रिंकी भट्टाचार्य और लीला नायडू के प्रसंगों और जाने-माने सरकारी प्रशासनिक पद पर आसीन हिन्दी लेखक द्वारा पत्नी के साथ बदसलूकी और उदीयमान लेखिकाओं के साथ रंगरेलियों की ओर संकेत करते हुए वे कहती है कि ''विवाह में जिम्मेदारी, वफादारी और ईमानदारी के गुण अन्तर्निहित हैं। जो इनकी परवाह नहीं करते, उन्हें विवाह जैसे बन्धन से दूर रहना चाहिए।'' ( मटुकनाथ कहां नहीं हैं ! - पृ. 236 )
स्त्री पुरुष की समानता का डंका पीटने वाले, तथाकथित प्रगातिशील रचनाकारों के चारित्रिक दोहरेपन को रोशनी में ला कर वे एक महत्वपूर्ण काम करती रही हैं। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि अधिकाश रचनाकार स्वार्थ, भाईचारे, पुरस्कारों-प्रशंसाओं की लालसा में ऐसी लम्पटता तथा विचलनों को जानबूझ कर नजरअदांज करते हैं। छपने के लिए छटपटाती इस टोली की तरह सुधा जी इस पर चुप्पी नहीं साधतीं। निर्भीकता से वे कहती है -
'' हमारा सरोकार यह है कि इन प्रोफेसर मटुकनाथ चौधरी को तात्कालिक रूप से ही सही, निलम्बित किया गया, पर हिन्दी साहित्य में विराजमान उन अघोषित मटुकनाथों की कतार से हम कैसा सलूक करेंगे जिनकी अटूट श्रृंखला में अनगिनत जूलियां रही हैं और जो अपनी बेहद शालीन, सुसंस्कृत पत्नी के हाथ का बना खाना भी खाते हैं, उसकी जुटाई गई सुविधाओं के बीच हिंदी के ये तथाकथित संवेदनशील कथाकार तराजू के तोल के हिसाब से कागज काले कर कथा साहित्य में अपने रूमानी उपन्यासों का कबाड़ भी दर्ज कराते हैं और सहमी हुई पत्नी को पीटने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं होता। संवेदनशील कहलाए जाने वाले इन सर्जकों की निजी दुनियां इतनी क्रूर और अमानवीय क्यों है और ये सवाल साहित्य के दायरे से, विश्वासघातों के स्त्री-विमर्श के बाहर क्यों हैं?'' ( पृ. 240 )
पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर स्वयं लेखिका पुस्तक के प्रारम्भिक पृष्ठों में दे चुकी हैं - ''कुल जमा बात यह है कि पति चाहे कितना भी प्रतिष्ठित या दौलतमंद क्यों न हो, औरत को थोड़ी-सी स्पेस या सांस ले पाने की जगह अपने लिए जरूर रखनी चाहिए कि वह आड़े वक्त अपने पति की आर्थिक दया से अलग अपने पैरों पर खडी हो सके। उसके और उसके पति के बीच मालिक और गुलाम का रिश्ता न रहे। (पृ.45)
इस पुस्तक के पहले 30 पृष्ठ लेखिका ने अपने डायरीनुमा आत्मकथ्य को सौंपे हैं। यह जानना बेहद रुचिकर लगता है कि किसी रचनाकार का रचना संसार कैसे निर्मित हुआ होगा। उसने किस कालखंड में, किन परिस्थितियों में, किस भावना से रचना का सृजन किया होगा। कलावादी रचनाओं के लिए ये बात भले ही बेमानी हो पर यह बात उन रचनाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है जो रचनाएं अपने समसामयिक घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया कर रही होती हैं, जो रचनाएं बहस को, इतिहास को और समाज की सोच को नया मोड़ देने के उद्दश्य से लिखी गई होती हैं। सुधा अरोड़ा का तेरह साल की आयु से कविता लिखना, महादेवी वर्मा टाइप कविताएं, काल्पनिक प्रेमकथाएं गढ़ना, बार-बार बीमार पडना, 1971 मे विवाह, 1981 से 1994 तक साहित्य के क्षेत्र से अनुपस्थिति, 1993 में हेल्प संस्था से जुडना, 1994 से महिला मुद्दों पर लिखना और इन सबके बीच उनकी डायरी की मौत, यह सारे प्रंसग उनके लेखिका से एक्टिविस्ट बनने और निरन्तर मानवीय भावनाओं को केन्द्र में रखकर काम करते और लिखते रहने की क्षमता को प्रकाश में लाते हैं।
सुधा अरोड़ा हिन्दी साहित्य की एक सुप्रतिष्ठित और प्रतिबद्ध लेखिका हैं। भाषा के सौन्दर्य, कलात्मक अभिव्यक्तियों, छवियों और बिम्बों के प्रयोग से भलीभांति परिचित लेखिका की इस पुस्तक में रचनात्मक प्रतिभा के प्रदर्शन का कोई आग्रह नहीं है। इस पुस्तक की रेखांकित करने लायक विशिष्टता है - कथन, भाषा शैली की सादगी, स्पष्टता और संप्रेषणीयता। दुरूहीकरण वे ही करते हैं जिनके पास वैचारिक स्पष्टता नहीं होती। मेरे अपने विचार से श्रेष्ठ रचना वही होती है जो जटिल विषय को सरलता से प्रस्तुत कर सके, न कि सरल विषय को कलात्मकता के आवरण में ढक कर दुरूह बना दे। इस कसौटी पर यह रचना शत-प्रतिशत खरी उतरती है।
'' अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी '' जैसी कहानी, जो मेरी दृष्टि में हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक है, लिखने वाली कथाकार ने एक पत्रकार की भांति सामाजिक परिघटनाओं और उनमें चोट खाती, छटपटाती और संघर्ष करके फिर से उठती हुई स्त्रियों पर टिप्पणियां की हैं। उल्लेखनीय है कि इनका रचना काल 1993 से 2008 तक पंद्रह सालों में विस्तृत है। ये किसी क्षणिक आवेश या आवेग में लिखी रचनाएं नहीं हैं।
पहली मई के हिन्दुस्तान टाइम्स के मध्य पृष्ठ पर ऑस्कर वाइल्ड की उक्ति छपी है - पत्रकारिता और साहित्य में यह फर्क है कि पत्रकारिता अपठनीय होती है और साहित्य कोई पढता नही। पर यह पुस्तक एक साहित्यकार द्वारा रचित पठनीय पत्रकारिता है।
यह एक खास रचनाकार द्वारा आम औरत के विषय में लिखी गई खास किताब है। साहित्यकार समाज से ही प्रंसग उठाता है और उनमें कल्पना के रंग भर कर नाटक, कहानी, उपन्यास और कविता के रूप में अपनी रचना कहकर प्रस्तुत करता है। साहित्यकार समाज का ऋणी होता है। विमर्श के नाम पर प्रकाशित सैकड़ों पुस्तकों के बीच कथाकार और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा अरोड़ा की यह पुस्तक अपनी इस विषेशता के लिए जानी जाएगी कि इस किताब के रूप में एक साहित्यकार ने समाज को उसका ऋण चुकाया है ।
-शालिनी माथुर,
ए 5/6 कॉरपोरशन फ्लैट्स ,
निराला नगर , लखनऊ - 226 020
फोन - 0522 2787830 / 098390 14660
ई-मेल : shalinilucknow@yahoo.com

गतिविधियाँ

कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार

हिन्दी के वरिष्ठ व लब्ध-प्रतिष्ठित कवि कुंवर नारायण को भारतीय भाषाओं के साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए 41वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद भवन के बालयोगी सभागार में एक गरिमामय समारोह में कुंवर नारायण को वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। सम्मान में 7 लाख रुपये की राशि, वनदेवी की प्रतिमा, प्रशस्तिपत्र, प्रतीक चिन्ह, शाल और श्रीफल शामिल है। भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवींद्र कालिया के अनुसार इस बार से पुरस्कार राशि पांच लाख रुपये से बढ़ाकर 7 लाख कर दी गई है।
19 सितम्बर 1927 को जन्मे कुंवर नारायण को पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिन्दी अकादमी का श्लाका सम्मान, कबीर सम्मान तथा मानद डीलिट की उपाधि भी मिल चुकी हैं।
कुंवर नारायण का पहला कविता संग्रह चक्रव्यूह 1956 में छपा था। अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरे “तार सप्तक” के महत्वपूर्ण इस कवि के छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने उनके चर्चित खण्डकाव्य हैं। उनकी आलोचना की तीन पुस्तकें भी प्रकाशित हैं और उन्होंने विदेशी साहित्य का भी काफी अनुवाद किया है।
कुंवर जी को बधाई एवं शुभकामनाएं।

संसद में ‘राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान’ अर्पण

24 सितम्बर 2009 को संसद के केंद्रीय कक्ष में राष्ट्रभाषा उत्सव 2009 मनाया गया। इस उपलक्ष्य में हिन्दी साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में अनवरत कार्य करने एवं उसे नए आयाम देने के लिए ग़ज़लकार लक्ष्मीशंकर वाजपेयी और कवयित्री-कथाकार अलका सिन्हा सहित तीन अन्य साहित्यकारों को वर्ष 2009 के ‘राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान’ से सम्मानित किया गया। राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान पाने वालों में डॉ0अर्चना त्रिपाठी, डॉ0 रेखा व्यास और डॉ0 उषा देव भी शामिल हैं। इन सभी को प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह और शॉल भेंट किए गए।
इन साहित्यकारों को सम्मान प्रदान करते हुए केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री हरीश रावत ने आह्वान किया कि राजभाषा को सरकारी दायरों से बाहर लाकर जन-आंदोलन का रूप देना होगा। इस जन-आंदोलन में साहित्यकारों, लेखकों, विचारकों की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि जब वे कुछ ठान लेते हैं तो बाधाएं स्वत: दूर हो जाती हैं।

समारोह के अध्यक्ष भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार दिनेश मिश्र ने कहा कि साहित्य से जुड़े हुए लोगों को मीडिया के साथ मिलकर न केवल हिन्दी बल्कि सभी भारतीय भाषाओं को सक्षम बनाने का अभियान छेड़ना चाहिए। हमें दक्षिण भारत की भी एक भाषा सीखने का संकल्प करना चाहिए।

संसदीय हिन्दी परिषद् की अध्यक्ष एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ0 सरोजिनी महिषी ने अपने संबोधन में उपस्थित विद्वानों और साहित्यकारों का स्वागे करते हुए संसद में राजभाषा से जुड़े गौरवशाली प्रसंगों को याद किया। ‘राष्ट्रभाषा उत्सव’ राष्ट्रगान के साथ संपन्न हुआ।

नेशनल बुक ट्रस्ट- हिंदी पखवाड़ा कार्यक्रम

नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा 14 से 30 सितंबर तक हिंदी पखवाड़ा मनाया गया। इस अवसर पर 23 सितंबर को ट्रस्ट कार्यालय में 'अपने प्रिय लेखक से मिलिए' कार्यक्रम के अलावा निबंध प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया। प्रख्यात साहित्यकार एवं पत्रकार, पद्मश्री श्री कन्हैयालाल नंदन को इस कार्यक्रम हेतु निमंत्रित किया गया था। बड़ी संख्या में उपस्थित ट्रस्ट कर्मियों के साथ श्री नंदन ने लगभग आधी सदी की अपनी साहित्यिक एवं पत्रकारिता यात्रा के अनुभव बांटे। 'धर्मयुग', 'पराग', 'सारिका' तथा 'दिनमान' आदि पत्रिकाओं में संपादक के रूप में अपनी गहरी छाप छोड़ने वाले श्री नंदन ने जहां पत्रकार रूप के अपने अनुभव और विचार साझा किए वहीं साहित्यकार के रूप में वे जिन-जिन पड़ावों से गुजरे उसे भी विस्तार से बताया। उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के कार्यकलापों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा, ''मैं एन.बी.टी. को राष्ट्र की संपत्ति मानता हूं।'' श्री कन्हैयालाल नंदन ने इस अवसर पर ट्रस्ट की पिछले दिनों प्रकाशित दो पुस्तकों - 'दीवार एवं अन्य कहानियां' तथा 'संदूक में दुल्हन तथा अन्य कहानियां' का लोकार्पण् भी किया।
इस अवसर पर निबंध प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया था। प्रतियोगिता का विषय था: 'राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी सूत्रभाषा है।' इस प्रतियोगिता में बड़ी संख्या में ट्रस्ट के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने भाग लिया। प्रतियोगिता के निर्णायक के रूप में प्रख्यात साहित्यकार सर्वश्री सुभाष नीरव तथा डॉ. राजेंद्र गौतम निमंत्रित किए गए थे। इस अवसर पर अपने संक्षिप्त वक्तव्य में डॉ. राजेंद्र गौतम ने कहा कि ''हमें ऐसी हिंदी का प्रयोग करना चाहिए जो मिश्रित संस्कृति को विकसित कर सके।'' उन्होंने हिंदी के संपर्क भाषा के रूप में महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि ''संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का जो महत्व है वह राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में नहीं।'' श्री सुभाष नीरव ने कहा कि ''हिंदी दिवस या सप्ताह या पखवाड़ा मनाने का उद्देश्य यही है कि इससे प्रेरित होकर हिंदी में अधिक से अधिक कामकाज किया जाए।'' उन्होंने ट्रस्ट की हिंदी भाषा में व्यापक कार्यकलापों की प्रशंसा की। कार्यक्रम का संचालन ट्रस्ट में मुख्य संपादक एवं संयुक्त निदेशक डॉ. बलदेव सिंह 'बद्दन' ने किया। इस अवसर पर ट्रस्ट के संयुक्त निदेशक (प्रशासन एवं वित्ता ) श्री अमर मुदि का सान्निध्य रहा। कार्यक्रम संचालन में ट्रस्ट के संपादकीय विभाग में कार्यरत श्री दीपक कुमार गुप्ता ने सहयोग किया। इससे पहले दो सत्रों में संपन्न कार्यक्रमों में अतिथि लेखक व निर्णायकों का स्वागत पुस्तकों के गुच्छ से किया गया।
निबंध प्रतियोगिता के विजेताओं को श्री कन्हैयालाल नंदन के हाथों नकद पुरस्कार प्रदान किए गए। पुरस्कार तीन कोटियों में दिए गए। ये कोटियां थीं : अधिकारी वर्ग, गैर हिंदी वर्ग तथा कर्मचारी वर्ग। प्रत्येक कोटियों में प्रथम, द्वितीय व तृतीय (प्रत्येक एक-एक) पुरस्कारों के अलावा दो लोगों को सांत्वना पुरस्कार दिए गए।
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