सोमवार, 27 जुलाई 2009

साहित्य सृजन – जुलाई-अगस्त 2009


‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में हिंदी अकादमी, दिल्ली के ताज़ा प्रकरण पर “मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत पढ़ें- डॉ0 रूपसिंह चन्देल का आलेख ‘दिल्ली में क्या साहित्यकारों का अभाव है?” इसके अतिरिक्त, समकालीन हिंदी कविता में उभरती हुई कवयित्री सुश्री ममता किरण के चार कविताएं, हिंदी की प्रख्यात कथा लेखिका सुधा अरोड़ा की कहानी ‘डेजर्ट फोबिया उर्फ़ समुद्र में रेगिस्तान’, पंजाबी लघुकथा की प्रथम पीढ़ी के चर्चित और सशक्त लेखक श्यामसुंदर अग्रवाल की दो लघुकथाएं तथा ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की आठवीं किस्त।
संपादक : साहित्य-सृजन

मेरी बात

दिल्ली में क्या साहित्यकारों का अभाव है ?
-डॉ. रूपसिंह चन्देल

यह सर्वविदित है कि सभी साहित्यिक संस्थांओं में शीर्ष पदों के चयन प्राय: विवादित होते रहे हैं. विवाद व्यक्ति की योग्यता, साहित्यिक क्षमता और उसके साहित्यिक अवदान की अपेक्षा चयन प्रक्रिया को लेकर अधिक होता है. अधिकांश जोड़-जुगाड़ और राजनैतिक पैठ वाले लोग ही अपने सिर पर उस पद का ताज पहनने में सफल होते हैं. हिन्दी अकादमी दिल्ली इसका अपवाद कैसे हो सकती है. अपनी संस्थापना से लेकर आज तक वहां यही होता आया, लेकिन तमाम विवादों और आंतरिक विद्रूपताओं के बावजूद यहां वह सब नहीं हुआ जो आज हो रहा है. इससे स्पष्ट है कि हिन्दी में सहिष्णुता के लिए अब कोई स्थान नहीं रहा. अहंकार सदैव टकराते रहे, लेकिन सार्वजनिक तौर पर किसी साहित्यकार के लिए अपमानजनक शब्दों के प्रयोग से लोग परहेज करते थे. हिन्दी अकादमी दिल्ली में पिछले सप्ताह जो घटित हुआ, वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि हिन्दी साहित्य की पतनशील राजनीति का एक ज्वलंत उदाहरण भी है.

अकादमी की 'अध्यक्ष' और दिल्ली की मुख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित हैं. शीला जी का हिन्दी प्रेम सर्वविदित है. हिन्दी के विकास के लिए उनके प्रयास श्लाघनीय हैं. यही कारण है कि उन्होंने अकादमी का बजट वर्षों पहले दो करोड़ कर दिया था, लेकिन बजट की घोषणा कर देना ही पर्याप्त नहीं था. 'बजट' कैसे खर्च किया जा रहा है… इस पर दृष्टि रखना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा, क्योंकि शायद अकादमी के अधिकारियों पर उन्हें कुछ अधिक ही विश्वास रहा. इस दृष्टि से अकादमी के विगत कुछ वर्ष अधिक ही ध्यानाकर्षण करने वाले रहे. आश्चर्यजनक रूप से कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई थी जो अनेक आशंकाओं को जन्म देने के लिए पर्याप्त थे. तरह-तरह की चर्चाएं थीं. वह सब हिन्दी साहित्य के विकास के नाम पर आम जनता के धन का सदुपयोग था या दुरुपयोग, यह एक निष्पक्ष जांच के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा. और उस काल में अकादमी की वर्तमान संचालन समिति से त्यागपत्र देनेवाली प्रसिद्ध आलोचक अर्चना वर्मा तब भी संचालन समिति की सदस्य थीं. अर्चना जी ने अशोक चक्रधर के विरोध में संचालन समिति से त्यागपत्र दिया, जिन्हें अकादमी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है. समाचार पत्रों के अनुसार अशोक चक्रधर के लिए 'विदूषक' के अतिरिक्त अन्य अनेक आपत्तिजनक उपाधियों से संबोधित करते हुए उन्होंने अपना त्यागपत्र दिया है. उनके बाद युवा आलोचक और अकादमी के सचिव डॉ. ज्यातिष जोशी ने भी त्यागपत्र दे दिया, लेकिन अपनी छवि के अनरूप डॉ. जोशी ने चक्रधर के विरुद्ध विष वमन नहीं किया. आखिर यह त्याग पत्र उसी दिन क्यों नहीं दिये गये थे जिस दिन चक्रधर को अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था ?

अशोक चक्रधर से मेरा परिचय नहीं है. मैं उनका प्रशंसक भी नहीं हूँ, लेकिन मुझे उनके लिए 'विदूषक' जैसा अपमानजनक शब्द प्रयोग करने पर आपत्ति है. अर्चना जी सुरेन्द्र शर्मा के साथ बैठकर काम कर सकती हैं, पर अशोक चक्रधर के साथ नहीं. मैं जानना चाहूंगा. अर्चना जी एक गंभीर आलोचक और कहानीकार हैं. मिरांडा कॉलेज में हिन्दी की प्रोफेसर हैं. वह इससे इंकार नहीं करेगीं कि 'हास्य' भी साहित्य की एक विधा है. हास्य और व्यंग्य रचनाएं लिखना सहज नहीं है. एक अतिरिक्त प्रतिभा की दरकार होती है. शायद इसीलिए ऐसे रचनाकारों की संख्या कम होती है और इन विधाओं को हाशिये पर डाला जाता रहा है. अशोक चक्रधर ने जामिया मिलिया में वर्षों हिन्दी पढ़ाई है, अत: उन्हें साहित्य की तमीज नहीं, यह कहना उचित नहीं होगा. उनकी जिस टिप्पणी से उनके गुरू और अकादमी के वर्षों से संचालन समिति के सदस्य बनते आ रहे डॉ. नित्यानंद तिवारी को आपत्ति है और शायद त्यागपत्र देने वालों को भी इस टिप्पणी ने उत्तेजित किया होगा, वह थी 'साहित्य को लोकरंजन' का रूप बताया जाना और हास्य-व्यंग्य साहित्य और गंभीर साहित्य में एक सांमजस्य स्थापित करना. अर्थात नये उपाध्यक्ष की कार्यशैली पूर्व उपाध्यक्षों से भिन्न होने वाली थी. इससे संचालन समिति के सदस्यों और अकादमी के अधिकारियों की गतिविधियां बाधित होने वाली थीं. अच्छा तो यह रहा होता यदि कुछ माह चक्रधर की कार्यशैली को देखने के बाद उसे साहित्य और अकादमी के प्रतिकूल पाकर ये कदम उठाये गये होते.

यहां एक तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने के बाद अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा. 6 जुलाई को अकादमी की संचालन समिति के लिए चौबीस लोगों के नामों की घोषणा की गई. इनमें से अनेक नाम ऐसे हैं जो वर्षों से संचालन समिति की शोभा बढ़ा रहे हैं. क्या दिल्ली में साहित्याकारों का इतना अभाव है? अर्चना जी भी उनमें से एक हैं. कहते हैं कि देश में सर्वाधिक साहित्याकार और पत्रकार दिल्ली में बसते हैं, फिर अकादमी द्रोणवीर कोहली, राजी सेठ, कृष्ण बलदेव वैद,, विष्णुचन्द्र शर्मा, हरिपाल त्यागी, महेश दर्पण, राजेन्द्र गौतम, राजकिशोर, विभांशु दिव्याल, मधुसूदन आनंद, अशोक कुमार आदि लोगों को कैसे भूल जाती है?

एक साहित्यकार के नाते मैं हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष और दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित जी से कहना चाहता हूँ कि अकादमी में ऐसे नियम बनाये जाने चाहिएं कि एक व्यक्ति को एक बार से अधिक संचालन समिति का सदस्य न बनाया जाये और यदि बनाया ही जाये तो दस वर्ष के बाद. इसके अतिरिक्त एक 'मॉनीटरिंग कमेटी' भी बनायी जाये जो न केवल अकादमी के आर्थिक मुद्दों पर दृष्टि रखे बल्कि पुरस्कारों पर भी दृष्टि रखे- हस्तक्षेप नहीं. मैं चित्रा मुद्गल और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के विचारों से सहमत हूँ जो उन्होंने कवि और अनुवादक नीलाभ द्वारा साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार को अस्वीकार करने पर राष्ट्रीय सहारा में व्यक्त मिये थे. चित्रा जी का कहना था कि दस में दो पुरस्कारों का चयन ही निष्पक्ष होता है. अर्थात अस्सी प्रतिशत 'मैनेज' किये जाते हैं (चित्रा जी भी अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चकी हैं). इस दृष्टि से विगत कुछ वर्षों के अकादमी पुरस्कारों की पड़ताल की जानी चाहिए. आखिर क्या कारण है कि 'वाह कैम्प' (प्रकाशन वर्ष 1994) जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले द्रोणवीर कोहली पचहत्तर पार कर गये और आज तक अकादमी ने उन्हें साहित्याकार पुरस्कार के याग्य भी नहीं माना, जबकि कुछ लोगों के खाते में मात्र एक कृति जुड़ते ही उन्हें इस पुरस्कार से नवाजा गया. यह बातें हिन्दी अकादमी की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त हैं.

हिन्दी अकादमी को इस साहित्यिक राजनीतिक उठा-पटक और बंदरबांट से उबारने की आवश्यकता है, ताकि लक्ष्य से भटक चुकी यह संस्था पूर्णत: अपना लक्ष्य ही न खो बैठे.
00

कविता

ममता किरण की चार कविताएँ

(1)स्त्री

स्त्री झाँकती है नदी में
निहारती है अपना चेहरा
सँवारती है अपनी टिकुली, माँग का सिन्दूर
होठों की लाली, हाथों की चूड़ियाँ
भर जाती है रौब से
माँगती है आशीष नदी से
सदा बनी रहे सुहागिन
अपने अन्तिम समय
अपने सागर के हाथों ही
विलीन हो उसका समूचा अस्तित्व इस नदी में।

स्त्री माँगती है नदी से
अनवरत चलने का गुण
पार करना चाहती है
तमाम बाधाओं को
पहुँचना चाहती है अपने गन्तव्य तक।

स्त्री माँगती है नदी से सभ्यता के गुण
वो सभ्यता जो उसके किनारे
जन्मी, पली, बढ़ी और जीवित रही।

स्त्री बसा लेना चाहती है
समूचा का समूचा संसार नदी का
अपने गहरे भीतर
जलाती है दीप आस्था के
नदी में प्रवाहित कर
करती है मंगल कामना सबके लिए
और...
अपने लिए माँगती है
सिर्फ नदी होना।
0

(2) स्मृतियाँ

मेरी माँ की स्मृतियों में कैद है
आँगन और छत वाला घर
आँगन में पली गाय
गाय का चारा सानी करती दादी
पूरे आसमान तले छत पर
साथ सोता पूरा परिवार
चाँद तारों की बातें
पड़ोस का मोहन
बादलों का उमड़ना-घुमड़ना
दरवाजे पर बाबा का बैठना।

जबकि मेरी स्मृतियों में
दो कमरों का सींखचों वाला घर
न आँगन न छत
न चाँद न तारे
न दादी न बाबा
न आस न पड़ोस
हर समय कैद
और हाँ...
वो क्रेच वाली आंटी
जो हम बच्चों को अक्सर डपटती।
0

(3) जन्म लूँ

जन्म लूँ यदि मैं पक्षी बन
चिड़ियाँ बन चहकूँ तुम्हारी शाख पर
आँगन-आँगन जाऊँ, कूदूँ, फुदकूँ
वो जो एक वृद्ध जोड़ा कमरे से निहारे मुझे
तो उनको रिझाऊँ, पास बुलाऊँ
वो मुझे दाना चुगायें, मैं उनकी दोस्त बन जाऊँ।

जन्म लूँ यदि मैं फूल बन
खुशबू बन महकूँ
प्रार्थना बन करबद्ध हो जाऊँ
अर्चना बन अर्पित हो जाऊँ
शान्ति बन निवेदित हो जाऊँ
बदल दूँ गोलियों का रास्ता
सीमा पर खिल-खिल जाऊँ।

जन्म लूँ यदि मैं अन्न बन
फसल बन लहलहाऊँ खेतों में
खुशी से भर भर जाए किसान
भूख से न मरे कोई
सब का भर दूँ पेट।

जन्म लूँ यदि मैं मेघ बन
सूखी धरती पर बरस जाऊँ
अपने अस्तित्व से भर दूँ
नदियों, पोखरों, झीलों को
न भटकना पड़े रेगिस्तान में
औरतों और पशुओं को
तृप्त कर जाऊँ उसकी प्यास को
बरसूँ तो खूब बरसूँ
दु:ख से व्याकुल अखियों से बरस जाऊँ
हर्षित कर उदास मनों को।

जन्म लूँ यदि मैं अग्नि बन
तो हे ईश्वर सिर्फ़ इतना करना
न भटकाना मेरा रास्ता
हवन की वेदी पर प्रज्जवलित हो जाऊँ
भटके लोगों की राह बन जाऊँ
अँधेरे को भेद रोशनी बन फैलूँ
नफ़रत को छोड़ प्यार का पैगाम बनूँ
बुझे चूल्हों की आँच बन जाऊँ।
0

(4) वृक्ष था हरा भरा

वृक्ष था हरा-भरा
फैली थी उसकी बाँहें
उन बाहों में उगे थे
रेशमी मुलायम नरम नाजुक नन्हें से फूल
उसके कोटर में रहते थे
रूई जैसे प्यारे प्यारे फाहे
उसकी गोद में खेलते थे
छोटे छोटे बच्चे
उसकी छांव में सुस्ताते थे पंथी
उसकी चौखट पर विसर्जित करते थे लोग
अपने अपने देवी देवता
पति की मंगल कामना करती
सुहागिनों को आशीषता था
कितना कुछ करता था सबके लिए
वृक्ष था हरा भरा।

पर कभी-कभी
कहता था वृक्ष धीरे से
फाहे पर लगते उड़ जाते हैं
बच्चे बड़े होकर नापते हैं
अपनी अपनी सड़कें
पंथी सुस्ता कर चले जाते हैं
बहुएँ आशीष लेकर
मगन हो जाती हैं अपनी अपनी गृहस्थी में
मेरी सुध कोई नहीं लेता
मैं बूढ़ा हो गया हूँ
कमज़ोर हो गया हूँ
कब भरभरा कर टूट जाएँ
ये बूढ़ी हड्डियाँ
पता नहीं
तुम सबसे करता हूँ एक निवेदन
एक बार उसी तरह
इकट्ठा हो जाओ
मेरे आँगन में
जी भरकर देख तो लूँ।
0

समकालीन हिंदी कविता में एक उभरती हुई कवयित्री। हिंदी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, लेख, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित। रेडियो, दूरदर्शन तथा निजी टी वी चैनलों पर कविताओं का प्रसारण। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में शिरकत। अंतर्जाल पर हिंदी की अनेक वेब पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। इसके अतिरिक्त रेडियो-दूरदर्शन के लिए डाक्यूमेंटरी लेखन। दूरदर्शन की एक डाक्यूमेटरी के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित। आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में समाचार वाचिका तथा विदेश प्रसारण सेवा में उदघोषिका, आकाशवाणी की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा में कार्यक्रम प्रस्तोता(अनुबंध के आधार पर)। ''मसि कागद'' पत्रिका के युवा विशेषांक का संपादन।
संपर्क : के-210, सरोजनी नगर, नई दिल्ली-110023
दूरभाष : 09891384919(मोबाइल)
ई मेल : mamtakiran9@gmail.com

लघुकथाएं


दो लघुकथाएं/श्यामसुंदर अग्रवाल

लड़का लड़की

गुप्ताजी की बेटी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था- एक लड़का था, दूसरी लड़की। पति-पत्नी दोनों हालचाल जानने व बधाई देने के लिए बेटी की ससुराल पहुँचे।
दो-तीन घंटे वहाँ व्यतीत करने के पश्चात् जब वे वापस आने लगे तो समधी ने बात छेड़ी, ''दो नवजात शिशुओं का एक साथ पालन-पोषण करना बहुत कठिन है। अगर दोनों में से एक को आप ले जाते तो...।''
गुप्ताजी को समधी का सुझाव ठीक लगा। उन्होंने पत्नी से विचार-विमर्श किया। उनके घर में एक पौत्री थी और बेटी के पास पहले प्रसव से चार वर्ष का एक बेटा था। अगर वे लड़के को ले जाएँ तो दोनों परिवारों में लड़का-लड़की की जोड़ी बन जाएगी।
उन्होंने अपनी मंशा बेटी के ससुर के पास जाहिर कर दी।
लड़का ले जाने की बात सुन ससुर घबरा गया। थोड़ा सहज होने के बाद बोला, ''मैं श्रीमती जी से सलाह करके बताता हूँ।''
थोड़ी देर बाद वह आया और कहा, ''चलो रहने दो, आपको किसलिए तकलीफ़ देनी है। जैसे-तैसे हम खुद ही पाल लेंगे।''

औरत का दर्द

दो दिन से लक्ष्मी की सोलह वर्षीया बेटी भी मजदूरी करने उसके साथ ही आने लगी थी।
दोपहर को छुट्टी के समय रोटी खाते वक्त उसकी बस्ती की ही कमला बोली-''तू राधा को क्यूं संग लाने लग गई लक्ष्मी ?''
''संग न लाऊँ तो क्या करूँ कमला ? एक तो आंखां सामनै रवै, दूसरा चार पैसा भी बनै।'' लक्ष्मी की आवाज़ से चिंता झलक रही थी।
''ठेकेदार करकै कहूँ मैं तो। मूए की निगा ठीक नीं। जवान भैन-बेटी तो घर में ई रवै तो ठीक।''
रोटी का कौर लक्ष्मी के गले में जहाँ था, वहीं अटक गया। उसने डिब्बे में से पानी पीकर गला साफ किया। फिर इधर-उधर देखा और गहरी सांस लेकर धीरे से बोली, ''घर में किसके पास छोड़ूं कमला ? बाप इसका दारू पीकै पडया रवै सारा दिन। उसकी निगा तो ठेकेदार सै बी खराब लगै। ठेकेदार से तो मैं बचा लूंगी, उससै कौन बचावैगा छोरी नै?''
00
पंजाबी लघुकथा की प्रथम पीढ़ी के चर्चित और सशक्त लेखक। दो लघुकथा संग्रह “नंगे लोकां दा फिक्र” और “मारूथल दे वासी” प्रकाशित। गत 21 वर्षों से डॉ0 दीप्ति के साथ मिलकर लघुकथा विधा पर केन्द्रित पंजाबी “मिनी” त्रैमासिक का संचालन/संपादन। लघुकथा विषयक अनेक पुस्तकों का संपादन। हिन्दी से कई पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद जिनमें “डरे हुए लोग” “ठंडी रजाई”(सुकेश साहनी), “आख़िरी सच”(सतीश दुबे) तथा “सिर्फ़ इंसान”(कमल चोपड़ा) लघुकथा संग्रह प्रमुख हैं। आजकल इंटरनेट पर ब्लॉगिंग। ‘पंजाबी मिनी’, ‘पंजाबी लघुकथा’ ‘जुगनू’ इनके प्रमुख ब्लॉग्स हैं।
संपर्क : 575, गली नं0 5, प्रताप सिंह नगर, कोटकपूरा(पंजाब)
दूरभाष :01635-222517, 098885-36437
ई मेल : sundershyam60@gmail.com

हिंदी कहानी



डेजर्ट फोबिया उर्फ समुद्र में रेगिस्तान
सुधा अरोड़ा

दिन, हफ्ते, महीने, साल .... लगभग पैंतीस सालों से वे खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बंटे समुद्र के निस्सीम विस्तार के सामने - ऐसे, जैसे समुद्र का हिस्सा हों वे। हहराते - गहराते समुद्र की उफनती पछाड़ खाती फेनिल लहरों की गतिशीलता के बीच एकमात्र शांत, स्थिर और निश्चल वस्तु की तरह वे मानो कैलेंडर में जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का अभिन्न हिस्सा बन गयी थीं।
''आंटी, थोड़ी शक्कर चाहिए।'' दरवाजे की घंटी के बजने के साथ सात - आठ साल के दो बच्चों में से एक ने हाथ का खाली कटोरा आगे कर दिया।
बच्चों की आँखो के चुम्बकीय आकर्षण से उन्होंने आगे बढ़कर खाली कटोरा लिया, खुद रसोई में जाकर उसे चीनी से भरा और लाकर उन्हें थमा दिया।
''संभालना।'' उन्होंने हल्की-सी मुस्कान के साथ एक का गाल थपथपाया और जिज्ञासु निगाहों से देखा। पूछा कुछ नहीं।
''वहाँ।'' बच्चे ने आंटी की मोहक मुस्कान में सवाल पढ़ पड़ोस के फ्लैट की ओर इशारा किया, जो किसी बड़ी कंपनी का गेस्ट हाउस था, ''वहां अब्भी आये हमलोग! दुबाई से .... '' विदेशी अन्दाज में 'आ' को खींचते हुए बड़ी लड़की ने कहा।

पीछे से नाम की पुकार सुनकर एक ने दूसरे को टहोका। लौटते बच्चों की खिलखिलाहट को वे एकटक निहारती रहीं। एक खिलखिलाहट पलटी -'थैंक्यू आंटी' । उन्होंने स्वीकृति में हाथ उठाया और बेमन से मुड़ गयीं खिड़की की ओर। उनके पीछे पीछे हवा में 'थैक्यू आंटी' के टुकडे तिर रहे थे।

तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था। चढ़ती दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज्यादा नीलापन लिए दिखता - आसमानी नीले रंग से तीन शेड गहरा। लगता, जैसे चित्रकार ने समुद्र को आंकने के बाद उसी नीले रंग में सफेद मिलाकर ऊपर के आसमान पर रंगों की कूची फेर दी हो। आसमान और समुद्र को अलग करती बस एक गहरी नीली लकीर। डूबता सूरज जब उस नीली लकीर को छूने के लिए धीरे-धीरे नीचे उतरता तो लाल गुलाबी रंगो का तूफान-सा उमड़ता और वे सारे काम छोड़कर उठतीं और कूची लेकर उस उड़ते अबीर को कैनवस पर उतारती रहतीं - एक दिन, दो दिन, तीन दिन। तस्वीर पूरी होने पर खिड़की के बाहर की तस्वीर का अपनी तस्वीर से मिलान करतीं और अपनी उंगलियों पर रीझ जाती। उन्हे थाम लेते ऑफिस से लौटे साहब के मजबूत हाथ और उनकी उंगलियों पर होते साहब के नम होंठ।
दस साल बाद एक दिन अचानक, जब गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर, बच्चे वापस पंचगनी के हॉस्टल लौट गए, उन्हें समुद्र कुछ बदरंग-सा नीला लगा जिसमे जगह जगह नीले रंग के धुंधलाए चकत्ते थे। खिड़की के बाहर दिखाई देता समुद्र पहले से भी ज्यादा विस्तारित था। वैसा ही अछोर विस्तार उन्हें अपने भीतर पसरता महसूस हुआ। उनका मन हुआ कि उस सपाट निर्जन असीम विस्तार पर घर लौटते हुए पक्षियों की एक कतार आंक दें जिनके उड़ने का अक्स समुद्र की लहरों पर पड़ता हो। उन्होंने पुराने सामान के जखीरे से कैनवस और कूची निकाली पर कैनवस सख्त और खुरदुरा हो चुका था और कूची के बाल सूखकर अकड़ गए थे। वे बार बार खिड़की के बाहर की तस्वीर को बदलने की कोशिश करतीं पर उस कोशिश को हर बार नाकाम करता हुआ समुद्र फिर समुद्र था - जिद्दी, भयावह और खिलंदड़ा।

खिलंदड़े समुद्र के किनारे किनारे कुछ औरतें प्रैम में बच्चों को घुमा रही थीं। एक युवा लड़की के कमर मे बंधे पट्टे के साथ बच्चे का कैरियर नत्थी था जिसमें बच्चा बंदरिए के बच्चे की तरह माँ की छाती से चिपका था।

''मुझे अपना बच्चा चाहिए '', साहब की बांहो के घेरे को हथेलियों से कसते हुए उनके मुंह से कराह-सा वाक्य फिसल पड़ा।
साहब के हाथ झटके से अलग हुए और बाएं हाथ की तर्जनी को उठाकर उन्होने बरज दिया, ''फिर कभी मत कहना। ये तीनों तुम्हारे अपने नहीं है क्या?'' साहब ने कार्निस पर रखी बच्चों की तस्वीर उठा ली। फ्रेम मे जडी हुई तीनो बच्चों की हँसी के साथ साहब की तर्जनी की हीरे की अंगूठी की चमक इतनी तेज़ थी कि वे कह नहीं पाई कि उनका बचपन कहां देखा उन्होंने। वे तो जब ब्याह कर इस घर मे आई तो दस, आठ और छ: साल के तीनो बेटों ने अपनी छोटी माँ का स्वागत किया था और वे दहलीज लांघते ही एकाएक बड़ी हो गयी थी।
वह अपने दसवें माले के फ्लैट की; ऊँचाई से सबको तब तक देखती रहीं, जब तक समुद्र की पछाड़ खाती लहरें उफन उफन कर जमीन से एकाकार नहीं हो गयीं। सबकुछ गर्म-गर्म होकर धुआं-धुआं- सा धुंधला हो गया।

न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताश रेगिस्तान में बदल गया। वे खिड़की पर खड़ी होतीं तो उन्हे लगता - उनकी आँखों के सामने हिलोरें लेता समुद्र नहीं, दूर दूर तक फैला खुश्क रेगिस्तान है। यहां तक कि वे अपनी पनियाई आँखों में रेत की किरकिरी महसूस करतीं वहां से हट जातीं।
“तुम्हें डेज़र्ट फोबिया हो गया है।” साहब हंसते हुए कहते, “इसका इलाज होना चाहिए।”

साहब को अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और वह उनका अतीत बन गए। पीछे छोड़ गए - बेशुमार जायदाद और तीन जवान बेटे। उतने ही अचानक उन्होंने अपने को कोर्ट कचहरी के मुकदमों और कानूनी दांवपेचों से घिरा पाया।

तीनों बेटों के घेरने पर उन्होंने कहा कि उन्हें साहब की जमा पूंजी, फार्म हाउस और बैंक बैलेंस नहीं चाहिए, सिर्फ यह घर उनसे न छीना जाए। उन्हें लगा, उनके जीने के लिये यह रेगिस्तान बहुत जरूरी है।
घर उन्हें मिला पर बच्चे छिन गए। तीनों बेटे अब विदेश में थे और जमीन जायदाद की देख रेख करने साल छमाही आ जाते थे, पर आकर छोटी माँ के दरवाजे पर दस्तक देना अब उनके लिये जरूरी नहीं रह गया था।
उन्हें पता ही नहीं चला, कब वह धीरे-धीरे खिड़की के चौकोर फ्रेम में जड़े लैंडस्केप का हिस्सा बन गयीं।

''आंटी, हमलोग आज चले जाएंगे - वापस दुबाई'' वैसे ही 'आ' को खींचते हुए बड़ी लड़की ने कहा। हमारे ग्रैंड पा मतलब नाना हमें लेने आए हैं। चलिए हमारे साथ, उनसे मिलिए।'' बच्चों ने दोनो ओर से उनकी उंगलियां थामीं और उनके मना करने के बावजूद उन्हें गेस्ट हाउस की ओर ले चले। इन चार दिनों में बच्चे उनके इर्द गिर्द बने रहे थे।

सोफे पर एक अधेड़ सज्जन बैठे अखबार पढ़ रहे थे। उन्हे देखते ही हड़बड़ाकर उठे और हाथ जोड़कर बोल पड़े, “बच्चे आपकी बहुत तारीफ करते हैं - आंटी इतनी अच्छी पेन्टिंग बनाती हैं, आंटी की खिड़की से इतना अच्छा व्यू दिखता है … '' बोलते-बोलते वह रुके, चश्मा नाक पर दबाया और आँखें दो तीन बार झपकाकर बोले - ''अगर मैं गलत नहीं तो …आर यू ...छवि…?”

छवि - छवि - छवि … जैसे किसी दुर्घटना में इंद्रियां संज्ञाहीन हो जाएं…वे जहां थीं, वहां खड़ी जैसे सचमुच बुत बन गईं।
''हां… पर आप…?'' बोलते हुए उन्हें अपनी आवाज़ किसी कुएं के भीतर से उभरती लगी।
''नहीं पहचाना न? मैं… महेश। कॉलेज में तुम्हारा मजनू नं. वन !'' कहकर वे ठहाका मारकर हंस पड़े, ''तुम भी अब नानी दादी बन गई होगी - पोते पोतियों वाली… अपने साहब से मिलवाओ… ''
उन्होंने आँखें झुकायीं और सिर हिला दिया - वे नहीं रहे।
''सॉरी, मुझे पता नही था !'' उनके स्वर में क्षमायाचना थी।
''चलती हूं ...'' वे रुकी नहीं, घर की ओर मुड़ गयीं।
पीछे से छोटे बच्चे ने उनका पल्लू थामा - ''आंटी… आंटी ... ''
वे मुड़ीं। बच्चे ने एक पल उनकी सूनी आँखों में झांका, फिर पुचकारता हुआ धीरे से बोला-
''आंटी, यू आर एन एंजेल।''
वे मुस्कुराईं, पसीजी हथेलियों से गाल थपथपाया, फिर घुटने मोड़कर नीचे बैठ गईं , उसका माथा चूमा – “थैंक्यू !” और घर की ओर कदम बढ़ाए।

कांपते हाथों से उन्होंने चाभी घुमायी। दरवाजा खुला। दीवारों पर लगी पेन्टिंग्स के कोनों पर लिखा उनका छोटा-सा नाम वहां से निकलकर पूरे कमरे में फैल गया था। कमरे के बीचोंबीच वह नाम जैसे उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। वे हुलस कर उससे मिलीं और ढह गईं जैसे बरसों पहले बिछडे दोस्त से गले मिली हों।

खिड़की के बाहर रेगिस्तान धीरे-धीरे हिलोरें लेने लगा था।
और फिर… न जाने कैसे खिड़की के बाहर हिलोरें लेता रेगिस्तान उमड़ते समुद्र की तरह बेरोकटोक कमरे में चला आया और सारे बांध तोड़कर उफनता हुआ उनकी आँखों के रास्ते बह निकला।
00
जन्म - ४ अक्टूबर १९४६ को लाहौर (पश्चिमी पाकिस्तान) में
शिक्षा - कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में १९६७ में एम.ए. , बी.ए. (ऑनर्स) दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम।
कार्यक्षेत्र - कलकत्ता के जोगमाया देवी कॉलेज तथा श्री शिक्षायतन कॉलेज - दो डिग्री कॉलेजों के हिंदी विभाग में '६९ से '७१ तक अध्यापन। १९९३ से महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। कई कार्यशालाओं में भागीदारी।
लेखन - पहली कहानी 'मरी हुई चीज़' सितंबर १९६५ में 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित, कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, और पोलिश भाषाओं में अनूदित। डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक भाषा में तथा डॉ. कोकी नागा द्वारा जापानी भाषा में कुछ कहानियाँ अनूदित। 'युद्धविराम', 'दहलीज़ पर संवाद' तथा 'इतिहास दोहराता है' पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित, दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फ़िल्मों का निर्माण फिल्म पटकथाओं, टीवी धारावाहिक और रेडियो नाटकों का लेखन।
प्रकाशन - कहानी संग्रह 'बतौर तराशे हुए' (१९६७) 'युद्धविराम' (१९७७) तथा 'महानगर की मैथिली' (१९८७)। 'युद्धविराम' उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
संपादन - कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पत्रिका 'प्रक्रिया' का सन १९६६-६७ में संपादन। बंबई से सन १९७७-७८ में हिंदी साहित्य मासिक 'कथायात्रा' के संपादन विभाग में कार्यरत। निम्न मध्यम-वर्गीय महिलाओं के लिए 'अंतरंग संगिनी' के दो महत्वपूर्ण विशेषांकों 'औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो' का संपादन।
स्तंभ लेखन - कहानियों के साथ-साथ '७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' के लोकप्रिय स्तंभ 'आम आदमी : ज़िंदा सवाल' का लेखन। '९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 'जनसत्ता' के साप्ताहिक स्तंभ 'वामा' का लगभग एक वर्ष तक लेखन। महिलाओं की समस्याओं पर कई आलेख प्रकाशित। स्त्री विमर्श से संबंधित लेखों का संकलन। दो कहानी संग्रह तथा एक एकांकी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति - भारतीय भाषाओं के प्रकाशन 'वसुंधरा' की मानद निदेशक।
संपर्क : sudhaarora@gmail.com

भाषांतर



धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-8)

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

॥ आठ ॥
जिस दिन पीटर आवदेयेव की वोज्दविजेन्स्क अस्पताल में मृत्यु हुई, उसी दिन उसका वृद्ध पिता, भाभी और उसकी जवान बेटी बर्फ़ जमे खलिहान में जई गाह रहे थे। शाम को बहुत अधिक बर्फ़ गिरी थी, और कुछ ही देर में जमकर वह सख्त हो गयी थी। वृद्ध व्यक्ति मुर्गे की तीसरी बांग पर ही जाग गया था, और, तुषाराच्छन्न खिड़की से चाँद की चटख रोशनी देख, उसने अंगीठी बुझाई, जूते, फरकोट और हैट पहने और खलिहान की ओर चल पड़ा था। उसने वहाँ दो घण्टे तक काम किया, फिर झोपड़ी में लौटा और बेटा और महिलाओं को जगाया था। जब औरतें और लड़की बाहर आयीं; फर्श साफ थी, लकड़ी का एक बेलचा मुलायम सफेद बर्फ़ में सीधा खड़ा हुआ था, जिसके बगल में एक झाड़ू रखी हुई थी, जिसकी मूठ ऊपर की ओर थी और साफ फर्श पर जई के पूले एक के बाद एक दो कतारों में रखे हुए थे। उन्होंने मूसल उठाए और तीन समान्तर प्रहारों के लय से गाहना प्रारंभ कर दिया था। बूढ़ा भारी मूसल का प्रयोग कर पुआल को कुचल रहा था। उसकी पोती पूले के ऊपरी हिस्से को संतुलित ढंग से कूट रही थी और उसकी पुत्रवधू उन्हें उलट रही थी।
चाँद अस्त हो चुका था और प्रकाश फैलने लगा था। उनका काम समाप्त होने वाला ही था जब बड़ा बेटा आकिम हाथ बटाने के लिए आया।
''इधर उधर समय व्यर्थ क्यों कर रहा है?'' उसका पिता काम रोक कर और मूसल के सहारे खड़ा होकर उस पर चिल्लाया।
, ''मुझे घोड़ों को खरहरा करना था।''
''घोड़ों को खरहरा करना था,'' बूढ़े ने तिरस्कृत भाव से दोहराया। ''तुम्हारी माँ उन्हें खरहारा कर देगी। एक मूसल ले ले। तुम नशेबाज वीभत्स रूप से मोटा गये हो।''
''मैं आपसे अधिक नहीं पीता,'' बेटा बुदबुदाया।
बूढ़ा क्रोधित हो उठा और कूटना चूक गया। ''वह क्या है?'' उसने धमकी भरे स्वर में पूछा।
बेटे ने चुपचाप मूसल उठा लिया और काम नयी लय के साथ प्रारंभ हो गया, ''ट्रैप…टा…पा…ट्रैप…ट्रैप…।'' बूढ़ा सबके अंत में अपने भारी मूसल से चोट करता था।
''उसकी ओर देखो, उसकी गर्दन एक भेंड़ की भाँति मोटी हो गयी है। मुझे देखो, मेरी पतलूनें नहीं ठहर पातीं।'' बूढ़ा बुदबुदाया, कूटना चूक गया और उसका मूसल हवा में लहराया जिससे कूटने की लय बनी रही।
उन्होंने पूले की पंक्ति समाप्त कर दी और महिलाओं ने पांचे से मुआल समेटना शुरू कर दिया।
''पीटर मूर्ख था जिसने तेरा स्थान ग्रहण किया। उन्होंने फौज में तेरे स्थान पर उस मूर्ख को पीटा होगा, और घर के काम में वह तुझसे पाँच गुना योग्य था।''
''इतना पर्याप्त है, दादा,'' उसकी पुत्रवधू टूटे गुच्छों को उठाती हुई बोली।
''खाने वाले तुम्हारे छ: मुँह हैं और तुममें से कोई एक दिन भी काम नहीं करता। जबकि पीटर दो लोगों के बराबर अकेला काम करता था, किसी लोकोक्ति की भाँति नहीं …।''
बूढ़े की पत्नी बाड़े की ओर के रास्ते से आयी। उसने फीते से सख्त बंधी हुई ऊनी पतलून पहन रखी थी और उसके नये जूतों के नीचे बर्फ़ चरमरा रही थी। आदमी लोग पांचे से बिना ओसाए आनाज को एक ढेर में समेट रहे थे और औरतें उसे उठा रही थीं।
''कारिन्दे ने बुलाया है। वह चाहता है कि सभी जमींदार के लिए ईंटें ढोयें।'' वृद्धा ने कहा, ''मैंनें तुम्हारा लंच बांध दिया है। क्या तुम अब जाओगे?''
''बहुत अच्छा । चितकबरे घोड़े को जोतो और जाओ,'' बूढ़े ने आकिम से कहा। ''और ठीक ढंग से व्यवहार करना, अन्यथा पिछली बार की भाँति तुम मुझ पर दोष मढ़ दोगे। पीटर के विषय में सोचो, वह तुम्हारे लिए एक उदाहरण है।''
''जब वह घर पर था वह उसे कोसता था,'' आकिम भुनभुनाया, ''और अब वह चला गया है तो वह मेरी ओर मुड़ गया है।''
''क्योंकि तुम इसी योग्य हो,'' उसकी माँ ने उसी प्रकार क्रोधित होते हुए कहा। '' पीटर से तुम्हारी कोई तुलना नहीं है।''
''बहुत अच्छा, बहुत अच्छा,'' आकिम बोला।
''नि:संदेह, बहुत अच्छा। तुमने फसल का पैसा शराब पीने में उड़ा दिया, और अब तुम 'बहुत अच्छा' कहते हो।''
''पुरानी खरोचों को याद करना क्या अच्छा है? '' बहू बोली।
पिता और पुत्र के बीच झगड़ा होना पुरानी बात थी। पीटर को सेना में बुलाए जाने के तुरन्त बाद से ही ऐसा हो रहा था। बूढ़े ने तभी अनुभव किया था कि उसने खराब समझौता किया था। यह सही था कि नियमानुसार, जैसा कि बूढ़े ने उसे समझा था, बिना बच्चों वाले आदमी को परिवार वाले के लिए सेना में भर्ती हो जाना उसका कर्तव्य है। आकिम के चार बच्चे हैं, जबकि पीटर के एक भी नहीं, लेकिन पीटर पिता की भाँति एक कुशल कारीगर था : दक्ष, बुद्धिमान, मजबूत और कठोर परिश्रमी। वह पूरे समय काम करता था। काम कर रहे लोगों के पास से गुजरने पर, उनकी सहायता के लिए वह तुरंत हाथ बढ़ायेगा, जैसा कि बूढ़ा किया करता था। वह राई की कई जोड़ी कतारों को काटकर बोझ बांध देगा, एक पेड़ गिरा देगा या ईंधन की लकड़ियाँ काटकर गट्ठर बना देगा। उसे खोने का बूढ़े को गम था, लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था। सेना की अनिवार्य भर्ती मृत्यु की भाँति थी। एक सैनिक शरीर के एक कटे अंग की भाँति था, और उसे याद करना या उसकी चिन्ता करना व्यर्थ था। केवल कभी-कभी, बड़े भाई पर अकुंश के लिए बूढ़ा उसका जिक्र कर दिया करता था, जैसाकि उसने अभी किया था। उसकी माँ प्राय: अपने छोटे बेटे के विषय में सोचती थी और एक वर्ष से अधिक समय से अपने पति से पीटर को पैसे भेजने के लिए प्रार्थना करती आ रही थी। लेकिन बूढ़ा अनसुना करता रहा था।
आवदेयेव का घर समृद्ध था, और बूढ़े ने काफी धन संग्रह कर रखा था, लेकिन अपनी बचत को वह किसी काम के लिए भी नहीं छूता था। इस समय ,जब वृद्धा ने छोटे बेटे के विषय में बात करते हुए उसे सुना, उसने निश्चय किया कि जब वे जई बेच लेगें, वह उससे पुन:, यदि अधिक नहीं, तो एक रूबल ही भेजने के लिए कहेगी। युवतियों के जमींदार के यहाँ काम करने के लिए चली जाने के बाद जब वह बूढ़े के साथ अकेली रह गयी उसने जई की बेच में से पीटर को एक रूबल भेजने के लिए पति को राजी कर लिया। इस प्रकार ओसाई हुई जई के ढेर से जब बारह चौथाई जई तीन स्लेजों में चादरों में भर दी गयी और चादरों को सावधानीपूर्वक लकड़ी की खूंटियों से कसकर बांध दिया गया, उसने बूढ़े को एक पत्र दिया जिसे उसके लिए चर्च के चौकीदार ने लिखा था और बूढ़े ने वायदा किया कि कस्बे में पहुंचकर वह उसे एक रूबल के साथ डाक में डाल देगा।
नया फरकोट, कुरता और साफ-सफेद ऊनी पतलून पहनकर, बूढ़े ने पत्र लिया, और उसे अपने पर्स में रख लिया। आगेवाली स्लेज पर बैठकर उसने प्रार्थना की और कस्बे के लिए चल पड़ा। उसका पोता पीछे की स्लेज पर बैठा था। कस्बे में बूढ़े ने एक दरबान से अपने लिए पत्र पढ़ देने का अनुरोध किया, और बहुत प्रसन्नतापूर्वक निकट होकर पत्र सुनता रहा।
पीटर की माँ ने पत्र का प्रारंभ आशीर्वाद देते हुए किया था। फिर सभी की ओर से शुभ कामनाएं लिखवायी थीं। उसके पश्चात् यह समाचार था कि, ''अक्जीनिया (पीटर की पत्नी) ने उनके साथ रहने से इन्कार कर दिया था और नौकरी में चली गयी थी। हमने सुना है कि वह अच्छा कर रही है और एक ईमानदार जीवन जी रही है।'' रूबल रखने की बात का भी उल्लेख था और दुखी हृदया बूढ़ी औरत ने आँखों में आंसू भरकर चर्च के चौकीदार को पुनष्च उसकी ओर से शब्द-दर शब्द आगे लिखने का अनुरोध किया था।
''ओ, मेरे प्यारे बच्चे, मेरे प्रिय पेन्नयूषा तुम्हारे लिए दुखी मेरी आँखों से किस प्रकार आंसू बहते रहते हैं। मेरी आँखों के चमकते सूरज, किसने तुम्हे मुझसे विलग किया?'' यहाँ बूढ़ी औरत ने आह भरी थी, रोयी थी और कहा था, ''मेरे प्यारे, इतना ही पर्याप्त होगा।''
पीटर के भाग्य में यह समाचार प्राप्त करना नहीं था कि उसकी पत्नी घर छोड़ गयी थी, या रूबल या उसकी माँ के आखिरी शब्द। इस प्रकार यह सब पत्र में ही बना रहा। पत्र और पैसे इस समाचार के साथ लौटा दिये गये कि, ''जार, पितृभूमि, और धार्मिक निष्ठा की रक्षा करता हुआ पीटर युद्ध में मारा गया।'' इस प्रकार फौजी क्लर्क ने लिख भेजा था।
जब वृद्धा को यह समाचार प्राप्त हुआ वह क्षणभर के लिए रोयी थी, और फिर काम पर चली गयी थी। अगले रविवार वह चर्च गयी थी, अंतिम संस्कार किया था, पीटर का नाम मृतकों की स्मरणिका में दर्ज किया था और ईश्वर के सेवक पीटर की स्मृति में पूजा की रोटी के टुकड़े साधुजनों में बांटे थे।
अपने प्रिय पति की मृत्यु पर अक्जीनिया भी रोयी थी, जिसके साथ उसने केवल एक वर्ष का संक्षिप्त जीवन व्यतीत किया था। उसने अपने पति और अपनी उजड़ चुकी जिन्दगी, दोनों के लिए ही मातम मनाया था। उसके शोक ने उसे पीटर के सुनहरे घुंघराले बाल, अपने प्रति उसके प्यार और पितृहीन इवान के साथ अपने पिछले कठिन जीवन की याद दिला दी थी और इसके लिए उसने पीटर को ही दोषी ठहराया था जो अजनबियों के बीच गृहविहीन उस दुखी महिला की अपेक्षा अपने भाई की अधिक चिन्ता करता था।
लेकिन अपने हृदय की गहराई में वह पीटर की मृत्यु से प्रसन्न थी। वह कारिन्दा द्वारा पुन: गर्भवती थी जिसके साथ वह रहती थी, और अब कोई उसे दोष नहीं दे सकता था। अब कारिन्दा उससे विवाह कर सकता था, जैसा कि उसे प्यार करते समय उसने उससे वायदा किया था।
00
(क्रमश: जारी…)

अनुवादक संपर्क:
बी-3/230, सादतपुर विस्तार
दिल्ली-110 094
दूरभाष : 011-22965341
09810830957(मोबाइल)
ई-मेल : roopchandel@gmail.com

गतिविधियाँ

आलोक श्रीवास्तव को दुष्यंत कुमार पुरस्कार

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने इस बार अपना प्रतिष्ठित 'दुष्यंत कुमार पुरस्कार' युवा ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव को देने की घोषणा की है. आलोक को यह पुरस्कार उनके बहुचर्चित ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' के लिए दिया जाएगा. साल 2007 में प्रकाशित इस संग्रह के लिए आलोक श्रीवास्तव को मिलने वाला यह तीसरा प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है. इससे पहले उन्हें राजस्थान के 'डॉ. भगवतीशरण चतुर्वेदी पुरस्कार' और प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह के हाथों मुंबई में प्रतिष्ठित 'हेमंत स्मृति कविता सम्मान' से नवाज़ा जा चुका है. हाल में ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने अपने नए एलबम 'इंतेहा' में आलोक की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी है. पेशे से टीवी पत्रकार आलोक, मूलत: विदिशा (म.प्र.) के हैं और इन दिनों दिल्ली में एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं.