गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

साहित्य सृजन – सितंबर-अक्तूबर 2008


‘मेरी बात’ के अन्तर्गत इस बार प्रस्तुत है - हिंदी की प्रख्यात कथाकार सुधा अरोड़ा द्वारा हिंदी के वरिष्ठ लेखक और ‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव के नाम लिखा गया एक खुला पत्र जो हिंदी कथा मासिक ‘कथादेश’ के अगस्त 2008 अंक में ‘औरत की दुनिया’ स्तंभ के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है। इस पत्र को सुधा जी ने ‘साहित्य सृजन’ में विशेष रूप से पुनर्प्रकाशन के लिए प्रेषित किया है। अपने इस पत्र के साथ उन्होंने प्रभुजोशी का आलेख ‘स्त्री देह का बाजार और स्त्री की जय-पराजय’ भी प्रेषित किया था लेकिन स्थानाभाव के कारण हम उसका प्रकाशन नहीं कर रहे पा रहे हैं। इस पत्रनुमा आलेख के बहाने सुधा जी ने स्त्री विमर्श को लेकर जो प्रश्न उठाये हैं, वे न केवल विचारणीय हैं, बल्कि एक बुनियादी बहस की भी मांग करते हैं।

‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव के नाम एक खुला पत्र

स्त्री-विमर्श के नाम पर कृपया साहित्य में प्रदूषण न फैलायें
-सुधा अरोड़ा


‘हंस’ के जून अंक का सम्पादकीय ‘एक और स्त्री विमर्श पढ़कर एक घटना याद आ गयी।
फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्यौरा देते हैं, जहाँ एके विशालकाय चौपड़ का चार खाने वाला ढाँचा है। उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहाँ से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पासा फेंकते थे। हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे पीले लाल नीले रंग के वस्त्रों, आभूषणों से सजी कन्याएँ खड़ी रहती थीं और पासे को फेंककर अगर चार नम्बर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रों से सजी सुसज्जित कन्या पैरों में झांझर पहने झँकारती इठलाती हुई नृत्य के अन्दाज में चार घर चलती थीं। जाहिर है, जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के महल में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं। ‘हंस’ के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इन्द्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहाँ अप्सराओं(!) को रिझाने लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इन्द्र बाकायदा ‘हंस’ की शतरंजी चौपड़ का पासा फेंक रहे हैं।

आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है। स्त्री की अहमियत क्या है ? महज एक देह! इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं। स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आयी है और हम उसे रोक नहीं पा रहे। लड़कियाँ यह कहने में शर्मिन्दगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पास देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं ? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहाँ आड़े रहे हैं ? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंडे प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है। मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा है, ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ को उस दिखाऊ उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए। आप जैसे विचारवान सम्पादक का ‘एक और स्त्री विमर्श’ तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ थपथपाता ही नहीं, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है।
हंस का जून अंक आया और अचानक स्त्री विमर्श पर छायी धुन्ध को लेकर पटना से निकलने वाली ‘साहिती सारिका’ के सम्पादक सलिल सुधाकर और ‘अक्सर’ के वरिष्ठ सम्पादक हेतु भारद्वाज ने स्त्री विमर्श के स्वरूप से चिन्तित होकर परिचर्चाएँ आयोजित करने का निर्णय लिया। स्त्री विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुन्ध है, न भारत में। भारत में इस धुन्ध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही। जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा है और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का सम्पादक कर रहा है- लोलुपता और लम्पटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाजिक मान्यता प्रदान करना।
स्त्री देह को लेकर गालियाँ, अश्लीलता, छिछोरापन कब किस समाज में, किस युग में नहीं रहा ? साहित्य में वह गुलशन नन्दा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है। दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से सम्बन्धित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ दे रहा है। निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं।
पश्चिम में पूँजी के आधिक्य से और भारत में पूँजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आयी है। निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की माँगें और महत्वकांक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएँ जुटा लेती हैं। शिकागो या न्यू्यॉर्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियाँ ब्रॉ और शॉट्र्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं। समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नज़र आना हैरानी का बायस नहीं बनता। वहाँ के बाशिन्दों को इसकी आदत हो चुकी है और वहाँ कोई ठिठककर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं। वहाँ की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बारह निकल आयी है। भारत के बाशिन्दे अब भी नेक लाइन पर आँखें गड़ा देते हैं और जीन्स से बाहर झाँकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते। नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहाँ आज भी स्त्री देह को सौन्दर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज़ माना जाता है। उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है।
स्त्री को ‘अदर दैन बॉडी’ डिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं निर्देशकों में, न आप जैसे सम्पादकों में। अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी ‘मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है’ को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौन्दर्य को उसकी सम्पूर्णता में न देखकर ‘निचले हिस्से का सच’ जैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं। यह दृष्टि दोष लाइलाज है।
महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर। उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए। महिलाओं की बेशुमार अन्तहीन सामाजिक समस्याएँ हैं। बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को सम्भालनें और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लम्पटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलती औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है जहाँ देह की आजादी या देह मुक्ति कोई मायने नहीं रखती। आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ‘ओथेलो’ भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिन्दा है। बलात्कार और भ्रूण हत्यायें पहले से कई गुना बढ़ गयी हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है (द टेलीग्राफ: लंदन 22 जून 2008 -अमित राय) पर वह ‘हंस’ के सरोकार का मुद्दा नहीं है।
‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा’ का झंडा लिए आप अरसे से घूम रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हुए हैं। आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। हर शहर में वे पनप रही हैं। पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियाँ अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं। ‘हंस’ के स्त्री देह मुक्ति अभियान से आन्दोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेन्द्र यादव जैसे भ्रमित सम्पादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं। अपने इस अश्वमेघ यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं- रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों से तवज्जोह दी गयी, यह किसी शोध का विषय नहीं है।
आपके अनुसार योनि शब्द अश्लील और आपत्तिजनक है क्यों ‘योनि अकेली ही किसी एटम बम से कम है’। योनि शब्द से किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को परहेज नहीं हो सकता। परहेज तब होता है जब उसे प्रस्तुत करने के नजरिये में खोट दिखाई देता है। ‘हंस’ के जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डॉ. रामवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी कर दी है।
कृपया प्रेमचन्द की पत्रिका 'हंस' के साथ 'जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ की स्लोगन लाइन हटाकर ‘स्त्री देह की आजादी का मुखपत्र’ रख दें। पचास साल बाद राजेन्द्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जायेगा, इसकी गारन्टी कोई नहीं दे सकता, पर ‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह मुक्ति से शुरू होगा’ की उद्घोषणा के प्रथम प्रवक्ता और प्रणेता के रूप में ‘हंस’ सम्पादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।

मैं चाहती हूँ कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शुरू हो जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजशास्त्र और बाजार के देहशास्त्र के बीच रखकर ही न देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खाजा जा सके क्योंकि ये प्रश्न अन्ततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं। आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी। क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लाँघ कर आगे भी जाएंगे ?
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जन्म - ४ अक्टूबर १९४६ को लाहौर (पश्चिमी पाकिस्तान) में
शिक्षा - कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में १९६७ में एम.ए. , बी.ए. (ऑनर्स) दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम।
कार्यक्षेत्र - कलकत्ता के जोगमाया देवी कॉलेज तथा श्री शिक्षायतन कॉलेज - दो डिग्री कॉलेजों के हिंदी विभाग में '६९ से '७१ तक अध्यापन। १९९३ से महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। कई कार्यशालाओं में भागीदारी।
लेखन - पहली कहानी 'मरी हुई चीज़' सितंबर १९६५ में 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित, कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, और पोलिश भाषाओं में अनूदित। डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक भाषा में तथा डॉ. कोकी नागा द्वारा जापानी भाषा में कुछ कहानियाँ अनूदित। 'युद्धविराम', 'दहलीज़ पर संवाद' तथा 'इतिहास दोहराता है' पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित, दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फ़िल्मों का निर्माण फिल्म पटकथाओं, टीवी धारावाहिक और रेडियो नाटकों का लेखन।
प्रकाशन - कहानी संग्रह 'बतौर तराशे हुए' (१९६७) 'युद्धविराम' (१९७७) तथा 'महानगर की मैथिली' (१९८७)। 'युद्धविराम' उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
संपादन - कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पत्रिका 'प्रक्रिया' का सन १९६६-६७ में संपादन। बंबई से सन १९७७-७८ में हिंदी साहित्य मासिक 'कथायात्रा' के संपादन विभाग में कार्यरत। निम्न मध्यम-वर्गीय महिलाओं के लिए 'अंतरंग संगिनी' के दो महत्वपूर्ण विशेषांकों 'औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो' का संपादन।स्तंभ लेखन - कहानियों के साथ-साथ '७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' के लोकप्रिय स्तंभ 'आम आदमी : ज़िंदा सवाल' का लेखन। '९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 'जनसत्ता' के साप्ताहिक स्तंभ 'वामा' का लगभग एक वर्ष तक लेखन। महिलाओं की समस्याओं पर कई आलेख प्रकाशित। स्त्री विमर्श से संबंधित लेखों का संकलन। दो कहानी संग्रह तथा एक एकांकी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति - भारतीय भाषाओं के प्रकाशन 'वसुंधरा' की मानद निदेशक। संपर्क
: sudhaarora@gmail.com

कहानी

अम्मा का पिटारा
तरुण भटनागर

‘अम्मा। ऐसे रोज-रोज कब तक टूटे-फटे जाल में गठान बांधती रहोगी ?’
वह रोज की तरह अम्मा के पास आकर बैठ गई।
लोग उसे ‘अम्मा’ कहते हैं। वह भी खुद को ‘अम्मा’ ही जानती है। उसे अपना असली नाम याद करने पर ही याद आता है। जुबान पर ‘अम्मा’ ही रहता है।जब वह यहां आयी थी, तब मछुआरा बस्ती के लोगों के लिए वह अनाम थी। लोग उसे अम्मा कहने लगे। उसका नया नाम हो गया। फिर अड़सठ साल की बुढ़िया को कोई और क्या कहेगा? ‘अम्मा’ ही तो कहेंगे। वह भी मानती है वह अम्मा ही है।
सूरज ऊपर चढ़ आया है। रात का ज्वार का पानी उतर चुका है। किनारे वाला मटमैला समुद्र दूर के नीले समुद्र से बिल्कुल अलग दिख रहा है। समुद्र की धीमी और छोटी लहरें दूर तक फैली रेत पर अपना फेन पटक रही हैं। हर सुबह जब ज्वार का पानी उतरता है, तब बहुत सी मछलियां समुद्र के किनारे तक आ जाती है। पहले वह सोचती थी कि सुबह ही मछली मारा करे। मछुआरा बस्ती के जवान मछुआरे जब सुबह अपनी डोंगियां समुद्र में उतारते हैं, तब उसका भी उनके साथ मछली मारने जाने का मन करता है। पर बरसों पहले से उसने सुबह मछली मारना बंद कर दिया है। बरसों पहले जब वह जवान थी, तब मछलियां बडी आसानी से मिल जाया करती थीं। उन दिनों समुद्र में ढेरों मछलियां होती थीं। एक बार डोंगी से समुद्र में उतर जाओ और गहरे पानी में जाल बिछा दो और फिर बस थोड़ी ही देर बाद- हां थोड़ी ही देर बाद उस जाल को डोंगी में खींच लो। इतनी मछलियां निकलतीं कि डोंगी के पेंदे पर पैर रखने को जगह नहीं बचती। पूरी डोंगी में चमकती, उछलती, फडफडाती हजारों मछलियां भर जातीं। उन दिनों एक बार मछली पकडने के बाद हफ्तों तक जाल डालने की झंझट नहीं होती थी। कितने सुख भरे दिन थे। अब तो मछलियां कम हो गई हैं। फिर भी कुछ नही होता । अम्मा को लगता कुछ नहीं होता। भला क्या किया जा सकता है? कुछ नहीं। फिर यह समुद्र इतना तो दे ही देता है, कि वह सुकून से अपना घर चला सके। घर भी क्या, वह तो अकेली है। बरसों हो गये, वह अकेली है। किसी के साथ होने का अहसास अब मर गया है। लगता ही नहीं कि अकेले होने में कुछ अजीब है। अम्मा के लिए अकेले रहना रोज के माछी-भात की तरह है। रोज की एक सी बात। कुछ भी अजीब नहीं।
बुढ़ापा और अकेलापन दोनों एक साथ हैं। पर अम्मा इन दोनों को चिढ़ाती रहती है। बुढ़ापा है तो अब आँख जवाब दे गई है, पैर लडखडाते हैं, गर्दन हल्की-हल्की कांपती है, ऊंचा सुनाई देता है और हर दूसरे दिन कमर और पीठ दुखती है। पर वह है कि शाम को समुद्र किनारे जायेगी ही। भले कोई काम ना हो पर रात के अंधेरों में भटकेगी। ताड़ और सुपारी के ऊंचे पेड़ों वाले जंगल में रात को भटकेगी। पकी सुपारी की गिरी बटोरेगी। ताड़ के सूखे पत्ते खींचेगी और अपनी झोंपड़ी की खराब छानी पर उस पत्ते को फंसाकर-दबाकर छानी ठीक करेगी। ताड़ी के सब पेडों पर देख आयेगी कि मटकी ठीक बंधी है या नहीं, कहीं टपक तो नहीं रही। एक बूंद ताड़ी टपकी नहीं कि उसको पता चला। समुद्र किनारे रात को सूखा फेन बटोरेगी… सब कुछ रात को ही करेगी। उसकी आँख बहुत कमजोर हो गई है। पर वह मानती ही नही है। मछुआरा बस्ती के लोगों ने बहुत समझाया- यूं रात को मत भटका कर अम्मा....ताड़ और नारियल के जंगल में तो बिल्कुल मत भटकना… पर अम्मा टस से मस नहीं हुई। उसको लगता,बुढ़ापे में तो ऐसा होता ही है। वह कौन अनोखी ठहरी, जो अड़सठ साल में उसका शरीर ना बिगड़े। कौन बुड्ढा है जिसका शरीर नहीं बिगड़ता। पर इससे काम तो नहीं रुकना चाहिए। वह तो रूक ही नहीं सकती। इतने काम पडे हों तो वह कैसे रुक जाये ? अगर वह अंधी हो जाये तब भी वह रात को समुद्र किनारे और ताड़ के जंगलों में जायेगी। मछुआरा बस्ती के लोग कहते हैं कि मत जा … किसी दिन धोखा हो जायेगा। कभी गिर पड़ी या समुद्र की लहरों ने खीच लिया तो… पर वह क्या करे ? उसके काम जो हैं। कभी निबटते ही नहीं। फिर ऐसी भी क्या मजबूरी कि शरीर खराब हो रहा है। मछुआरा बस्ती वाले किसी एक ऐसे बुड्ढे को ढूंढ के ला दें जो उसकी उमर का हो और उसका शरीर ठीक-ठाक हो। बस्ती के लोगों का तो बस यही है कि अम्मा बैठी रहे। सारा दिन सारा रात बैठी रहे। ऊपर से यह और कहेंगे कि अम्मा का भला कौन है। कोई भी तो नहीं है, उसके साथ। बेचारी अम्मा…। कितना अकेली है। ठीक है उससे उनकी कोई रिश्तेदारी नहीं, पर वे अम्मा को खाने को तो दे ही सकते हैं। इस इलाके के समुद्र में इतनी मछलियां होती हैं, कि कोई भूखे ना मरे। फिर वह कितना खायेगी… मुठठी भर भात और थोड़ी-सी मछली। यह तो कोई भी दे सकता है। उसको तो काम करना छोड़ देना चाहिए। इतनी बडी मछुआरा बस्ती है। फिर अम्मा के सब पर उपकार हैं। किसी के घर जचकी हो, लडकी बिगड़ जाये, शादी ब्याह के तौर तरीके हों, किसी की तबीयत खराब हो… अम्मा हर जगह मिल जायेगी। उसने किसका साथ नहीं दिया भला। हर किसी पर अम्मा का उपकार है। पूरी मछुआरा बस्ती पर अम्मा का बड़ा उपकार रहा है। भला लोग उसे दो जून को माछी-भात नहीं दे सकते। सब देंगे... हां सब। कोई नहीं कह ही नहीं सकता। पर अम्मा…। वह किसी की नहीं सुनती। जो लोग उसे कुछ खाने का लाकर देना चाहते, वह उन्हें कोई तवज्जो नहीं देती। ऐसा नहीं था कि वह लोगों को भगा देती हो। अगर कोई उसको कुछ दे जाता तो वह उसे रख लेती...पर अगले ही दो-चार दिनों में उसका हिसाब बराबर कर देती। अभी दो रोज पहले बस्ती का एक मछुआरा अम्मा को चावल दे गया। अम्मा ने रख लिया, पर अगले ही दिन वह उसके घर गई और उसे दो बड़ी मछलियां दे आई और उसे यह भी कह आई कि हिसाब बराबर हो गया। अम्मा की ऐसी हरकत के कारण लोग उसे फिर कुछ नहीं देते। जो देते अम्मा उसका हिसाब बराबर कर देती। कुछ लोग बुरा मान जाते। लोग तो इसलिए देते, क्योंकि उन्हें अम्मा को देना अच्छा लगता। वर्ना आज के समय में कहां कोई किसी की मदद करता है। पर अम्मा को अजीब फितूर सवार रहता कि लोग उसे नकारा बनाने में लगे हैं। वह जब जवान थी तब ऐसी नहीं थी और ना इस तरह करती थी। तब वह दूसरी मछुआरा बस्ती में रहती थी।.... पर इस बुढापे में उसको ना जाने क्या हो गया है। कुछ लोग कहते वह सठिया गई है,तो कुछ कहते उसको गुरूर है। पर अम्मा का अपना ही जवाब है। भला वह क्यों किसी से ले। वह पूरी मछुआरों की बस्ती में सबसे बड़ी है। कोई उससे बड़ा नहीं है। फिर तो लोगों को उससे लेना चाहिए। ना कि उसको देना चाहिए। लोग कहते- अम्मा बुढि़या हो गई है। हाथ-पैर नहीं चलते हैं। आँख से दिखना भी कम हो गया है। बुढ़ापे की कमजोरी आ गई है। ऐसे में मुट्ठी भर चावल और मछली के लिए दिन रात भटकना ठीक नहीं है। कहीं कुछ हो गया तो। जब लोग ऐसा कहते, तो अम्मा नाराज हो जाती। कहतीं - बताओ भला किस बुड्ढ़े का शरीर कमजोर नहीं होता। उन्हें किसी की दया की जरूरत नहीं। जब शरीर को कुछ हुआ ही नही है, तब काहे की दया। वह लोगों से चिढ़ जाती…हुंह...कहीं कुछ हो जायेगा… जिनके शरीर ठीक हैं, आँख ठीक है, उनके साथ नहीं होता है क्या?… पास की मछुआरा बस्ती का किस्सा ही लो। जवान लड़का मछली पकड़ने गया। फिर तेज हवा और बरसात हुई। वह समुद्र से वापस नहीं लौटा। कहीं कुछ हो गया तो … हुंह… सब नाटकबाज हैं…बस मेरे को नकारा बनाने का सोचते हैं। जलते हैं कि इतने बुढ़ापे में भी कैसे चल फिर रही हूं मैं। अरे खुश हूँ…अकेले होने के बाद भी कभी दुःखी नहीं होती है-अम्मा… पुरी बस्ती में अम्मा के कारण रौनक है… मुहल्ले के बच्चे सबसे ज्यादा अम्मा से ही हिले हैं। इसी वजह से सब चिढ़ते हैं। कहते हैं, हाथ पैर काम नही करते… हुंह… देखना अभी सौ साल और चलेगी ये बुढि़या… सुन लो। मरते दम तक भिड़ी रहेगी अम्मा। सबको दे के ही जायेगी। तुम क्या दोगे मुझे ? सब मेरे से छोटे हो। मेरे बच्चे होते तो तुम्हारे जितने ही होते। बड़े देने वाले बने हैं। अरे अम्मा तो देती ही है और तुम सब लेते हो। इतना भी नहीं समझते।… वह बस्ती वालों पर झुंझला जाती। फिर बस्ती वालों को उसे उसके हाल पर छोड़ना ही पड़ता। वरना अम्मा उन्हें नहीं छोड़ती। पूरी मछुआरा बस्ती में बताती फिरेगी कि फलां-फलां आया था मेरे को भीख देने ? हर आदमी से कहेगी आया था, मुझ पर दया दिखाने… मैंने तो कह दिया अपनी मां को दे दे। वही है सबसे बड़ी भिखारन। और फिर खिलखिलाकर हंस पड़ती वह। उसके पोपले झुर्रीदार मुंह में सामने के दो लटके हुए दांत दिख जाते।
अम्मा अकेले रहने से ना तो डरती है और ना ही दुःखी होती है। डर काहे का। उस पर क्या धरा है जो कोई डराकर उससे ले जाये- हिण्डालियम की एक दचकी - पिचकी पतीली, एक एल्यूमिनियम की प्लेट, दो-एक कटोरी, दो चार मटके, सरकारी जमीन पर बनी एक कच्ची झोंपड़ी, झोंपड़े पर छाये ताड़ के पत्तों की छानी, एक टूटी बान वाली खटिया, एक बहुत पुरानी दरी, एक चादर, गिनती के पहनने के कपड़े, लोहे का पुराना बक्सा, मछली पकड़ने का कटा-फटा सा जाल, खाने पीने का थोडा सामान चावल, सूखी मछलियां, आधा शीशी कडवा तेल, नारियल की थोड़ी-सी गिरी, मुठ्ठी भर कच्ची सुपारी, आधा मटका ताड़ी और वह खुद… यह है अम्मा कि दुनिया। भला किसी को इसमें से किसी चीज की क्या जरूरत। फिर उसे यह भी डर नहीं कि कोई आदमी उसे पकड़ लेगा। अड़सठ साल की बुढिया को कौन पकड़ेगा। वरना इस मछुआरा बस्ती में तो ऐसे कई किस्से हैं<। अकेली औरत को पकड़ कर उसके साथ कुछ लोग गंदा काम करते हैं। अम्मा को ऐसे लोगों पर गुस्सा आता है। जब वह जवान थी उसने दो चार ऐसे लुच्चों को ठीक किया था। पर अब वह लड़ नहीं सकती। लेकिन हां ऐसे लोगों को गाली देने और धमकाने के लिए वह हमेशा मौजूद है। बस्ती में कहीं किसी लड़की -औरत के साथ ऐसा कुछ हुआ और अम्मा वहां पहुँची और उसने लोगों की खबर ली- अगर लड़की की मर्जी नहीं है तो काहे…हरामी साले … पुलिस में रिपोर्ट करो। अम्मा गंदी गालियों की बौछार लगा देती। मछुआरा बस्ती की दूसरी औरतें उसको अवाक-सी देखतीं, आदमी और लड़के अम्मा की गालियां सुनकर हंसते…। ऐसे मामलों में अम्मा लोगों को पुलिस के पास जाने को जरूर कहती। यद्यपि पुलिस ऐसे मामलों में ज्यादा कुछ नहीं करती थी। पर वह लोगो को वहां जरूर भेजती। लोग लाज शरम के मारे और बहू बेटियों की इज्जत की खातिर पुलिस के पास जाने से कतराते। पर वह उन्हें जाने को कहती। फिर जब पुलिस का कांस्टेबल तफ्तीश के लिए बस्ती आता, तो अम्मा उसे पूरी कहानी विस्तार से बताती। ऐसी-ऐसी बातें भी बताती जिसे कहते हुए दूसरे लोग लजा जायें। पर वह कहती। लड़की के घर वाले उसको कई बातें कहने से रोकते। जब वे रोकते तो वह उनको डांटती। फिर समझातीं। अम्मा को उम्मीद रहती कि पुलिस कुछ करेगी। पर अक्सर कुछ नहीं होता। फिर लोग अम्मा को कोसते। कहते उसने बेइज्जती करा दी। पुलिस में जाने से क्या हुआ भला? रही सही इज्जत भी चली गई। मछुआरा बस्ती के लोग अम्मा से चिढ जाते और उसको सख्त हिदायत देते कि वह उनके मामले में दखल ना दे।… अम्मा उनकी बात का जवाब देती। वह कहती कि पुलिस मवालियों को ठीक करेगी। उनके जमाने में उन्होंने कुछ मावालियों की रिपोर्ट की थी, तब पुलिस ने उन्हें ठीक किया था। इन्हे भी करेगी। सरकारी काम में देर तो लगती ही है। फिर बेइज्जती काहे की। सच बात बोलने में काहे कि बेइज्जती। पर लोग नहीं मानते और सारा दोष अम्मा के सिर मढ देते। अम्मा उनसे बहस करती। पर जब उसकी कोई नहीं सुनता और सब एकसाथ हो जाते तो वह रुआंसी हो जाती। लडकी के मां-बाप और आस-पडोस के लोग हफ्तों- हफ्ते तक उससे बात नहीं करते। उसके बारे में उल्टी-सीधी बात पूरी बस्ती में करते। वह दुःखी हो जाती। फिर उसको लगता भाड़ में जायें सब लोग...। उसे क्या लेना-देना। अबकी बार वह ऐसे मामलों में दखल नहीं देगी। पर यह हो नहीं पाता। जब भी कोई झंझट बस्ती में होती, अम्मा का मन नहीं मानता और वह पहुंच जाती। अपनी बात पर वह कायम नहीं रह पाती। अम्मा उस लड़की को भी समझाती। सारे मछुआरा बस्ती की औरतें कहतीं कि अम्मा अच्छा समझाती है। वह कहती समझाना जरूरी है। फिर उसको अड़सठ साल का अनुभव जो है। वह सबसे बड़ी है। उससे अच्छा और कौन समझा सकता है। इसमें अजीब क्या है? अम्मा सबसे अच्छा समझाती है, तो वह सबसे बड़ी भी तो है। सच अम्मा को बिल्कुल डर नहीं लगता।
अम्मा को दुःख भी नहीं होता। वह बरसों से अकेली है। जब उसका आदमी जिंदा था, वह तब भी अकेली थी। जब ब्याह हुआ था, तब तो उसका आदमी ठीक था। कुछ दिन दोनों ठीक रहे। फिर उसका मन अम्मा से भर गया। उसने शहर पार वाली बस्ती की एक दूसरी औरत कर ली। फिर अम्मा के बच्चा भी नहीं हुआ। वह इस बात से भी चिढ़ता था। हफ्तों हफ्तों घर नहीं आता था। वह उसकी राह तकती। वह उसके जीवन का सबसे कठिन समय था। वह अपने जीवन में बस उसी समय दुःखी हुई थी। घर में कोई जानवर पाल लो तो उससे भी प्यार हो जाता है। वह तो उसका आदमी था। ठीक है किसी दूसरी औरत के साथ है, पर भी ऐसा क्या कि एक बार भी ना आये। उसको इस बात से ज्यादा अंतर नहीं पड़ता कि वह दूसरी औरत के साथ है। जवानी में होता है। होता है। ऐसा होता है। पर उसे एक बार आना तो था। उसके साथ वह आठ साल रही है। भला बताओ किसी के साथ आठ साल रहो। उससे प्यार नहीं होगा क्या ? पर कैसा पत्थर दिल है एक बार पलट कर नहीं देखा कि, वह मर गई कि जी रही है। छिः कैसा आदमी है। उसकी इच्छा होती, वही देख आये। फिर अक्सर वही उसे देखने जाने लगी। उस दूसरी औरत के घर वह अपने आदमी को देखने जाती थी। वह औरत अम्मा को हिकारत भरी नजर से देखती। पर वह डटी रहती। कभी-कभी उसका उस औरत से झगडा भी हो जाता। पर उसने हार नहीं मानी। फिर आदमी की तबियत खराब हो गई। वह औरत उसके आदमी को अस्पताल ले गई। पता चला दारु के कारण उसका कलेजा खराब हो गया है। अम्मा को आदमी से मिलने का पक्का बहाना मिल गया। भला बीमार आदमी को वह नहीं देखेगी। बीमार आदमी को देखने से भला कोई रोकता है? उसने आदमी की बीमारी के बहाने उस औरत के घर में खासी पैठ बना ली। उसे अपने आदमी से मिलने में पहले से कम मुश्किल होती। पर फिर धीरे-धीरे उसका जाना छूट गया। फिर एक रोज खबर आई कि वह मर गया। उसकी शादी के समय उसके गले में एक काला धागा और एक लोहे की चाबी बांधी गई थी। उसने उसे अपने गले से उतारकर रख दिया। दूसरी औरतें भी ऐसा ही करती हैं, सो उसने भी किया। फिर वह कभी दुःखी नहीं हुई। आज भी जब-तब वह आँखें बंद करती है, तो उसका आदमी उसे दिख जाता है। पर अब दुःख नहीं होता। दुःख तो दूर उसे लगता भी नहीं कि वह अकेली है।
अम्मा बरसों पहले इस मछुआरा बस्ती में आई थी। आदमी के मरने के बाद भी वह काफी समय तक पुरानी जगह में ही रही। पर फिर जैसे-जैसे वह अपने आदमी को भूलती गई, उसे वह जगह भी बेकार लगने लगी। फिर वह अपने आदमी को भूल गई और वह जगह पूरी तरह से बेकार हो गई। उसे उस बस्ती में जाने का मन किया, जहां वह अपने बचपन में रहती थी और यूं एक दिन वह इस मछुआरा बस्ती में आ गई। यद्यपि अब इस बस्ती में उसके बचपन का कुछ भी नहीं है। बापू के मरने के समय वह यहां आख़िरी बार आई थी। झोंपडा खाली हो गया था। अम्मा ने अपने आदमी की सलाह पर उसे बेच दिया। फिर वापस चली गई। बाद में पता चला मछुआरा बस्ती में तूफान आया था। भयंकर तूफान। सारे झोंपडे उड़ गये। समुद्र में गये मछुआरे वापस नहीं आये। पूरी बस्ती में पानी भर गया। बहुत से लोग मारे गये। फिर बाद में पूरी बस्ती सुनसान हो गई। ज्यादातर लोग बस्ती छोडकर चले गये। पुराने लोग या तो मर गये या चले गये। बहुत बाद फिर कुछ और मछुआरे आये और धीरे-धीरे बस्ती फिर से आबाद हो गई। कई बार अम्मा बस्ती के पुराने लोगों,बुड्ढे-बुढियों से उन पुराने लोगों के बारे में पूछती है। खासकर बचपन के किसी साथी और परिचितों के बारे में। पर उसे कोई बता नहीं पाता है। वह सोचती है, अगर उसका शरीर ठीक होता तो वह उन लोगों को तलाश जरुर करती।
शाम को पूरी मछुआरा बस्ती के बच्चे उसके झोंपड़े के सामने रेत पर खेलने आ जाते है। वह उनको देखते हुए खुश होती है। कभी कोई बच्चा अम्मा-अम्मा कहते हुए उसके पास आकर उसके शरीर से लिपट जाता है, तो उसे लगता है जैसे वह बूढ़ी नहीं है और जैसे वह और वह बच्चा मां और बेटे हैं। वह मां है, जवान मां और वह खुद उसी का बच्चा। बस ऐसा ही तो लगता होगा किसी औरत को अपने बच्चे के साथ। नयी मांयें उसकी जितनी बूढ़ी नहीं होती हैं। फिर जब उन नई मांओं के बच्चे उनसे चिपट जाते हैं, तो उस नयी मां को उसकी तरह सोचना नहीं पड़ता है, कि वह मां है और वह उसका बच्चा…। उसे उसकी तरह आंखें बंद कर खुद को झूठा यकीन नहीं दिलाना पडता है कि वही मां है… हां वही। जब वह चिपटता है, तो उस औरत की छाती में वैसी धुकधुकी नहीं होती है जो अड़सठ साल की अम्मा की छाती में आज भी होती है... बस, यही दो चार गिनती के अन्तर हैं, वरना किसी औरत को मां होने का अहसास ऐसा ही महसूस होता होगा। लोग कहते हैं, बच्चा ना हो तो औरत को दोष होता है। वह भी मानती है कि दोष है। हर औरत को कम से कम एक बच्चा तो होना ही चाहिए। पता नहीं कैसा लगता होगा ? कैसा लगता होगा खुद का बच्चा होना ? उसको नहीं मालूम। इसलिए वह मानती है कि दोष है। झोंपडे के बाहर समुद्र की रेत पर खेलते बच्चों में से जब कोई बच्चा उससे आकर चिपट जाता है या कभी किसी दूसरे के बच्चे को अपने गोद में लेकर जब वह उसे प्यार करती है, तब उसका मन मजबूती से कहता है कि, दोष है। हां दोष है। दोष ही तो है…।
जब अम्मा झोंपड़े में होती, तो पूरे मुहल्ले के बच्चे उसके चारों ओर इकठ्ठे हो जाते। जब वह अकेली होती, तो बस्ती में औरतों से बतियाने पहुंच जाती। मछुआरा बस्ती की औरतें दिन भर धूप में मछलियां सुखाने का काम करती हैं। औरतें सारी दोपहर धागों की मोटी डोर में मछलियों को पिरोकर बांस के तिपायों पर डोर को बांधने का काम करती हैं। पूरी बस्ती में हर झोंपडे के सामने रेत पर गड़े बांसों के बीच डोर में फंसी हजारों मछलियां सूखती रहती हैं। डोर में हजारों-हजार मछलियां पिरोई रहती हैं। डोरें और उन डोरों में सुई से पिरोई गई मछलियां। अम्मा भी बतियाते हुए उन औरतों के साथ उनके काम में हाथ बंटाती है। शुरू में जब वह इस बस्ती में आई थी, तब मछुआरनें सोचती थीं कि वह शायद मछलियों के लालच में उनके पास आती है। उनके काम में इसलिए हाथ बंटाती है, ताकि जाते समय उसको कुछ मछलियां मिल जायें। बस्ती के कुछ दूसरे बुड्ढे-बुढिया भी ऐसा ही करते हैं। जब औरतें काम कर रही होती हैं, वे उन औरतों के पास पहुंच जाते हैं और तब तक नहीं जाते, जब तक उन्हें मछली नहीं मिल जाये।… पर अम्मा ने उनसे कभी मछलियां नहीं ली। शुरु में औरतें अम्मा को टालने की कोशिश भी करतीं। वे उसको मछली देकर चलता करने की कोशिश करतीं। जब वह मछली नहीं लेती तो वे जिद-सी करतीं। पर वह नहीं लेती। अम्मा कहती- उसे जरूरत नहीं। वह तो हाथ बटाने चली आई। खाली बैठे क्या करती। उसे मछलियों को डोर में पिरोकर सुखाना अच्छा लगता है। वह अब भी बीस-पच्चीस किलो मछलियों रोज पिरो सकती है। वह उन औरतों को कई किस्से भी सुनातीं। समुद्र के किस्से, जंगलों के किस्से, मछलियों के किस्से, मछुवारों के किस्से, आदमी-औरत के किस्से, मुहल्ले के किस्से, शहर के किस्से…। उसके पास किस्सों का खजाना होता। औरतें काम में मगन रहतीं और उसके किस्से सुनतीं। कुछ औरतें एक ओर मछलियों को पिरोने में लगी रहतीं तो दूसरी ओर उनका चेहरा अम्मा को टुकुरता, तो कुछ औरतें मछली पिरोना छोड़कर उसकी ओर अवाक सी ताकतीं… अपना चेहरा अपनी हथेलियों पर रखकर, उंगलियां मुंह पर रखकर उसकी ओर टकटकी लगाकर सुनतीं, तो कुछ औरतें मछलियों को पिरोकर बिलंग बांधते हुए उसकी तरफ अपना कान किये रहतीं और किस्से के बीच उसको टोकतीं- क्या-क्या फिर से बताना, अम्मा-अम्मा क्या कहा बोलो दुबारा… डोर बांधती औरतें चिल्लाती सी अम्मा से पूछतीं, अम्मा ऊंचा जो सुनती है…।
अम्मा को मछलियों की अच्छी पहचान है। मछलियों को अलग-अलग कैसे छांटते हैं, यह उसको खूब आता है। पूरी जिंदगी यही तो किया है उसने। औरतें बस एक ही तरह से मछलियां छांटती थीं। चपटी और चोंचदार मुंह वाली मछली और गोल मुंह वाली बडी मछलियां। याने सस्ती और मंहगी मछली। अम्मा ने उन्हें बताया कि इस तरह तो कभी-कभी अच्छी मछली भी सस्ती वाले टोकरे में चली जाती है। इससे पैसे का नुकसान होता है। सो औरतों को पता होना चाहिये कि सही तरह से कैसे छांटे। यह भी देखना चाहिए कि तूना और सोनमाछी कहीं सस्ती मछली की टोकरी में ना गिर जायें। ये मछलियां भी चोंचदार होती हैं, पर इनके अच्छे दाम मिलते हैं। अम्मा को मछलियों की बिकावली की बड़ी चिन्ता रहती। अगर कोई उसे मुफ्त में मछली देने की कोशिश करता, तो वह कहती- क्यों गंवाती है, इसके लिए पूरे पाँच रूपये मिलेगें… भला मुझे इसकी क्या जरूरत ? उसको लगता कि मछलियों को बेचने से बेहतर काम कोई और नहीं। मछलियां मुफ्त में मिलती हैं। समुद्र में हजारों हजार मछलियां हैं। बाजार में मछलियां अच्छे दामों में बिकती हैं।
धूप चढ़ आई है। अम्मा अभी भी टूटे फटे जाल की बिखरी प्लास्टिक की बान में गठान बांध कर जाल ठीक कर रही है। पर गठान है कि फिसल फिसल जाती है। चिकनी प्लास्टिक की बान को गठना कितना मुश्किल है। वह बार-बार गीले हाथ में रेत चिपकाकर जाल की बान को खींचती, ताकि वह फिसले नहीं और फिर पूरी ताकत लगाकर उसको गठने की कोशिश करती। जब वह पूरी ताकत से जाल को गठने की कोशिश करती, तो उसकी झोलदार और झुर्रियों से भरी बांह मछली की तरह फडकती और उसके पोपले चेहरे की हजारों-हजार रेखायें बुरी तरह तन जातीं। पर हर कोशिश नाकाम। एक भी गांठ अगर ढीली रही तो समुद्र में जाल का मुंह खुला और सारी मछलियां भाग कर जाल से बाहर… बड़ी मुश्किल है। पर अपने कमजोर और कांपते हाथों के साथ वह भिड़ रही है।
‘अम्मा … अम्मा।’
‘क्या है ?’
‘अब यह जाल बेकार हो गया है...।’
उसने चिल्लाते हुए कहा। अम्मा ऊंचा जो सुनती है। उसने जाल एक तरफ सरका दिया। अब वह बेकार हो गया है।
अगले दिन वह मछुआरा बस्ती से बहुत दूर एक दूसरी जगह गई। वहां चारों ओर समुद्र का छिछला पानी भरा था। बस घुटनों-घुटनों पानी और वह भी कई किलोमीटर दूर तक। बरसों पहले वह यहां आई थी। बरसों पहले जब वह यहां नहीं रहती थी। बरसों पहले जब वह दूसरी बस्ती में रहती थी। बरसों पहले जब उसका आदमी जिंदा था। बरसों पहले वह इस छिछले पानी वाली जगह आई थी।
उस रात उसके घर मछली नहीं थी। उस रोज शाम से ही उसका आदमी लग्गी में था। उसको और दारू पीनी थी। झोंपडे के फर्श पर वह पैर फैलाकर बैठा था। पूरे झोंपडे में दारु की बदबू फैल रही थी। उसने अम्मा से मछली लाने को कहा था। उसने बहुत प्यार से उसको मछली लाने को कहा था। अकड़कर कहता तो वह मछली नहीं लाती। उसका आदमी उससे अकड़कर कुछ भी नहीं मंगवा पाता था। जब वह अकडता अम्मा उससे चिढ़ जाती। अरे काहे की अकड़… मछली वह लाये, चावल वह लाये, झोंपडे को बुहारे वो, शीशी में कड़वा तेल वो लाये, झोपड़े की छानी वह ठीक करे, आदमी के लिए दारू का जुगाड़ वो करे, पानी वो भरे, ताडी के पेड़ को वो देखे… सब काम उसके जिम्मे और यह आदमी पूरा दिन मस्ती मारता घूमे…। ऊपर से अकड़ दिखाये...। अम्मा उससे चिढ़ जाती। पहले पहल वह उसके इस तरह चिढने पर गुस्सा हो जाता। कभी-कभी बात इतनी ज्यादा बढ जाती कि वह गुस्सा होकर उसको पीटने लगता। रेत में गड़े मछली सुखाने वाले बांस को उखाड़ कर ले आता, फिर उसको बांस से पीटता। वह बुरी तरह चीखती। वह उसके बाल पकड़ कर झोंपड़े से बहार खींच कर उसे रेत पर घसीटता। पूरा मुहल्ला तमाशा देखता। वह डर जाती। उन दिनों उसको उसकी लाल आंखे और दारू की बदबू से ही डर लगने लगा था। ऐसे में वह उसके साथ कुछ भी कर सकता था। पर उसने उसकी लाल आंखों और दारु का डटकर मुकाबला किया। अम्मा उसकी बात नहीं मानती थी। वह पिटती और रोती थी, पर उसकी गलत बात उसने नहीं मानी। वह पिटते पिटते उससे खुद को छुड़ा कर मछुआरा बस्ती की तरफ भाग जाती। बस्ती में कहीं छुप जाती। वह लाठी पटकता, पूरी बस्ती में उसे ढ़ूँढता फिरता और फिर थक-हार कर वापस झोंपड़े चला जाता। जब वह पहुंचती वह सो चुका होता। वह इंतजार करती कि कब उसका नशा उतरेगा। सुबह जब वह ठीक ठाक हो जाता तब अम्मा उसको खूब गाली देती। कभी कभी वह पूरे मुहल्ले के लोगों को इकट्ठा कर लेती। उनके सामने रोते हुए तमाशा करती। मुहल्ले के लोगों को रो-रोकर अपना दुखड़ा सुनाती। मुहल्ले के लोग उसके आदमी को कोसते। फिर वह झोंपड़ा छोड़कर भाग जाता। उसको लगता वह जीत गई। पर फिर वह दुःखी हो जाती। सोचती ऐसी भी क्या जीत? आखिर उसका ही तो आदमी है। अपने आदमी को गाली देना, भला बुरा कहना और फिर सोचना कि वह जीत गई … छिः ऐसी भी क्या जीत। वह दुःखी हो जाती, कि उसने उसको भला बुरा कहा। फिर कुछ दिनों में वह सबकुछ भूल जाती। वह बहुत जल्दी भूल जाती। पर उसने इतना तो बता ही दिया कि अकड़कर वह उसे नहीं मना सकता। सो, उसने बात मनवाने के लिए प्यार का तरीका अपनाया। वह जानती थी कि वह ढ़ोंग करता है। प्यार का दिखावा भर करता है। जब से उसने दूसरी औरत कर ली है, तब से वह दिखावा ही करता है। पर वह उस दिखावे को ही प्यार मानती। आंख बंद कर मानती कि यही प्यार है। फिर ऐसा करके वह उसके पास जा पाती। प्यार के दिखावे के सहारे ही सही, वह उसे छू पाती। उसके साथ सो पाती। उन दिनों वह अपने आदमी का कई-कई दिनों तक इंतजार करती। उसका मन करता कि वह आये और वह उससे पूरी रात प्यार करे। पर दूसरी औरत का ख्याल आने पर उसका मन भारी हो जाता। उसको गुस्सा भी आता। उसको लगता कि वह भी कोई दूसरा आदमी कर ले। पर उसने नहीं किया। जब वह दूसरी औरत के साथ चला गया तब भी वह कभी-कभार आता था। वह जानती थी कि अब प्यार नहीं है। पर फिर भी उसको उसकी जरूरत महसूस होती। उस रोज भी उसने मछली मांगी थी। दारू के साथ उसको मछली चाहिये थी।
वह निकल पड़ी मछली लाने। रात को समुद्र में जाल नहीं डाल सकते थे। फिर इतनी रात को मछली बेचने वाला भी कोई नहीं था। किसी के घर से मछली मांगना उसको अच्छा नहीं लगता था। बस उसी दिन वह इस जगह आई थी। उस छिछले समुद्र में कई मछलियां आ जातीं। जो मछलियां उतरते ज्वार के साथ वापिस नहीं जा पाती, वे इस छिछले पानी में फंस जाती। लोग कहते वे बूढी और बीमार मछलियां हैं, वे वापिस समुद्र में नही जा पाती हैं, सो वहीं फंस कर रह जाती हैं। इन मछलियो को बिना जाल के भी पकड़ा जा सकता है। अम्मा ने पहले भी एक-आध बार यहां से गुजरते समय देखा था, कुछ बूढे और कमजोर मछुआरे इस जगह मछलियां पकड रहे थे। बिना जाल के वे छिछले पानी से भिडे हुए थे। वे देर रात तक वहां डटे रहते। यहां रात को भी मछली पकडी जा सकती थी। उसने भी उस रात उन्हीं लोगों की तरह अपने पैरों से मछली पकडी। पानी में तैरने वाली उन मछलियों की चमकीली देह को ध्यान से देखकर या अपने पैरों के आसपास उन्हें महसूस कर वह उनके पास तक जाती और तेजी से अपना पैर उस मछली पर रख देती। ज्यादातर मछलियां उसके पैर के नीचे से भाग कर तेजी से पानी में दूर चली जातीं और उसका पैर पानी के नीचे की कीचड़ और मटमैली रेत में धंस जाता और आस-पास का पूरा पानी गंदा हो जाता।ऐसा बार बार करने पर घण्टों तक भिड़े रहने पर कोई मछली उसके पैर के नीचे आ दबती और रेत में धंस जाती। वह थोड़ी देर तक उसे अपने पैर से दाबे रखती और झुककर उस मछली की पूंछ पकड़ लेती। उस रात वह छिछले पानी में देर तक मछली मारती रही। बहुत देर बाद उसके पास कुछ मछलियां इकठ्ठा हो गईं। वह खुशी-खुशी उसे घर लेकर आई। उस रोज उसे अपने आदमी पर खूब प्यार आया था। पर जब वह झोंपड़ी पहुँची तब तक वह सो चुका था। पूरे झोंपड़े में दारू की बदबू फैल रही थी। वह उस रात उसे बहुत देर तक सोता हुआ देखती रही। उस रात उसकी इच्छा हुई कि वह उसे जगा दे। वह देर तक उलझी रही, क्या वह उसे छू सकती है ? उसके भीतर कुछ धुकधुका रहा था कि वह चुपके से उसके पास जाकर सो जाये और उसे जगा दे…। उस रात झोंपडे में खामोशी थी… बस हिंडालियम की पतीली में डली मछलियां अपनी पूंछ पटक रही थीं। वह पूरी रात अपने आदमी से दूर पड़ी रही और पतीली से पूंछ पटकने की टक-टक की आवाज सुनती रही…।
आज अम्मा उसी जगह फिर से गई थी। वह सुबह-सुबह ही पहुंच गई। फिर वह शाम तक भिड़ी रही। जब वह जा रही थी, उसे लगता रहा कि क्या वह फिर से उसी तरह पैरो से मछली पकड़ सकती है। उस समय उसके हाथ पैर ठीक थे। उसे अच्छा दिखता था और वह काफी तंदुरूस्त थी। पर आज...? क्या आज भी वह उसी तरह मछली पकड़ पायेगी। उस जगह पहुंच कर उसे यह देखकर अच्छा लगा कि वहां उसकी ही तरह एक और औरत मछलियां पकड़ रही थी। वह उस रोज शाम तक समुद्र में उस छिछले पानी में भिड़ी रही। उसने आखिरकार एक बडी मछली पकड़ ही ली। उसे लगा अगर वह रोज आये तो वह और अच्छा पकड़ पायेगी। रोज-रोज आने से वह इस तरह मछली पकड़ने में माहिर हो जायेगी। उस रात उसे अपने पैरो में जलन महसूस हुई। जब वह मछली पकड़ रही थी, तब कई छोटी-छोटी मछलियों ने उसके पैर के तले की मोटी खाल को नोच लिया था। उन मछलियों ने उसकी ऐड़ी और पैर के अंगूठे के तलवे की खाल को नोच लिया था। तलवे में बेहद छोटे-छोटे छेद से बन गये थे। पैर की फटी बिवाईयां जिन्हें उन मछलियों ने नोंचा था, चिनचिना रही थीं। उसने शीशी से कड़वा तेल निकाला और पैर के तले पर लगा लिया।
वह इसी तरह मछलियां पकड़ती रही थी। मुहल्ले के कुछ लोगो ने उसे फिर से मदद करनी चाही पर उसने उन्हें झड़प दिया। कुछ दिनों बाद उसकी दिनचर्या ठीक हो गई। सुबह-सुबह ही वह निकल जाती और शाम तक लौटती। फिर ज्यादा शाम को बच्चों का हल्ला-गुल्ला और रात को बाकी काम निपटा कर इधर-उधर भटकना। उसके पास समय ही कहां था।
पर इस बीच एक लड़का उसके पास आने लगा। अठारह-बीस साल का जवान लडका। वह चिलम के नशे में फंस चुका था और कुछ पाने के चक्कर में उसके पास आता था। वह भी उसे कुछ ना कुछ दे देती। कभी खाने के लिए माछी-भात, तो कभी कड़वा तेल, तो कभी रुपये दो रुपये जो कभी कभार मछली बेचने पर उसको मिल जाते। उसका नाम गोपी था। अम्मा उसे खूब समझाती कि वह काम करे। मछली पकड़ने जाये। जवान आदमी है, रोज काम पर जायेगा तो दुरुस्त रहेगा। पर गोपी नहीं गया। वह सुबह शाम उसके झोंपड़े पर आ जाता। वह उससे बतियाती और कभी-कभी डांटकर भगा भी देती। जब वह उसका कहा नहीं मानता तो उसको उस पर गुस्सा आ जाता। फिर बाद में उसको खराब भी लगता कि उसने डांट दिया...। उसे गोपी अच्छा लगता है। उसे लगता है किसी ने उसे लगा दी होगी चिलम की आदत। फिर उसको यकीन है कि उसके पास यदि गोपी आता रहा तो उसकी चिलम छूट जायेगी। वह एक ना एक दिन उसकी चिलम छुडवा ही देगी। उसके पास अड़सठ साल का अनुभव है। उसने बड़े बड़ों को ठीक किया है। पूरे मछुआरा बस्ती में उसकी तूती बोलती है। फिर वह गोपी किस खेत की मूली है। एक न एक दिन वह गोपी को मछली पकड़ने भेज ही देगी।
अम्मा खुश है। वह पहले से ज्यादा खुश है। अब जाल में गांठ मारने और मछुआरों के साथ डोंगी में भीतर समुद्र तक मछली पकड़ने से बेहतर तरीका उसके पास है। यद्यपि उसमें ज्यादा मेहनत लगती है। पर वह मेहनत से नहीं डरती।
एक रोज अम्मा सुबह जल्दी उठ गई। उसने मटकी में से ताजा ताड़ी निकाल कर पी और काम पर जाने की तैयारी करने लगी। तभी गोपी आ गया। गोपी कहने लगा -सरकारी दफ्तर से कोई मुलाजिम आया है। अभी मछुआरा बस्ती में है। किसी कागज पर बूढ़े लोगो का अंगूठा लगवाता है और पैसे देता है। वह भी कोई चार या पांच रूपये नहीं, बल्की पूरे सौ रूपये। कहता है सरकार बूढ़ों को पैसा देती है। उसी का पैसा है।…अम्मा तेरी तो लाटरी खुल गई।
अम्मा को अजीब लगा ऐसा कैसा पैसा ? पैसा तो मछली बेचने पर आता है। कुछ काम करो तो आता है। बिना काम का कैसा पैसा ? उसने आज तक कभी किसी से बिना काम का पैसा नहीं लिया। वह लोगों को बडे रौब से बताती है कि कभी नहीं लिया मुफ्त का पैसा....। सारा पैसा उसका अपना पैसा है। जितना उसके पास है, सिर्फ उसी का है। पूरी मछुआरा बस्ती जानती है...कभी नहीं लिया और अगर कोई दे गया तो उसका हिसाब भी बराबर किया। कितना कुछ तो है उसके पास। सारी बस्ती को बांटती है वह। कभी किसी से लिया नहीं। और ये सरकारी मुलाजिम....जाने क्या देने आ रहा है? पूरे अड़सठ साल में तो कोई दे नहीं पाया। उसने लिया ही नहीं। मु्फ्त का हराम होता है… उसे याद आता बचपन में बापू कहते थे… हां हराम। वह बूढी है, कमजोर है, दिखाई नहीं देता, हाथ पैर दुखते हैं, ऊंचा सुनाई देता है…पर फिर भी उसने नहीं मांगा। उसको लगता है कि वह अगर मांगती, तो वह भिखमंगन होती, अम्मा अम्मा नहीं होती। जब उसका आदमी जिंदा था, तब वह आज से कहीं ज्यादा काम करती थी। उसका आदमी तो उसके सामने गिडगिडाता रहता था… कभी किसी काम के लिए उसको पुचकारता, तो कभी किसी और काम के लिए उसकी मान मनौवल करता…। वह काम करती थी तभी ना…। नहीं तो आदमी भला कभी औरत को कहीं का छोडता है।
अम्मा को किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। हां उसको नहीं चाहिए। और इस सरकारी मुलाजिम से तो बिल्कुल भी नहीं। इससे एक बार ले लिया तो फिर वह तो इसका हिसाब भी बराबर नहीं कर पायेगी, जैसे वह मुहल्ले के दूसरे लोगों का हिसाब बराबर कर देती है। किसी का उधार नहीं है, उस पर। इस सरकारी मुलाजिम का उधार चढ गया तो कैसे हिसाब बराबर करेगी वह...। सरकार का हिसाब बराबर करने कहां-कहां भटकेगी वह। कितने तो काम हैं, उसके पास....ऐसे में एक और चकल्लस पाल लो....सरकार का हिसाब बराबर करने की चकल्लस। आ बैल मुझे मार। फिर जाने क्यों दे रहे हैं पैसा ? मुफ्त का पैसा तो गड़बड़ी वाला बेइमानी वाला होता है। वह जब आँख बंद करती तो उसे उसका बापू दिखाई देता… बचपन का कोई चित्र जिसमें वह उलझ जाती और तब उसका मन जोर से कहता…वह कभी हरामखोरी नहीं करेगी...मुफ्त में कुछ नहीं लेगी।
सरकारी पैसा…जाने क्या मतलब ? जाने क्या हो ? काहे पर अंगूठा लगवा रहे है? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं ? और फिर सौ बात की एक बात, क्या करना ? सारे मुहल्ले को तो बांटती फिरती है वह। उसके पास क्या नहीं है। फिर किसी से क्या लेना। उसने गोपी को मना कर दिया। गोपी को अम्मा का मना करना ठीक नहीं लगा। गोपी कहने लगा कि वह चाहे तो वह पैसा उससे लेकर उसे दे दे। उसने गोपी को डांट लगा दी। वह जब मछली मारने जाने लगेगा तब वह उसको कोई चीज लाकर देगी। बूढ़ी है तो क्या हो गया। वह ला सकती है। सारे मुहल्ले के लिए तो लाती है।
कुछ देर बाद वह सरकारी मुलाजिम उसके झोंपड़े पर पहुंचा। उसके साथ मछुआरा बस्ती के कुछ और लोग भी थे। अम्मा ने उसको मना कर दिया। मछुआरा बस्ती के लोगों ने उसको समझाया। पर वह भला किसी की सुनती है। थोडी देर बाद वे सब चले गये। बस बस्ती की दो औरतें उसके पास रूक गईं।
अम्मा कभी चुप नहीं रहती। वह कभी सोचती भी नहीं है। पर उस समय उसको अजीब सा ख्याल आया जैसे वह किसी जगह अकेली खड़ी है और उसके सामने बहुत सारे लोग खड़े हैं… मुहल्ले के सभी लोग जिन्हें वह जानती है… उसका आदमी भी जो मर चुका है, उसके आदमी की दूसरी औरत जो पता नहीं कहां है, गोपी, बस्ती के मछुआरे, वह मूछों वाला सरकारी मुलाजिम भी जो अभी-अभी उसके पास से गया है, मछुआरा बस्ती की औरतें… सभी लोग उसके सामने खड़े हैं। पूरी बस्ती में अचानक रोजमर्रा की चीजों की कमी पड गई है। सब उसके पास खडे हैं। अब क्या होगा ? सब चिंतित हैं। वह सबको ढांढस बंधा रही है और जो कुछ भी उसके पास है, वह लोगों को देती जा रही है। वह एक-एक करके सबको कुछ ना कुछ दे रही है किसी को चावल, किसी को मछली, किसी को ताड़ी, किसी को कडवा तेल, किसी को नारियल की गिरी, तो किसी को कुछ और …
तभी पास खड़ी औरत ने उससे पूछा कि वह चुप क्यों है ? तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसके पोपले और झुर्रीदार मुंह में सामने के दो लटकते दाँत दिखने लगे। अपनी हँसी को जबरदस्ती अपने हाथों से रोक कर उसने उस औरत से कहा -
‘बताओ भला अम्मा का पिटारा कभी खत्म हो सकता है, अभी पूरे सौ साल और चलेगा समझी....।’
और फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी।
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चर्चित युवा कहानीकार तरुण भटनागर, रायपुर (छत्तीसगढ) में जन्मे और सुदूर आदिवासी अंचल बस्तर के कस्बे में बस गये। आयु उन्तालीस वर्ष, गणित और इतिहास में स्नातकोत्तर । लेखन की शुरुआत कविताओं से। कुछ कवितायें वसुधा, साक्षात्कार, कथन, समकालीन साहित्य, कथादेश , अक्षर पर्व आदि में पत्रिकाओं में प्रकाशित, कहानियां हंस, पहल, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, संवेद आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित। दो कहानियां ‘हैलियोफोबिक’ (पहल 85) तथा गुलमेंहदी की झाडियां (वागर्थ युवा विशेषांक) विशेष चर्चित रहीं। एक कहानी संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाड़ियां’, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ।
संप्रति- मध्यप्रदेश में शासकीय नौकरी ।
संपर्क : संयुक्त कलेक्टर, एफ 1 , आफीसर्स कालोनी , धार , जिला धार, (म. प्र.),
फोन : 094251-91559

कविता

नमिता राकेश की कविताएं


भरी भीड़ में

भरी भीड़ में
कोई मिल जाए
जो तुम सा
तो बहुत है
इक उम्र जीने के लिए
वरना लोग
इक उम्र गुजार देते हैं
तुम जैसे नगीने के लिए।

आईना

बहुत कोशिश के बाद भी
जज्बात
छिपाए नहीं छिपते
या रब !
मेरे चेहरे को
आईना क्यों बनाया ?


माना कि तुम बादल हो

माना कि तुम बादल हो
बरसना चाहते हो
लेकिन यह मत भूलो
मैं नदी हूँ
बहाना जानती हूँ
कभी चंचल तो कभी ठहरी हुई
चट्टानों से अठखेलियाँ करती हुई
चली जाती हूँ अपनी ही धुन में
कभी मैदान तो कभी सघन वन में
यह तालाबों का पानी
यह झरनों की रवानी
जब मुझसे आकर मिल गई
मेरा ही पानी बन गई
मुझे बादलों की नहीं ख़्वाहिश है
मुझे तो सागर की तलाश है
तुम बादल हो
मंडराते रहो
मैं नदी हूँ
बहती रहूँगी।


अहसास

तुम भले ही ना रहो कहीं
एक अहसास की गंध ने
बांध रखा है
समूचे वातावरण को
ऐसे क्षण नहीं चाहती
पढ़ना
मौन की भाषा
और
दोहराना
संयम की व्याकरण को
आदमी
दृष्टि की व्यापकता से
होता है बड़ा
और छोटा हो जाता है
एक सी परिधियों में।


सागर बताओ

सागर बताओ
उत्तर दे सकोगे
कैसा लगता है तुम्हें
नदी का समपर्ण
नदी
जो अर्पित हो गई
तुम्हारे लिए
खो दिया
अपना अस्तित्व भी
तुममें समाकर
ओ असीम नील
कुछ तो बोलो
कैसा लगता है तुम्हें
लहरों का कंपकंपाता स्पन्दन
पानी का थरथराता स्पर्श
फिर भी
इतना कुछ पाकर
और की चाह में
सागर हो कर भी
लांघ जाते हो
अपने तट की सीमा
बताओ सागर
क्यों करते हो ऐसा।
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शिक्षा : अंग्रेजी तथा इतिहास में एम.ए., बी.एड. तथा पत्रकारिता में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा।

प्रकाशित कृतियाँ : क्षितिज की दहलीज पर(1988), मेरी हिन्दी मेरी शान(2000), काव्य गरिमा(2002), नारी चेतना के स्वर(2003)-सभी संयुक्त काव्य संकलन। “तुम ही कोई नाम दो” कविता संग्रह वर्ष 2004 में प्रकाशित। एक कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य ।

सम्पर्क : 779, सैक्टर-16, फरीदाबाद (हरियाणा)
दूरभाष : 09810280592

दो लघुकथाएं - चित्रा मुदगल

दूध

दूध घर के मर्द पीते हैं।
क्योंकि वे मर्द होते हैं।
उसका काम है- दूध के गुनगुने गिलास को सावधानीपूर्वक उन तक पहुँचाना। पहुँचाते हुए वह हर रोज़ दूध के सोंधे गिलास को सूंघती है। पके दूध की गन्ध उसे बौरा देती है।
एक रोज़ माँ और दादी घर पर नहीं होतीं तो वह चट-चट कोठरी खोलकर दु्धहड़ी से अपने लिए दूध का गिलास भरती है और घूँट भरने को जैसे ही गिलास होठों के पास ले जाती है, घर के उघड़े किवाड़ भड़ाक से खुल उठते हैं। उसके होठों तक पहुँचा गिलास हाथ से छूट जाता है और दुधहड़ी पर जा गिरता है। मिट्टी की दुधहड़ी के दो टुकड़े हो जाते हैं। कोठरी की गोबर लिपी कच्ची फर्श पर गुलाबी दूध चारों ओर फैल जाता है। निकट आयी भौंच्चक माँ को देख कर वह थर-थर काँपती पश्चाताप व्यक्त करती माफ़ी माँगती-सी कहती है-
“मैं… मैं…”
“दूध पी रही थी कमीनी ?”
“हाँअ…”
“मांग नहीं सकती थी?”
“मांगा था, तुमने कभी दिया नहीं…”
“नहीं दिया तो कौन तुझे लठैत बनना है जो लाठी को तेल पिलाऊँ ?”
“एक बात पूछूँ माँ?” आँसू भीगी उसकी आवाज़ अचानक ढ़ीठ हो आयी।
“पूछ !”
“मैं जन्मी तो दूध उतरा था तुम्हारी छातियों में ?”
“हाँ… खूब। पर…पर तू कहना क्या चाहती है?’
“तो मेरे हिस्से का छातियों का दूध भी क्या तुमने घर के मर्दों को पिला दिया था?”


मर्द

“आधी रात में उठकर कहाँ गयी थी?” शराब में धुत्त पति बगल में आकर लेटी पत्नी पर गुर्राया।
आँखों को कोहनी से ढ़ाँकते हुए पत्नी ने जवाब दिया, “पेशाब करने।”
“एतना देर कइसे लगा?”
“पानी पी-पी कर पेट भरेंगे तो पानी निकलने में टैम नहीं लगेगा?”
“हरामिन, झूठ बोलती है? सीधे-सीधे भकुर दे किसके पास गयी थी?”
पत्नी ने सफाई दी- “कऊन के पास जाएँगे मौज मस्ती करने ! माटी-गारा ढ़ोती देह में पिरान हैं?”
“कुतिया…”
“गरियाब जिन, जब एतना मालुम है किसी के पास जाते हैं तो खुद ही जाके काहे नहीं ढूँढ़ लेते?”
“बेसरम बेहया… जबान लड़ाती है। आखिरी बार पूछ रहे हैं – बता, किसके पास गयी थी?”
पत्नी तनतनाती उठ बैठी- “तो लो सुन लो, गये थे किसी के पास। जाते रहते हैं। दारू चढ़ाके तो तू किसी काबिल रहता नहीं…”
“चुप्प हरामिन, मुँह झौंस दूँगा जो मुँह से आँय बाँय बकी। दारू पीके मरद मरद नहीं रहता?”
“नहीं रहता।”
“तो ले देख, दारू पीके मरद मरद रहता है या नहीं !” मरद ने बगल में लुढ़का पड़ा लोटा उठाया और औरत की खोपड़ी पर दे मारा!
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जन्म : 10 दिसम्बर 1944 को चेन्नई में जन्मी और मुंबई में शिक्षित चित्रा मुदगल आधुनिक कथा-साहित्य की बहुचर्चित और सम्मानित रचनाकार हैं। अब तक ग्यारह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पाँच संपादित पुस्तकें, गुजराती में दो अनूदित पुस्तकें, दो वैचारिक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। इनके बहुचर्चित उपन्यास ‘आवां’ पर सहस्रादी स्ज प्रथम अन्तरराष्ट्रीय ‘इन्दु शर्मा कथा सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का ‘साहित्य भूषण सम्मान’, हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘साहित्यकार सम्मान’, के के बिड़ला फाउण्डेशन के 2003 के ‘व्यास सम्मान’ से समादृत।

भाषांतर

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

छह

वोरोन्त्सोव इस बात से बहुत प्रसन्न था कि शमील के बाद रूस के सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली शत्रु को प्रलोभित करने में, कोई अन्य नहीं, बल्कि वह सफल रहा था। केवल एक ही रोड़ा था। वह था वोजविजेन्स्क में फौजी कमाण्डर, जनरल मिलर जकोमेल्स्की, और सच कहा जाये तो पूरा मामला उसके ही माध्यम से संचालित होना चाहिए था। वोरोन्त्सोव उसे बिना सूचित किये शुरू से अंत तक कार्यवाई करता रहा था, और इस बात की अप्रिय प्रतिक्रिया संभव थी। इस विचार से वोरोन्त्सोव की प्रसन्नता कुछ देर के लिए मेघाच्छन्न हुई।
जब वोरोन्त्सोव घर पहुंचा, उसने हाजी मुराद के अगंरक्षकों को क्षेत्रीय कमाण्डर के सुपुर्द किया और हाजी मुराद को अपने आवास में ले गया।
प्रिन्सेज मेरी वसीलीव्ना ने हाजी मुराद का ड्राइंग-रूम में स्वागत किया। उसने सुरुचिपूर्ण ढंग से कपड़े पहन रखे थे और मुस्करा रही थी और उसका छः वर्षीय खूबसूरत पुत्र उसके साथ था। हाजी मुराद ने अपने हाथों से अपनी छाती दबायी और दुभाषिये के माध्यम से शिष्टाचार प्रदर्शित करते हुए कहा, कि वह अपने को प्रिन्स का मित्र मानता है। चूंकि उन्होंने अपने घर में उसका स्वागत किया है, इसलिए मित्र का परिवार उसके लिए उतना ही क़ाबिले अदब ( पूज्य ) है जितना कि स्वयं मित्र। मेरी वसीलीव्ना को हाजी मुराद की उपस्थिति और उसका व्यवहार पसंद आया। वास्तविकता यह थी कि उसने उसके प्रति अधिक अनुग्रह दिखाते हुए पहले से ही प्रवृत्त अपना लंबा गोरा हाथ जब उसकी ओर बढ़ाया था तब हाजी मुराद खांसने लगा था और लज्जारुण हो उठा था। मेरी वसीलीव्ना ने उससे बैठने का आग्रह किया और पूछा कि क्या वह कॉफी पियेगा, और उसे कॉफी सर्व किये जाने का आदेश दिया। लेकिन हाजी मुराद ने इंकार कर दिया। वह बहुत मामूली-सी रशियन समझ लेता था, लेकिन उसे बोल नहीं सकता था, और जब वह उसे समझ नहीं पाता था, मुस्करा देता था। उसकी मुस्कान ने मेरी वसीलीव्ना को मुग्ध कर दिया था, जैसा कि पोल्तोरत्स्की ने किया था। मेरी वसीलीव्ना का घुंघराले बालों और तेज आँखों वाला पुत्र, जिसे वह बुल्का बुलाती थी, माँ के बगल में खड़ा, निर्निमेष हाजी मुराद की ओर दे।

हाजी मुराद को अपनी पत्नी के पास छोड़कर वोरोन्त्सोव हाजी मुराद के आत्म-समर्पण की रपट तैयार करके मुख्यालय भेजने की व्यवस्था करने के लिए कार्यालय चला गया। उसने एक रपट ग्रोज्नी में ‘लेफ्ट फ्लैंक‘ के कमाण्डर जनरल कोज्लोवस्की को लिखी, और एक पत्र अपने पिता को लिखा, और इस बात से चिन्तित होता हुआ वह जल्दी ही घर लौट आया कि उसकी पत्नी इस बात से नाराज हो रही होगी कि वह एक अनजान और खतरनाक व्यक्ति को उसके पास छोड़ गया था, जिसका एक ओर नाराज होने का अवसर दिये बिना आतिथ्य करना था तथा दूसरी ओर अतिरिक्त मित्रता भी प्रदर्शित करनी थी। लेकिन उसका भय आधारहीन था। हाजी मुराद वोरोनत्सोव के सौतेले पुत्र बुल्का को घुटने पर बैठाये एक कुर्सी पर बैठा हुआ मेरी वसीलीव्ना की किसी हास्य टिप्पणी के दुभाषिये द्वारा किये गये अनुवाद को सुनकर एकाग्रतापूर्वक सिर झुका रहा था। मेरी वसीलीव्ना कह रही थी कि यदि उसने अपने मित्रों को वह सब दे दिया जिसकी वे प्रशंसा करते थे तो उसे शीघ्र ही अदम की भाँति रहना होगा।
प्रिन्स के प्रवेश करते ही हाजी मुराद ने बुल्का को नीचे उतार दिया, जो उसके घुटने से उतरकर चकित था और रुष्ट होकर खड़ा हो गया था। उसके चेहरे का प्रसन्न भाव तुरंत कठोरता और गंभीरता में बदल गया था। हाजी मुराद तभी बैठा जब वोरोन्त्सोव ने सीट ग्रहण कर ली। बातचीत जारी रखते उसने मेरी वसीलीव्ना की टिप्पणी का उत्तर देते हुए कहा कि यह उसके दस्तूर में है कि एक मित्र जो कुछ भी पसंद करे वह उसे अवश्य दे दी जाये।
“आपका पुत्र मेरा मित्र है,” उसने बुल्का के बालों को सहलाते हुए रशियन में कहा। बुल्का पुनः उसके घुटने पर बैठ गया था।
“आपका बटमार मोहक है।” मेरी वसीलीव्ना ने पति से फ्रेंच में कहा। बुल्का ने उसकी कटार की प्रशंसा करनी प्रारंभ की तो उसने वह उसे दे दी ।
बुल्का ने कटार सौतेले पिता को दिखाई।
“यह बहुत कीमती है।” मेरी वसीलीव्ना ने कहा।
“उसे कुछ उपहार देने के लिए हमें कोई उपाय खोजना आवश्यक है।” वोरोन्त्सोव ने कहा।
हाज़ी मुराद आँखें नीची किए बैठा रहा और बुल्का के घुंघराले बालों पर लगातार हाथ फेरता रहा।
“बहादुर बालक, बहादुर बालक।”

“कितनी प्यारी कटार है!’’ वोरोन्त्सोव ने अच्छे आधारवाले स्टील के बीच में खांचेदार धारवाली कटार को बाहर निकालते हुए कहा। “बहुत धन्यवाद ।”
“उससे पूछो, हम उसके लिए क्या कर सकते हैं,” वोरोन्त्सोव ने दुभाषिये से कहा।
दुभाषिये ने अनुवाद किया और हाजी मुराद ने तुरंत उत्तर दिया कि वह कुछ नहीं चाहता, लेकिन वह एक ऐसे स्थान में जाना चाहेगा जहाँ वह नमाज अदा कर सके। वोरोन्त्सोव ने एक नौकर को बुलाया और कहा कि वह हाजी मुराद की इच्छा को पूरा करे।
जैसे ही हाजी मुराद अकेला हुआ, उसका चेहरा बदल गया। उसके चेहरे पर प्रसन्नता, चाहत और गर्व के मिश्रित भाव तिरोहित हो गये और एक प्रकार की चिन्ता ने उनका स्थान ले लिया।
वोरोन्त्सोव द्वारा उसका स्वागत उसकी अपेक्षा से कहीं अधिक अच्छा था। लेकिन जितना अच्छा स्वागत था उतना ही कम हाजी मुराद को वोरोन्त्सोव और उसके अधिकारियों पर भरोसा था। वह हर चीज से भयभीत था। वह सोचता रहा कि शायद उसे कैद कर लिया गया था। बेडि़यों में जकड़कर उसे साइबेरिया भेज दिया जायेगा या तत्काल मार दिया जायेगा, और इसीलिए वह अपनी सुरक्षा के प्रति चैकन्ना था।
एल्दार अंदर आया और उसने उससे पूछा कि उसके अंगरक्षकों को कहाँ ठहराया गया था और घोड़े कहाँ थे और क्या उन लोगों ने उनसे अपने हथियार ले लिये थे ?
एल्दार ने बाताया कि घोड़े प्रिन्स के अस्तबल में थे। आदमियों को ‘आउट हाउस’ में ठहराया गया था। उन लोगों ने अपने हथियार सौंप दिये थे और दुभाषिया उन्हें भोजन और चाय दे रहा था।
हाजी मुराद ने सिर हिलाकर हैरानी व्यक्त की, कपड़े उतारे और घुटनों के बल झुककर नमाज अदा करने लगा। जब उसने नमाज समाप्त कर ली उसने अपनी चांदी की कटार अपने पास लाने का आदेश दिया। उसने पुनः कपड़े पहने और कोच पर पैर रखकर बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा कि देखें अब क्या होगा।
ठीक चार बजे के बाद उसे प्रिन्स के पास भोजन के लिए बुलाया गया।
भोजन में उसने पुलाव के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया, जिसे उसने उसी स्थान से स्वयं परोसा जहाँ से मेरी वसीलीव्ना ने परोसा था।
“उसे भय है कि हम उसे जहर दे सकते हैं,” मेरी वसीलीव्ना ने पति से कहा। उसने स्वयं उसी स्थान से परोसा जहाँ से मैनें।” उसने दुभाषिये के माध्यम से तुरंत हाजी मुराद को संबोधित करते हुए पूछा कि वह अपनी प्रार्थना पुनः कब करेगा ? हाजी मुराद ने पाँचों उंगलियाँ उठायीं और सूर्य की ओर इशारा किया।
“ तब, शीघ्र ही,” वोरोन्त्सोव ने टनटनाने वाली घड़ी निकाली, एक स्प्रिंग दबाई, और घड़ी ने टनटनाकर सवा चार बजे का समय बताया। हाजी मुराद स्पष्ट रूप से उस आवाज से अचम्भित हुआ था, और उसने उसे पुनः टनटनाने के लिए कहा और घड़ी देखने का आग्रह किया।
”इस बार आप करके देखें। घड़ी उसे दे दीजिये,” मेरी वसीलीव्ना ने पति से कहा।
वोरोन्त्सोव ने घड़ी तुरंत हाजी मुराद की ओर बढ़ा दी। हाजी मुराद ने अपनी छाती पर अपना हाथ रखा और घड़ी ले ली। उसने अनेक बार स्प्रिंग दबायी, सुना और प्रशंसा में सिर हिलाता रहा।
भोजनोपरांत मिलर जकोमेल्स्की के परिसहायक (ए डी सी ) के प्रिंस से मिलन की सूचना दी गयी।
परिसहायक ने प्रिन्स को बताया कि जब जनरल ने हाजी मुराद के आत्म समर्पण के विषय में सुना, वह इस बात से बहुत खीझे कि उन्हें इस विषय में सूचित नहीं किया गया, और मांग की कि हाजी मुराद को तुरन्त उसके पास लाया जाये। वोरोन्त्सोव ने कहा कि वह आज्ञा का पालन करेगा। अपने दुभाषिये के माध्यम से उसने जनरल का आदेश हाजी मुराद को बताया और अपने साथ मिलर के पास चलने के लिए उसे कहा।
जब मेरी वसीलीव्ना को ज्ञात हुआ कि परि-सहायक क्यों आया था, उसने तुरन्त स्पष्ट अनुभव किया कि उसके पति और जनरल के मध्य अवश्य एक तमाशा होगा। पति के रोकने के हर संभव प्रयास के बावजूद उसने उसके और हाजी मुराद के साथ जनरल से मिलने के लिए प्रस्थान करने का निर्णय किया।
“बेहतर होगा कि तुम यहीं रुको। यह मेरा मामला है तुम्हारा नहीं।”
“तुम मुझे जनरल की पत्नी से मिलने जाने से नहीं रोक सकते।”
“तुम जाने का कोई दूसरा समय चुन सकती हो।”
“लेकिन, मैं अभी जाना चाहती हूँ।”
“उसके लिए ऐसा कुछ नहीं है।” वोरोन्त्सोव सहमत हो गया, और तीनों चल पड़े।

जब वे पंहुचे, मिलर फीकी विनम्रता के साथ मेरी वसीलीव्ना को पत्नी के पास ले गया, और सहायक को कहा कि वह हाजी मुराद को स्वागत कक्ष में ले जाये और जब तक उसे उसका आदेश न मिले, उसे कहीं बाहर जाने की अनुमति न दे।
“अंदर आइये” अपनी स्टडी का दरवाजा खोलते हुए उसने वोरोन्त्सोव से कहा और अपने आगे प्रिन्स को अंदर प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त किया।
अन्दर एक बार वह प्रिन्स के सामने रुक गया और उसे बैठने के लिए कहे बिना बोला।
”मैं यहाँ का ‘मिलिटरी कमाण्डर’ हूँ, इसलिए शत्रु से कोई भी वार्ता मेरे माध्यम से ही होनी चाहिए थी। हाजी मुराद के आत्म-समर्पण की सूचना आपने मुझे क्यों नहीं दी?”
“एक एजेण्ट मेरे पास आया था और मेरे समक्ष हाजी मुराद के आत्म-समर्पण करने की उसकी इच्छा व्यक्त की थी,” वोरोन्त्सोव ने उत्तर दिया। उत्तेजना से उसका चेहरा विवर्ण हो उठा था क्योंकि उसे क्रुद्ध जनरल से कठोर प्रतिक्रिया की ही अपेक्षा थी। उस समय वह स्वयं क्रोध से प्रभावित था।
“मैं आपसे पूछ रहा हूँ, कि आपने मुझे सूचना क्यों नहीं दी थी ?”
“बैरन, मैं ऐसा करना चाहता था, लेकिन…।”
‘‘बैरन नहीं, बल्कि आपके लिए महामहिम…”
यहाँ बैरन का दबा क्षोभ अचानक फूट पड़ा था। उसने वर्षों से अपने अंदर उबल रही भावनाओं को निकल जाने दिया।
“मैंनें सत्ताइस वर्षों तक सम्राट की सेवा केवल इसलिए नहीं की कि कल को नियुक्त हुआ कोई व्यक्ति अपने पारिवारिक सम्पर्कों का दुरुपयोग कर मेरी नाक के नीचे ऐसे मामले तय करे जिनसे उसका कोई संबन्ध नहीं।”
“महामहिम, मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि अनुचित बात न बोलें।” वोरोन्त्सोव ने उसे बाधित किया।
“मैं सत्य कह रहा हूँ और अनुमति न दूंगा …” जनरल ने और अधिक क्रोधित होते हुए कहना शुरू किया।
इसी समय स्कर्ट की सरसराहट हुई और मेरी वसीलीव्ना ने प्रवेश किया। उसके पीछे अकल्पनीयरूप से नाटे कद की एक महिला थी, जो मिलर जकोमेल्स्की की पत्नी थी।

“बैरन इतना पर्याप्त है। साइमन परेशान नहीं होना चाहता था।” मेरी वसीलीव्ना भड़क उठी।
“प्रिन्सेज, नुक्ता यह नहीं है…”
“अच्छा, इसे भूल जाएं। एक खराब बहस, एक अच्छे झगड़े से बेहतर होती है, आप जानते हैं… मैं क्या कह रही हूँ ?” ठहाका लगाकर वह हँस पड़ी।
क्रुद्ध जनरल उस खूबसूरत युवती की मोहक मुस्कान से कुछ ढीला पड़ा। उसकी मूंछों के नीचे हल्की मुस्कान तैर गयी।
“मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं गलती पर था,” वारोन्त्सोव ने कहा, “लेकिन…।”
“ठीक है, मुझे हल्का-सा गुस्सा आ गया था।” मिलर ने कहा और प्रिन्स की ओर हाथ बढ़ाया।
शांति स्थापित हुई, और तय यह हुआ कि हाजी मुराद को कुछ समय के लिए मिलर के पास छोड़ दिया जाये, और उसके बाद उसे ‘लेफ्ट फ्लैंक’ के कमाण्डर के पास भेज दिया जाये।
हाजी मुराद बगल के कमरे में बैठा था, और यद्यपि वह यह नहीं समझ पाया कि उन्होंने क्या कहा था, उसने महत्वपूर्ण बात समझ ली थी कि वे उसके विषय में ही झगड़ रहे थे। उसके द्वारा शमील को छोड़ देना रूसियों के लिए अत्यधिक महत्व का विषय था और इसलिए, यदि वे उसे निर्वासित नहीं करते अथवा मारते नहीं तो वह उनसे बहुत कुछ निवेदन कर सकता है। इसके अतिरिक्त, उसने अनुभव किया कि, यद्यपि मिलर जकोमेल्स्की प्रधान था, वह उसके अधीनस्थ वोरोन्त्सोव जितना महत्वपूर्ण नहीं था। वोरोन्त्सोव काउण्ट था जबकि मिलर जकोमेल्स्की काउण्ट नहीं था। इसलिए जब मिलर जकोमेल्स्की ने हाजी मुराद को बुलाया और उससे पूछताछ प्रारंभ की, हाजी मुराद ने उद्धत और तटस्थ रहते हुए कहा कि उसने गोरे जार की सेवा करने के लिए पहाड़ों को छोड़ा था और वह अपने सरदार, कहना चाहिए कि, कमाण्डर-इन-चीफ, प्रिन्स वोरोन्त्सोव के समक्ष तिफ्लिस में ही सब कुछ बयान करेगा।
(क्रमश: जारी…)

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पुस्तक समीक्षा

जीवन के विभिन्न पक्षों के आस्वाद, रूप और रंग की कहानियाँ
प्रताप दीक्षित

अन्य कलाओं से इतर साहित्य की एक विशिष्टिता होती है कि वह देशकाल और समय की ही नहीं बल्कि भाषाओं की भी सीमा पार कर जाता है। यहीं पर साहित्य की एक विशेष भूमिका ब्रह्माण्ड से परे दिगदिगन्त की यात्रा के रूप में प्रारंभ होती है। शब्दों की शक्ति को सीमाएं बांध नहीं पाती हैं। भारतीय भाषाओं के संदर्भ में तमाम भाषाओं के साहित्य में समान प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं। बंगला भाषा का साहित्य भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। बंगला साहित्य में मूल्यों के प्रति आग्रह, संवेदना और मनुष्यता के प्रति सम्मान का भाव विद्यमान है।
“लौकिक-अलौकिक” में संग्रहित हिंदी कथाकार श्याम सुंदर चौधरी द्वारा बंगला भाषा की अट्ठारह अनूदित कहानियाँ इस बात का प्रमाणित करती हैं कि संवेदना, आकांक्षाओं और देशकाल की परिस्थितियों ने कथाकारों को सदैव झकझोरा है। वह दौर चाहे गत शताब्दी के प्रारंभ का रहा हो अथवा आधुनिक चेतना के प्रादुर्भाव का।
किसी रचना का भाषान्तर बहुत ही दुरुह और चुनौतीपूर्ण कार्य है। शायद इतना जटिल कि मौलिक लेखन की अपेक्षा अनुवाद कर्म अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। जैसे का तैसा रख देना एक यांत्रिक कार्य जैसा होता है। ऐसे अनुवाद न तो पाठक को उद्वेलित कर पाते हैं, न ही संवेदित।
किसी भाषा का एक अनुवाद से दूसरी भाषा में अनुवाद के लिए आवश्यक है कि अनुवादक को मूल भाषा और अनुवाद की भाषा का न केवल गहरा ज्ञान हो वरन् उस भाषा के संस्कार और जीने का अनुभव होना चाहिए। दोनों के मिथ, परम्पराएं, विकास क्रम, मुहावरों, प्रतीकों और बिम्बों को अनुवादक के लिए आत्मसात करना जरूरी है। इस दृष्टि से इस अनुवाद संग्रह को प्रभावी भावानुवाद कहा जा सकता है। मूल रचनाओ की भाव सम्पदा एवं संदेश को सरलता, प्रवाहमयता और प्रमाणिकता से प्रस्तुत किया गया है।
इन रचनाओं के लिए अनुवादक ने एक सर्जनात्मक भाषा अविष्कृत की है। पढ़ते हुए यह अनुभव ही नहीं होता कि हिन्दी के अतिरिक्त दूसरी भाषा की रचना पढ़ रहे हैं। सफल अनुवाद का एक कारण यह भी है कि अनुवादक स्वयं हिंदी का लेखक है।
जहाँ तक रचनाओं का प्रश्न है, अनुवादक ने विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र से लेकर युवतम दुर्गादास चटर्जी तक के कथाकारों की रचनाओं को संकलन हेतु चुना है। यह जीवन के विभिन्न पक्षों के आस्वाद, रूप, रंग की कहानियाँ हैं। दरअसल, कहानी ने भाषा, शिल्प और लहजे में ही नहीं कथा-चेतना के द्वारा भी समय की महत्वपूर्ण विधा के रूप में अपनी पहचान बनाई है। यह अपने समय के संदर्भों से जूझते हुए मानव मूल्यों के प्रति सरोकारों से जुड़ कर रागात्मक धरातल पर जीवन को अर्थ प्रदान करती हैं। अनुवादक रचनाकारों द्वारा प्रस्तुत युगीन परिस्थितियों की अनुकृति मात्र नहीं करता बल्कि रचनाओं के परिवेश की पुनर्रचना प्रस्तुत करता है। परिवेश द्वारा परिवर्तन की संभावनाओं का निर्माण करता है।
संग्रह की पहली अनूदित कहानी रवीन्द्र नाथ टैगोर की “सम्पादक” शीर्षक से है। लेखकीय बौद्धिक अहं एवं प्रतिद्वंदिता के बीच खो गए सहज प्रेम और संवेदना की तलाश की कहानी है। सहज उपलब्ध स्नेह जिसे मनुष्य अपने अहं और प्रमाद में स्वयं खो देता है। शरतचन्द्र चटर्जी की कहानी “महेश” का कथ्य पिछली शताब्दी का होने पर भी उसकी पीड़ा शाश्वत और सर्वकालिक है। यह केवल जमींदारों के द्वारा किए गए शोषण और अत्याचार को ही उद्घाटित नहीं करती, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और करुणा से आप्लावित भी करती है।
लोकप्रिय लेखक विमल मित्र की कहानी “बीस मिनट की कहानी” मानवीय संवदेना और एक मृगतृष्णा की कथा है। शायद हर एक व्यक्ति किसी न किसी मृगतृष्णा के पीछे जीने के लिए विवश है। “लौकिक-अलौकिक के बीच”(राणा चट्टोपाध्याय), “चुल्लू भर पानी”(वरेन गंगोपाध्याय) और “मृत्यु संवाद’(तरुण दास गुप्ता)- ये तीनों कहानियाँ मृत्युबोध की कहानियाँ हैं। “लौकिक-अलौकिक” में न केवल जीवन मृत्यु के प्रश्नों पर दार्शनिक चिंतन है बल्कि कुलीनता ऐसी चीजों की निस्सरता पर भी विचार-मंथन किया गया है। अन्ततः सबकुछ छूट जाता है। “चुल्लू भर पानी” में भी कभी प्रसिद्ध रहे हुए व्यक्ति की अपरिचित लोगों के बीच अनजान मौत द्वारा लेखक इन सब बाहरी उपादानों की व्यर्थता को ही अप्रत्यक्षतः उजागर करता है। मृत्यु के बाद की भी औपचारिकताएं अर्थहीन ही होती हैं। “मृत्यु संवाद” मात्र ओ. हेनरी की कहानियों की तरह कौतूहलपूर्ण चौकाने वाले अन्त की सधारण-सी कहानी है।
यद्यपि ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कहानी “पदमा” का अन्त भी कौतूहलपूर्ण अप्रत्याशित होता है परन्तु कहानी में वातावरण का जीवंत चित्रण, चन्द्र महाशय की जिजीविषा, उनका अन्तर्द्वन्द्व, पति-पत्नी का अप्रतिम प्रेम, समर्पण और पद्मा की आस्था एवं कर्तव्यभावना के बीच होने वाले संघर्ष का निर्वाह जिस खूबी से लेखक ने किया है, उससे यह एक श्रेष्ठ कहानी बन जाती है। इसका अन्त मनुष्यता पर आस्था को दृढ़ करता है।
अमिया सेन की कहानी “निर्मला भाभी” नौकरशाही पर प्रहार करने वाली एक अच्छी कहानी हो सकती थी, परन्तु इसका अन्त भी इसके अच्छी कहानी होने की संभावनाओं को समाप्त कर देता है। यह, अंधविश्वासों के विरुद्ध बहु-विक्रय वाली पत्रिकाओं में प्रकाशन योग्य दूसरे-तीसरे दर्जे की कहानी होकर रह जाती है। “विश्वास”(झरा बसु) एक चिकित्सक की सेवा भावना, कर्तव्य परायणता, सहयोग और उससे उपकृत तथाकथित ‘छोटे लोगों’ की सहृदयता एवं विश्वास की पारम्परिक कहानी है। कहानी के तथ्य अप्रमाणिक हैं। गायनाक्लाजिस्ट प्लास्टर नहीं चढ़ाता। एनेमिया में रक्त नहीं चढ़ाया जाता।
बुद्धदेव गुहा की कहानी “बोनसाई” आधुनिकता की त्रासदी की कहानी है। शायद सफलता का आसमान छूने की कोशिश में पिछड़ जाने की यन्त्रणा ही आज के आदमी की नियति बन गई है। ऊपर से बड़े दीखने वाले अन्दर से कितने छोटे हैं। इसी स्वार्थ और रिश्तों की निस्सारता और दिखावे की रचना है यह। सुनील दास की “वोक्काटा” पारिवारिक जुल्म से वेश्यावृत्ति पर विवश नारी मन के गह्वरों में गहरे छिपे प्रेम, प्रतिशोध, अन्तर्द्वन्द्व की मनौवैज्ञानिक कहानी है। वास्तव में प्रेम और घृणा एक ही मनोभाव के दो पहलू हैं। नायिका की पारम्परिक छवि से अलग पहचान बनती है।
नीला्कर की “आंधी” कहानी में बाह्य प्रतीक आंधी के द्वारा स्त्री चरित्र के मन में गहरे छिपे अदम्य आकर्षण, अविस्मृत प्रेम, अकेलेपन जैसे भावावेगों की मनोवैज्ञानिक कहानी है। दुर्गादास चट्टोपाध्याय की “नशा”। वास्तव में समस्त अध्ययन, चिंतन, अर्जन मनुष्य के निमित्त ही होता है। परन्तु आश्चर्य है कि इन सभी क्रियाकलापों का केन्द्र मनुष्य नेपथ्य में खो चुका है। मनुष्य देखने का नशा इसी मनुष्य को सतह से केन्द्र में लाने का प्रयास है। वृद्ध होने पर भी यह नशा मानवीय जिजीविषा का प्रतीक है।
अनिल भट्टाचार्य की कहानी “तरसती आँखों की सुबह” अभावों के बीच पलती एक लड़की, तद्जनित बालमन पर उसके प्रभाव की मनोवैज्ञानिक कहानी है। कितने ही भी्षण अभाव या समस्याएं हों, बच्चे उसे सहज और सरलीकृत कर लेते हैं। यही आशावादिता उन्हें स्पृहणीय बना देती है। इसी प्रकार विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय की कहानी “तुच्छ” अभावों के बीच छोटी-छोटी खुशियों की कहानी है।
सफलता और विकास के बीच कितना कुछ छूट जाता है। रिश्तों के बीच उगी संवेदनहीनता को रेखांकित करती गोविन्द भट्टाचार्य की कहानी “उन सबका ऋण” को देखा जाता है। दूसरी तरफ, “एक सूखती नदी का महाकाव्य”(जीवन सरकार) और “एक समर्पण ऐसा भी”(शचीन्द्र नाथ बंद्योपाध्याय) दोनों ही प्रेम कहानियाँ हैं। “सूखती नदी....” प्रेम की दैहिक अभिव्यक्ति की कथा है। उम्र, अनाम रिश्तों, संबोधन से परे एक नारी मन की मनोवैज्ञानिक रचना। फ्रायड के मनोविज्ञान को विश्लेषित करती कहानी। दूसरी ओर “एक समर्पण” में दो एकाकी लोगों के प्रेम के चरमोत्कर्ष की सम्पूर्ण गाथा है। जिस प्रेम में सब देना ही देना है, बिना अपेक्षा के। यही प्रेम हिंसक को करुणा का सागर बना देता है।
बंगला भाषा के साहित्य का हिन्दी में एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। रवीन्द्र नाथ टैगोर, शरतचन्द्र चटर्जी, विमल मित्र आदि हिन्दी में मूल भाषा के कथाकारों के समान ही लोकप्रिय हैं। पृथक रूप में इनकी पुस्तकें विशेष रूप से उपन्यास हिन्दी में उपलब्ध हैं। यद्यपि अधिकांश अनुवाद स्तरीय नहीं है। लेकिन श्याम सुंदर चौधरी ने बंगला के विभिन्न रचनाकारों को एक साथ प्रस्तुत करके एक स्तुतनीय कार्य किया है।
सम्प्रति- साहित्य की प्रत्येक विधा ने आधुनिक भावबोध की सीढि़यों के कई पायदान पार कर लिए हैं। समाज भी संक्रमण काल की विसंगतियों और तनावों से ग्रस्त है। पाठकों को समकालीन सामाजिक सरोकारों से संबंधित विषयों पर लिखी गई रचनाओं की अपेक्षा रहती है। परन्तु यहाँ “लौकिक-अलौकिक” में चयनित कहानियों से यह उम्मीद पूरी नहीं होती। गत कुछ वर्षों में कहानी के स्वरूप में कई परिवर्तन आए हैं। दलित, बाजारवाद, ग्लोबलाईजेशन के बीच उपेक्षित आम आदमी से संबंधित रचनाएं प्रत्येक भाषा में लिखी जा रही हैं। संग्रह में इनका अभाव बंगला साहित्य का एकांगी परिचय देता है। बंगला के कई चर्चित कथाकारों यथा- शंकर, समरेश बसु, सुनील गंगोपाध्याय, प्रेमेन्द्र मित्र, नवनीता देव सेन, विमल कर, सुकुमार सेन आदि का अभाव खटकता है। यद्यपि इसमें रचनाओं की उपलब्धता बंगला रचनाकारों अथवा उनके परिवार के द्वारा असहयोग, अनुवादक की अपनी पसंद आदि सीमाएं हो सकती हैं। फिर भी, अनुवादक ने अपनी सर्जनात्मक उत्कृष्टता से उपलब्ध कहानियों का जो रूप प्रस्तुत किया है, उससे ये रचनाएं गद्यगीत के तरल प्रवाह से मनुष्य की जीवितेष्णा बनाए रखने का उपक्रम करती प्रतीत होती हैं।

-8/182, आर्य नगर, कानपुर (उत्तर प्रदेश)

लौकिक-अलौकिक (अनूदित बंगला कहानी संकलन)
अनुवादक : श्याम सुंदर चौधरी
प्रकाशक : यात्री प्रकाशन, बी-131, सादत पुर, दिल्ली।
पृष्ठ : 168, मूल्य : 100 रुपये ।

गतिविधियाँ

काका हाथरसी पुरस्कार, जयजयवंती सम्मान और पुस्तिका लोकार्पण

इंडिया हैबिटेट सैंटर के गुलमोहर सभागार में 8 अक्तूबर 2008 को एक साथ कई कार्य हुए। काका हाथरसी पुरस्कार, जयजयवंती सम्मान और पुस्तिका लोकार्पण। कार्यक्रम में 34वां काका हाथरसी पुरस्कार मुम्बई के हास्य कवि श्री आशकरण अटल को प्रदान किया गया तथा डायमण्ड पब्लिकेशंस के श्री नरेन्द्र कुमार के सौजन्य से वरिष्ठ साहित्यकार श्री अजित कुमार को हिन्दी सॉफ्टवेयर 'सुविधा' से सज्जित एक लैपटॉप भेंट किया गया तथा 'जयजयवंती सम्मान' से नवाज़ा गया साथ ही चित्र कला संगम के सचिव पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर एवं डायमण्ड पब्लिकेशंस के सौजन्य से एक पुस्तिका का लोकार्पण भी हुआ। जनवादी लेखक संघ के श्री चंचल चौहान को हिन्दी सॉफ्टवेयर सौल्यूशंस की ओर से 'सुविधा' नामक सॉफ्टवेयर की सी.डी. प्रदान की गई। मुख्य अतिथि थे विदेश राज्यमंत्री श्री आनन्द शर्मा।