बुधवार, 7 नवंबर 2007

साहित्य सृजन(प्रवेशांक)- नवंबर,2007


"साहित्य सृजन" के पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं !

मेरी बात
सुभाष नीरव

इंटरनेट पर ‘ब्लॉग’ की दुनिया ने नि:संदेह अभिव्यक्ति के नए द्वार खोल दिए हैं। यहाँ आप स्वयं ही लेखक हैं, स्वयं ही संपादक हैं, और प्रकाशक भी। आपका लिखा शहर-कस्बे, प्रांत या एक देश तक सीमित नहीं है। वह हदों-सरहदों में क़ैद नहीं है क्योंकि इंटरनेट पर ब्लागिंग ने उसे विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाने का एक आसान रास्ता खोल दिया है। इस तकनीक के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में अपने आलेखों के माध्यम से नई-नई जानकारियां देने वाले ब्लॉग मर्मज्ञ बालेन्दु दाधीच(संपादक–प्रभासाक्षी.काम) के अनुसार ‘ब्लागिंग एक ऐसा मंच हैं जिसमें अभिव्यक्ति किन्हीं सीमाओं, वर्जनाओं, आचार-संहिताओं या किसी अनुशासन में कै़द नहीं है।’ यहाँ हर प्रकार की अभिव्यक्ति के दरवाजे खुले हैं। यहाँ समाज है, राजनीति है, मीडिया है, और साहित्य भी है। यहाँ तक कि संगीत भी। इनसे जुड़े गम्भीर सरोकार हैं, बेलाग टिप्पणियां भी हैं। महंगी डाक प्रणाली के चलते प्रिंट मीडिया की पत्र-पत्रिकायें, पुस्तकें जहां नहीं पहुँच पातीं, वहीं ये ब्लाग, वेब-पत्रिकायें इंटरनेट पर होने के कारण एक क्लिक भर की दूरी पर दुनिया के किसी भी कोने में उपलब्ध हैं। यहाँ लेखक स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है। उसे प्रिंट मीडिया के सम्पादकों की नज़रे-इनायत की दरकार नहीं है। और न ही रचना की वापसी का दंश झेलने को वह विवश है। हिंदी के चर्चित ब्लॉगर और मोहल्ला.काम के संचालक अविनाश के शब्दों को उधार लेकर कहा जाये तो ‘आप लिखें और उसके शाया होने की चिंता आपको न करनी पड़े और लोग आपके लिखे पर प्रतिक्रिया भी आसानी से दे सकें– ब्लॉग की यह बड़ी महिमा है।’हिंदी में ब्लॉगिंग के बारे में मेरे साहित्यकार मित्र रामेश्वर काम्बोज हिमांशु से मुझे सर्वप्रथम जानकारी मिली थी। वह नेट पर ‘लघुकथा. काम’ नामक एक वेब-पत्रिका का संचालन करते हैं जो कि लघुकथा विधा को पूरी तरह समर्पित पहली ‘वेब-पत्रिका’ है। अविनाश और बालेन्दु दाधीच के आलेखों से कुछ और जानकारियाँ मिलीं तो मैंने 14 अगस्त 2007 को ‘उत्कृष्ट अनूदित साहित्य’ पर केन्द्रित पहली साप्ताहिक ब्लॉग-पत्रिका ‘सेतु साहित्य’ आरंभ की जिस पर आशातीत रेस्पांस मिला। इसके बाद अक्तूबर, 2007 में समकालीन कविताओं पर केन्द्रित मासिक ब्लॉग ‘वाटिका’ नाम से प्रारंभ किया। इसमें हर माह एक कवि की चुनिंदा दस कविताएं देने का विचार बनाया। ‘वाटिका’ के पहले ही अंक पर देश-विदेश से प्राप्त हुई ढेरों टिप्पणियों/प्रतिक्रियाओं ने हमारे उत्साह को दूना कर दिया। इसी कड़ी में ‘साहित्य-सृजन’ नामक साहित्यिक ब्लॉग-पत्रिका का शुभारंभ दीपावली के पावन-पर्व पर किया गया है। हमें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि नेट के हिंदी प्रेमी पाठकों को हमारा यह प्रयास भी पसंद आएगा।

हिंदी कहानी

एक मिनट यार !
रूप सिंह चन्देल

“चमन...” आवाज़ गैलरी को लाँघती, दरवाजे को फलाँगती चमन के कानों से टकराई तो मफ़लर से ढंके उसके कान चौकन्ना हो उठे।
‘आहूजा आज फिर डांटेगा...कुछ भी नहीं सुनेगा।’ मेज पर तेजी से डस्टर घुमाते चमन के हाथ सरकने लगे।
“आज फिर तूने सवा नौ बजा दिए। अभी तक सफाई नहीं हुई? भगवान के लिए फूल सजाने हैं... कब करेगा?” आहूजा के बायें हाथ में नोट शीट का पैड और दाहिने में पेन था। दफ़्तर जाने के साथ ये चीजें एक बार उसके हाथ आतीं तो दफ़्तर बंद होने तक वह उन्हें थामे रहता।
“अभी सब हुआ जाता है सर।"
“ऐसे नहीं चलेगा। समय से नहीं पहुँच सकता तो बोल, भिजवा दूँ पूना–भुवनेश्वर। करना वहाँ मटरगश्ती।"
“मटरगश्ती कैसी सर! आज कोहरा अधिक था। बस अटक गई आई.टी.ओ. पुल पर...।"
“रोज का बहाना छोड़। कोहरा उधर से अधिक रहा होगा वसंत कुंज इलाके में... फिर भी मैं कैसे पहुँच गया समय से !” शब्दों को पीसता आहूजा बोला।
“सर, आप बस से कहाँ आते हैं। आप तो आटो से...।"
“तुझे किसने मना किया है। तू भी आटो से आ।" आहूजा दाहिने हाथ से सिर खुजलाता बोला। ऐसा वह प्राय: करता है।
चमन चुप रहा। मेज साफ हो चुकी तो आहूजा बोला, “जल्दी कर... भगवान के पास अगरबत्ती जला और यह ले माला।" पॉलिथीन की थैली में गुलाब की माला बढ़ाता आहूजा बोला, “इसे उस छोटी मेज पर रख दे।"
“जी सर !” चमन अगरबत्ती सुलगाने लगा।
“और सुन।" चमन आहूजा की ओर देखने लगा।
“पानी का जग साफ करके भर ला। गिलास में हल्का गर्म पानी... आज ठंड अधिक है।"
“जी सर !”
आहूजा पलटा, “आज ससुरा स्वीपर भी नहीं आया। बाथरूम साफ नहीं हो पाया।" सिर खुजलाता वह बुदबुदाया, “क्या-क्या देखूँ !” आहूजा दरवाजे पर ठिठक गया। चमन जग उठाये उसके पीछे ही था कि वह चीखा, “अबे तुझे कितनी बार कहा कि आते ही ब्लोअर चालू कर दिया कर... अगर मैम आ गई...।" आहूजा ने घड़ी देखी, “आने का समय हो रहा है।... अपने साथ मेरी भी छीछालेदर करवाएगा। अब तक कमरा गर्म हो जाना चाहिए था। ऐं... समझ में नहीं आता?”
“सॉरी सर, भूल गया था। अभी किए देता हूँ।" आहूजा के चेहरे के भाव देख चमन सकपका गया और ब्लोअर की ओर बढ़ा।
“उसे छोड़, दौड़– अच्छी तरह जग साफ कर पानी भर... उसे मैं आन कर दूँगा।" आहूजा ब्लाअर आन करने के लिए बढ़ गया।
चमन पानी लेने दौड़ गया तो आहूजा ने कमरे से अटैच मैम के बाथरूम-कम-टॉयलेट का मुआयना किया। प्रसाधन सामग्री देखी। कंघा, लिपिस्टिक, परफ्यूम, क्रीम, सब दुरुस्त... वह आश्वस्त हुआ। उसने टॉवल उलट कर टांगा, टिश्यू-पेपर्स, टॉयलेट सॉप... दुरुस्त पाया उसने।
उसे दफ़्तर के चपरासियों पर विश्वास नहीं है। सभी चोर हैं– मैम की लिपिस्टिक उठा लें, परफ्यूम या पाउडर घर ले जाएं। छोटे लोगों की मानसिकता छोटी होती है। एक बार हंगामा हुआ था। मैम को एक सेमिनार में जाना था। लिपिस्टिक और कंघा गायब थे। मैम का पारा सातवें आसमान पर... वह सकपकाया-सहमा रहा। स्टॉफ-कार लग चुकी थी कमरे के बाहर। समय भी न था कि गोल मार्केट से मंगवाता। उस क्षण उसने सोचा था कि मैम के जाते ही वह चमन और स्वीपर की खबर लेगा। लेकिन, तभी मैम को याद आ गया था। पिछले दिन सेमिनार में जाते समय मैम वे चीजें पर्स में डाल कर ले गई थी।
चमन और स्वीपर आरोप की गिरफ्त में आने से बच गये थे।

कमरे से निकलते चमन ने मन ही मन आहूजा को भद्दी-सी गाली दी और सामने आ रहे सहायक निदेशक अंसारी को तेज आवाज़ में नमस्ते की।
अंसारी ठंड से सिकुड़ा हुआ था। चमन की नमस्ते का उत्तर धीमे स्वर में दिया उसने, जिसे चमन नहीं सुन सका।
‘यह ज़िन्दगी भी क्या है !’ भुनभुनाता हुआ चमन भाग्य को कोस रहा था।
‘दफ़्तर में दूसरे चपरासी भी हैं, लेकिन न आहूजा उन्हें कुछ कहता है और न अंसारी। वे सब कभी भी आते-जाते हैं। लेकिन उनकी गाज मुझ पर ही गिरती है।’
चमन सोच रहा था, ‘पता नहीं कौन-से पाप किए थे कि निदेशक के साथ ड्यूटी लगा दी। पाँच साल से एक ही रूटीन! सुबह पाँच बजे से ही दफ़्तर शुरू हो जाता है, बच्चे तक को ढंग से स्कूल के लिए तैयार नहीं कर पाता। पत्नी दुखी है। दुनिया को देखती जो है। पड़ोसी रामभरोसे कभी भी साढ़े आठ बजे से पहले दफ़्तर के लिए घर से नहीं निकलता। शाम छह बजे तक घर वापस। जबकि मैं दफ़्तर से ही साढ़े छह बजे के बाद निकल पाता हूँ। रात साढ़े आठ से पहले घर पहुँचना कठिन है। जबकि रामभरोसे का दफ़्तर मेरे दफ़्तर के पास ही है।’
‘कितनी ही बार आहूजा को ड्यूटी बदलने को कहा, लेकिन वह सुने तब न ।’
‘आहूजा है तो सेक्सन आफिसर... लेकिन संयुक्त निदेशक राव के बजाय उसका दबदबा अधिक है दफ़्तर में। वह मैम की नाक का बाल बना हुआ है। एक दिन सुधीर बाबू जिक्र कर रहे थे– आहूजा खानदानी है। इसका बाप भी इसी विभाग में था और वह भी बड़े अफसरों के सेवाभाव में रात-दिन एक किए रहता था।’
नल पर दूसरे दफ़्तर के चपरासी पहले ही झुके हुए थे।
‘आहूजा मुझे कहता है कि वह आटो से आ सकता है... मैं क्यों नहीं। मुझे कह ही देना चाहिए था कि नया फर्नीचर और निदेशक से लेकर दूसरे अधिकारियों के कमरों के लिए कारपेट की खरीद में बीस प्रतिशत कमीशन आहूजा साहब चमन ने नहीं खाया था। दूसरे न जाने कितने काम हैं जिसमें वह कमीशन खाता है।’
‘क्या मैम को यह सब पता नहीं। लेकिन, उनके आँखें मूंदे रहने का भी कारण है। मैम के बच्चों से लेकर हसबैंड के लिए दिन-भर दफ़्तर की गाड़ी दौड़ती रहती है। प्रतिदिन लंच दफ़्तर खाते से... घर के दोनों कुत्तों के लिए हफ्ते में तीन दिन गोल मार्केट से मीट आहूजा स्वयं लेने जाता है... अपनी जेब से नहीं...दफ़्तर खाते से। एक कैजुअल लेबर रामखिलावन स्थायी रूप से मैम के घर रहता है, कुत्तों को नहलाने, टहलाने और घर के दूसरे कामों के लिए। सिविल सर्विस से एक वर्ष पूर्व रिटायर्ड मैम के पति की सेवा में दिन-भर दौड़ता रहता है रामखिलावन।’
‘रामखिलावन ने एक दिन फुसफुसा कर बताया था– तू नहीं जानता चमन... आहूजा हर दूसरे दिन मैम के बंगले में सुबह आठ बजे पहुँचता है फूल लेकर... ड्राइंग-रूम के लिए। बीस के चालीस वसूलता होगा वह फूलों के- दफ़्तर से।’
आहूजा फूलों की एक माला प्रतिदिन दफ़्तर लाता है। मैम के कमरे में भगवान की एक मूर्ति है... एक कोने में... मैम ने लाकर रखी थी। ट्रांसफर पर आयी, तब साथ लायी थीं। दफ़्तर पहुँचते ही मैम पाँच मिनट पूजा करती है– माला पहनाती है। शाम दफ़्तर छोड़ते समय भी पूजा करना नहीं भूलतीं। भगवान में उनकी प्रगाढ़ आस्था है। एक घटना ने आहूजा की आस्था भी उस मूर्ति के प्रति जाग्रत कर दी थी। तब से आहूजा दफ़्तर पहुँचते ही उसके सामने सिर झुकाना नहीं भूलता।
हुआ यह कि एक बार मैम को कलकत्ता के लिए राजधानी ट्रेन पकड़नी थी। पूजा किए बिना जाना मैम के लिए कठिन था। लेकिन दो आवश्यक फाइलें निबटाने में उन्हें इतना समय लगा कि पूजा करने का अर्थ था–गाड़ी छूटना। गाड़ी छोड़ना उन्हें स्वीकार था, पूजा नहीं।
उस दिन आहूजा विकल भाव से कभी मैम के कमरे में जाता, कभी बाहर कार तक। उसके चेहरे पर तनाव स्पष्ट था। जब तक मैम की पूजा समाप्त नहीं हुई, आहूजा अंदर-बाहर होता रहा। पूजा से निपट मैम बोली, “आहूजा, इतना परेशान क्यों हो... राजधानी मुझे लेकर ही जाएगी।"
“मैम दस मिनट ही...” घड़ी देख आहूजा बोला।
“पंद्रह मिनट का रास्ता है यहाँ से स्टेश्न का... ट्रेन मिलेगी।"
और ट्रेन एक घंटा विलम्ब से गई थी। आहूजा सोचे बिना नहीं रह सका कि वह विलम्ब पूजा के कारण ही हुआ।
दफ़्तर के दूसरे चपरासी जा चुके थे। चमन जग साफ करने लगा।
चमन दबे पांव मैम के कमरे में घुसा। मैम तब तक आयी नहीं थीं। आहूजा को कमरे में न पाकर उसने राहत महसूस की। जग मैम की कुर्सी के पीछे स्टूल पर रख वह बाहर उन्हें रिसीव करने जाने के लिए मुड़ा तो उसे बाथरूम-कम-टॉयलेट से कुछ आहट-सी सुनाई दी।
‘स्वीपर जगन अब आया है। इसको इतनी बार समझाया गया कि मैम के आने के समय वह बाथरूम में न घुसा करे। खुद भी मरेगा... मुझे भी मरवाएगा। मैम तो मैम... आहूजा देख लेगा तो जमीन-आसमान एक कर देगा।’
बाहर का दरवाजा खोलने के लिए बढ़ता वह बाथरूम की ओर मुड़ गया। दरवाजा खोलते ही उसने जो देखा तो वह हत्प्रभ कुछ देर तक देखता ही रह गया। आहूजा संडास पर झुका हुआ था। उसके दाहिने हाथ में एक छोटा-सा डंडा था। डंडा संडास में डाल आहूजा उसे घुमा रहा था, यों जैसे संडास की सफाई कर रहा हो। क्षण भर तो चमन देखता रहा, फिर बोला, “सर, मैम आने वाली हैं। उन्हें रिसीव नहीं करेंगे।"
“एक मिनट यार !...” आहूजा ने उसकी ओर देखे बिना खीझ भरा उत्तर दिया और बदस्तूर संडास में डंडा घुमाता रहा।
चमन दरवाजा खोल बाहर निकल गया।


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दिल्ली–110094
दूरभाष :09810830957
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लघुकथाएं

काग़ज़ की आग
सतीश दुबे

एडवोकेट भार्गव जी के पहुँचने तक शंकर उनका कार्यालयीन-कक्ष व्यवस्थित कर बाहर खड़ा था। कार रुकते ही वह निकट पहुँचा और भार्गव जी के हाथ
से ब्रीफकेस लेकर उनके पीछे-पीछे चलने लगा।
वे कुर्सी पर ठीक से व्यवस्थित हो भी नहीं पाये थे कि वह बोला, “सर, आपने हमारे वो तलाक की फाइल तो तैयार नहीं की?”
कुछ देर सोचते रहने के बाद उन्होंने एक फाइल दिखाते हुए कहा, “पूरा केस तैयार है। क्यों क्या बात है, तुम तो तुरंत तलाक की कार्रवाही करना चाहते थे ना?”
“नहीं सर, इसको केन्सिल कर दीजिए, हममें सुलह हो गई है।"
“इतनी जल्दी ही सुलह होनी थी तो तलाक की नौबत जैसा माहौल आख़िर बना ही क्यों?” भार्गव जी का वकील मस्तिष्क कारण की तह में जाने के लिए कुलबुलाने लगा।
“हो जाता है सर, औरत-आदमी का वह घर ही क्या जिसमें खटर-पटर न हो। सही कहें सर, गलती हमारी ही थी। रोज हम कहते हैं, वह सुनती है। एक दिन उसने कुछ कहा, पर हमने सुना नहीं, सुनते कैसे?... आदमी जो ठहरे! बस सर, तू-तू... मैं-मैं में बात बढ़ती गई।"
“अब तो सब झगड़ा खत्म हो गया ना...”
“बिलकुल सर। हमारे झगड़े बड़े लोगों जैसे नहीं, काग़ज़ की आग की तरह होते हैं। सर, आग लगी, ताप बढ़ा और थोड़ी देर बाद न आग, न धुआँ, न ताप न राख। ऐसा लगे, जानो कुछ हुआ ही नहीं...।"भार्गव जी उसके तर्क को सुन समझ नहीं पा रहे थे कि उससे क्या पलट–प्रश्न करें, वे बस उसका चेहरा ताकते रहे।
सपनों का स्वेटर
सतीश दुबे

“तुम्हें खोजते हुए पूरा घर छान मारा, और तुम हो कि बिना बताये यहाँ छत पर कुर्सी लगाये इत्मीनान से बैठी स्वेटर बुन रही हो...।" एक सांस में लम्बा वाक्य बोल कर विशु ने शिकायत भरे लहजे में विशा की ओर देखा।

“ठंड की कुनकुनी धूप बहुत देर से आवाज़ लगा रही थी, इसलिए आना पड़ा। पर इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए तुम्हें मेरी याद कैसे आ गई ?” चेहरे पर बरबस आई लट को व्यवस्थित करते हुए विशा ने उसकी ओर आँखें घुमाईं।

“मैंने याद नहीं किया। ठंड की सरसराहट तुम्हारी धूप की गर्मी पाने के लिए नॉक...नॉक कर डिस्टर्ब कर रही...।"

“शैतान, इसके अलावा भी तुम्हें कुछ सूझता है?”

“हाँ, सूझता क्यों नहीं, जैसे सामने की छत की वह लड़की...।" दूसरी छत पर खड़े युवक से रोमांटिक-अंदाज में बतिया रही युवती की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए विशु ने जवाब दिया।

“प्यार के ऊन से सपनों का स्वेटर बुनने वालों को डिस्टर्ब करते तुम्हें शर्म नहीं आती, चलो नीचे...।" सूरज की किरणों में अपनी हँसी को समाहित कर विशा ने उस ओर देखा तथा विशु को सीढि़यों की ओर खींचते हुए ले गई।
संपर्क :
766, सुदामा नगर,
इन्दौर–452009 (मध्य प्रदेश)
दूरभाष : (0131) 2482314/3093395

कविता

डा. राजेन्द्र गौतम के दो गीत

(1) हम दीप जलाते हैं

यह रोड़े-कंकड़-सा जो कुछ अटपटा सुनाते हैं
गीतों की इससे नई एक हम सड़क बनाते हैं।

फिर सुविधाओं के रथ पर चढ़कर
आएं आप मजे से
फिर जय-जयकारों के मुखड़े हों
दोनों ओर सजे से

हम टायर के जूतों-से छीजे संवेदन पहने हैं
आक्रोशी मुद्रा– तारकोल भी हमीं बिछाते हैं।

हम हैं कविता के राजपथिक कब?
हम तो अंत्यज हैं
स्वागत में रोज बिछा करते हैं
हम केवल रज हैं

लेकिन जितना भी डामर है इस पथ पर बिछा हुआ
खुद रक्त-स्वेद अपना ही इसमें रोज मिलाते हैं।

हम जिन हाथों को किए हुए हैं
पीछे सकुचा कर
इनकी रिसती अंगुलियों ने ही
तोड़े हैं पत्थर

तुम तो बैठे अधिकारों की मीनारों पर जाकर
झोंपड़ियों में छंदों के हम दीप जलाते हैं।


(2) वन में फूले अमलतास हैं

वन में फूले अमलतास हैं
घर में नागफनी।

हम निर्गंध पत्र-पुष्पों को
दे सम्मान रहे
पाटल के जीवन्त परस से
पर अनजान रहे

सुधा कलश लुढ़का कर मरु में
करते आगजनी।

तन मन धन से रहे पूजते
सत्ता, सिंहासन
हर भावुक संदर्भ यहाँ पर
ढ़ोता निर्वासन

राजद्वार तक जो पहुँचा दे
वह ही राह चुनी।

टूट गया रिश्ता अपने से
इतने सभ्य हुए
औरों को क्या दे पाते, कब–
खुद को लभ्य हुए

दृष्टि रही जो अमृत- वर्षिणी
जलता दाह बनी।

संपर्क :
बी–226, राजनगर, पार्ट–1
पालम कालोनी, नई दिल्ली–110077
दूरभाष : 09868140469

भाषान्तर

पंजाबी कहानी
ये मेरा इंडिया
के.एल.गर्ग
अनुवाद : सुभाष नीरव

अमरीकन कम्पनी में काम करने वाले वे तीनों इंजीनियर लड़के भारतीय थे। एक दिल्ली से, दो पंजाब से। रूस के टुकड़े हो जाने के बाद भारत सरकार का समाजवादी लबादा भी पटरी पर लग चुका था। निजीकरण की होड़ में कई अमरीकन कम्पनियों का रुख भारत की ओर हो गया था। भारत में तो विदेशी राख भी धड़ल्ले से बिक सकती थी। भारत सरकार की उदारीकरण की नीति के कारण बाहर की अनेक कम्पनियां इस मुल्क में प्रवेश कर गयी थीं। नौजवान इंजीनियर लड़कों की चांदी हो गई थी। अमरीकन कम्पनियां धड़ाधड़ रोजगार के वीजे देकर भारतीय इंजीनियर लड़कों को अमरीका भेज रही थीं। वे तीनों लड़के भी मोबाइल फोन कम्पनी के काम के लिए अमरीका चले गये थे। बेकार घूमते लड़कों के बाहर चले जाने पर उनके घर वालों ने सुख की सांस ली थी। जब कभी कोई लड़कों के बारे में पूछता तो घर वाले उत्साह में भर कर बताते–
‘‘अमरीका में काम करता है जी लड़का...कम्पनी ने खुद टिकट भेज कर बुलाया है...यहाँ तो यूं ही खाली घूमता था बगलें बजाता...न काम, न काज। कुछ देर और वह यहाँ रुक जाता तो सारे टब्बर की ‘बोले राम’ हो जाती। ये भी कोई मुल्क है...ढेरों रुपये खर्च करके भी काम नहीं मिलता। जिस मुल्क के इंजीनियर भी बेकार घूमते हों, उस मुल्क ने कहाँ बचना था...भट्ठा ही बैठ गया इस मुल्क का।’’
वे तीनों लड़के भी जब इकट्ठा बैठते, अपने देश का निंदा-पाठ करने लगते।
‘‘हिन्दुस्तान भी कोई देश है। सब साली भेड़ें इकट्ठी हुई पड़ी हैं। उल्टे उस्तरे से मूढ़े जाओ, उफ्फ तक नहीं करते। मर गये लोग तो अन्दर ही अन्दर...।’’ उनमें से एक कहता।
‘‘हमारे देश की सड़कों का तो हाल ही बुरा है। भगवान भरोसे ही चले जाता है ट्रैफिक... कोई हाल है वहाँ गाड़ी चलाने का? छह महीने में अच्छी से अच्छी गाड़ी बोल जाती है...खटारा बन जाती है।’’ दूसरा कहता।
‘‘रिश्वत में तो अब अपना देश अव्वल आता है सारे देशों में। भ्रष्टाचार ने तो चूलें हिला दीं देश की।’’ तीसरा भी कह देता।
‘‘कीचड़, मच्छर-मक्खियां, काकरोच...बीमारियां, गन्दगी।’’ तीनों लड़के अपने-अपने नाक रूमाल से ढक लेते।
कभी-कभी वीक-ऐंड पर वे रात को अच्छी व्हिस्की पीते। स्वादिष्ट चिकन पेट में ठूँस कर टेली पर अमरीकन ‘जाज’ देखते। अमरीकन गीत गाते। धीरे-धीरे शराबी होकर वे रोने लग पड़ते। फिर, अचानक एक सुर में गाने लग पड़ते।
‘‘ये मेरा इंडिया...ओ मेरा इंडिया...इं...डिया।’’
थक हार कर सो जाते और लम्बे-लम्बे खर्राटे भरने लगते। कभी-कभी उनके संग काम करता अमरीकन इंजीनियर जॉन्सन भी उनकी इस ड्रिंक-पार्टी में आ शामिल होता।
शराब पीते हुए भारतीय लड़के फिर उसी रौ में बातें करने लग पड़ते।
‘‘हमारे तो नेता ही खा गये मुल्क को।’’
‘‘जब बाड़ ही खेत को खाने लग पड़े तो उस खेत का तो भगवान ही मालिक है।’’
‘‘अरबों-खरबों रुपया पड़ा हैं हमारे लीडरों के पास।’’
‘‘स्विस बैंकों में मुल्क का सारा पैसा पड़ा है।’’
‘‘हमारे नेता अमीर है पर देश गरीब है।’’
‘‘ये देश भी टूट जायेगा आखिर...टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा एक दिन।’’
‘‘लूट मची हुई है चारों ओर। मांएं बच्चे बेचने को विवश हैं, बाप बेटियां से पेशा करवा रहे हैं। कोई हाल नहीं रहा अब इस देश का।’’
‘‘सारे काम छोड़ कर बस आबादी बढ़ाने पर ही लगा हुआ है।’’
‘‘चलो किसी काम में तो फ़र्स्ट आया। आबादी बढ़ाने में ही सही।’’
‘‘हमारा कौमी नारा– बच्चे जन्मों, देश बचाओ।’’
और वे आखिरी पैग एक-दूजे से टकरा कर कहते, ‘‘जै हिन्द...जै हिन्द...।’’
पर जॉन्सन के विचार उनसे भिन्न होते। वह कहता–
‘‘इंडिया जैसा कोई देश नहीं है दुनिया में। अगर मुझे अपने रहने के लिए कोई स्थायी देश चुनना पड़े तो मैं इंडिया में रहने को तरजीह दूंगा। इंडिया की अपनी पहचान है। यह अलग किस्म का देश है...मेरी पसन्द इंडिया...।’’
रात को नाचते समय जॉन्सन अपना व्हिस्की वाला गिलास सिर से ऊपर उठा कर गाने लगता–
‘‘आई लव यूअर इंडिया...यूअर इंडिया...।’’
और कभी-कभी अधिक ही रौ में आ कर वह कह देता–
‘‘आई लव माई इंडिया...माई इंडिया...।’’ ‘माई इंडिया’ कहते समय वह ‘माई’ और ‘इंडिया’ दोनों शब्दों को चबा-चबा कर बोलता। उस वक्त लगता मानो आवाज़ उसके धुर अन्दर से निकल रही हो...किसी अदृश्य खोलते झरने की तरह या धरती के फटने पर निकले लावे की तरह।
कभी-कभी जब वह नशे में न होता उन लड़कों से बहस ही पड़ता।
‘‘हमें इंडिया ने क्या दिया? बेरोजगारी, जलालत और बदहवाशी...।’’ तीनों लड़के खीझ कर कहते।
उनकी खीझ पर जॉन्सन मुस्कराता। लाइटर से सिगरेट सुलगाता, लम्बा-सा कश लेकर धुआं हवा में छोड़ते हुए कहता–
‘‘तुम घृणा के शीशों से इंडिया की सही तस्वीर नहीं देख सकते। इंडिया को देखने-समझने के लिए तुम्हें इन बनावटी शीशों को उतारने की ज़रूरत है।’’
‘‘क्या तू हमारे कंट्री को हमसे अधिक जानता है? दूर के ढोल हमेशा सुहावने लगा करते हैं। तेरे संग भी ऐसा ही हो रहा है।’’ लड़के अपनी खीझ जारी रखते।
जॉन्सन फिर मुस्कराता, धुएं के छल्ले बनाता और कहता, ‘‘शायद...! मैं शायद तुमसे अधिक जानता हूँ... कई बार नजदीक से पहाड़ अच्छे नहीं लगते, दूर से वे बहुत आकर्षित करते हैं। मेरे लिए इंडिया दूर से सुन्दर लगने वाले पहाड़ या कुदरती दृश्य-सा ही है।’’
‘‘इंडिया में भूख, नंग और बदहाली के बगैर है ही क्या? मर रहा है इंडिया दिन-प्रतिदिन।’’ लड़के और अधिक भड़क कर कहते।
जॉन्सन फिर मुस्कराता और धीरे से कहता,‘‘ पर उस कंट्री की आत्मा अभी भी जीवित है।’’
इस पर लड़के अब लड़ने को उतारू हो जाते। भड़कते स्वर में कहते, ‘‘ अमरीका में अच्छी रोटी तो खाने को मिलती है, आदमी को और क्या चाहिए।’’
वह फिर क़ातिलाना मुस्कराहट फेंकता हुआ कहता, ‘‘हां, रोटी अच्छी मिलती है यहाँ, पर इसकी आत्मा मर रही है।’’
‘‘वह कैसे?’’ लड़के पूछते।
‘‘हमने पदार्थ को जी भर कर भोग लिया है। शरीर को जबरदस्ती तृप्त किया है। शरीर की कोई ज़रूरत शेष नहीं रही। सैक्स का जलील से जलील रूप हमने भोग कर देख लिया, पर इससे आगे?... क्या है इस भोग से आगे? सिर्फ़ खालीपन... बोरियत...थकावट...। शरीर से परे भी आदमी को कुछ चाहिए होता है। हमारे यहाँ के पूरी तरह तृप्त लड़के इंडिया क्या लेने जाते है भला?’’
अब जॉन्सन भी गम्भीर हो जाता था।
फिर जॉन्सन स्वयं ही बताने लग पड़ता–
‘‘मैं हर बरस इंडिया जाता हूँ। जब भी छुट्टियां पड़ती हैं मैं इंडिया चले जाता हूँ। खूब घूमता हूँ...गाड़ी में, बस में, पैदल...सारे पैसे खत्म हो जाने पर ही वापस लौटता हूँ। वापस आकर फिर दुबारा जाने की प्रतीक्षा करता हूँ। मुझे अजीब सुकून मिलता है वहाँ जाकर।’’
जॉन्सन की बातों का लड़कों के पास कोई उत्तर नहीं होता था। कई बार तो वे स्वयं को बहुत ही पराजित-सा महसूस करते, पर पलट कर कुछ न कहते। वे वीक-ऐंड वाली पार्टी को खराब नहीं होने देना चाहते थे।

इस बार दोनों पंजाबी लड़के विवाह करवाने के लिए भारत आ रहे थे। महीने की छुट्टी पर थे। अमरीका छोड़ने से पहले एक शाम वे फिर इकट्ठा हुए। जॉन्सन भी उस शाम उनके संग था। पंजाबी लड़कों का चाव छलक-छलक पड़ रहा था।
‘‘इंडिया जा रहे हो? इतने बुरे, गंदे और जलील कंट्री में?’’ जॉन्सन ने आते ही व्यंग्य कसा। दोनों लड़कों के चेहरे एकदम रंगे हाथों पकड़े गये चोर से हो गये।
‘‘विवाह करवाने जा रहे हैं, मि. जानसन।’’ उन्होंने अपनी कोफ्त को छिपाते हुए कहा।
‘‘विवाह ! इतने रिश्वतखोर और भ्रष्ट कंट्री में?’’ जॉन्सन आज अपनी आई पर आया हुआ था।
लड़के बिलकुल ही फीके पड़ते जा रहे थे।
‘‘विवाह तो अपने देश में ही करवाना चाहिए न, यार!’’ दोनों ने एक सांस में कह दिया था।
‘‘यहाँ इस कंट्री में क्यों नहीं करवाते विवाह तुम? यहीं रहना है तो यहीं की लड़कियों से विवाह करवाओ। क्यों नहीं करवाते विवाह यहाँ?’’
जॉन्सन गम्भीर हो गया था।
‘‘यहाँ की लड़कियां... ही...ही...।’’ दोनों लड़के ताली बजा कर हँस पड़े।
‘‘रोजगार यहाँ का, धन यहाँ का, सुख-सुविधायें यहाँ की और लड़कियां अपने कंट्री की... वाह भाई वाह, क्या कहने तुम्हारे इंडियन आइडियलिज्म के ।’’ ऐसे लगा जैसे जॉन्सन के मुँह में कड़वा धतूरा आ गया हो।
‘‘विवाह के लिए यहाँ की लड़कियां हमें सूट नहीं करतीं। ये टिक कर नहीं रहतीं...।’’ लड़के भी अब गम्भीर हो गये थे ।
‘‘यानि एक ही खूँटे से बंधी नहीं रहतीं। इंडियन औरतों की तरह वे एक ही कोल्हू, एक ही जुए में जुतना पसन्द नहीं करतीं।’’ जॉन्सन अब गुस्से में बोल रहा था।
लड़के रंग में किसी प्रकार का भंग नहीं पड़ने देना चाहते थे। वे अपने देश जाने के ज़श्न को खराब नहीं करना चाहते थे। शराब के गिलास सभी के हाथों में पकड़े के पकड़े ही रह गये थे। घूंट जैसे गले से नीचे ही न उतर रहे हों। अब तो शायद यह भी सोचने लग पड़े थे कि जॉन्सन जैसे उजड्ड आदमी को आज की पार्टी में बुलाने की ज़रूरत ही क्या थी। क्या कमी थी उसके बगैर यहाँ? कम्पनी में वह उनका सीनियर था। उनके कामकाज की सारी रिपोर्ट वही किया करता था। उनका भविष्य उसकी रिपोर्ट पर ही निर्भर करता था। इसीलिए वे उसकी गरम-ठण्डी बातें भी झेल जाते थे। उससे लड़ कर उसे अधिक नाराज करने का साहस भी वे नहीं रखते थे। बात को हल्के स्तर पर लाने के लिए लड़के ऊपरी हँसी हँसते हुए कहने लगे, ‘‘जानसन यार, तू भी शायद इंडिया में लड़की तलाशने ही जाता होगा। यहाँ की लड़कियां तेरे भी फिट नहीं आयीं।’’
सारी ढाणी तालियां बजा कर हँसने लग पड़ी थी। इस बात पर जॉन्सन भी हँसने लग पड़ा था। तनाव घटने पर वह हल्का हो गया था। लेकिन लड़कों की बात पकड़ते हुए वह तुरन्त बोल उठा–
‘‘नो नो... नो इंडियन गर्ल।’’
‘‘नो इंडियन गर्ल? फिर तू इंडिया करने क्या जाता है हर साल? कौन-सा कोहिनूर का हीरा ढूँढ़ने जाता है वहाँ?’’ लड़कों से पूछे बिना न रहा गया।
जॉन्सन छुट्ट्ड़ था। उसके तीन विवाह असफल हो चुके थे। एक से तो दो बच्चे भी थे। मगर वह बच्चो सहित दूसरे आदमी के पास चली गई थी। वहाँ से छोड़ कर वह किसी अन्य के पास चली गई थी। बच्चों का क्या हुआ? उसे कुछ पता नहीं। अब वह इस चक्कर से दूर अकेला ही रह रहा था।
लड़कों की बात पर जॉन्सन फिर गम्भीर हो उठा था। पैग का बड़ा-सा घूंट भर कर सिगरेट का लम्बा कश खींचा। आँखें मूंद कर कहने लगा–
‘‘मैं इंडिया क्यों जाता हूँ हर साल, यही पूछना चाहते हो न तुम? सुनो फिर... मैं इंडिया क्यों जाता हूँ? क्या है वहाँ? पिछले साल से तो मेरा यकीन और भी पक्का हो गया है कि इंडिया जैसा कोई दूसरा कंट्री नही है। ’’
यहाँ आकर जॉन्सन कुछ देर रुका। लड़कों ने हैरान होकर पूछा, ‘‘पिछले साल ऐसा क्या हो गया था?’’
जॉन्सन ने एक लम्बा कश लेकर आँखें मूंद लीं और कहना शुरू कर दिया–
‘‘पिछले साल मैं गया में था। वहीं, जहाँ महात्मा बुद्ध को ज्ञान हुआ था। महात्मा बुद्ध को जानते हो न?’’
लड़कों से उसका यूं प्रश्न करना सीधे-सीधे व्यंग्य से भरा एक तीखा कटाक्ष था।
‘‘वही राजा का बेटा जिसने उपदेश दिया था कि मनुष्य के दु:खों का कारण उसकी इच्छाएं हैं। इच्छाएं खत्म करने से ही दु:ख खत्म हो सकते हैं। यह उपदेश किसी राजा का बेटा ही दे सकता है, कोई भूख से मरता गरीब नहीं। अमीर आदमी के उपदेश और गरीब की रोटी में बहुत फर्क होता है। भूखा मरता आदमी इच्छाएं कम करने के उपदेश को क्या समझ सकता है?’’
यहाँ पहुँचकर उसने सिगरेट का एक और लम्बा कश भरा। आँखें मूंद कर फिर कहने लगा–
‘‘हां, तो मैं गया की यात्रा पर था। गाड़ी से उतर कर मैं स्टेशन के बाहर एक ढाबे पर चाय पी रहा था। ढाबे के साथ ही खाली पड़ी जगह में चार जने बैठे थे। मर्द-औरत और दो बच्चे। लगता था जैसे भिखारी हों। फटेहाल, चीथड़े पहने हुए। बच्चों की आँखें गीद से भरी हुई थीं। औरत ने चार ईंटें जोड़ कर चूल्हा बनाया। मर्द इधर-उधर से कागज, कपड़े की कतरनें और छिलके आदि उठा लाया। चूल्हा जला कर उस औरत ने टेढी-मेढी पुरानी खस्ताहाल-सी निकल की पतीली में चावल उबाले। थोड़ा-सा नमक ढाबे वाले से मांगा। सबको पत्तों पर थोड़े-थोड़े चावल डाल कर खाने के लिए दिये। स्वयं उनके खा लेने तक प्रतीक्षा करती रही। आखिर में बचे हुए थोड़े से चावल उसने खुद खाये। बच्चे चावल खाने के बाद पता नहीं किधर दौड़ गये। मर्द बीड़ी सुलगा कर उस औरत के पास बैठ उसे देखता रहा। शायद वह बर्तन साफ करने लग पड़ी थी। उसने पता नहीं उस औरत से क्या कहा कि दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। मर्द की आँखों में शरारत और औरत की आँखों में शर्म झलक रही थी।’’
इतना कह कर जॉन्सन एकदम चुप हो गया। पंजाबी लड़के उसके मुख की ओर देख रहे थे। वह फिर यूं बोला जैसे वह गहरे कुएं के अन्दर से बोल रहा हो–
‘‘अमरीका के पास सब कुछ है...सब कुछ। पर फैमिली नहीं है। इंडिया के पास कुछ भी नहीं है...तुम्हारे मुताबिक गन्दा और बैकवर्ड कंट्री है, पर अभी भी उसके पास फैमिली है।’’ कहते हुए वह उठा और मेज पर पड़ी बोतल में से बड़ा पैग भर कर नाचने लगा। शराब का बड़ा घूँट भर कर वह गाने लग पड़ा–
‘‘आई लव यूअर इंडिया...आई लव माई इंडिया...मा...ई... इंडिया...।’’
अब लड़के भी उसके साथ-साथ ताल मिला कर भंगड़ा डाल रहे थे–
‘‘ये मेरा इंडिया...आई लव माई इंडिया...वी लव अवर इंडिया...।’’
मूल लेखक का पता :
गली नं0 9, कृष्णा नगर,
मोगा–142 001(पंजाब)


नई किताब
शशि
छांग्या रुक्ख : दलित संताप का यथार्थ

पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा ‘छांग्या-रुक्ख’ के पंजाबी भाषा में पाँच संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी कथाकार-कवि सुभाष नीरव द्वारा किया गया इसका हिंदी अनुवाद अभी हाल में इसी नाम से ‘वाणी प्रकाशन, दिल्ली’ से प्रकाशित हुआ है और इन दिनों चर्चा में है। इस आत्मकथा का अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी अनुवाद हो रहा है। यही नहीं, ‘छांग्या रुक्ख’ का साहित्यिक-सामाजिक मुल्यांकन करते हिंदी-पंजाबी के 37 आलेखों पर आधारित पंजाबी के प्रख्यात कवि-आलोचक डा. सुतिंदर सिंह ‘नूर’ के संपादन में एक पुस्तक पंजाबी में हाल ही में प्रकाशित हुई है, जिससे इस पुस्तक का महत्व रेखांकित होता है। यह आत्मकथा इंटरनेट पर हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका “साहित्य कुंज” में इन दिनों धारावाहिक प्रकाशित हो रही है।
आत्मकथा लिखना जैसे अपने ही हाथों चाकू से अपनी त्वचा को छीलना ! लेकिन, अक्सर (आत्मकथा) लेखक इस तरह का साहस नहीं जुटा पाते और उनकी आत्मकथा में जो सच्चाई की आंच और ईमानदारी होनी चाहिए, वह नहीं आ पाती। अपने और अपने से सम्बद्ध लोगों के जीवन के अंतरंग अनुभवों को शब्दों में अनावृत्त करना वैसे भी बेहद दुष्कर और पीड़ादायक कार्य होता है।
पंजाबी में यों तो दलित आत्मकथा की शुरूआत प्रेम गोरखी से हुई मानी जाती है लेकिन पंजाबी के कवि-पत्रकार बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा ‘छांग्या रुक्ख’ कथ्य की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता के साथ-साथ अपनी अनोखी प्रस्तुति के कारण पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा होने का श्रेय अर्जित कर चुकी है। इधर की दलित आत्मकथाओं में जुगुप्सा और अश्लीलता से भरा जो भूहड़पन दिखाई देता है, वह कम से कम ‘छांग्या रुक्ख’ में तो नहीं ही है। बीस उप-शीषर्कों में बंटी यह आत्मकथा ‘गुरुओं’ की धरती पंजाब में व्याप्त जातिगत भेदभाव और दलितों के शोषण और उनकी दयनीय स्थिति की तस्वीर को विचार, तर्क और गहरी सम्वेदना के साथ हमारे समक्ष रखती है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि लेखक दलितों के प्रति बरसों से चले आ रहे उत्पीड़न और अमानवीय अत्याचार को जानते-समझते हुए भी कहीं अपना संतुलन नहीं खोता। अपने गांव माधोपुर की बहाने बरसों से चले आ रहे गैर-बराबरी के दंश को जिस सूझ-बूझ और कुशलता से वह पाठकों के सम्मुख रखता है, और अपनी चिंताओं से हमें अवगत करवाता है, वह गौर किए जाने योग्य है। लेखक अपने बचपन से जुड़ी स्मृतियों, कटु सच्चाइयों, ऊँच-नीच, छुआछूत से गांव-शहर की ग्रस्त मानसिकता और उसको झेलने की वेदना का वर्णन पाठकों की सहानुभूति ‘अर्जन’ करने के लिए नहीं करता प्रतीत होता, वरन वह ऐसी स्थितियों-परिस्थितियों के पीछे के कारणों की गंभीर पड़ताल करते हुए अपने सुगठित विचार और तर्क के माध्यम से समाज में व्याप्त इस गैर-बराबरी की व्यवस्था को दूर करने की एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का समर्थन भी करता है। वह अपने इस विश्वास को भी खंडित नहीं होने देता है कि यह खेल अब और अधिक नहीं चलने वाला है।
बलबीर माधोपुरी यों तो मूलत: कवि हैं परन्तु यह आत्मकथा गद्य में उनकी रचनात्मक व सृजनात्मक क्षमता और प्रतिभा का अवलोकन भी कराती है।
प्रकाशक :
वाणी प्रकाशन
21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली–110002
मूल्य : 300 रुपये।


गतिविधियाँ

16वॉ अन्तर्राज्यीय लघुकथा लेखक सम्मेलन इंदौर में संपन्न
पंजाबी पत्रिका “मिन्नी” त्रैमासिक एवं “लघुकथा मंच” इंदौर के संयुक्त तत्वावधान में गुरुद्वारा इमली साहिब, इंदौर में दिनांक 26.10.07 को एक लघुकथा लेखक सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस आयोजन में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान से आये लेखकों के साथ-साथ मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के लेखक भी सम्मिलित हुए।

उद्घाटन सत्र के अध्यक्षीय मंडल में भगीरथ, सुकेश साहनी एवं सुरेन्दर कैले सम्मिलित रहे। सर्वप्रथम डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति ने लघुकथा लेखक सम्मेलन के उद्देश्य एवं मिन्नी त्रैमासिक पत्रिका की उपलब्धियों का संक्षिप्त परिचय देते हुए आयोजित कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल ने लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर आधारित आलेख पाठ किया जिसपर विस्तृत चर्चा हुई। चर्चा में अशोक भाटिया, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, सुरेन्द्र कैले और सुभाष नीरव ने भाग लिया। डॉ. अशोक भाटिया ने डॉ. बच्चन के वक्तव्य को कोट करते हुए कहा कि लघुकथा का अपना महत्त्व है, सूरज को तिनका बनने के लिए कहा जाए तो बड़ी मुसीबत होगी। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमाशु’ ने कहा कि सरल होना कठिन काम है। बलराम अग्रवाल ने योगेन्द्र नाथ शुक्ल के आलेख पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इसमें उठाए गए विभिन्न बिन्दुओं पर विस्तृत बहस की आवश्यकता है। सुभाष नीरव ने कहा कि लघुकथा पर छाए धुंधलके खत्म हुए हैं । उन्होंने इंटरनेट पर लघुकथा की उपस्थिति के महत्त्व को रेखांकित किया। सुकेश साहनी ने योगेन्द्र नाथ शुक्ल के आलेख में प्रयुक्त कट चाय पर भ्रम पैदा होने की बात कही। उन्होंने स्याही एवं ब्लाटिंग पेपर का उदाहरण देते हुए लेखक द्वारा समाज से संवेदना ग्रहण कर घटनाओं के पुनसृ‍र्जन की बात कही। ऐसी रचनाओं में जीवन की धड़कन महसूस की जा सकती है। सुरेन्द्रर कैले ने आलेख में उठाई गई इस बात का खंडन किया कि समय की कमी के कारण पाठक लघुकथा की ओर आकृष्ट हुए है। अध्यक्षीय भाषण में भगीरथ ने कहा कि पर्चे में पढ़े गए मुद्दे कई बार आ चुके हैं। हम कब तक कदमताल करते रहेगें ।हमें और आगे बढ़ना होगा।

इस अवसर पर मिन्नी त्रैमासिक के 76वें अंक जो ‘धर्म और सियासत’ पर केन्द्रित था, का विमोचन किया गया। साथ ही, सतीश राठी द्वारा सम्पादित ‘क्षितिज’ पत्रिका एवं हरनाम शर्मा के लघुकथा संग्रह ‘इसी देश में’ का भी इस अवसर पर लोकार्पण हुआ।

सत्र का मुख्य आकर्षण रहा डॉ.सतीश दुबे का सम्मान। श्री दुबे लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर हैं। उनको इस अवसर पर ‘माता शरबती देवी लघुकथा सम्मान’ प्रदान किया गया। यह सम्मान लघु
कथा के विभिन्न पक्षों पर उल्लेखनीय कार्य करने वाले रचनाकार को दिया जाता है। यह सम्मान इससे पूर्व रमेश बतरा एवं सुकेश साहनी को प्रदान किया जा चुका हैं। इस पुरस्कार की एक विशेषता यह भी है कि इसमें कथाकार की पत्नी को भी सम्मानित किया जाता है। इस अवसर पर श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा पुरस्कार की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला गया। प्रताप सिंह सोढ़ी ने श्री सतीश दुबे के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत प्रकाश डाला।

डॉ. सतीश दुबे ने पुरस्कार ग्रहण करने के बाद अपने उद्बोधन में कहा कि आवश्यक नहीं है कि रचनाकार भारी भरकम विषयों पर ही कलम चलाए। हमारी जिंदगी के आस–पास बिखरे पात्रो पर भी लिखा जाना चाहिए। विषयों की कमी नहीं है। उन्होंने मिन्नी त्रैमासिक अमृतसर के संपादकों का आभार व्यक्त किया। इस सत्र का संचालन डॉ. सूर्यकांत नागर द्वारा किया गया। सतीश राठी, सु्रेश शर्मा, जगदीश जोशीला, धनश्याम अग्रवाल, हरभजन सिंह खेमकरणी, हरनाम शर्मा, प्रताप सिंह सोढ़ी, हरप्रीत राणा, नियति सप्रे, अमृत मंनण, चेतना भारती, एन उन्नी, लक्ष्मी नारायण, चैतन्य त्रिवेदी, कृष्णकांत दुबे, अशोक शर्मा आदि अन्य कथाकार भी उपस्थित थे।


द्वितीय सत्र में ‘जुगनुओं के अंग-संग’ में सभी प्रमुख कथाकारों ने देर रात तक जागकर अपनी-अपनी एक लघुकथा का पाठ किया, जिसपर विस्तृत विचार विमर्श हुआ। इस कार्यक्रम में एक कथाकार द्वारा पढ़ी गई रचना पर सभी उपस्थित कथाकार, आलोचक, श्रोता अपने विचार प्रकट करते हैं। कथाकारों के लिए इस कार्यक्रम ने एक कार्यशाला का रूप ले लिया है। यह कार्यक्रम पिछले सोलह वर्षों से नियमित रूप से चलाया जा रहा है। कथाकार इसमे उत्साह से भाग लेते है। इस सत्र में धनश्याम अग्रवाल ( अपने–अपने सपने), सतीश राठी ( साहस), हरप्रीत राणा ( संस्कार), सदाशिव कौतुक (पलायन), रघुवीर सिंह महिमी आस की मौत, योगेन्द्र नाथ शुक्ल : भ्रम–भग्न, सुरेन्दर कैले : मां, हरनाम शर्मा : काश (पत्थरों के होंठ होते), रणजीत आजाद ( तजु‍र्बा), अमृत मंनण (चिंता), रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (परख), हरभजन सिंह खेमकरणी (बहाना), सुभाष नीरव (भला मानुस), सूर्यकांत नागर (राजा की बारात), अशोक भाटिया (कपों की कहानी), बलराम अग्रवाल (एल्बो), श्यामसुन्दर अग्रवाल (उत्सव), सुकेश साहनी (दाहिना हाथ) द्वारा लघुकथाएं पढ़ी गईं।

सभी उपस्थित कथाकारों ने विमर्श में उत्साह से भाग लिया। पढ़ी गई रचनाओं में धनश्याम अग्रवाल, रघुवीर सिंह महिमी, हनुमान शर्मा, रणजीत आजाद, अमृत मंनण, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ सूर्यकांत नागर, अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, श्याम सुन्दर अग्रवाल, सुकेश साहनी की लघुकथाओं को सराहा गया। अंत में श्री सुरेश शर्मा द्वारा सभी उपस्थित कथाकारों के प्रति आभार व्यक्त किया गया।
प्रस्तुति : सुकेश साहनी

लेखकों/रचनाकारों से अनुरोध
“साहित्य-सृजन”
में आपकी रचनाओं का स्वागत है। कविता, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, पुस्तक-समीक्षा, उपन्यास अंश विचारार्थ भेज सकते हैं। छोटी सारगर्भित और स्तरीय रचनाओं का स्वागत है। रचनायें ‘कृतिदेव फोन्ट’ में अथवा ‘यूनिकोड’ में subhneerav@gmail.com पर ई-मेल करें। रचना के साथ अपना पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल पता (यदि हो तो) तो अवश्य भेजें।
“मेरी बात” के अंतर्गत आप भी किसी खास विषय पर अपनी टिप्पणी या आलेख ( जो एक पृष्ठ से अधिक न हो) भेज सकते हैं।
“साहित्य सृजन” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है, अत: इसमें प्रकाशित होने वाले रचनाकारों को कोई मानदेय देने की व्यवस्था फिलहाल नहीं है।

आगामी अंक
दिसम्बर, 2007

–मेरी बात
–अलका सिन्हा की कहानी
–बलराम अग्रवाल की लघुकथाएं
–सुरेश यादव की कविता
“भाषांतर” में पंजाबी कथाकार अनेमन सिंह की कहानी
“नई किताब” के अंतर्गत सुभाष नीरव के नये कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” पर रूपसिंह चन्देल की समीक्षा
“गतिविधियाँ” के अंतर्गत माह नवम्बर 2007 में सम्पन्न हुई साहित्यिक/सांस्कृतिक गोष्ठियों की रपट।

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