शनिवार, 29 मार्च 2008

साहित्य सृजन – मार्च 2008


मेरी बात

सुभाष नीरव


एक ज़माना था जब 'स्वांत: सुखाय' लेखक हुआ करते थे। आज की तरह तब छपने-छपाने की इतनी सुविधाएं भी नहीं हुआ करती थीं। तब ये 'स्वांत: सुखाय' लेखक एकांत में बैठकर अपने लिखे का खुद ही रस लिया करते थे। परन्तु समय बदला, प्रकाशन की सुविधाएं तेजी से बढ़ीं, अख़बार, पत्र-पत्रिकाएं और किताबों का प्रमुखता से प्रकाशन होने लगा तो स्वांत:सुखाय लेखकों-कवियों की तेजी से कमी आई और आज तो शायद ही कोई बिरला लेखक या कवि होगा जो अपने लिखे को अपने तक ही सीमित रखना चाहता हो, उसके भीतर अपने लिखे को दूसरों को सुनाने-पढ़ाने की लालसा न होती हो। आज हर लेखक-कवि प्रशंसा और यश का भूखा होता है। (अब तो धन का भी)। वह चाहता है कि वह जो कुछ भी लिखे- अच्छा या बुरा- अधिक से अधिक लोग उसे पढ़ें। पढ़ें ही नहीं, उसकी प्रशंसा भी करें। कुछ अधिक छपने-छपाने वाले लेखक- कवि जब थोड़ा स्थापित हो जाते हैं तो उनकी इस भूख में थोड़ा और इज़ाफा हो जाता है। वे अन्य भाषाओं में अनूदित होकर अपने पाठकों की संख्या में श्रीवृद्धि करने को उत्सुक रहते हैं। इसमें दो राय नहीं कि किसी उत्कृष्ट कृति अथवा रचना का अन्य भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए। इससे लेखक का दायरा तो विस्तृत होता ही है, दूसरी भाषाएं भी समृद्ध होती हैं और उन भाषाओं के पाठकों को भी यह जानने-समझने का अवसर मिलता है कि अमुक भाषा में क्या-कुछ उत्कृष्ट लिखा गया है या लिखा जा रहा है। लेकिन, यदि कोई लेखक अपनी कमज़ोर कृति या रचना का अनुवाद करवा कर उसे दूसरी भाषाओं में प्रकाशित करवाता है तो उसकी स्वंय की छवि तो उस भाषा के पाठकों में खराब होती ही है, उसकी अपनी भाषा के समस्त साहित्य पर भी दूसरी भाषा के पाठकों में एक गलत संदेश जाता है।
आज का लेखक यह तो चाहता है कि उसकी रचनाएं उसके मित्र लेखक ही नहीं, सभी पढ़ें और उस पर बात करें, लेकिन वह स्वयं कितने मित्र लेखकों अथवा अन्य लेखकों को पढ़ता है और उस पर स्वयं कितना आगे बढ़कर बात करता है, अगर पूछा जाए या पता लगाया जाए, तो परिणाम चौकाने वाले ही सामने आएंगे। लेखक दूसरों से तो यह अपेक्षा रखता है कि वे उसकी रचनाएं पढ़ें और उस पर उससे बात करें, लेकिन यही अपेक्षा दूसरे भी उससे रखते होंगे, यह बात वह भूल जाता है। यहाँ मैं अपने संग घटित एक वाकया प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरे एक मित्र लेखक ने एक दिन मुझे फोन किया और इधर-उधर की हल्की-फुल्की बातों के बाद अपनी लाइन पर आ गए। ऐसा वह अक्सर किया करते हैं। बोले- ‘वर्तमान-साहित्य देखा?’ मैंने बताया- ‘हाँ। कल ही पढ़कर उठा हूँ।’ उन्होंने प्रश्न किया- ‘मेरी कहानी पढ़ी? कैसी लगी?’ और फिर वे अपनी कहानी पर मेरी राय गदगद होकर सुनते रहे और बताते रहे कि उनकी इस कहानी को लेकर अब तक किन-किन के फोन आ चुके हैं। काफी लंबी बातचीत के बाद जब वह फोन रखने की बात कहने लगे तो मैंने कहा- ‘भाई साहब, आपने मेरी कहानी पढ़ी। उसी अंक में आख़िर में छपी है।' वह बोले- ‘अच्छा ! पर मेरे पास पत्रिका का जो अंक आया है, उसमें तो तुम्हारी कहानी नहीं है। एक मिनट ठहरो, पत्रिका मेरे सामने है, देखता हूँ।’ कुछ क्षण बाद उन्होंने बताया- ‘यार, पत्रिका में आख़िर के कई पृष्ठ गायब हैं। ऐसा करो, तुम अपनी कहानी के वे पेज मुझे फोटो कापी करवा कर देना।’ संयोग देखिये कि उसी शाम मुझे उनके घर की तरफ ही जाना पड़ा। मैं कहानी की फोटो कापी संग ले गया। वह घर पर नहीं थे, मंदिर गए थे। मैं उनके लौटने की प्रतीक्षा में बैठकर मेज पर पड़ीं अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं के पन्नें उलटने-पलटने लगा। वर्तमान-साहित्य का अंक भी वहीं पड़ा था। मैंने जब उसे खोला तो मेरी हैरानगी का ठिकाना न रहा। पत्रिका में तो मेरी कहानी मौजूद थी।
बहुत से वरिष्ठ और अग्रज लेखक, नये लेखकों से यह साधिकार अपेक्षा रखते हैं कि वे उनकी हर कृति या रचना को पढ़ें, लेकिन वे स्वयं नये लेखकों कोई कृति या रचना को पढ़ना तो अलग, उनकी इक्का-दुक्का रचनाओं को पढ़ने की भी जहमत नहीं उठाते। सभा-गोष्ठियों में पुस्तक पर बोलने के लिए अथवा फ्लैप-मैटर लिखने के लिए भले ही वे युवा लेखक- कवि की पुस्तक को पढ़ लेते हों (अधिकांशत: तो देखने में यह आता है कि ऐसे अवसरों पर भी वे पूरी कृति न पढ़कर सरसरी तौर पर पढ़कर काम चला लेते हैं)। इसी संदर्भ में भी मुझे एक घटना और याद आ रही है। मेरे एक मित्र लेखक जिन्होंने अभी हाल ही में लिखना प्रारंभ किया था और जिनका पहला कहानी संग्रह उन्हीं दिनों छपा था, मेरे पास आए और मुझसे कहीं चलने का इसरार करने लगे। वह मुझे एक ऐसे लेखक के घर ले गए जिनका हिन्दी कथा साहित्य और आलोचना में काफी नाम है और वे अपनी एक पत्रिका भी निकालते हैं। दरअसल, मेरा मित्र उस वरिष्ठ लेखक को अपने कहानी संग्रह की एक प्रति भेंट करना चाहता था। वरिष्ठ लेखक महोदय ने बिठाया और अपना परिचय देने को कहा। हमारा परिचय पाकर वे बोले- ‘देखो भाई, अगर तुम अपनी कोई पुस्तक मेरी पत्रिका में समीक्षा के लिए देने आए हो तो तुम्हें निराश होना पड़ेगा। अगर कोई पुस्तक मुझे समीक्षा लायक प्रतीत होती है तो मैं प्रकाशक से स्वंय दो प्रतियाँ मंगवा लेता हूँ। तुम अपनी प्रतियाँ खराब न करो।’ इसपर मेरे लेखक मित्र ने विन्रम स्वर में कहा- ‘महोदय, मैं आपको समीक्षा के लिए प्रतियाँ देने नहीं, बल्कि अपने पहले कहानी संग्रह की एक प्रति आपको एक वरिष्ठ और अग्रज लेखक होने के नाते भेंट करने आया हूँ।’ वरिष्ठ लेखक महोदय ने तब हम दोनों को और भी हैरान कर दिया जब उन्होंने कहा कि मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ, तुम्हारी पुस्तक मैं पढ़ न पाऊँगा। जब हम उठकर चलने को हुए तो वे बोले- ‘तुमने मेरी किताबें पढ़ीं हैं? नये और युवा लेखकों को अग्रजों और वरिष्ठों को पढ़ना चाहिए।’ और यह कहकर अपनी कुछ किताबें देने लगे। इस पर मेरे मित्र ने कहा- ‘माफ कीजिएगा, अगर आप जैसे वरिष्ठ लेखकों के पास नये और युवा लेखकों को पढ़ने का समय नहीं है तो आप हमसे ऐसी अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि हम आपकी किताबें पढ़ेंगे।’ और हम उठकर बाहर आ गए थे।
इसमें दो राय नहीं कि निरंतर लेखन और अच्छे लेखन के लिए दूसरों के लिखे को भी पढ़ना बेहद ज़रूरी होता है। जो अपेक्षाएं हम अपने लेखन को लेकर दूसरों से पालते हैं, वैसी अपेक्षाएं हमसे रखना दूसरों का भी जायज़ हक है, यह हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए।


हिंदी कहानी
बहुत कुछ
महेश दर्पण
ताई मेरे लिए अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल की तरह थी। मैं उन्हें देखता तो मुझे पुराने दिन एक-एक कर याद आने लगते। मैं अपने किशोर दिनों में उतर जाता।
मुझे याद है अच्छी तरह से कि ताई जब शादी के बाद घर आई थीं तो कैसे भीतर आकर उन्होंने सबसे पहले मुझे ही अपनी गोद में बैठाया था। फिर कुछ बरस बाद मैं भले ही उनसे अलग हो गया होऊँ, लेकिन यह वह भी मानती थीं कि माँ बनने से पहले उनका सारा दुलार मुझ पर ही रहा था। वह मुझे अपना बेटा ही तो मानने लगी थीं। उनकी वजह से बहुत कम समय में मैं यह भूल गया था कि अपने माँ-बाबू को होश संभालने से पहले ही खो चुका हूँ।
किसे पता था कि बरसों बाद फिर हमें एक ही मुहल्ले में रहने का मौका मिलेगा। दर-दर की ठोकरें खाने के बाद मेरे मुहल्ले में आने तक ताई बहुत कुछ खो चुकी थीं।
वह ताऊ जी को किस कदर चाहती थीं, यह ताऊ जी के न रहने पर ही पता चला। बहन की शादी करने के बाद जब उनके बेटों ने उनसे कहा कि यह घर अब जर्जर हो चुका है, इसे बेच-बाच कर किसी ठीक-ठीक जगह कोई फ्लैट देख लेते हैं तो वह बिफर ही पड़ीं, तुम्हारे लिए हो गया होगा जर्जर। यह मेरे लिए जीने का सबसे बड़ा सहारा है, समझे। तुम लोगों को जहाँ जाना है, शौक से जाओ, मैं मरते दम तक यहीं रहूँगी। मुझे किसी के सहारे की जरूरत नहीं है।
शंकर ने एक रोज मुझे बताया था कि माँ घंटों अपना कमरा बंदर किए बैठी रहती हैं। कोई इस दौरान उन्हें छेड़ नहीं सकता। कई-कई बार तो खाने का वक्त निकल जाता है और हम लोग भूखे बैठे उनके बाहर आने का इंतजार करते रहते हैं।
“क्या करती हैं अकेले में दरवाजा बंदर करके वह ?” मेरी जिज्ञासा जाग उठी थी।
शंकर ने बताया, “अरे, बहुत दिनों तक तो हम खुद हैरान थे यही सोच-सोच कर। एक दिन राज खुद खुल ही गया। हुआ यह कि बंटी ने ‘दादी खोलो, दादी खोलो’ कहते हुए उनका दरवाजा जोरों से भड़भड़ा दिया। शायद सिटकनी ठीक से नहीं लगी थी, खटाक की आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। जब तक हम लोग बंटी को रोकते, वह जाकर दादी की गोद में बैठ गया– ‘दादी, ये इतनी सारी चिट्ठियाँ कहाँ से आ गईं तुम्हारे पास ?’ उसी बात का जवाब दिए बगैर हड़बड़ाहट में माँ फर्श पर बिखरी चिट्ठियाँ बटोर कर अपने थैले में रखने लगीं। इस वक्त दद्दा तुम उनकी फुर्ती देखते जरा। उन्होंने बंटी के हाथ से छीनते वक्त भी यह एहतियात रखा कि कहीं कोई चिट्ठी फट न जाए। यह तो हम समझ ही गए थे कि ये तमाम चिट्ठियाँ बाबू जी ने उन्हें समय-समय पर लिखी होंगी। अब समझ में आने लगा था कि आखिर क्यों उन्हें यह पसंद नहीं था कि बहुएं उनके कमरे की सफाई करें। अलमारी में हाथ लगाने का तो खै़र सवाल ही नहीं उठता... वह हम सबके लिए एक वर्जित प्रदेश की तरह है...।
शंकर जाने क्या-क्या बोलता रहा था उस रोज और मैं था कि ताई के साथ बीते दिनों में जा पहुँचा था। ताऊ जी हर वक्त अपने लिखने पढ़ने में ही लगे रहते थें और ताई जी मुझे पढ़ाने लिखाने में। चाय के वक्त चाय, नाश्ते के वक्त नाश्ता। बहुत हो गया तो रात को खाने के वक्त थोड़ी बातचीत ये हो गई कि आज दिनभर क्या किया तुम लोगों ने। कभी ताई मेरी शैतानियों की शिकायत करती, कभी कहती– ‘कभी कभार आप भी तो देख लिया कीजिए इसका काम-काज। आजकल पढ़ने में मन बिलकुल नहीं लगता इसका।’
ताऊ जी दो-एक रोज पढ़ाने की कोशिश जरूर करते, लेकिन मेरी मूढ़ताओं के चलते उनका टीचर बेहद कमजोर साबित होता। वह मुझे पहाड़ा याद न होने पर घंटे भर दरवाजे के पीछे खड़े होने का दंड देते। मैं सहर्ष खड़ा हो जाता। मुर्गा बना देते, मैं झट बन जाता। थोड़ी देर बाद वह फिर पहाड़ा सुनाने का कहते, मैं न सुना पाता। आखिरकार, ताई झुंझला कर कहतीं, ‘दिनभर से लड़के को भूखा मार रखा है, जान ही लोगे क्या उसकी। तुम्हारे बस का नहीं है बच्चों को पढ़ाना। मुझे टुन्नी को न देखना होता तो तुमसे कहती भी नहीं...।'
पास बैठककर शंकर मुझे माँ के बारे में समझाने-समझने आया था और मैं था कि उसे अब भी टुन्नी ही समझे बैठा था। मैंने शंकर को समझाते हुए कहा, “ये ऐसी चीजें होती हैं शंकर, जिन पर किसी का जोर नहीं चलता। मेरी मानों तो तुम ताई को एकदम उन पर छोड़ दो। जैसा चाहें, करने दो। कभी-कभी आदमी अपने वर्तमान से ऊब जाता है तो उसे बीता हुआ समय स्मृति बनकर उबार लेता है। ताई जब चाहें, तुम उन्हें वहाँ जाने से मत रोको। कुछेक दिन में सब ठीक हो जाएगा।"

शंकर के जाते ही पत्नी बाजार से लौट आई। मन न माना तो मैंने उससे ताई के पास चलने का आग्रह किया। वह थकी तो थी ही, रात का खाना भी बनाने की तैयारी में जुट जाना चाहती थी। लेकिन मेरे आग्रह के स्वर में उसे शायद मेरी बेचैनी भी नजर आ गई थी। बोली, “चलो, लेकिन एक घंटा से ज्यादा नहीं रुकेंगे। और हाँ, लौटते वक्त डोसा सेंटर से डोसे लेते आएंगे। आज घर के खाने की छुट्टी। ठीक है ?”
“हाँ-हाँ।" कहते हुए हम दोनों निकल पड़े।


ताई हमें देखकर खिल उठी थीं। देर तक बतियाती रहीं। कभी-कभी तो मुझे लगता जैसे वह मुझमें ताऊ जी की छवि देख रही हैं। बस, बात-बात पर कहतीं, “बिलकुल अपने ताऊ जी पर गया है रे तू।"
बातें करते-करते उन्हें लगा कि वही बोले जा रही हैं, तो बोलीं– “तू भी कुछ बोलेगा या अपने ताऊ जी की तरह चुप्प बना बैठा रहेगा।"
ताई की बातें सुन कर उनकी बहुएं मुँह छिपा कर हँसे जा रही थीं और मैं उन्हें गंभीरतापूर्वक सुनने का नाटक कर रहा था। नाटक इसलिए कि अगर आप मेरी जगह होते तो शायद यही करने पर मजबूर हो जाते। ताई के पास आए हमें बमुश्किल आधा घंटा ही हुआ होगा कि इस बीच उन्होंने छह-सात बार एक ही किस्सा सुना दिया। पहली बार सुनाया तो हम लोग खूब हँसे थे।
ताई की बात उन्हीं की जबान में सुन लीजिए– ‘हम लोग जब एनसीसी में थे तो एक बार हमारा टेस्ट लिया गया। कौन हवाई जहाज में जाने लायक है करके। जहाज जब ऊपर को उड़ा तब तो ठीक था, लेकिन जब उतरने लगा तो मेरी तो धड़कन ही तेज हो गई। मशीन में यह सब साफ दिखाई दे रहा था। टेस्ट लेने वालों को बस, फिर क्या था, मेरी छुट्टी हो गई। वरना मैं भी जहाज उड़ाती फिरती...।'
किस्सा खत्म करने के बाद ताई जाने कहाँ गुम हो गई थीं। बातें होती रहीं, ताई बैठी रहीं। ताई बोली नहीं, बातें होती रहीं। सबके पास अपने-अपने किस्से थे, लेकिन ताई जब भी बोलतीं, वहीं हवाई जहाज वाला किस्सा दुहरा देतीं। पहली बार तो मुझे लगा कि शायद भूल गई हैं, लेकिन जब यह सिलसिला ही चल निकला तो मुझे लगा, ऐसा होने की कोई खास वजह होनी चाहिए। क्या बुढ़ापे में सचमुच स्मृति दोष हो जाता होगा। क्यों होता होगा स्मृति दोष ? या फिर इंसान एक ही बात को दुहराते हुए कहीं अपने वह सब न कर पाने की हीनता-ग्रंथि से ही तो नहीं जूझता रहता जीवन भर।
इधर मैं सोचते हुए गहरे में उतरा ही था और उधर कुछेक बातों के बाद ताई जी फिर उसी किस्से के साथ हाजिर थीं। मैंने गौर किया कि ऐसा करते हुए उनमें वही विश्वास मौजूद था जो प्राय: पहली बार कहने वाले में नजर आता है। वह सुना रही थीं कि आज वह भी जहाज उड़ा रही होतीं... अगर टेस्ट में उन्हें फेल न कर दिया गया होता... और उधर मेरी और शंकर की पत्नी फिस्स से मुँह दबा कर हँसने लगीं। एकाध बार तो मैं उनकी यह हरकत न भांप पाया, लेकिन फिर साफ पकड़ में आ गया कि ये दोनों आज कुछ हटकर बैठी क्यों हुई हैं।
ताई यह बात कई मर्तबा बता चुकी हैं, यह उन्हें बताना मुझे ठीक न लगा। उल्टे मैंने उनसे फिर पूछ ही लिया, “तो ताई फिर कभी जहाज में बैठीं कि नहीं तुम?”
उनका चेहरा कायदे में बुझ जाना चाहिए था, लेकिन इसके ठीक उलट वह खिल पड़ा, “अरे, अब तुझे क्या बताऊँ, जब शादी हुई तो तेरे ताऊ जी ने सबसे पहले तो मेरी नौकरी छुड़वा दी। कहते थे– हमारे यहाँ औरत की कमाई नहीं खाई जाती। औरतें काम करती हैं तो घर का सत्यानाश हो जाता है। तू बतइयो जरा, तेरे घर में बहू रोज काम पै जाती है कि नहीं। क्या हुआ आज तक ? उलटे कमाने वाले एक से दो हो गए तुम। मैं तो कहती हूँ, जो मर्द औरत को हमेशा अपने नीचे रखना चाहते हैं, वही छुड़वाते हैं नौकरी उसकी। घर तो बनाने से बनता है, घर में बैठे रहने से नहीं। अब तू ही जान, ताऊ जी तो चले गए। बच्चों को पढ़ा-लिखा के अपने पैरों पर खड़े होने लायक किसने बनाया। ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा के। पढ़ी-लिखी ना होती तो कैसे होता संभव... बता तो जरा। पढ़ाई क्या घर में बैठ के हो जाती है... लेकिन तेरे ताऊ जी की बात मान कर, घर से बाहर मैं फिर भी नहीं निकली।"
ताई बोले जा रही थीं और हल्की हो रही थीं। मुझे लगा, उनकी सबसे बड़ी बीमारी तो दरअसल वह अबोला है जो घर में बना हुआ है। उनकी एक जैसी बातें सुन-सुनकर बेटा बाहर निकल जाता है और बहू उन पर कान नहीं देती। ताई कुछ करना चाहती हैं तो बहू फौरन रोक देती है– ‘माँ जी, आप नहीं कर पाएंगी, छोड़ दीजिए। मैं हूँ न।'
ताई से बस यही वाक्य बर्दाश्त नहीं होता। वह बिफर पड़ती हैं– ‘लो भैया, तुम्हारा काम काम ठहरा, मैं भला कैसे कर पाऊँगी अब...।'
हमारे सामने भी यही तो हुआ था। बहू चाय बनाकर ले आई तो ताई ‘बिस्कुट का डिब्बा ले आती हूँ’ कहकर उठने को हुई ही थीं कि बहू ने रोक दिया, “माँ जी, आप रहने दीजिए। मैं ले आती हूँ।"
बोलती-बोलती ताई इसके बाद एकदम खामोश हो गईं। बहू बिस्कुट ले आई थी, लेकिन उन्होंने बिस्कुट छुए तक नहीं।
मैंने माहौल को सहज करने की कोशिश में शंकर से कहा– “अरे भई, तुम लोग भी खाओगे या हम ही खाते रहेंगे।"
इस बीच बंटी ने वह चमत्कार किया जो कोई और शायद ही कर पाता। उसने एक बिस्कुट उठाया और पीछे से आकर जबरदस्ती अपनी दादी के मुँह में ठूंस दिया। ताई ‘ना-ना’ करती रहीं, लेकिन बंटी कहाँ मानने वाला था।
यह देखकर हम सब के सब एकसाथ हँस पड़े। आधा बिस्कुट उनके मुँह के भीतर और आधा बाहर देखकर बंटी को बड़ा मजा आ रहा था। वह ताली बजा-बजा कर नाचने लगा। बिस्कुट खा कर हमारे साथ-साथ ताई भी हँसने लगीं और बंटी से बोलीं, “ठहर बदमाश, तुझे तो मैं अभी बताती हूँ...।"
बैठे-बैठे पत्नी ने घड़ी दिखाते हुए इशारा किया कि अब चलने का वक्त हो गया है। हमने ताई के पैर छुए और विदा ली। गेट तक छोड़ने आया शंकर कहने लगा, “दद्दा आप आ जाया करो न। आपके आने से बड़ा अच्छा लगता है। आपके आने से माँ भी खुश हो जाती हैं...।"ताई पीछे खड़ी थीं चुपचाप, लेकिन उनकी पनीली आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। इस बहुत कुछ में ऐसी तमाम चीजें थीं जो मैं और वह बगैर बोले भी समझ रहे थे।


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तीन कविताएं- सुभाष नीरव

नदी


पर्वत शिखरों से उतर कर
घाटियों-मैदानों से गुजरती
पत्थरों-चट्टानों को चीरती
बहती है नदी ।

नदी जानती है
नदी होने का अर्थ ।

नदी होना
बेरोक निरंतर बहना
आगे...आगे... और आगे ।

कहीं मचलती,
कहीं उद्विग्न, उफनती
किनारे तोड़ती
कहीं शांत-गंभीर
लेकिन,
निरंतर प्रवहमान ।

सागर से मिलने तक
एक महायात्रा पर होती है नदी ।

नदी बहती है निरंतर
आगे... और आगे
सागर में विलीन होने तक
क्योंकि वह जानती है
वह बहेगी
तो रहेगी ।
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माँ-बेटी


बेटी के पांव में आने लगी है
माँ की चप्पल
बेटी जवान हो रही है।

माँ को आ जाता है अब
बेटी का सूट
बेटी सचमुच जवान हो गई है।

माँ -बेटी आपस में अब
कर लेती हैं अदला-बदली
अपनी-अपनी चीजों की।

जब मन होता है
बेटी, माँ के नए सैंडिल पहन
चली जाती है सहेली के बर्थ-डे पर
और माँ –
बेटी का नया सिला सूट पहन कर
हो आती है मायके।

कभी-कभी दोनों में
‘तू-तकरार’ भी होती है
चीजों को लेकर
जब एक ही समय दोनों को पड़ती है
एक-सी ही चीजों की ज़रूरत।

माँ को करती है तैयार बेटी
शादी-पार्टी के लिए ऐसे
जैसे कर रही हो खुद को तैयार।

हेयर-क्लिप हो या नेल-पालिश
लिपिस्टिक हो या कपड़ों के रंग
हेयर-स्टाइल हो या बिंदी का आकार
इन सब पर देती है बेटी खुल कर
माँ को अपनी राय
और बन जाती है ऐसे क्षणों में
माँ के लिए एक आइना।

माँ भी निकाल देती है बेटी के लिए
अपनी सबसे प्यारी संजो कर रखी साड़ी
और खुद अपने हाथों से सिखाती है
साड़ी को बांधना,
चुन्नटों को ठीक करना
और पल्लू को संवारना
जब जाना होता है बेटी को
कालेज के ऐनुअल-फंक्शन में।

अकेले में बैठ कर अब
जाने क्या गिट-पिट करती रहती हैं दोनों
दो हम-उम्र और अंतरंग सहेलियों की तरह
राम जाने !
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एक प्रेम कविता

तुमने
मेरी यादों की धरती पर
अपना घर बना रखा है
घर कि
जिसके द्वार
खुले रहते हैं सदैव।

जब जी चाहता है
तुम आ जाते हो इस घर में
जब जी चाहता है
चले जाते हो इससे बाहर।

तुम्हारे आने का
न कोई समय तय है
न जाने का।

तुम्हारे आते ही
जीवंत हो उठता है यह घर
तुम्हारे चले जाने से
पसर जाता है इसमें
मरघटों-सा सन्नाटा।

तुम्हें हाथ पकड़ कर
रोक लेने की
चाहत भी तो पूरी नहीं होती
क्योंकि
न जाने कहाँ छोड़ आते हो
तुम अपनी देह
इस घर में आने से पहले।
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दो लघुकथाएं/कमल चोपड़ा

बेटे की इज्ज़त

घर में पैर रखते रही सतपाल लगभग चीखने लगा, “बाबूजी, आप चाहते क्या हैं? क्यो आप मेरी मिट्टी पलीद करवाने पर तुले हुए हैं? आज मेरे दफ्तर में सिंह साहब आये थे... वो बता रहे थे कि तुम्हारे पिताजी मेरे पास दो-चार सौ रुपयों की नौकरी मांगने आये थे... आपको काम की क्या ज़रूरत आन पड़ी है? आप उस साले सिंह के पास काम की भीख मांगने गए ही क्यों? वो सिंह साहब का बच्चा मेरे दफ्तर में प्लान सेंक्सन करवाने आता है तो मैं उसे सीधे मुंह बात नहीं करता और वह हाथ जोड़कर बात करता है। पर आज वह अकड़कर बात कर रहा था। अकड़े क्यों ना? वह दो टके का आदमी आखिर मेरे बाप का मालिक है और मेरा बाप उसका नौकर... मैं पूछता हूँ, आप जान-बूझकर मेरी यह बेइज्ज़ती क्यों करवा रहे हैं? आपको किस बात की परेशानी है?”
सतपाल बाबूजी को सफाई देने का मौका ही नहीं दे रहा था। थोड़ी देर बाद उनकी बहू भी उनके बेटे की बगल में खड़ी होकर तुनकने लगी, “हुंह, बीड़ी-सिगरेट की पुरानी लत है... ऐ जी, आप किससे मत्था फोड़ रहे हैं... इन्हें ना तो अपनी इज्ज़त की चिन्ता है, ना हमारी... लोग क्या कहेंगे कि बेटा अफसर बना फिरता है और बाप इस उम्र में काम की भीख मांगता फिरता है। हमसे तो कहा होता, हम जैसे-तैसे भी आपकी बीड़ी-सिगरेट की अय्यासी का खर्चा भी बर्दाश्त कर ही लेते, लेकिन...”
बेटा और बहू अपने गुस्से पर काबू नहीं पा रहे थे। एकाएक बिना किसी कसूर के पिटे हुए बच्चे की तरह भर्राई आवाज़ में बोले, “बीड़ी-सिगरेट की लत तो मेरी कब की छूट गई है... मुझे पता होता कि सिंह साहब तुम्हें जानते हैं तो उनके पास काम के लिए बिलकुल भी न जाता... बेटा! मैंने तो तुम्हारी इज्ज़त और मान के लिए ही तो... वो पार्क में मेरे दूसरे साथी मुझे टोकते रहते हैं कि तू नया स्वेटर क्यों नहीं बनवाता?... चश्मा क्यों नहीं लगवाता?... सो बस... तुम से चश्मा और स्वेटर के लिए कह पाने की मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ती...मैंने सोचा क्यों ना खुद ही कुछ दिन काम करके खुद ही लेकर यह कह दूंगा कि बेटे ने लेकर दिए है। स्वेटर और चश्मे के बिना मैं तो रह भी लूँ लेकिन मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई यह कहता फिरे कि देखो, सतपाल कैसा कपूत है... मैं तो इस कोशिश में हूँ कि सब तेरी तारीफ करें... मैं तो सब को दिखाना चाहता हूँ कि मरा बेटा कितना नेक, लायक और आज्ञाकारी है...उसके लिए चाहे मुझे खुद मज़दूरी ही क्यों न करनी पड़े।"

इच्छा

वे समझते तो सब थे, पर बहू को कहें तो किस मुँह से? बहू क्या कहेगी– बूढ़े हो गए, पर दिल नहीं भरा, शरीर ढल गया पर जुबान अभी भी लाल है। चाहकर भी वे नहीं कह पा रहे थे कि आज मेरी तबीयत गाजर का हलवा खाने को मचल रही है... बना दो, थोड़ा-सा। अपने मन को मारने और समझाने की बहुत कोशिश की पर, गाजर के हलवे का ख़याल था कि मन से निकलता ही न था।
छोटी-छोटी इच्छाओं को लेकर ही तो आदमी कितने बड़े-बड़े अपराध कर बैठता है। जब तक इंसान ज़िंदा रहता है, इच्छाएं तो जन्मती ही रहती हैं। बातों-बातों में वह कई बार गाजर के हलवे की बात छेड़ चुके थे लेकिन...
आज उन्हें अपने असहाय और मोहताज हो जाने का अहसास और भी बेचैन किए दे रहा था– लानत है मेरे ऐसे ज़िंदा रहने पर जो एक मामूली-सी ख्वाहिश ना पूरी हो सके। आज अशोक की माँ ज़िंदा होती तो मेरे कुछ कहने से पहले ही वो बना लाती, पर अब किससे कहूँ? और कह भी दूँ तो क्या पता आगे से उल्टी-सीधी बातें सुननी पड़ जाएं।
परसों शाम जब वे सब्जी लेने जा रहे थे तो उन्होंने बहू से पूछा था, “बहू, कहो तो गाजरें लेता आऊँ... मुन्ने के लिए गाजर का हलवा बना देना, सेहत के लिए अच्छा होता है।"
“नहीं बाबूजी, कौन इतनी मेहनत करे।"
मन मसोसकर रह गए थे। सोचा था, घर में हलवा बनेगा तो उन्हें भी मिल जाएगा।
आज दोपहर बाद अपने पोते पप्पू को पार्क में घुमाने ले गए तो उन्होंने पप्पू को जरिया बनाने के मकसद से कहा, “पप्पू, तू घर जाकर अपनी मम्मी से कहियो कि गाजर का हलवा बनाओ, तूने कभी गाजर का हलवा खाया है?”
“हाँ आ... मैंने तो कल रात को ही खाया था... पापा ना, हलवाई की दुकान से इतना सारा लेकर आये थे। मैंने, पापा ने और मम्मी ने खाया।"
तड़पकर रह गए थे। इतनी लापरवाही, इतनी बेकद्री ! मैंने इनके लिए क्या-कुछ नहीं किया और इन्हें मेरा ज़रा भी ख़याल नहीं। मैंने भी अपने हाथ में चार पैसे रखे होते तो... मैं तो इनका मोहताज होकर रह गया हूँ। एक समय वो था जब घर में हलवा बनता था तो मैं अपने हिस्से का भी अशोक को खिला देता था और आज इन्होंने मेरा हिस्सा ही खत्म कर दिया।
अपनी बेचारगी और लाचारगी उन्हें और भी सालने लगी थी। ज्यों-ज्यों वे अपनी दयनीयता के बारे में सोच रहे थे, हलवा खाने की इच्छा ही मरती जा रही थी।
वे वापस घर पहुँचे तो बहू ने उन्हें सब्जी लाने के लिए पैसे और थैला पकड़ाते हुए कहा, “बाबूजी, आज दो किलो गाजर लेते आना, हलवा बना लेंगे।” अब तक शायद वह बाबूजी की इच्छा समझ चुकी थी, लेकिन बहू हैरानी से उनका मुँह देखती रह गई। छोटे बच्चों की तरह इठलाते हुए उन्होंने कहा, “बूढ़ा हो गया हूँ मैं, मुझे हलवा पचेगा नहीं... मैं तो नहीं खाऊँगा।”

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भाषांतर
धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-2)

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

॥ दो ॥

उसी रात वोजविजेन्स्क में अग्रिम छावनी से तीन सैनिक और एक वारण्ट अफसर सगीर गेट की ओर रवाना हुए। वे उस गांव से लगभग बारह मील की दूरी पर थे, जहाँ हाजी मुराद रात बिता रहा था। सैनिकों ने फर के जैकेट और टोपियाँ, कंधों पर पट्टियाँ लगे ओवर कोट और घुटनों से भी ऊँचे बूट पहन रखे थे जो उन दिनों कोकेशस में यूनीफार्म का हिस्सा हुआ करते थे। अपने हिथयारों को कंधों पर लादे वे सड़क के साथ-साथ एक फर्लांग तक गए, फिर दाहिनी ओर पत्तों से होकर सरसराते हुए बीस कदम चले, और एक टूटे चिनार के पेड़ के पास खड़े हो गए, जिसका काला तना अंधेरे में अस्पष्ट दिखाई दे रहा था। उस पेड़ के पास प्राय: एक संतरी रात्रि-रक्षक के रूप में नियुक्त रहता था।
जब वे जंगल से होकर गुजर रहे थे, पेड़ों के ऊपर दौड़ने का आभास देते चमकीले तारे वृक्षों की नंगी शाखाओं के पार हीरे जैसा चमकते हुए ठहरे हुए थे।
‘‘ईश्वर को धन्यवाद कि यह सूखा है,” वारण्ट अफसर पानोव बोला। उसने संगीन लगी अपनी लंबी राइफल उतारी और आवाज के साथ पेड़ के सामने टिका दी। सैनिकों ने भी उसका अनुसरण किया।
‘‘हाँ, मैं समझ गया, मैं उसे खो चुका हूँ, ” पानोव बुदबुदाया। “या तो मैं उसे भूल आया अथवा वह रास्ते में गिर गया।”
‘‘आप क्या खोज रहे हैं? ” एक सैनिक ने हार्दिकतापूर्वक, प्रसन्न स्वर में पूछा।
‘‘मेरा पाइप… मुझे लानत है। काश ! मैं जान पाऊँ कि वह कहाँ है।! ”
‘‘आप नली लाए हैं? ” प्रसन्न स्वर ने पूछा ।
‘‘नली … यह रही वह।”
‘‘आप उसे जमीन में गाड़ देगें? ”
‘‘क्या इरादा है? ”
“मैं उसे तुरंत बैठा दूंगा।”
गश्त के दौरान धूम्रपान सख्त वर्जित था, लेकिन यह चौकी मुश्किल से ही छुपी हुई थी। यह एक सीमा-चौकी थी जो कबीलाइयों को चोरी-छुपे तोपखाना लाने से रोकती थी, जैसा कि वे पहले करते थे और छावनी पर बमबारी किया करते थे। अंतत: अपने को तम्बाकू पीने से वंचित करने का पानोव को कोई कारण नजर नहीं आया, और उसने प्रसन्न सैनिक के प्रस्ताव पर सहमति दे दी। सैनिक ने अपनी जेब से चाकू निकाला और जमीन पर एक गड्ढा खोदने लगा। जब गड्ढा खुद गया, उसने उसे बराबर किया, नली का पाइप उस स्थान पर बैठाया, छेद में कुछ तम्बाकू रखा, उसे नीचे की ओर दबाया और सब कुछ तैयार था। दियासलाई धधकी और सैनिक के पिचके मुंह के पास एक क्षण के लिए जल उठी, क्योंकि वह पेट के बल जमीन पर लेटा था। पाइप में सीटी की-सी आवाज हुई, और पानोव ने तंबाकू जलने की रुचिकर सुगंध अनुभव की।
‘‘तुमने उसे बैठा दिया ? ” खड़े होते हुए पानोव ने पूछा।
‘‘काम ठीक ठाक हो गया।”
‘‘बहुत अच्छा किया, आवदेयेव ! एक विशिष्ट दक्ष, लौंडे, एह ? ”
आवदेयेव अपने मुंह से धुआँ बाहर छोड़ता हुआ ऊपर की ओर घूम गया, और उसने पानोव के लिए रास्ता बनाया।
पानोव पेट के बल लेट गया, अपनी आस्तीन से नली को पोछा और तम्बाकू पीने लगा। जब उसने पीना बंद किया सैनिकों ने बाते प्रारंभ कर दी।
‘‘ वे कहते हैं कि कमाण्डिंग अफसर पुन: आर्थिक संकट में फंस गया है। निश्चित ही उसने जुआ खेला होगा, ” एक सैनिक धीरे-धीरे बोला।
‘‘वह उसे वापस लौटा देगा।” पानोव बोला।
‘‘सभी जानते हैं कि वह एक अच्छा अफसर है, ” उसकी बात का समर्थन करते हुए आवदेयेव ने कहा।
‘‘मैं परवाह नहीं करता, यदि वह अच्छा अफसर है, ” पहला वक्ता भुनभुनाया, ‘‘मेरे विचार से कम्पनी का कर्तव्य है कि उससे पूछताछ करे। यदि उसने कुछ लिया है, तो उसे बताना चाहिए कि कितना, और वह उसे कब लौटाएगा।”
‘‘यह निर्णय करना कम्पनी का काम है, ” तम्बाकू पीना रोक कर पानोव ने कहा।
‘‘वह उससे भाग नहीं सकेगा, आप भी यह निश्चित तौर पर समझ सकते हैं,” आवदेयेव ने उसके सुर में सुर मिलाते हुए कहा।
‘‘वह सब बहुत अच्छा है, लेकिन हमें रखने के लिए तो मिली जई और हमने सामान रखने की पेटी मरम्मत करवायी वसंत के लिए… पैसा चाहिए, और यदि उसने वह लिया है…।” असंतुष्ट सैनिक ने कहना जारी रखा। ‘‘यह सब कम्पनी के ऊपर है, मैंने कहा न, ” पानोव ने दोहराया। ‘‘ऐसा पहले भी घटित हुआ था। उसने जो भी लिया है वह उसे वापस लौटा देगा।”
उन दिनों काकेशस में प्रत्येक कम्पनी अपने लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति अपने चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नियंत्रित करती थी। भत्ते के रूप में उसे प्रति व्यक्ति छ: रूबल पचास कोपेक प्राप्त होते थे, और वह अपने आप आपूर्ति करती थी। वह सब्जियाँ उगाती, चारागाह तैयार करती, परिवहन व्यवस्था कायम करती और अच्छी तरह पोषित घोड़ों पर विशेष गर्व करती थी। फण्ड तिजोरी में रखा जाता था, और चाबी कम्पनी कमाण्डर के पास होती थी। अपनी सहायता के लिए ऋण लेना कम्पनी कमाण्डर के लिए बार-बार की घटना हो गयी थी। इस समय भी यही घटित हुआ था, और वही सैनिकों के चर्चा का विषय था। निकितिन असंतुष्ट था और चाहता था कि हिसाब के लिए कमाण्डर को कहा जाये, लेकिन पानोव और आवदेयेव इस बात की आवश्यकता अनुभव नहीं करते थे।
पानोव ने जब पीना समाप्त किया, तब निकितिन पाइप की ओर मुड़ा। वह अपने ओवर कोट पर बैठ गया और पेड़ के सामने झुक गया। दल के लोग चुप हो गये थे और आवाज केवल उनके सिरों के ऊपर पेड़ों की फुनगियों की ऊंचाई पर हवा के सरसराने की थी। अचानक उन्हें हवा की सरसराहट से ऊपर श्रृंगालों का चीखना और विलखना सुनाई पड़ा।
‘‘ उन्हें लानत, ये कैसा शोरगुल कर रहे हैं।” आवदेयेव बोला।
‘‘वे तुम पर हंस रहे हैं; क्योंकि तुम्हारा चेहरा भैंगा है, ” नरम उक्र्रैनियन लहजे में तीसरे सैनिक ने कहा।
पुन: चुप्पी पसर गयी। हवा केवल पेड़ों की टहनियों को हिला रही थी, जिससे तारे कभी प्रकट होते तो कभी छुप जाते थे।
‘‘अन्तोनिच, मैं कहता हूँ,” मुस्कराते हुए आवदेयेव ने अचानक पानोव से पूछा, ‘‘आप कभी परेशान हुए ? ”
‘‘परेशान ! तुम्हारा अभिप्राय क्या है? ” पानोव ने अनिच्छापूर्वक उत्तर दिया।
‘‘मैं इस समय इतना परेशान हूँ… मात्र परेशान, कि आश्चर्य नहीं कि मैं कहीं आत्महत्या न कर लूं।”
‘‘इसे समाप्त करो।” पानोव ने कहा।
‘‘मैनें पीने में पैसे इसलिए उड़ाये, क्योंकि मैं परेशान था। मैं पीने के लिए परेशान रहता था। और मैनें सोचा, मुझे अंधाधुंध पीना है।”
‘‘नियम से मदिरा-पान करना मनुष्य को बदतर बनाता है।”
‘‘हाँ, लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ।”
‘‘गोया, तुम किस बात से परेशान हो ? ”
‘‘मैं ? मैं गृहासक्त हूँ।”
‘‘क्यों ? क्या तुम घर में बेहतर थे ? ”
‘‘हम अमीर नहीं थे, लेकिन वह एक अच्छी ज़िन्दगी थी, सुन्दर जीवन।”
और आवदेयेव पानोव को उस विषय में बताने लगा, जैसा कि वह पहले भी कई बार कर चुका था ।
‘‘भाई के बजाय मैं स्वेच्छा से सेना में भर्ती हुआ था, ” आवदेयेव ने कहा, ‘‘उसके चार बच्चे थे, जबकि मेरी अभी शादी ही हुई थी। मेरी माँ चाहती थी कि मैं सेना में जाऊं। मैनें कभी उज्र नहीं किया। मैनें सोचा, शायद अच्छे कार्यों के लिए वे मुझे याद करेंगे। इसलिए मैं जमींदार से मिलने गया। वह एक अच्छा आदमी था, हमारा जमींदार, और उसने कहा, ‘‘अच्छा मित्र, तुम जाओ। इस प्रकार भाई के बजाय मैं सेना में भर्ती हो गया।”
‘‘बहुत अच्छा।” पानोव ने कहा।
‘‘लेकिन अंतोनिच, अब आप इस पर अवश्य विश्वास करेंगें, कि मैं परेशान हूँ। यह सब इसलिए बदतर है, क्योंकि मैनें अपने भाई का स्थान लिया था। मैं अपने से कहता हूँ कि इस समय वह एक छोटा जमींदार है, जबकि मैं तंगहाली में हूँ। और मैं जितना ही इस विषय में सोचता हूँ, यह उतना ही बदतर लगता है। इसके लिए मैं कुछ नहीं कर सकता।”
आवदेयेव रुका। ‘‘क्या हम दोबारा तम्बाकू पियेंगे? ” उसने पूछा।
‘‘हाँ, उसे ठीक करो।”
लेकिन सैनिकों को तम्बाकू पीने का आनन्द नहीं मिला। आवदेयेव अभी उठा ही था और वह पाइप ठीक करने ही वाला था, कि उन्हें हवा की आवाज के ऊपर सड़क पर चलते कदमों की आवाज सुनाई दी। पानोव ने अपनी राइफल उठा ली और निकितिन को झिटका। निकितिन उठा और उसने अपना ओवर कोट उठाया। तीसरा बोन्दोरेन्को भी उठ खड़ा हुआ।
‘‘ क्या मैं स्वप्न देख रहा था … क्या स्वप्न …!”
आवदेयेव बोन्दारेन्को पर फुफकारा, और सैनिक जड़ होकर चुपचाप सुनने का प्रयास करने लगे। जूतों पर चलते शिथिल कदम निकट आते जा रहे थे। अंधेरे में पत्तियों और सूखी टहनियों की चरमराहट साफ सुनाई दे रही थी। तभी उन्हें चेचेन की गुट्टारा भाषा में बातचीत करने की अनूठी आवाज सुनाई दी, और उन्होंने पेड़ों के बीच हल्की रोशनी में दो छायाओं को चलते देखा। एक छाया छोटी और दूसरी लंबी थी। जब वे सैनिकों के बराबर पहुंचे पानोव और उसके साथी हाथ में राइफल थामें सड़क पर आ गये।
‘‘ कौन जा रहा है ? ” पानोव चीखा।
‘‘शांतिप्रिय चेचेन, ” दोनों में से छोटे कद वाला बोला। वह बाटा था। ‘‘न बन्दूक है, न तलवार, ” अपनी ओर इशारा करते हुए उसने कहा, ‘‘प्रिन्स, आप देख सकते हैं।”
लंबा व्यक्ति अपने साथी के बगल में शांत खड़ा था। उसके पास भी हथियार नहीं थे।
‘‘कर्नल से मिलने जानेवाले गुप्तचर हो सकते हैं।” पानोव ने अपने साथियों को स्पष्ट किया।
‘‘प्रिन्स वोरोन्त्सोव से मिलना आवश्यक है, महत्वपूर्ण कार्य है।” बाटा ने कहा।
‘‘बहुत अच्छा। हम तुम्हें उनके पास ले जायेंगे, ” पानोव बोला, ‘‘तुम और बोन्दोरेन्को इन्हे साथ लेकर जाओ,” उसने आवदेयेव से कहा, ‘‘उन्हें ड्यूटी अफसर को सौंपना और वापस लौट आना। और पूरी तरह सावधान रहना। इन्हें अपने आगे चलने देना।”
‘‘यह किसलिए है ? ” अपनी संगीन से धकियाते हुए आवदेयेव बोला। एक को धकियाया और वह मृत व्यक्ति-सा बना रहा।
‘‘तुम उसे कोंचते हो, उससे कोई लाभ ? ” बान्दोरेन्को बोला, ‘‘ठीक है, तेजी से चलो।”
जब गुप्तचरों और उनके अनुरक्षकों के कदमों की ध्वनि सुनाई देनी बंद हो गयी, पानोव और निकितिन वापस चौकी में लौट गये थे।
‘‘रात में शैतान उन्हें यहाँ किसलिए लाया था ? ” निकितिन बोला।
‘‘उनके पास कोई कारण अवश्य है, ” पानोव ने कहा। ‘‘देखो रोशनी फैल रही है,” उसने आगे कहा। उसने अपने ओवरकोट को फैलाया और पेड़ के सामने बैठ गया।
दो घण्टे पश्चात् आवदेयेव और बोन्दोरेन्को लौट आए।
‘‘हाँ, तुम उन्हें सौंप आए ? ” पानोव ने पूछा।
‘‘हाँ। कर्नल अभी तक जागे हुए थे, और वे उन्हें सीधे उन्हीं के पास ले गये थे। सफाचट सिर वाले वे लड़के कितने अच्छे थे!” आवदेयेव ने कहा, ‘‘ मैंनें उनसे अद्भुत बातचीत की।”
‘‘हम जानते हैं कि तुम अद्भुत बातूनी हो, ” निकितिन कटु स्वर में बोला।
‘‘सच, वे बलिकुल रूसियों जैसे हैं। एक विवाहित है।”
‘‘तुम्हारे पत्नी है? ” मैनें पूछा।
‘‘हाँ।” उसने कहा।
‘‘कोई बच्चा ? ” मैनें पुन: पूछा।
‘‘हाँ, बच्चा है”
‘‘एक जोड़ी ?”
‘‘एक जोड़ी” उसने कहा। “हमने अच्छी गपशप की।…शानदार लड़के हैं।”
‘‘मैं शर्त लगाता हूँ, ” निकितिन ने कहा, ‘‘ तुम एक से अकेले मिलो, और वह जल्दी ही तुम्हारी आंते निकाल देगा।”
‘‘भोर जल्दी ही होगी।” पानोव बोला।
‘‘हाँ, अब तारे फीके पड़ने लगे हैं, ” आवदेयेव ने बैठते हुए कहा।
सैनिक पुन: चुप हो गये थे।
(क्रमश: जारी…)

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गतिविधियाँ
साहित्य अकादेमी, दिल्ली के “कथासंधि” कार्यक्रम में हरनोट का एकल कहानी पाठ

साहित्य अकादेमी, दिल्ली ने शुक्रवार 7 मार्च, 2008 को सांय 6 बजे अपने विशिष्ट कथासंधि कार्यक्रम में सुपरिचित हिन्दी कथाकार एस. आर. हरनोट के एकल कथा-पाठ का अपने सभागार रवीन्द्र भवन, नई दिल्ली में आयोजन किया जिसमें हरनोट ने अपनी बहुचर्चित तीन कहानियों–“मोबाइल”, “नदी गायब है” और “मां पढ़ती है” का पाठ किया। तीन अलग-अलग विषयों पर प्रस्तुत की गई कहानियों को सभागार में उपस्थित लेखकों, पाठकों और मीडिया कर्मियों ने खूब सराहा। साहित्य अकादेमी के उप सचिव व साहित्यकार ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने कार्यक्रम शुरू होने से पूर्व हरनोट का विस्तार से परिचय करवाया और उनकी कहानियों के बारे में देश के कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों कमलेश्वर, ज्ञान रंजन, डॉ0 रमेश उपाध्याय और प्रो0 दूध नाथ सिंह द्वारा की गई चुनींदा टिप्पणियां भी प्रस्तुत कीं। श्री त्रिपाठी ने कहा कि ‘कथा संधि’ साहित्य अकेदमी का ऐसा विशिष्ट कार्यक्रम है जिसे देश के किसी एक चर्चित व सुविख्यात कथाकार पर केन्द्रित किया जाता है।

कथा-पाठ में प्रस्तुत कहानियों पर ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने बारी बारी अपनी टिप्पणियां दीं। “मोबाइल” कहानी को उन्होंने बाजारवाद के खतरे से लोगों को अगाह करवाती कहानी बताया। उन्होंने कहा कि “नदी गायब है” कहानी स्थानीय संस्कृति पर खतरे को गहराई से उद्घाटित करती है। नदी के गायब होने का मतलब पूरी संस्क्ति का नष्ट होना है जिसमें तमाम लोक कथाएं, देवी देवता, रीति रिवाज, लोकाचार रचे बसे हैं, उन सभी पर एक प्रश्नचिन्ह है। अन्तिम कहानी आत्मविश्लेषण जैसी सुन्दर कहानी है जिसकी संवेदना भीतर तक झकझोर देती है। उन्होंने अपनी बात समाप्त करते हुए उपस्थित लेखकों और पाठकों को इन कहानियों पर अपनी बात कहने के लिए आमन्त्रित किया।

लेखक, अनुवादक और ‘सेतु-साहित्य ब्लाग पत्रिका’ के संपादक सुभाष नीरव ने कहा कि ‘मोबाइल’ कहानी ने उनको बहुत प्रभावित किया है और इसलिए उन्होंने अपनी ब्लाग पत्रिका “साहित्य सृजन” में भी इस कहानी को प्रमुखता से छापा है। बाजारवाद को लेकर यह एक सशक्त कहानी है। “नदी गायब है” कहानी भी बहुत अच्छी है। आज पहाड़ों को जिस बेदर्दी से काटा जा रहा है, विकास के नाम पर जो देश व गांव में हो रहा है, उसे यह कहानी शिद्दत से रेखांकित करती है। हरनोट की कहानियों की खूबी है कि हरनोट अपने अंचल को जितनी गहराई से व्यक्त और रेखांकित करते हैं, नि:संदेह वे इनकी कहानियों की शक्ति है जो इधर की कहानियों में बहुत कम देखने को मिलती है।

सुविख्यात लेखक व “बयान” पत्रिका के संपादक प्रो0 मोहनदास नैमिशराय ने साहित्य अकादमी को बधाई दी कि उसने एक सशक्त लेखक को बुलाया है। तीनों कहानियों में तीन अलग-अलग विषय हैं जिनका निर्वाह बखूबी हुआ है। उन्होंने कहा कि मैदानों और पहाड़ों में बाजारवाद के अलग अर्थ हैं। पहाड़ों में जो बाजारवाद घुस रहा है, उसने गांव और पहाड़ों के साथ वहां के लोक जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है जिसे हरनोट ने इन कहानियों में गंभीरता से चित्रित किया है। हरनोट ने इसे झेला है, और हर वह आदमी जो पहाड़ों पर रह रहा है या बाहर से वहां जाता है, उसे झेल रहा है। स्थानीय संस्कृति के लिए पैदा हो रहे खतरों को उदघाटित करती ये कहानियां हरनोट के कथा-श्रम को उद्घाटित करती है। इसलिए वे बधाई के पात्र हैं।

लेखक-आलोचक और ‘अपेक्षा’ पत्रिका के संपादक डॉ0 तेज सिंह ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हरनोट ने इन तीनों कहानियों में पहली बार यथार्थ में फैंटेसी का प्रयोग किया है जो उनकी कहानियों में बहुत कम मिलता है। इससे ये कहानियां बहुत सशक्त बनी हैं। इतनी छोटी कहानियों में इतने बड़े और गंभीर विषयों का निर्वाह कोई बिरला लेखक ही कर सकता है। उन्होंने हरनोट की एक अन्य चर्चित कहानी ’दलित देवता, सवर्ण देवता’ का भी जिक्र किया। “मोबाइल” कहानी में हरनोट ने एक मासूम भिखारी बच्ची के माध्यम से राजनीति और बाजारवाद का जो भयावह चित्र प्रस्तुत किया है, वह भीतर तक छू जाता है। इसी तरह “नदी गायब है” कहानी तो एक बहुत बड़े कैनवस की कहानी है। हरनोट को जनता की शक्ति पर विश्वास है इसलिए वे तमाम रूढि़यों को इस कहानी में तोड़ते हैं। जो बहुत बड़ी बात है। “मां पढ़ती है” कहानी को उन्होंने संवेदना के धरातल पर खरी उतरती सुन्दर कहानी कहा जिसमें मां के बहाने गांव के विविध रंग उकेरे गए हैं।


फिल्म निर्माता व प्रोड्यूसर प्रवीण अरोड़ा ने कहा कि वे हरनोट की कहानियों से बेहद प्रभावित हुए हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में जो पहाड़ के चित्र प्रस्तुत किए हैं वे अद्भुत हैं। ‘नदी गायब है’ के बारे में उन्होंने कहा कि इस कहानी का यथार्थ उन्होंने अपनी फिल्म निर्माण करते हुए किन्नौर में स्वयं देखा है, वहां जो विकास के नाम पर बाहर की कम्पनियां पहाड़ की संस्कृति को खराब कर रही है, वह सचमुच पहाड़ों के लिए और वहां रह रहे लोगों के लिए खतरा है।

लेखक-आलोचक हीरालाल नागर ने तीनों कहानियों पर हरनोट को बधाई दी और कहा कि उन्होंने हरनोट को बहुत पढ़ा है। उन्होंने कहा कि वे वास्तव में साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित इसी समय आज ही एक दूसरे कार्यक्रम के लिए आए थे लेकिन उन्होंने यहीं आना उचित समझा। लोकजीवन को जिस तरह हरनोट ने अपनी कहानियों में लिया है, वह बिरला देखने को मिलता है। उन्होंने पहाड़ों में जो जीवन है, विकास के नाम पर जो काम हो रहे हैं, उससे पहाड़ों के साथ मनुष्य के लिए भी खतरे बने हैं। उन्होंने हरनोट की कहानी ‘बिल्लियां बतियाती है’ का उल्लेख करते हुए कहा कि मां को जिस तरह हरनोट ने प्रस्तुत किया है वह पहाड़ और गांव की समग्र सांस्कृतिक विरासत को हमारे सामने लाना है।

उक्त गोष्ठी की यह एक लाक्षणिक और अप्रेरित घटना थी कि एक साहित्य प्रेमी ने हरनोट की कहानियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि वे मूलत: एक कवि हैं और साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में आते रहते हैं। लेकिन जिस तरह की कविताएं पढ़ी जाती है वे कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ती लेकिन आज की तीन कहानियां सुन कर कहा जा सकता है कि साहित्य अकादेमी इस तरह के सार्थक आयोजन भी करती है। उन्होंने कहा कि हरनोट की कहानियां बरसों-बरस याद रहने वाली कहानियां हैं।

एक अन्य उपस्थित फिल्म निर्माता व प्रोडियूसर देवेन्द्र चोपड़ा ने कहा कि उन्होंने दूरदर्शन के लिए कई बड़े लेखकों के साक्षात्कार को लेकर फिल्में बनाई है और इसलिए ही उन्हें साहित्यजगत का अनुभव भी है। हरनोट की खासियत यह है कि वे अपनी कहानियों में बिल्कुल सादी और मन को छू लेने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं।

अन्य उपस्थित लेखकों में “कथन” के संपादक डॉ0 रमेश उपाध्याय, कथाकार बलराम अग्रवाल, प्रसिद्ध कथाकार व समकालीन भारतीय साहित्य के संपादक अरूण प्रकाश, लेखिका व कथन की संपादक संज्ञा उपाध्याय, उपन्यासकार भगवान दास मोरवाल, सुनील शर्मा, कैवैल्यधाम के निदेशक जे0 पी0 दौनेरिया सहित कई युवा लेखक भी शामिल थे।
ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने अन्त में सभी उपस्थित बन्धुओं और वक्ताओं सहित हरनोट का भी आभार व्यक्त किया।


योगेन्द्र कृष्णा की कविताएं हिंदी काव्य-परंपरा
में नया अध्याय जोड़ती हैं

अरुण कमल

गत 16 मार्च, 2008 को प्रलेस के तत्वावधान में माध्यमिक शिक्षक संघ सभागार, पटना में संवाद प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित योगेन्द्र कृष्णा के काव्य-संकलन बीत चुके शहर में का लोकार्पण चर्चित वरिष्ठ कवि अरुण कमल के द्वारा किया गया. समारोह की अध्यक्षता समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने की. उनकी प्रतिनिधि कविताओं पर समालोचनात्मक टिप्पणी करते हुए अरुण कमल ने अपने वक्तव्य में कहा कि योगेन्द्र कृष्णा की कविताएं संपूर्ण हिंदी काव्य-परंपरा में एक नया अध्याय जोड़ती हैं. उन्होंने कहा कि बीत चुके शहर में की कविताओं में आज का हिंसक होता सामाजिक परिदृश्य एक नए मुहावरे में उजागर हुआ है.

आयोजन की शुरुआत करते हुए कवि शहंशाह आलम ने कहा कि योगेन्द्र कृष्णा के इस रचनात्मक साहस को वे सलाम करते हैं. इस अवसर पर समीक्षक ओम निश्चल ने पुस्तक की अंतर्वस्तु पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि आठवें दशक से ही बिहार का काव्य-परिदृश्य काफी समृद्ध हुआ है. पुस्तक में संकलित कविताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इनकी कई कविताएं मूल्यों के टूटने का दर्द बयान करते हुए वर्तमान समय को रूपांतरित करती हैं. यथार्थ को बुनने का उनका एक अपना तरीका है. वे नेपथ्य की गतिविधियों को संजीदगी से दर्ज करते हैं. उन्होंने कवि की सुबह के पक्ष में, हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं, हत्यारे जब मसीहा होते हैं, बीत चुके अपने शहर में, पूर्वजों के गर्भ में ठहरा समय, कम पड़ रहीं बारूदें तथा दिल्ली में पहली बार जैसी कविताओं की विशेष चर्चा करते हुए कहा कि इन कविताओं के माध्यम से कवि अपने समय के बड़े प्रश्नों से मुठभेड़ करता दिखता है. उन्होंने कहा कि अपनी कविताओं में योगेन्द्र बिलकुल ही नए एवं मौलिक मुहावरे के साथ प्रस्तुत हुए हैं. ये कविताएं इन्हें अग्रिम पंक्ति के समकालीन कवियों के बीच खड़ा करती हैं.
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि योगेन्द्र कृष्णा ने अपनी हत्यारा सीरीज की कविताओं में समय की जो बारीकियां दर्ज की हैं वे बेहद दिलचस्प हैं.

समारोह का समापन कथाकार शिवदयाल ने अपने धन्यवाद-ज्ञापन के साथ किया. इस अवसर पर रवीन्द्र राजहंस, कुमार मुकुल, विनय कुमार, संजय कुमार कुंदन, भगवती प्रसाद द्विवेदी, सुधीर सुमन, जावेद हसन, एम के मधु, मुसाफिर बैठा, अरुण नारायण समेत शहर के अनेक सुधी पाठक, साहित्यकार एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे.
-शहंशाह आलम, सचिव
प्रगतिशील लेखक संघ, पटना



अगला अंक

अप्रैल 2008

-मेरी बात
-सुदर्शन वशिष्ठ की कहानी- “घर बोला”।
-द्विजेन्द्रद्विज’ की ग़ज़लें।
-अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य– “जुर्माना यानी जुर्म का आना”।
-“भाषान्तर” में लियो ताल्स्ताय के उपन्यास “हाजी मुराद” के धारावाहिक प्रकाशन की तीसरी किस्त। हिंदी अनुवाद : रूपसिंह चन्देल।
-“नई किताब” तथा “गतिविधियाँ” स्तम्भ।