मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

साहित्य सृजन- दिसंबर 2007

मेरी बात
सुभाष नीरव


कभी-कभी कोई रचना पढ़ लिए जाने के बाद भी हमारा पीछा नहीं छोड़ती। हम उससे पल्ला छुड़ाना चाहते हैं, वह हमारा हाथ पकड़ कर रोक लेती है। हमारे अन्तर्मन में सोच और विचार को जन्म देती है और फिर हम उस रचना के माध्यम से अपनी सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक व्यवस्था से जुड़े तमाम तरह के सन्दर्भों से जुड़ जाते हैं और कई-कई सवालों से रू-ब-रू होते हैं और उनके उत्तर खोजने को विवश होते हैं।

अभी कुछ दिन हुए, मराठी के विख्यात लेखक वि.स. खांडेकर की लघुकथा "बकरी" पढ़ने का मुझे अवसर मिला। अब यह बकरी है कि मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही। उठते-बैठते, खाते-पीते, अंदर-बाहर जाते यह मेरी पीछे पड़ी है। यदि आपने "बकरी" लघुकथा न पढ़ी हो तो पहले इसे एक बार आप भी पढ़ लें, फिर आगे की बात होगी। रचना इस प्रकार है–

बकरी
वि.स. खांडेकर

किसी पहाड़ी के रास्ते के बीच में एक गड्ढ़ा था। पहाड़ी पर चारों तरफ हरियाली और झाड़-झंखाड़ थे। वहाँ चरने वाली बकरियों को भला वह गड्ढ़ा कहाँ से दिखाई पड़ता।

चरते-चरते सबसे पहले नम्बर की बकरी धोखे से उस गड्ढ़े में गिर पड़ी तो दूसरे नम्बर की बकरी को लगा कि ज़रूर उस गड्ढ़े में कोई खास चीज होगी। आगे-पीछे का कोई भी विचार किए बिना वह भी उस गड्ढ़े में जा गिरी।

एक–दो–तीन–चार–पाँच... सिलसिला जारी रहा।

धीर-धीरे वह गड्ढ़ा भरने लगा, लेकिन सबसे आखिरी बकरी ने अपनी अन्य सहेलियों का अनुसरण किए बिना, बल्कि उनके सिर पर बड़े ही शान से कदम रख कर आगे निकल जाने का साहस दिखलाया।

और आगे निकल जाने के बाद पीछे मुड़ कर कहा, "बुद्धू कहीं की ! रास्ते में गड्ढ़े भी दिखाई नहीं देते?"

तब से इस देश में गड्ढ़े बनवाए जाने लगे और उन्हें इसी पद्धति से पटवा कर आगे निकल जाने का सिलसिला शुरू हो गया, जो अब तक जारी है।

तो जनाब, यही है वह बकरी जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही।

आपने जन्माष्टमी के पर्व पर मुम्बई और अन्य शहरों में गोविन्दाओं द्वारा कई-कई फीट ऊँची हवा में लटकी मटकी को छूने और उसे फोड़ने का खेल देखा ही होगा। उस मटकी तक वही पहुँच पाता है जो दूसरों की पीठों और कंधों पर चढ़ने की कला जानता है। यहाँ मटकी प्रतीक है– नाम, यश, प्रतिष्ठा, धन और पूंजी की। यह खेल हमें सिखाता है कि इन चीजों को अगर पाना है तो आपको दूसरों की पीठ और कंधे पर चढ़ने में निष्णात होना पड़ेगा। वैसे यह खेल हमारे नेता, राजनेता जब से हमारा यह देश आजाद हुआ है, खेलते आ रहे हैं। यहाँ मटकी 'विधान सभाओं' और 'संसद' के रूप में है, जिस तक पहुंचने के लिए वे हजारों-करोड़ों लोगों की पीठों और कंधों को सीढ़ियों के रूप में इस्तेमाल करते हैं और एक बार सत्ता की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद वे उन पीठों और कंधों को भूल जाते हैं जिन पर पांव रखकर वे इस कुर्सी तक पहुंचे होते हैं। सत्ता का नशा उन पर इस कदर हावी होता है कि वे धरती को भूल बैठते हैं, धरती के लोगों को हिकारत की नज़र से देखने लगते हैं। और जब वे सत्ता की कुर्सी से पदच्युत होकर धरती पर आते हैं तो विडम्बना देखें कि फिर से असंख्य लोग उन्हें अपनी पीठ और कंधे सौंपने को तत्पर हो जाते हैं।

लेकिन यहां तो 'बकरी' और 'गड्ढ़े' की बात हो रही थी। तो भाई आपको भूं-मंडलीकरण और बाज़ारवाद क्या लगता है? यह बाज़ारवाद जो रोज-रोज हमारे लिए नए-नए गड्ढ़े खोद रहा है और हम थोड़ी-सी सुख-सुविधाओं के लालच में भेड़चाल की तरह उनमें गिरते जा रहे हैं और गड्ढ़े खोदने वाला और सबसे अन्त में खड़ा चालाक व्यापारी बड़ी शान से हमारे ऊपर से गुजर कर अपने लिए धन और सम्पत्ति के नए-नए रास्ते खोल रहा है। और हम हैं कि गहरे अंधे कुओंनुमा गड्ढ़ों में आँखें खुली होने के बावजूद गिरने को अभिशप्त हैं। क्यों? एक-दो-तीन-चार-पाँच... सिलसिला ब-दस्तूर जारी है और हमारे लिए गड्ढ़े खोदने वाले हमारे ही कंधों और सिरों पर से गुजर कर अकूत धन और सम्पदा के मालिक बन मुस्करा कर काकटेल पार्टियों में कहते हैं, "बुद्धू कहीं के... रास्ते में गड्ढ़े भी दिखाई नहीं देते।"

अपने समय और समाज का सच व्यक्त करने वाली रचना कभी-कभी अपने समय से आगे जाकर भविष्य के 'सच' पर भी उंगुली रखती है। ज़रा सोचें कि वि.स. खांडेकर की उक्त रचना बकरी क्या एक साहित्यिक रचना मात्र है? क्या वह हमें हमारे वर्तमान समय के क्रूर सत्य की ओर इशारा करते हुए हमारे लिए खोदे जा रहे ऐसे गड्ढ़ों से हमें सावधान नहीं करती?…

हिंदी कहानी

चांदनी चौक की जुबानी
अलका सिन्हा

“बहुत अच्छा गाती हैं आप!” मैंने कहा तो वान्या मुस्करा दी, “धन्यवाद, मुझे संगीत बहुत प्रिय है।" अब की बार मैं हँस पड़ी। विदेशी मूल का व्यक्ति जब हिंदी बोलता है तो वह कितना सजग और औपचारिक होता है। अनुवाद वाली भाषा, शब्दकोश से चुने हुए शब्द! खैर ! फिर भी, फिरंगियों के मुँह से अपनी भाषा सुनकर अच्छा लगता है, बस इसी लालच में मैं वान्या के नज़दीक चली आई थी और उससे कुछ न कुछ बुलवाना चाह रही थी।
“हिंदुस्तान पहले भी आई हो क्या?”
“जी नहीं, पहली बार आई हूँ। मुझे भारत बहुत अच्छा लगा, मैं यहीं रहना चाहती हूँ।"
वह कुछ अटक-अटक कर भले बोल रही हो, मगर उसका उच्चारण एकदम स्पष्ट था, इतना स्पष्ट जितना हिंदुस्तानियों का भी नहीं होता। मगर इसमें हैरानी की कोई बात इसलिए भी नहीं थी कि ये उन विद्यार्थियों की टीम थी जो विदेशों में हिंदी सीख रहे हैं और विश्व स्तर की हिंदी ज्ञान-प्रतियोगिता में विजेता घोषित हुए थे। पुरस्कार स्वरुप उन्हें भारत-भ्रमण के लिए आमंत्रित किया गया था। आज की शाम दिल्ली में उनके सम्मान में सांस्कृतिक संध्या और रात्रि भोज का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में वे भारत में हुए अपने अनुभव बांट रहे थे। कोई बता रहा था कि वह यहाँ से पीपल के पो पर गणेश जी की मूर्ति लेकर जा रहा है, तो कोई प्रेमचंद की कहानियों का संग्रह खरीद लाया है। वान्या ने बनारसी साड़ियाँ खरीदी थीं। आसमानी रंग की पटियाला सलवार और ऊँची कुर्ती में वह बहुत ही आकर्षक लग रही थी। सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसने गीत सुनाया था– ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम...’। वैसे तो यह गीत कई बार पहले भी सुना है और गाया भी है, पर उसके मुँह से इसका अलग ही प्रभाव पड़ रहा था। रात्रि-भोज प्रारम्भ हो चुका था और मैं अपने भोजन की प्लेट लेकर उसके निकट जा पहुँची थी।
“क्या कुछ देखा आपने यहाँ?”
“बहुत कुछ ! मगर बहुत कुछ देखना अभी बाकी है।"
“क्या आप नान-वेज नहीं लेतीं?” मैंने उसकी प्लेट की ओर देखकर पूछा।
“जी नहीं, मैं शाकाहारी हूँ।" फिर, एक पल रुककर आगे बोल पड़ी, “मैं चांदनी चौक देखना चाहती हूँ।"
“चांदनी चौक? क्यों?” फिर लगा जितनी देर में वह इन दो सवालों का जवाब देगी, उतना सब्र मुझमें कहाँ, इसलिए इन सवालों को वहीं छोड़ यह जानना चाहा कि वह कब तक है हिंदुस्तान में।
“कल दोपहर की उड़ान से चंडीगढ़ जा रही हूँ। मगर उससे पहले चांदनी चौक देखना चाहती हूँ।" उसकी आवाज़ में बच्चों की-सी ठुनक थी।
“कल जा रही हो तो देखोगी कब?” मैंने समझाने की कोशिश की।
“अभी, खाना खाने के बाद।"
“अभी क्या देखोगी?”
“कुछ नहीं, बस प्रदक्षिणा कर के आ जाऊँगी।"
“मगर अभी तो कुछ भी नहीं होगा वहाँ।" मैंने खाने की प्लेट रख दी और क्वाटर-प्लेट में रसगुल्ले डालने लगी, “तुम्हारे लिए निकालूँ?” मैंने स्नेह से पूछा तो वह मचल पड़ी, “मुझे चांदनी चौक जाना है, अभी इसी वक्त। दिन में समय नहीं है मेरे पास। फिर पता नहीं कब आना हो यहाँ।" उसके चेहरे पर मायूसी थी।
मैं पशोपेश में पड़ गई। समझ में न आया, क्या कहूँ। हॉल में निगाह दौड़ाई, कोई उसी तरफ का रहने वाला हो तो इसे उसके साथ कर दूँ।
“राजेश जी, किस तरफ रहते हैं आप?”
“आई पी एक्सटेंशन।" उन्होंने बताया तो मैं समझ गई कि बात नहीं बन सकती। सामने की दीवार घड़ी दस बजा रही थी। वान्या मेरे स्थिति समझ रही थी और नहीं भी, “अधिक समय नहीं लगेगा। बस, दस मिनट में एक चक्कर काटकर लौट आएंगे।"
“आखिर ऐसा क्या देखना चाहती हो तुम वहाँ ?” मुझे हल्की-सी कोफ्त होने लगी।
“कुछ नहीं, बस कहानियों में पढ़ा है वहाँ के बारे में, इसीलिए एक बार देखना चाहती हूँ।" उसकी इच्छा काफी तीव्र हो चुकी थी और वह लगभग निर्णायक स्वर में आग्रह कर रही थी।
इतनी रात और चांदनी चौक जैसे इलाके में इस उम्र की लड़की के साथ ? ठीक नहीं रहेगा । मैं कहना चाहती थी, मगर शब्द गले में अटक गए। लगा, जैसे ऐसा कह देने से एक विदेशी मेहमान के सामने मेरे देश का अपमान हो जाएगा।
“अच्छा, तुम खाना तो खत्म करो, मैं कुछ सोचती हूँ।" इतना कहकर मैं दूसरी ओर बढ़ गई, दूसरे बच्चों में मिक्स होने। सम्भव है, कुछ देर में यह बात इसके ख़याल से निकल जाए। मैं दूसरी भीड़भाड़ में खो गई। लेकिन मैं कहीं भी छुपकर बैठी, वान्या मुझे हर जगह से ठीक अपनी सीध में दिखाई देती रही। इत्मिनान से आइसक्रीम खाते हुए, गोया वह आश्वस्त थी मेरी व्यवस्था के बारे में।
घड़ी की सुई आगे भागती जा रही थी। बहुत समय तो मेरे पास भी न था। सभी मेहमान एक-एक कर विदा लेने लगे थे। मुझे लगा, मेरे लिए भी यही ठीक रहेगा। मैंने भी दबे स्वर में अन्य आयोजक मित्रों का अभिवादन किया और चुपचाप पिछले दरवाजे से बाहर निकल आई। मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई। मगर अगले ही पल लगा, जैसे वान्या की आँखें मेरी पीठ पर जा चिपकी हैं, तुमने तो कहा था मुझे चांदनी चौक ले जाओगी ? नहीं-नहीं, ऐसे चोरी से जाना ठीक नहीं, आखिर मेहमान है वह हमारी। पहली बार हमारे देश में आई है। क्या सोचेगी, हमारे बारे में ? मैं चलकर उसे समझा देती हूँ। मैं वापस पलट गई। हॉल में घुसी तो ढूँढ़ने में देर न लगी। मुझसे नज़र मिलते ही वह मेरी ओर लपक आई, “चलें ?”
मेरी बोलती बंद हो गई। एक साधारण-सी बात कि रात बहुत हो रही है, अभी जाना ठीक नहीं होगा। कल दिन में चलेंगे या फिर अगली बार... मैं कह नहीं पा रही थी। वह चुपचाप मेरे पीछे हो ली। एकबारगी जी में आया, इसे अपने घर की तरफ ले चलूँ, द्वारका की बंद मार्किट भी चांदनी चौक की तरह ही तो लगती है, कह दूंगी यही है– चांदनी चौक !
दुविधा की स्थिति में ही मैंने गाड़ी स्टार्ट कर दी। वह बच्चों की तरह चहक उठी– ‘ये...!’ और उसने मेरे गले में बांहे डाल दीं, “आप बहुत अच्छी हैं !” मेरा मन फिर डोल गया, कैसे करुँ इसके साथ विश्वासघात। मैंने गाड़ी रिंग रोड पर निकाल ली। वह लगातार कुछ न कुछ बोले जा रही थी, इससे बेखबर कि मैं उसे सुन भी रही हूँ या नहीं। उसकी हर बात पर मैं सिर्फ़ मुस्करा रही थी। मुझे कुछ ध्यान नहीं, वह क्या कह रही थी। मैंने धीमी आवाज में स्टीरियो चला दिया। सड़क पर खास ट्रेफिक न था, मगर मेरी गाड़ी फिर भी तीसरे गेयर में चल रही थी। दरअसल मैं तय नहीं कर पा रही थी कि गाड़ी किस तरफ मोड़ूँ। एक मन हिसाब लगा रहा था कि तेज स्पीड से भी निकालूँ तो भी तकरीबन एक घंटा जाने का और एक घंटा आने का– यानी रात के साढ़े बारह- पौने एक। दूसरा मन होशियारी सिखा रहा था, “ये देखो, ये ही है चांदनी चौक की माके‍र्ट...।" शटर गिरी दुकानें और ऊँघती हुई गली। मैंने गाड़ी भीतर गली में मोड़ ली।
“ये देखो, मीना बाजार।" मैंने बोर्ड की ओर इशारा किया।
वह ताली बजाकर हँस पड़ी, “लाजपत नगर का मीना बाजार...।" उसने बोर्ड के नीचे लिखे पते की ओर इशारा किया तो मैं बुरी तरह झेंप गई। लगा जैसे इसने मुझे चोरी करते देख लिया हो। मैं अपनी झेंप कैसे मिटाऊँ, अभी मैं यह तय भी न कर पाई थी कि उसने अचानक स्टीरियो की आवाज़ तेज कर दी, “मुझे ये गाना बहुत पसंद है।" उसने कहा और साथ-साथ गाने लगी, “मुझे रंग दे, मुझे रंग दे, मुझे अपने रंग विच रंग दे...।"
मैंने निर्णय ले लिया था कि इसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, मुझे ही इसके रंग में रंगना होगा। ईश्वर को याद किया, हमें सुरक्षित घर पहुँचा देना प्रभु ! मैं गाड़ी उड़ाये जा रही थी।
“ये राजघाट है न... यहीं है न बापू की समाधी... और इंदिरा जी की भी... अब हम पहुँचने वाले हैं न !” वह एकांगी संवाद बोले जा रही थी। मुझे काली सड़क के अलावा कुछ दिखाई न दे रहा था, मैं जल्दी से जल्दी चांदनी चौक पहुँचकर उसे एक चक्कर कटवा देना चाहती थी।
“रोको ! रोको !!” वह जोर से बोल पड़ी।
मैंने हड़बड़ाकर ब्रेक पर पैर मारा तो गाड़ी ठक से बंद हो गई।
“विष्णु दिगम्बर मंदिर, भाई मतिदास चौक... यहीं तो रुकना है।"
मैं जैसे नींद से जगी, “तुम्हें कैसे पता ?” मैं आँखें फाड़कर उसकी ओर देख रही थी। उसने ऊपर लगे बोर्ड की ओर इशारा किया। गाड़ी की इस तेज रफ्तार में भी वह रास्ते के सभी बोर्ड पढ़ती आ रही थी।
“यहाँ पक्षियों का अस्पताल है न!” उसने पूछा तो मैं अचकचा गई, “हाँ, शायद यहीं....।"
“शायद नहीं, पक्का यहीं है,” वह पूरी तरह आश्वस्त थी, “आप गाड़ी अंदर की सड़क पर मोड़ लीजिए... ये मंदिर के बराबर में... इधर...।"
सचमुच, वह ठीक बता रही थी। मैं हैरान थी, “तुम पहली बार आई हो न यहाँ, चांदनी चौक ?”
“हूँ...।" उसने हामी भरी तो मुझे रोमांच हो आया– कहीं पिछले जन्म में ...। मैं कुछ तय नहीं कर पा रही थी, तो इतना सब कैसे जानती हो यहाँ के बारे में ?
“वैभव ने बताया था।"
“वैभव कौन?” मैंने देखा, वैभव का नाम लेते हुए उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आए और तुरंत ही खो भी गए।
“मेरे विश्वविद्यालय में ही पढ़ता था, फाइनल इयर में।" अब तक स्वर में तटस्थता आ चुकी थी। मगर मुझे इस तटस्थता के पीछे समन्दर के शोर का भ्रम हो रहा था।
“तो इसीलिए भारत बहुत पसंद है तुम्हें, और इसीलिए तुम भारत में रहना चाहती हो ?” मैंने उसके गाल पर हल्की-सी चिकौटी काट ली। मेरी बात पर वह हौले से मुस्करा दी, “इसका अहसास तो मुझे बहुत बाद में हुआ, तब तक वह युनिवर्सिटी छोड़कर जा चुका था।...”
उसका उनींदा चेहरा बेहद खूबसूरत लग रहा था। अब से पहले विदेशियों का ये ज़र्द गोरा रंग मुझे कभी सुंदर नहीं लगा, न ही उनके नयन-नक्ष। मगर उस वक्त वह मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की लग रही थी... सच, कितना खूबसूरत अहसास होता है मुहब्बत का...!
“अब कहाँ है वह? क्या यहीं कहीं रहता है?” पता नहीं यह सवाल मैं उससे पूछ रही थी या खुद से। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे भीतर भी एक किताब सदियों से बंद पड़ी है और जो आज अचानक ही कसमसाने लगी है... उसमें धुंधला गए अक्षरों में कोई चेहरा आकार लेने लगा है।
“मालूम नहीं, अब वह कहाँ है।" वान्या की आँखें खिड़की से पार देख रही थीं, सीताराम बाजार... “यहीं लगती है न चाट-पापड़ी की दुकान...?” वान्या की आवाज़ चटपटी हो गई थी, मानो वह किसी खोमचे वाले को तलाश रही हो। तो फिर वैभव... मैं वैभव के बारे में और जानना चाहती थी। मगर उसकी गाड़ी वैभव के स्टेशन से काफी आगे निकल चुकी थी... मुझे भ्रम हुआ था शायद... वैभव के साथ उसकी कोई वैसी आत्मीयता न थी... वह तो उसके लिए भारत का एन्साइक्लोपीडिया भर था, बस। उसके मुँह से अक्सर ही उसने चांदनी चौक का जिक्र सुना था। मगर क्या किसी के जिक्र करते रहने भर से कोई इस कदर बेचैन होता है, वहाँ की गलियों का चक्कर काट आने को?... और कि वह इस तरह बता सकता है– पक्षियों का अस्पताल... चाट-पकौड़ी का स्वाद ?... मैंने फिर छेड़ा था वैभव का जिक्र, पर उसकी उसमें कुछ खास दिलचस्पी दिखाई न पड़ी, वह तो शायद अपनी कल्पना वाले चांदनी चौक और इस चांदनी चौक के चित्रों को ज्योमेट्री के त्रिकोणों के बीच समकोणों का मिलान करने में मस्त थी।
मैंने उसके चेहरे की ओर ध्यान से देखा– जर्द सफेद रंग... बल्कि रंगहीन सफेदी... खड़ी सूत-सी नाक और निर्विकार-सी आँखें! नहीं, खूबसूरती तो हमारी भारतीय लड़कियों में होती है। तभी तो अक्सर हमारी लड़कियाँ विश्व-सुंदरी का खिताब जीतकर लौटती हैं... अपने देश के प्रति मेरा लगाव जागृत होने लगा था। बहुत धीमी रफ्तार में मेरी गाड़ी भीतर की गलियों का चक्कर काट रही थी, उन्हीं गलियों का, दिन के वक्त जिस सड़क पर गाड़ी चलाना तो दूर पैदल निकलना भी सर्कस का खेल लगता है। हर तरह की किताबों की नई सड़क... ब्याह-शादी के कार्ड छपाई की दुकानें... शुद्ध घी की परांठे वाली गली... परदे-सूट, दाज-वरी की साड़ियों की गली... लग रहा था जैसे हम चांदनी चौक के सैट पर नींद में चल रहे हों। चांदनी चौक और बिना भीड़ के... एकदम नकली, अर्थहीन... बेजान...।
“अरे, ये क्या?” अचानक खामोशी को तोड़ते हुए वान्या ने मुझे चौंका दिया।
“ये चाट के पत्तल हैं, ये चाट वाली गली है न ।"
“इतने सारे! इतनी खाई जाती है चाट !”
मैंने देखा, वहाँ जूठे दोनों का एक पहाड़-सा बना हुआ था। गली के आवारा कुत्ते जिनमें मुँह मार रहे थे।
“और वो क्या है?” उसने सड़क के बीच की पटरी की ओर इशारा किया। वहाँ कई गुदड़ियाँ लिपटी पड़ी थीं।
“ये मजदूर हैं, कुछ यहीं खोमचे वाले... दिन-भर की मशक्कत के बाद, थक कर सो रहे हैं।" मेरी आवाज़ मेरे गले में अटक रही थी। उसका ध्यान कहीं और किसी बात पर ले जाना चाहती थी, मसलन – यहाँ की साड़ियाँ बहुत मशहूर हैं... या फिर दिन में आओ कभी तो तुम्हें यहाँ की दूध-जलेबी खिलाऊँ...। मगर उसे मेरी जानकारी में कोई दिलचस्पी नहीं थी, ये लोग इन पटरियों पर कैसे गहरी नींद सो रहे हैं... वह अविश्वास से देख रही थी, “रुको न एक मिनट, मैं इनकी तस्वीर लेना चाहती हूँ।" उसने अपने गले में टंगे कैमरे को सैट करना चाहा तो मैं चीख पड़ी, “नहीं, अब बिलकुल नहीं रुकना यहाँ। बहुत देर हो रही है।" आखिर, ये विदेशी समझते क्या हैं अपने आप को ? कोई भी यहाँ आता है, भीख मांगते बच्चों की तस्वीरें खींचता है और अपने देश में उसे ‘भारत’ के नाम से कैलेंडर बनाकर बेचता है। दिल्ली के तमाम पॉश इलाके छोड़कर यह चांदनी चौक आई है कि इन दोने-पत्तलों की, लड़ते कुत्तों की और फुटपाथ पर सोते मजदूरों की तस्वीरें खींचकर ले जाए ताकि अपने देश में दिखा सके कि यही है भारत... भूखा-प्यासा...गरीब देश... और तौहीन कर सके मेरे देश की। मैं उसे इस हद तक छूट नहीं दे सकती थी।
“आखिर क्या करोगी तुम इन तस्वीरों का? क्या बताओगी इनके बारे में अपने साथियों को ?” मैंने अब तक खुद को संयत कर लिया था और अब मैं जवाबी मुद्रा में खड़ी थी। हालांकि अपने देश की गरीबी और लाचारी का कोई जवाब नहीं था मेरे पास, मगर फिर भी मैं उसे इस तरह मनमानी करने की छूट नहीं दे सकती थी, “आखिर क्या खास देख लिया तुमने यहाँ ?” मेरा बर्ताव अब डिप्लोमैटिक हो गया था।
उसने कैमरा वापस गले में छोड़ दिया और मेरी ओर मुखातिब हुई, “यहाँ आकर मैंने देखा कि हम गलत सोचते हैं कि भोजन का मतलब स्वादिष्ट व्यंजन और मीठा पकवान होता है... देखो, ये ढेर... यानी भूख बड़ी होती है व्यंजन से।" वह जूठे दोने-पत्तलों के ढेर की तरफ इशारा कर रही थी।
“मैं गलत सोचती थी, जब अपनी मॉम से नए ब्रेड की जिद्द कर रही थी,” वह गुदड़ियों की तरफ देखने लगी, “देखो, नींद बड़ी है बिस्तर और गद्दों से... ये मैंने आज जाना.... यहाँ जाना... मैं आज समझी कि जिंदगी का सुख, सुविधाओं में नहीं, संघर्ष में है।" वह उत्तेजित-सी बोलती जा रही थी, मानो उसके भीतर किसी नई दृष्टि ने जन्म लिया हो। मैं खुद उस दृष्टि से अनजान थी। अभी तक सैकड़ों बार इस तरफ आना हुआ था, मगर मुझे तो यहाँ सिवाए भीड़, धक्के और गंदगी के कुछ भी दिखाई न दिया। जीवन का जो फलसफा वह एक बार की यात्रा में हासिल कर बैठी, मैं उससे आज तक अनजान रही। शायद, बहुत नजदीक की चीज को निगाह ठीक से देख नहीं पाती, इसीलिए हमें हमारे देश में कोई आकर्षण नहीं मालूम पड़ता, जबकि आए दिन विदेशियों का हुजूम यहाँ भ्रमण के लिए आया रहता है। मैंने गाड़ी रोक दी थी। वह ‘खचाक्... खचाक्...’ तस्वीरें खींचती जा रही थी।
कुछ देर बाद, वह गाड़ी में वापस लौट आई, “चलो, अब लौट चलें।" अभिमंत्रित-सी मैंने गाड़ी स्टार्ट कर दी। उसने अपनी सीट और पीछे को सरका ली और लगभग लेट-सी गई। उसके चेहरे पर गजब का सुकून था। सड़क लगभग सुनसान थी, मैं गाड़ी भगाए जा रही थी... स्टीरियो बंद था, वह भी बिलकुल खामोश थी, मगर उसके शब्द फिज़ा में गूंज रहे थे।
सम्पर्क :
अलका सिन्हा
371, गुरु अपार्टमेंट्स
प्लॉट नं0 2, सेक्टर–6,
द्वारका, नई दिल्ली–110075
ई-मेल : alka_writes@yahoo.com
मोबाइल – 09868424477


कविताएं
सुरेश यादव की तीन कविताएं

सवेरा

सवेरा
तोड़ देता रोज
एक खौफनाक सपना
जोड़ देता
खौफनाक सवाल !

सवेरा
खतरनाक पुल है
दिन–
इसी पर से
गुजरता है रोज।

प्रगति


झुकी हुई रीढ़
प्रगति का पुल बन गई
समृद्धि के
आंकड़ों भरी गाड़ी
ऊपर से गुजर गई।
अच्छा आदमी


तुमने मुझे अच्छा आदमी कहा
मैं, काँप गया
हिलती हुई पत्ती पर
थरथराती
ओस की बूँद-सा !

तुमने
मुझे ‘अच्छा आदमी’ कहा
मैं सिहर उठा
डाल से टूटे
कोट में टंक रहे उस फूल-सा,
जो किसी को अच्छा लगा था।

‘अच्छा आदमी’ फिर कहा,
तुमने मुझे
और मैं भयभीत हो गया हूँ
भेड़ियों के बीच मेमने-सा
जंगल में जैसे घिर गया हूँ।

‘अच्छा आदमी’ जब-जब कोई कहता है
बहुत डर लगता है।

सम्पर्क:
2/3, एम सी डी फ्लैट्स,
साउथ एक्स, पार्ट–।।,
नई दिल्ली–110049
दूरभाष :011–26255131(निवास)
09818032913(मोबाइल)
ई-मेल :sureshyadav55@gmail.com

दो लघुकथायें/ बलराम अग्रवाल

सुंदरता

लड़की ने काफी कोशिश की लड़के की नज़रों को नज़रअंदाज करने की। कभी वह दायें देखने लगती, कभी बायें। लेकिन जैसे ही उसकी नज़र सामने पड़ती, लड़के को अपनी ओर घूरता पाती। उसे गुस्सा आने लगा। पार्क में और भी स्टुडैंट्स थे। कुछ ग्रुप्स में, तो कुछ अकेले। सब के सब आपस में बातों में मशगूल या पढ़ाई में। एक वही था जो खाली बैठा उसको तके जा रहा था।
गुस्सा जब हद से ऊपर चढ़ गया तो लड़की उठी और लड़के के सामने जा खड़ी हुई।
“ऐ मिस्टर !” वह चीखी।
वह चुप रहा और पूर्ववत् ताकता रहा।
“ज़िन्दगी में इससे पहले कभी लड़की नहीं देखी है क्या?” उसकी ढीठता पर वह पुन: चिल्लाई।
इस बार लड़के का ध्यान टूटा। उसे पता चला कि लड़की उसी पर नाराज हो रही है।
“घर में माँ-बहन है कि नहीं।" लड़की फिर भभकी।
“सब हैं, लेकिन आप ग़लत समझ रही हैं।" इस बार वह अचकचाकर बोला, “मैं दरअसल आपको नहीं देख रहा था।"
“अच्छा !” लड़की व्यंग्यपूर्वक बोली।
“आप समझ नहीं पायेंगी मेरी बात।" वह आगे बोला।
“यानी मैं मूर्ख हूँ।"
“मैं खूबसूरती को देख रहा था।" उसके सवाल पर वह साफ-साफ बोला, “मैंने वहाँ बैठी निर्मल खूबसूरती को देखा– जो अब वहाँ नहीं है।"
“अब वो यहाँ है।" उसकी धृष्टता पर लड़की ज़ोरों से फुंकारी, “बहुत शौक है खूबसूरती देखने का तो अम्मा से कहकर ब्याह क्यों नहीं करा लेते हो?”
“मैं शादीशुदा हूँ, और एक बच्चे का बाप भी।" वह बोला, “लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। किसी एक चीज़ या किसी एक मनुष्य में भी वह हमेशा ही कै़द नहीं रहती। अब आप ही देखिये, कुछ समय पहले तक आप निर्मल सौंदर्य का सजीव झरना थीं, अब नहीं हैं।"
उसके इस बयान से लड़की झटका खा गयी।
“नहीं हूँ तो न सही। तुमसे क्या?” वह बोली।
लड़का चुप रहा और दूसरी ओर कहीं देखने लगा। लड़की कुछ सुनने के इन्तज़ार में वहीं खड़ी रही। लड़के का ध्यान अब उसकी ओर था ही नहीं। लड़की ने खुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया और ‘बदतमीज़ कहीं का’ कहकर पैर पटकती हुई वहाँ से चली गयी।

अकेले में घुलते होंगे पिताजी

पाँच सौ.... पाँच सौ रुपये सिर्फ़... यह कोई बड़ी रकम तो नहीं है, बशर्ते कि मेरे पास होती– अंधेरे में बिस्तर पर पड़ा बिज्जू करवटें बदलता सोचता है– दोस्तों में भी तो कोई ऐसा नज़र नहीं आता है जो इतने रुपये जुटा सके... सभी तो मेरे जैसे हैं, अन्तहीन जिम्मेदारियों वाले... लेकिन यह सब माँ को, रज्जू को या किसी और को कैसे समझाऊँ... समझाने का सवाल भी कहाँ पैदा होता है... रज्जू अपने ऊपर उड़ाने-बिगाड़ने के लिए तो माँग नहीं रहा है रुपये... फाइनल का फार्म नहीं भरेगा तो प्रीवियस भी बेकार हो जाएगा उसका और कम्पटीशन्स में बैठने के चान्सेज़ भी कम रह जाएंगे... हे पिता ! मैं क्या करूँ... तमसो मा ज्योतिर्गमय... तमसो मा...

“सुनो !” अचानक पत्नी की आवाज़ सुनकर वह चौंका।
“हाँ।" उसके गले से निकला।
“दिनभर बुझे-बुझे नज़र आते हो और रातभर करवटें बदलते।" पत्नी अंधेरे में ही बोली, “हफ्तेभर से देख रही हूँ... क्या बात है?”
“कुछ नहीं।" वह धीरे से बोला।
“पिताजी के गुजर जाने का इतना अफ़सोस अच्छा नहीं।" वह फिर बोली, “हिम्मत से काम लोगे, तभी नैया पार लगेगी परिवार की। पगड़ी सिर पर रखवायी है तो...।"
“उसी का बोझ तो नहीं उठा पा रहा हूँ शालिनी।" पत्नी की बात पर बिज्जू भावुक स्वर में बोला, “रज्जू ने पाँच सौ रुपये माँगे हैं फाइनल का फार्म भरने के लिए। कहाँ से लाऊँ?... न ला पाऊँ तो मना कैसे करूँ?...पिताजी पता नहीं कैसे मैनेज़ कर लेते थे यह सब!”
“तुम्हारी तरह अकेले नहीं घुलते थे पिताजी... बैठकर अम्मा के साथ सोचते थे।" शालिनी बोली, “चार सौ के करीब मेरे पास निकल आयेंगे। इतने से काम बन सकता हो तो सवेरे निकाल दूँगी, दे देना।"
“ठीक है, सौ-एक का जुगाड़ तो इधर-उधर से मैं कर ही लूँगा।" हल्का हो जाने के अहसास के साथ वह बोला।
“अब घुलना बन्द करो और चुपचाप सो जाओ।" पत्नी हिदायती अन्दाज में बोली।
बात-बात पर तो अम्मा के साथ नहीं बैठ पाते होंगे पिताजी। कितनी ही बार चुपचाप ऐसे अंधेरों में भी अवश्य घुलना पड़ता होगा उन्हें। शालिनी ! तूने अंधेरे में भी मुझे देख लिया और मैं... मैं उजाले में भी तुझे न जान पाया। भाव-विह्वल बिज्जू की आँखों के कोरों से निकलकर दो आँसू उसके कानों की ओर सरक गये। भरे गले से बोल नहीं पा रहा था, इसलिए कृतज्ञता प्रकट करने को अपना दायाँ हाथ उसने शालिनी के कन्धे पर रख दिया।
“दिन निकलने को है। रातभर के जागे हो, पागल मत बनो।" स्पर्श पाकर वह धीरे से फुसफुसाई और उसका हाथ अपने सिर के नीचे दबाकर निश्चेष्ट पड़ी रही।

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पंजाबी कहानी

गली नंबर कोई नहीं
अनेमन सिंह
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

पिछले कई दिनों से मैं चाकू बोने की कोशिश कर रहा हूँ।
चाकू अभी तक उगा नहीं। ज़मीन तो बढि़या है। पानी भी मैं तो कई बार दे चुका हूँ। रूड़ी की खाद भी दो बार डाली है। लेकिन चाकू हैं कि अभी तक उगा नहीं है।
पता नहीं, क्या बात हो गई। पहले यहाँ जो कुछ भी बोया जाता था, झट उग आता। यह साथ वाली नीम, कुछ दिनों में ही कितनी बड़ी हो गई। निमोली मैंने ही पहले मिट्टी में दबाई थी। यहाँ एक अमरूद का बूटा भी हुआ करता था, पर उसे काट दिया गया।
अब मैं यहाँ चाकू बो कर ही हटूँगा, कभी तो उगेगा ही। फिर, मैं गलत भी कैसे हो सकता हूँ। चाकू को उगना ही पड़ेगा।
मेरे चाकू बोने के बारे में किसी को ज़रा–भी ख़बर नहीं है, मैंने किसी को बताया ही नहीं। अगर बता भी देता तो वे मुझे चाकू कहाँ बोने देते। इसलिए मैंने किसी को नहीं बताया। वैसे मेरा मन तो करता है कि माँ को बता दूँ। पर माँ तो...
यह चाकू भी मैं घर से चुरा कर लाया था। दो दिन माँ ने बहुत शोर मचाया था कि चाकू कहाँ गया। पर मैं तो चुप्पी ही साध गया था। मुझे भी पूछा था माँ ने– “रे लोधी, तूने तो नहीं देखा चाकू ?”
“मुझे क्या पता ?” मैंने तो कोरा झूठ बोल दिया था।
फिर, बात आई-गई हो गई। माँ ने बाजार से नया चाकू मंगवा लिया था। यह चाकू भी माँ ने कार्तिक वाले मेले में से खरीदा था। खूब मेला भरता है वहाँ। मैं भी जाता रहता हूँ। वहाँ एक माता-सी रहती है। कहते हैं, उसने कार्तिक महीने में जन्म लिया था... कार्तिक माता के कारण ही भारी महीना नहीं होता। मुझे उस माता से बहुत डर लगता है। मैं कभी भी उसके कमरे में नहीं घुसा। एक बार मैंने उसे देखा था, श्रद्धालुओं के बीच से निकलते हुए। बड़ी बुरी शक्ल है उसकी। साधुओं जैसे वस्त्र और गले में मालायें ही मालायें ! हमारी सारी गली उसे बहुत मानती है। मैंने माँ को कई बार माता के विषय में बात करते हुए सुना है। कहती है– इसने विवाह नहीं करवाया... काम की देवी है... जिसने काम को काबू में कर रखा है। पापी लोगों का इसे दूर से ही पता लग जाता है। उसके पास नहीं फटक सकता कोई पापी। कई पापियों को सीधा किया है माता ने।
पर मुझे तो माता की शक्ल ही बुरी लगती है। माता बिलकुल ही फत्तो मौसी की तरह लगती है। अगर फत्तो मौसी को माता जैसे कपड़े पहना दिए जाएं तो वह पूरी तरह कार्तिक वाली माता की तरह ही लगेगी। मैंने अपने दुकान के मालिक को अपने दोस्तों के संग बाते करते हुए सुना है, ऐसे ही बाबाओं और माताओं के बारे में। कहते हैं– “इनमें कोई शक्ति–वक्ति नहीं होती। इनमें कोई लालसा छुपी होती है... या फिर अधूरा काम।“
यह ‘काम’ क्या हुआ? मुझे इसके बारे में पता नहीं लगा। मैं तो मेले में सजी हुई दुकानें ही देखने जाता हूँ। वहाँ बहुत कुछ मिलता है– जलेबियाँ, पकौड़े, रंग-बिरंगे खिलौने और मालाएं।
एक माला मैं भी खरीद कर लाया था। इसमें एक दिल-सा बना हुआ था और उसमें भगत सिंह की फोटो थी। भगत सिंह मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैंने अपनी दादी से भगत सिंह की बहुत-सी कहानियाँ सुनी थीं। वह देश के लिए शहीद हुआ, सच्चा सिपाही था। उसके बचपन की बातें... कितना समझदार था वह।
यह माला मैंने अभी तक संभाल कर रखी हुई है, सन्दूक में छिपा कर। इतवार को ही पहनता हूँ। आगे-पीछे नहीं। अगर काणे ने देख ली, तो पीटने लग जाएगा। क्या मालूम, छीन लें और तोड़ कर फेंक दे। उसे भगत सिंह से कोई वास्ता नहीं। उसे तो सिर्फ पैसे से मतलब है। पहले एक बार मैं भगत सिंह की फोटो लाया था, घर की दीवार पर टांगने के लिए। मालिक ने दस रुपये दिए थे दिवाली की खुशी में। जब मैं हथौड़ी से दीवार में कील ठोकने लगा तो ऊपर से काणा आ गया।
“ओए, यह क्या कर रहा है?...ठुक-ठुक ? दीवार तोड़ेगा... यह फोटो किस बाप की लिए फिरता है?”
“भगत सिंह की है।“ मैंने साहस करके गर्व से कहा तो वह भड़क उठा, “साला बना भगत सिंह का ! कितने की आयी है ?... पैसे कहाँ से लाया ?... साले मेरी जेब में से तो नहीं निकाल लिए ?” कितने ही सवाल उसने गोली की तरह दाग दिए थे।
मैंने चारपाई से उतर कर सच बताया तो वह और अधिक भड़क उठा, “क्यों साले, अकेला ही खाये जा रहा है... घर नहीं लाता... एक वक्त की सब्जी आ जाती है।“ एक ज़ोरदार थप्पड़ मेरी बायीं गाल पर पड़ा था और भगत सिंह की फोटो मेरे हाथों से छूट कर नीचे गिर पड़ी थी।
“फिर कभी खर्च किए तो देखना घर से निकाल बाहर करुँगा... बड़ा आया देश भगत।“ कहता हुआ वह कमरे में से बाहर निकल गया था।
मैं कितनी ही देर तक नीचे गिरी फोटो वाले भगत सिंह के बारे में सोचता रहा था। माँ चूल्हे के पास बैठी सब्जी बना रही थी। वह भी देखती रही, पर मुँह से कुछ न बोली।
मैं मन मसोस कर वहीं बैठ गया। रात में बिस्तर पर पड़े मुझे नींद नहीं आ रही थी। काणे की सूरत मेरे दिमाग में घूमती रही। मैंने खूब गालियाँ दीं उसे।

वैसे मन तो मेरा भी बहुत करता है कि जो भी जेब खर्च मालिक से मिले, वह घर लाकर दूँ। पर काणे के बारे में सोच कर मैं बाहर ही खर्च कर आता हूँ। यह पैसे का तो वैरी है... घर में पैसा नहीं रहने देता। एक-दो बार मैंने दस-दस रुपये लाकर दिए थे माँ को। पर यह तभी छीन कर ले गया था फीने के पास। फीना लोगों से सट्टा लगवाता है। उसकी खुद की अच्छी-भली चक्की चलती है, फिर भी नहीं टिकता। हमारी पूरी गली के आदमी तो आदमी, औरतें भी सट्टा लगाती हैं। कहता है, दस रुपये लगाओ और सुबह तक पाँच सौ पाओ...।
पहले तारी दूधिया भी पर्ची ले जाता था। कहते हैं, उसे पुलिस ने पकड़ लिया। केस पड़ गया। तीन महीने की सजा काटकर आया तो घरवालों ने हटा दिया इस काम से...। फिर, यह फीना नंबर पकड़ने लग पड़ा। उसकी पुलिस वालों के साथ सांठ-गांठ है, तभी तो अभी तक चले जाता है धंधा।
मेरे आड़ी(यार) भी सट्टे के बारे में बहुत सारी बातें करते रहते हैं। कहते हैं, कल हमने तैंतीस लगाया था, पाँच सो आ गए। दस रुपये मैं भी चुरा कर ले आया, आ जाओ गोल-गप्पे खायें। कोई कहता, “हमने दुक्की लगाई थी, पर अगले दिन सोलह आ गया।“ और कोई कविता ही जोड़ कर सुनाने लग जाता, “ओए सट्टा... घूसे कट्टा... लगाई बिंदी, आ गया अट्ठा।“
ये सारे नंबर मैंने सुना है, दिल्ली पहुँचते हैं। वहाँ बहुत बड़ा सट्टेबाज है। उसने एक मटके में पर्चियाँ डाल रखी है, एक से लेकर सौ नंबर वाली। वह रोज रात को बारह बजे मटके में से एक पर्ची निकाल कर उसका नंबर बोल देता है। और उस पर्ची वाला नंबर सवेर तक सब जगह पहुँच जाता है, फीने तक भी।
फीना आगे, जिसने वह नंबर लगा रखा होता है, उसे बनते पैसे दे देता है। वैसे कहते हैं कि उसे मिलते तो अधिक हैं, पर वह आधे खुद रख लेता है। अगर कोई शोर मचा कर पैसे अधिक मांगता है तो वह गुस्से में बोलता है, “ओए, पुलिस को भी हिस्सा देना है, वो तुम्हारे पतंदर महीना मांगते हैं।“
फीना हमारी गली में काफी समय से चक्की चलाता आ रहा है। इसकी चक्की चलती भी बहुत है। वैसे मैंने तो यह भी सुना है कि यह दूसरी चक्की भी बहुत चलाता है। मैं तो जब भी इसकी चक्की पर आटा उधार लेने गया हूँ, इसने कभी नहीं दिया। कहता है, अपने माँ से कह, उधार वाले पैसे देकर जाए पहले। काणा खुद कभी नहीं जाता, आटा लेने माँ को ही भेजता है। माँ तुरंत आटा ले आती है। शायद, मिन्नत-चिरौरी कर आती होगी।

“आए लोधी, क्या कर रहा है... आ चलें टोटे ढूँढ़ने।“ बग्गे की आवाज़ कान में पड़ी है। मैंने घबरा कर पीछे देखा है। शुक्र है, बग्गे को मेरे चाकू बोने की बात का पता नहीं। नहीं तो इसने यूं ही शोर मचा देना था।
“नहीं, मुझे नही जाना। तू ही जा।“ मैंने उसे मना कर दिया है।
“अच्छा नहीं जाता तो ... पर मूत, तू क्या जाने टोटो का मजा...।“ गाली देता हुआ वह दौड़ गया।
उसके चले जाने पर मैंने राहत की सांस ली है। बग्गा साला गंदा है। घरवालों से चोरी बीड़ियों के टुकड़े पीता है। मुझे कतई अच्छा नहीं लगता। सारा दिन सड़कों पर गिरी बीड़ियों के टुकड़े खोजता घूमता है। वैसे उसकी माँ बहुत अच्छी है। बिहारन-सी। बाप लंगड़ा कुछ नहीं करता। नशेड़ी है।
मैं तो भप्पी के साथ ही खेलता हूँ। वह भी सिर्फ़ इतवार के दिन। बाकी दिन तो काम पर जाना होता है। बीमे वाले दफ्तर में लगा हुआ हूँ। मेरे सारे यार मुझे बाबू जी कहते हैं। बाबू कहलवाना मुझे अच्छा लगता है। तड़के दुकान खोल कर सफाई कर देता हूँ। शाम को शटर बन्द कर देता हूँ। मालिक अच्छे हैं, कोई ताना नहीं मारता। घूरता भी नहीं। पूरी शान से रहता हूँ। और इतवार की छुट्टी करता हूँ। भप्पी के साथ खेलता हूँ। अगर कभी मालिक पैसे दे देता है तो फिल्म भी देख लेता हूँ।
फिल्में तो बग्गे और उसके साथी भी देखते हैं। पर ज्यादातर लुच्ची-सी। पता नहीं, उन्हें ऐसी फिल्में क्यों अच्छी लगती हैं। मैं तो ज्यादातर गोविन्दा वाली ही फिल्में देखता हूँ। वह मुझे बहुत पसंद है। कहते हैं, गोविन्दा भी पहले बहुत गरीब हुआ करता था। होटलों पर काम करता था। बड़ा होकर हीरो बन गया। अब पास में पैसा ही पैसा है। मुझे उसकी एक्टिंग बहुत अच्छी लगती है। और फिर माधुरी जैसी हीरोइनें उसके आगे-पीछे घूमती रहती हैं।
“रे लोधी! चल नहा-धो ले।“ माँ ने मेरे ख़यालों की लड़ी को तोड़ कर रख दिया है। मैं हाथ क्यारी के पानी से धो कर माँ की ओर चल पड़ा हूँ। उसकी नज़र में तो मैं यहाँ कोई बूटा ही बो रहा होऊँगा। इसीलिए तेज-तेज चल पड़ा हूँ। क्या पता, माँ इधर ही आ जाए। पर माँ अन्दर चली गई है। अच्छा ही हुआ, नहीं तो दिमाग खा जाती। कहती है, “बेटा, ऐसे नहीं करते... पुत्त सियाणा बन... बेटा, अपने नाम की तरह राजा बनकर दिखा।“
मुझे उसकी ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। ऐसे कैसे कोई राजा बन सकता है? राजे-महाराजे तो अब कहावतों में ही रह गए। अब कोई ज़माना नहीं रहा, राजा-महाराजों का।
राजाओं-महाराजाओं के बारे में बहुत सारी कहानियाँ सुनी हैं मैंने। ये कहानियाँ मेरी दादी सुनाती थी। राजा रणजीत सिंह की कहानियाँ। जो लोहे पर हाथ फेर कर ही उसे सोने में बदल देता था। पर मैं भला कैसे राजा बन जाऊँ? मेरे हाथों बोया तो यह चाकू भी नहीं उगता।
दादी मेरी बहुत अच्छी थी। मेरा नाम लोधी उसने ही रखा था। पता नहीं क्यों? माँ ज़रूर कहती रहती है कि लोधी बहुत तगड़े राजा हुआ करते थे। सारा देश उन्हीं का था। दिल्ली रहते थे बहुत बड़े महलों में। दादी ने मेरा मुँह-माथा देखकर ही मेरा नाम लोधी रख दिया था।
पर मैं राजा अभी तक नहीं बन सका था। और अब तो मैं राजा बनना भी नहीं चाहता। कई बार तो मुझे अपने नाम पर ही खीझ चढ़ने लगती है। यह क्या नाम हुआ– लोधी? यह हमारी गली के सारे बच्चे मुझे चिढ़ाते हुए गुजरते है, “ओए लोधी... तेरे सिर पर बोदी...।“
मुझे बहुत बुरा लगता है ऐसा सुन कर। पर मैं कर भी क्या सकता हूँ। ऐसे समय में मुझे ही हँसकर रह जाना पड़ता है। भला मैं किस-किस से झगड़ता फिरूँ? और अगर झगड़ भी लिया तो घर में कौन मेरी बात सुनेगा? मैं जानता हूँ, कोई मेरी नहीं सुनता। इसीलिए टाल जाता हूँ हँसकर, सबकी छेड़खानियों को। वे मुझे हँसता देखकर चुप हो जाते हैं और मैं आगे बढ़ जाता हूँ।
पर मैं ही जानता हूँ, चेहरे पर हँसी लाना कितना कठिन है। अन्दर तो जैसे आग धधक रही हो। पर बाहर नहीं निकाल सकता उसे। एक बार उसे बाहर भी निकाल कर देखा था मैंने। बात ही ऐसी हो गई थी। वह है न, दर्जियों को मिन्दू, साले ने एक नई ही बात कहकर छेड़ा था। कहता था, “लोधी रे लोधी...तेरी माँ फीने ने चो…। मुझे यह सुनकर गुस्सा आ गया था। मैं मुड़कर उसके करीब गया तो बोला, “मैंने तुझे तो नहीं कहा... मैंने तो राजा लोधी की माँ को कहा है।“ मैं पीछे लौटा तो वह फिर से चिढ़ाने लगा, “लोधी... तेरी...।“
मैंने आव देखा न ताव। नीचे पत्थरों का ढेर लगा था। मैंने एक पत्थर उठाकर दे मारा। पत्थर सीधा मिन्दू के माथे पर बजा। खून का फव्वारा फूट पड़ा था उसके माथे पर से। मैं डर कर घर की तरफ दौड़ पड़ा। छह टांके लगे थे मिन्दू के माथे पर। बात घर में पहुँच गई। दर्जी के घरवाले इकट्ठा हो गए थे। कहते थे, छोटा सा लड़का नहीं संभाला जाता नीचों से। काणे ने डंडे से मेरा कचूमर निकाल दिया था। माँ भी देखती रही। जब उसका हाथ थका, तभी छोड़ा उसने।

यह मिन्दू का बापू तो पहले ही मुझसे खार खाता था। गली में आते-जाते जब भी मुझे देखता, आँखें लाल कर लेता। पता नहीं क्यों? मुझे पहले पता नहीं था कि यह मिन्दू का बाप है। मैं तो मिन्दू को ही जानता था। चक्की के पिछवाड़े इन्हीं का घर है। मिन्दू तो कई बार हमारे संग आइस-पाइस खेलने आया था। पर उसका बाप?

उस दिन घर लौटते मुझे देर हो गई थी। होटल पर गप्पी के पास रुक गया था। अंधेरा होने पर जब मैं अपनी गली की तरफ मुड़ा तो पेशाब करने के लिए खाली प्लाट में रुक गया। सूने पड़े प्लॉट के एक कोने में मिन्दू का बाप कुम्हारों की बहू ठुल्ली के साथ कुकर्म कर रहा था। ठुल्ली की पीली सलवार नीचे पैरों में गिरी पड़ी थी। मैंने अपनी ओर से सांस रोकने की बहुत कोशिश की, पर खड़का हो गया। यह साला पत्थर उठाकर पड़ गया मेरे पीछे। मैं बगैर जिप बन्द किए ही भाग निकला। तब जाकर जान बची।
कुम्हारों की बहू ठुल्ली वैसे तो ऐसी औरत नहीं लगती थी। मैं सवेरे जब काम पर जा रहा होता हूँ तो ठुल्ली अपने घरवाले फिड्डे के संग गुरद्वारे माथा टेकने जा रही होती है। दो-तीन साल हो गए फिड्डे के विवाह को। फीने की चक्की के बाहर मेज पर बैठा जुलाहों का भप्पी एक दिन दूसरों से कहता सुना था, “अरे कुम्हारों के फिड्डे में भी नहीं रहा कुछ...मटके बनाता ही रह गया...अभी तक घुग्गू नहीं खड़का।... पेट देख लो ठुल्ली का, टांडे की तरह पड़ा है।“ मैं उसकी बात को समझ नहीं सका था। फिर मैं पप्पी के साथियों के साथ खेलने के लिए दौड़ गया था।
“साले, सारा दिन खेले ही जाएगा... कपड़े देख कैसे गन्दे किए हुए है... कल को नये खोजेगा।“ काणे की ऊँची आवाज़ कानों में पड़ती है। घबराकर मैं मुड़ कर देखता हूँ। वह साइकिल पर चढ़ते हुए बोला था। मैं चुपचाप घर की तरफ चल दिया। वह साइकिल के पैडिल मारता हुए चला गया है।
अब वह घुद्दे के यहाँ ही जा रहा होगा। वहीं मिलती है इसे फंकी। घुद्दा फंकी बेचता है। यह उसके नये गाहक बनाता है। बदले में वह इसे भी फंकी दे देता है। पता नहीं, इसे फंकी में से क्या मिलता है? मैं भी कई बार गया हूँ घुद्दे के घर, फंकी लेने के लिए। निरा मिट्टी और लकडि़यों का बूरा-सा होता है। लोग भी यही कहते हैं। पर यह नहीं हटता फंकी लेने से। फंकी देखकर तो इसकी जान में जान आ जाती है।

घर में मेरा बिलकुल मन नहीं लगता। पता नहीं, क्या हो गया है। मुझे यह घर बुरा क्यों लगने लग पड़ा है। मैं बाहर वाले दरवाजे की दहलीज पार कर आया हूँ। माँ रोटी बनाने में लगी है। मैं उसे देखने लग पड़ा हूँ। मिन्दू के शब्द कानों में गूंजने लग पड़े हैं। मुझसे माँ की ओर देखा नहीं जा रहा। अन्दर कमरे में आ गया हूँ। टेलीविजन देखने की सोचता हूँ। क्या मालूम इससे मन हल्का हो जाए? टेलीविजन का बटन दबाता हूँ। नया प्लग कुछ दिन पहले ही लगाया है– काणे ने। अन्दर ही अन्दर डर रहा हूँ। टेलीविजन चल पड़ा है। पर मेरा डर बढ़ने लगा है। यह टेलीविजन पर सीबो कैसे समाचार पढ़ने लगी?
आँखें मलता हूँ। नहीं, यह सीबो नहीं है। समाचार पढ़ने वाली लड़की है। खीझ-सी हो रही है, ”यूं ही झूठ बोले जा रही है पढ़-पढ़कर।“ पता नहीं, कैसे मुँह से निकल गया है।
मैं पढ़ा-लिखा होता तो कितना अच्छा होता। पर चौथी कक्षा से ही हट गया, फिर स्कूल नहीं जा सका। वहाँ मास्टर के पास गोल डंडा था, “जिसने वर्दी नहीं पहनी, वो खड़ा हो जाए।“ मैं खड़ा हो जाता तो वह कहता, “ओए, गन्ने की पोरी, तू बैठ जा। यूं ही गले पड़ेगा।" मास्टर भी पीट-पीट कर थक गया था मुझे, पर मेरी नई वर्दी नहीं आयी थी। बापू तो घर ही नहीं आता था। बाहर ही कहीं रहने लग पड़ा था। फिर, पैसे कहाँ से आते? माँ तो रोटी-पानी का ही बमुश्किल कर पाती थी। वर्दी कैसे आती ? रह गई दादी, वह चारपाई पर बैठी ‘वाहे गुरू-वाहे गुरू’ करती रहती थी। अधरंग था उसे।

बापू महीने-दो महीने बाद ही घर में घुसता। यू.पी. में गुरुद्वारा संभाल लिया था उसने। जब वह इधर हुआ करता था, तो बड़ी मौजें थीं। गुरुद्वारे में पाठी था वह। मैं और मेरी बहन छोटे थे तब। अच्छे पैसे होते थे हमारे पास। हम गुरुद्वारे की गोलक में से पैसे निकाल लेते। खाते-पीते रहते। ग्लूकोज का नया-नया बिस्कुटों का पैकेट चला था। मैंने बहुत खाया है। अब तो ये और ही तरह के चटमोले से चल पड़े हैं।
ऐसे समय में ही दादी चल बसी थी। बापू को बड़ी मुश्किल से फोन करके बुलाया था माँ ने। पहुँचा फिर भी वह दाह-संस्कार के एक दिन बाद। ताऊ-चाचा तो पहले ही हमसे कम बोलते थे। दादी हमारे पास ही रहती थी। पहले उन्होंने भी हालचाल नहीं पूछा। फिर, झूठ-मूठ की आँखें सुजाये घूमते रहे। लेकिन, बनने वाला हिस्सा उन्होंने भी डाल दिया था। बापू को ये दस-बारह दिन काटने बहुत कठिन लगे। घर में रहते हुए भी वह अधिकतर चुप ही रहता। बस, चलती-सी बात करता। भोग से दो दिन बाद ही वह वापस यू.पी. चला गया। माँ बहुत चीखी-कलपी, पर उसने एक न मानी।
फिर तो वह कभी-कभार तिमाही-छमाही ही आने लगा। मेरी पढ़ाई टूट गई। मैं काम पर लग गया। चार सौ रुपये मिलते थे महीने के उस समय। सारा दिन होटल पर बर्तन मांजता रहता। बर्तन तो पता नहीं कैसे मांज-धो लेता था, मैं तो घर की बातें ही मांज-मांज कर चमकाता रहा।

उन्हीं दिनों में काणा हमारे घर में आ गया। पहली बार मैंने जब उसे देखा, उस समय वह चारपाई पर बैठा सब्जी काट रहा था, गोभी की। माँ मेरे से कुछ न बोली। बल्कि ‘चाय पी ले’ कहकर गाय को चारा डालने चली गई थी।
दो-चार दिन बाद पता चला कि यह तो हमारे घर में स्थायी तौर पर ही रहने के लिए आ गया है। पहले-पहले वह हमारे साथ बड़ा ही लाड़ करता था। खाने के लिए चीजें भी लेकर आता था। मेरी बहन उसे बापू कहने लग पड़ी। मैं तो उसे चाचा ही कहता हूँ। वह भी अनमने तौर पर।
फिर, यह घर में लड़ने-झगड़ने लग पड़ा। एक दिन माँ को गालियाँ बकने लगा, “भैण चो... मैं नहीं लिखवाता ज़मीन... ऐसे ही रहूँगा मैं तो... कर ले जो करना है...” माँ रोने लग पड़ी थी। उसे रोते देख मैं उसके पास गया तो इस काणे ने एक थप्पड़ मेरी गाल पर दे मारा। मेरे कान बजने लगे। माँ ने बड़ी मुश्किल से छुड़वाया, “मैं जा रही हूँ थाणे... मेरे बेटे को पीटता है।"
पर माँ थाने-वाने नहीं गई। यूं ही बातें करती रही। माँ कुछ कहती ही नहीं थी उसे। तभी तो साला उछला घूमता है। वैसे मुझे लगता है, माँ डरती है इससे। यह मुझे उस वक्त पता चला, जब माँ फत्तो मौसी से बातें कर रही थी। मैं चारपाई पर लेटा था। उनके लिए तो मैं जैसे सो रहा था।
“री बहन... और करूँ भी क्या ?... तुझे तो पता ही है कि आदमी बगैर कौन मानता है घर को... तभी तो चुप लगा जाती हूँ... मेरे तो करम ही खराब हैं। पहले वाला भी मेरा ही कसूर निकाल कर चला गया। खुद वहाँ भइये-राणी के साथ रहता है। और यह दूसरा, घर में क्लेश डाले रखता है।"
“चल बहन... अब तो वक्त ही काटना है। पेट में तो बहुत आग मचती है... ये बच्चों के बारे में सोच कर ही सब्र करना पड़ेगा। तेरे तो फिर भी छोटे हैं... मेरा लड़का तो डोले निकालता रहता है। कहता है– तू वहाँ क्यूं गई?... तू दरवाजे में क्यूं खड़ी थी?... फलाना क्या करने आया था?”
कितनी ही देर फत्तो मौसी बोलती रही। और फिर उसके घर से हांक लग गई। यह फत्तो मौसी वैसे तो अच्छी है, पर तब से मुझे बड़ी खराब लगती हे जब से मैंने इसे बस अड्डे में ड्राइवर के साथ हँसते देखा है। मेरी साथ भी बड़ी शरारतें करती है। एक बार मेरी निक्कर खींच कर कहने लगी, “देखूँ तो तेरी तोतो बोलती है कि नहीं?” उसकी बात सुनकर माँ भी मंद-मंद मुस्कराने लग पड़ी थी। उस दिन मैं सारी रात इसी बात के बारे में सोचता रहा कि तोतो भी बोला करती है या फिर फत्तो मौसी ने यूं ही छेड़ा था।
काणा फत्तो मौसी के घर आने पर बड़ा खुश होता है। इसके साथ बातचीत और हँसी-मजाक भी हो जाता है। एक दिन माँ कहीं बाहर गई हुई थी। जब मेरी रोटी दो बजे तक भी न पहुँची तो मैंने साथ वाली दुकान से साइकिल मांग कर घर का कुंडा आ खटखटाया। काणा मुझ पर टूट कर पड़ गया, “इतनी धूप में भी टिक कर नहीं बैठा जाता... साले रोटी को यहाँ तेरी बहू बैठी है।" मैं डर कर लौटने लगा तो मुझे फत्तो मौसी की आवाज़ सुनाई दी, “मेरा तो नहीं पता चला।"
“नहीं, तू चल अन्दर।“ काणा बोला था।
वापस दुकान लौटते तक मुझे काणा और फत्तो मौसी ही दिखाई देते रहे।
“खा आया रोटी?” मालिक ने पूछा तो मैंने झूठ बोल दिया कि घर में ताला लगा था।
उसने पाँच रुपये देकर समोसा खाने के लिए भेज दिया। पर मेरे से समोसा नहीं खाया गया। मन कर रहा था कि काणे और फत्तो मौसी के मार-मार कर पीछा सेंक दूँ।

फत्तो मौसी का छोटा लड़का मेरा यार है। मीट वाली रेहड़ी पर काम करता है। जब उसका मालिक नहीं होता, वह एक-आध बोटी मुझे भी खाने को दे देता है। छुट्टी उसे कोई नहीं मिलती। मुश्किल से दो-तीन महीनों के बाद ही करता है छुट्टी।
और मौसी का बड़ा लड़का बिजली की दुकान पर काम करता है। बड़ा चालाक है। बन-ठन कर रहता है। बाल भी सलमान खान की तरह लम्बे रखे हुए हैं। अपनी तनख्वाह अकेला ही खर्च करता है। शाम को यह फीने की चक्की के बाहर मेज पर बैठता है। वहाँ से दागल का घर जो दिखाई देता है। दागल की लड़की कालो से कोई चक्कर चलता है इसका। एक बार माला-सी पकड़ा कर मुझे कहने लगा, “ले, कालो को दे आ।“ मैंने मना कर दिया तो दो का सिक्का मेरी मुट्ठी में ठूंसता हुआ बोला, “अगर अब मना किया तो थप्पड़ बजेगा।"
मैं अभी दागल के घर के पास ही पहुँचा था कि कालो ने इशारा करके अपने पास बुला लिया। जब मैं उसके करीब गया तो झट से माला छीन कर बोली, “किसी और न बताना मेरे वीर।"
‘साली लफंडर सी!’ ‘वीर’ (भाई) शब्द सुनकर मुझे गुस्सा आ गया था। इसके बाद मैं जब भी गोलू या कालो को देखता, तो कन्नी काट लेता। क्या पता साले कहीं ओर ही न फंसा दें। पर कम ये भी नहीं। इन्होंने भूरी के घर में मिलना आरंभ कर दिया।

भूरी हमारी गली में नई ही आयी है। घरवाला उसका बूढ़ा-सा है। कुबड़ा होकर चलता है। बाहर तो कम ही निकलता है, घर में ही ज्यादा रहता है। हमारी पूरी गली में चर्चा है उसकी। पहले, भूरी के घर में कभी-कभी ही कोई बंदा आता-जाता था। पर अब तो कोई रोक-टोक ही नहीं। दिन में दो-दो, तीन-तीन आते-जाते हैं। यह खुद बाहर बैठकर चौकीदारी करता है। और भूरी उनका टाइम-पास।
हमारी गली की बच्चा–पार्टी ने अपने कानों से छुप कर दरवाजे के खड़े होकर सुना है इसे आदमियों से बातें करते, “सौ से पाँच पैसे भी कम नहीं, रोटी-पानी कैसे आएगा?”
भूरी हमारी गली के किसी भी घर में नहीं आती-जाती। बस, घर के आंगन में ही चलती-फिरती दिख जाती है, जब हम ‘ऊँच-नीच’ खेलते हुए दीवार पर चढ़े होते हैं। हमें देख सीटी बजा कर आँख दबा देती है। कुबड़ा लाठी उठा कर हमारी ओर बढ़ता हुआ गालियाँ निकालने लगता है। तब तक हम दौड़ जाते हैं।
इस कुबड़े से दागल भी लड़ पड़ी थी एक बार। वह बोला था, “तू अपनी कालो को समझा... मैं क्या तेरे घर से बुलाने जाता हूँ?” फिर वह शांत होकर घर लौट गई थी।

दागल की बड़ी लड़की भज्जो, पहले भाग गई थी धाकनियों के लड़के के साथ। उसने विवाह करवा लिया था उसके संग। फिर लौट कर नहीं आयी। उस समय काफी लफड़ा हो गया था। लोग कहते – दागल खुद गंदी है। तभी इसकी लड़की भाग गई। कालो के बाप के बारे में किसी को सही-सही नहीं मालूम। कोई कहता है– इसे छोड़ गया है। कोई कहता– दागल ने खुद ही मार दिया उसे।
“ट्रक ड्राइवर था, एक्सीडेंट हो गया उसका।" मेरी माँ तो यही कहती रहती है, जब भी दागल के घरवाले की बात चलती है।

यह हमारे वाला काणा भी पहले ट्रक ड्राइवरी किया करता था। एक दिन दूसरी तरफ से आ रहे ट्रक से टक्कर हो गई, इसके ट्रक की। सामने का शीशा टूट कर इसकी आँख में आ बजा। गलती इसकी ही थी, शराब पी रखी थी इसने। अस्पताल के डाक्टरों ने इसकी आँख निकाल दी। कहते थे– अगर न निकालते हो कांच इसके दिमाग की नाड़ी तक पहुँच जाता। यह ठीक हुआ तो लोगों ने इसका नाम ही काणा रख दिया। मैं भी इसे काणा ही कहा करता हूँ।
लेकिन, मुझे तो अभी भी यही लगता है कि शीशा इसके दिमाग में घुसा हुआ है। तभी तो साला ऐसे काम करता है। और उस समय भी यह मुझे पागल ही लगा। हम रोटी खा रहे थे। किसी ने बाहरवाले दरवाजे पर दस्तक दी। माँ ने खोला तो एक ज़ीन वाला लड़का उसे सौ का नोट पकड़ाने लगा। माँ ने इशारा कर काणे को पास बुला लिया। वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ, “हाँ भाई, क्या बात है?”
“मैं तो उसी काम के लिए आया हूँ। यह लो पकड़ो सौ का नोट।“ संकोच-सा करता वह बमुश्किल से बोला था। काणे ने उसे कालर से पकड़ कर अन्दर खींच लिया था। माँ ने दरवाजा का कुंडा लगा दिया था।
“रंडी का कोठा है।" एक मुक्का उसके मुँह पर मारते हुए काणा बोला था।
“मैं तो... मैं तो...” उससे बोला नहीं जा रहा था। गुस्सा न जाने क्यों मुझे भी आ गया। मैंने भी उसके दो थप्पड़ जड़ दिए। काणा और माँ भी उसे मारने लगे।
“मुझे माफ कर दो... गलती हो गई... मैं तो भूरी का घर समझ कर आ गया।“ वह गिड़गिड़ाने लगा था।
“बता, कितने पैसे हैं तेरी जेब में? नहीं तो थाणे लेकर जाऊँ?” काणा अकड़ कर गुस्से में बोला था।
उसने पेंट की जब में हाथ डाल कर अभी अपना बटुआ बाहर निकाला ही था कि काणे ने झट छीन लिया, “गिन हम खुद लेंगे... चल दफा हो जा यहाँ से... आगे से हमारी गली में देख लिया कर नहीं तो हड्डियों का चूरमा बना दूंगा।“ दरवाजे का कुंडा खोलते हुए काणा बोला था।
उस लड़के ने तो फौरन भाग जाने में खैर समझी। बाद में काणा और माँ हँसने लगे। वे मुझे इस तरह हँसते हुए बहुत बुरे लगे। यह क्या बात हुई? बेचारे से पैसे ही छीन लिए। मैं यह सहन नहीं कर सका। रात में काणा ठेके से बोतल पकड़ लाया। नशे में चूर होकर बोला, “इस तरह के मुर्गे तो रोज फंसाया कर रब्बा !”
मुझे बहुत खराब लगा। मुझे लगता है कि माँ से काणे ने झूठ बोल रखा है कि गांव में उसकी जमीन है। तभी तो इसकी बातों में आ गई माँ। पर अब लगता है, ज़मीन-वमीन कुछ नहीं है इसके पास। माँ जब भी इसके साथ ज़मीन को लेकर बात करती है तो साला झूठे वादे करने लगता है। हमारी गाय भी बेच दी इसने सट्टे में। एक दिन मैं जब इनके पास लेटा हुआ था तो इनकी बातें मैंने सुनी थीं। माँ इसे कह रही थी–
“मैं नहीं लेती तब तक तेरा बच्चा... पहले ज़मीन इनके नाम कर... तेरा क्या भरोसा, कल को इन्हें घर से ही निकाल दे।"
मुझे माँ की बातें समझ में न आईं।

“ओ लोधी, आ जा तोती बुला रहा है तुझे... कहता है, टोफियाँ दूंगा।" बग्गे ने मेरी सोच को तोड़ कर रख दिया। मैं आसपास देखता हूँ। सूरज छिपने वाला है।
“आ जा दोनों चलते हैं।" वह फिर बोला है।
“नहीं, तू ही जा। टीटी को भी ले जा।" मुझे वह मसखरी करता लगा था। वह खीं-खीं करता हुआ भाग गया।

तोती ने हमारी गली में ही कुछ दिन पहले परचून की दुकान खोली है। बहुत ही गंदा है। बच्चों को खाने वाली चीजों का लालच देकर अपनी दुकान के पिछले हिस्से में बिठा लेता है। उल्टे-सीधे काम करवाने के लिए। मुझे भी एक बार रसगुल्लों का लालच उसने देना चाहा था, पर मैं नहीं फंसा था उसके जाल में। ये बग्गा और उसके साथी बीड़ियों के लालच में ही चले जाते हैं उसके पास। और मिंचू का बड़ा भाई टी टी तो रहता ही है वहाँ पर। सबसे बाद में चलता है, वह। बस वालों ने कई बार उसे पीटा है। लोग तो कहते हैं, उसके बाप ने ही किया है उसे इस तरह। वह भी तो साला हरामी है। और तोती में भी वैसे ही लक्षण हैं। पहले जिस गली में दुकान थी, वहाँ लोगों ने इसे किसी लड़के के साथ पकड़ लिया था। बड़ी फिटकार-लाहनत की। उसके माँ-बाप ने हाथ जोड़कर छुड़वाया इसे। और वहाँ से दुकान बदलवा कर हमारी गली में करवा दी।
गोलू अब इसे छेड़ते हुए निकलता है, “ओए तोती, अब इधर आ गया?”
इस पर तोती भी उल्टा ही जवाब देता है, “अरे, यहाँ बढि़या है, नई गली है... इसका कौन सा कोई नंबर है, जिसका पता चल जाएगा किसी को। आजा, दुकान के पीछे, खिलाऊँ तुझे पापड़-बड़ी।"
पर, गोलू नहीं खड़ा हुआ कभी इसके पास।
यहाँ आकर तोती कौन-सा ठीक हो जाने वाला है। कीड़ा तो इसके अन्दर है। वो ऐसे नहीं मरने वाला। उसे तो मारना ही पड़ेगा जैसा कि मैं मार देने के बारे में सोचे बैठा हूँ। चाकू के उग जाने की देर है, बस।
सीबो मुझे सोने ही नहीं देती। मेरे सपनों में रोज आती है, “रे लोधी... तू तो राजा है... मेरा बदला लेगा कि नहीं?” मेरी आँख खुल जाती है। फिर, नींद ही नहीं आती। नींद की प्रतीक्षा में ही गुजरती है रात।
सीबो मुझे बहुत प्यार करती थी। माँ से भी ज्यादा। उसके होते मेरी भी कोई पक्ष था इस घर में। मैं रक्षा-बंधन की पहले से ही प्रतीक्षा करने लग जाता। रक्षा-बंधन से पहले ही मैं पैसे जोड़-जोड़कर सीबो को दे देता। मैरिज-पैलेसों में अपने यार-दोस्तों के संग मैं पैसे चुगने चला जाता था। वो पैसे सीबो के पास ही होते।

“वीरे, अगर अपना बापू घर में होता तो कितना अच्छा होता।" सीबो अक्सर फिक्र में कहती थी। काणा उसे पहले दिन से अजीब नज़रों से देखता था। माँ भी सीबों की नहीं सुनती थी। उस दिन सीबो गुसलखाने में नहा रही थी, चादर लटका कर। काणे साले को कितनी बार कहा था कि गुसलखाने में दरवाजा लगवा दे, पर इसने नहीं लगवाया। वह चादर के ऊपर से ही सीबो को नहाते देखता रहा। जब सीबो को शक हुआ तो यह उल्टा उसे ही कहने लगा, “जल्दी कर… नहा रही है कि उबटन मल रही है। मुझे भी नहाना है।"
माँ को सीबो ने बताया तो वह उल्टा उसके पीछे ही पड़ गई, “नहीं, तुझे यूं ही लगता है। ऐसा नहीं है, तेरा बापू है। उसने तो खुद जल्दी निकलना था।"
इसके बाद सीबो ने कुछ नहीं बताया था माँ को। अपने अन्दर ही पी गई सब कुछ।
अब सीबो ही नहीं रही। यह चाकू भी मैं सीबो के कारण ही बो रहा हूँ। पर यह है कि अभी तक उगा ही नहीं। कितनी बार मैं सन्दूक में छिपा कर रखी माला में लटके भगत सिंह से पूछ चुका हूँ, “मेरा चाकू क्यों नहीं उगता? तेरी बन्दूकें कैसे उग गई थीं? तूने भी तो अपने दुश्मनों को मारने के लिए इन्हें बोया था... और मैं भी वैसा ही करना चाहता हूँ।"
पर माला वाला भगत सिंह तो चुप ही रहता है। दादी की फोटो की तरह। वह भी फोटों में से देखती रहती है, पर बोलती कुछ भी नहीं। भगत सिंह के बन्दूकें बोने की कहानी भी तो दादी ने ही सुनाई थी। और सीबो की फोटो? उसे काणे ने टांगने ही नहीं दिया। बोलता था, करंट से मरी है... अनआई मौत... घर में रूह भटकने लग जाएगी। सीबो की मढ़ी हुई फोटो को कोई दीवार नहीं मिली, सन्दूक में ही रह गई बन्द होकर।

उस रात मैं सोया नहीं था। काणा शराब के नशे में धुत्त था। माँ मेरी मौसी से मिलने गई हुई थी। सीबो की चारपाई मेरे साथ ही बिछी हुई थी। मैंने तो सोचा काणा दूसरे कमरे में सो गया होगा। पर आधी रात को वह नशे की झोंक में ही कमरे में से उठ कर सीबो की चारपाई में आ घुसा। मेरे सीने में से अंगियार से निकले। मैं चारपाई पर से उठने लगा तो उसने एक ज़ोरदार मुक्का मेरे सिर पर दे मारा। मैं तो वहीं सुन्न हो गया था। फिर, सीबो की कोई चीख नहीं निकली। फिर क्या हुआ, मुझे नहीं पता।
पहले पहर मुझे होश आया। सीबो की लाश कमरे में पड़ी थी और साथ में टेलीविजन की नंगी तारें।
“टेलीविजन चलाने लगी थी... तो यह भाणा हो गया।" काणा गीली आँखों से लोगों को बता रहा था। माँ भी पास थी। पता नहीं, कब मौसी के पास से आ गई थी।
मैं तो सीबो की लाश देख कर थरथरा उठा। बत्तीसी भिंच गई। दिन चढ़ने से पहले ही उसका दाह-संस्कार कर दिया गया था। पलों में ही घर में से सब कुछ समेटा गया और दरी बिछ गई। गली के लोग शोक व्यक्त करने आते और दो घड़ी बैठकर चले जाते। भाई जी से पाठ भी काणे ने उधार रखवाया। उन दिनों में मैं सुन्न-सा हो जाता। सीबो मेरी आँखों के सामने हँसती हुई आ जाती।

“यह काणा झूठ बोलता था माँ...सीबो तो मेरे साथ वाली चारपाई पर सो गई थी... फिर टेलीविजन कैसे देखने चली गई?” मैंने माँ से बहुत कहा पर उसने मेरी एक बात नहीं सुनी, चुप हो जा। ऐसे नहीं बोला करते।
मुझे बड़ा दुख हुआ था इस बात का, पर उस समय फत्तो मौसी के संग माँ की बातें सुनकर मेरी जीभ सिकुड़ गई थी।
“री बहन, बेटियों का कोई रखवाला नहीं होता... अच्छा हुआ, चली गई सीबो। नहीं तो, कहाँ-कहाँ रखवाली करती तू उसकी।"

‘माँ ने सब्र कर लिया तो क्या हुआ। मैं नहीं सब्र करता सीबो।' न जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया।
“रे, क्या अकेले-अकेले ही बोले जा रहा है। आजा, रोटी खा ले, ठंडी हुई जाती है।" मुझे माँ की आवाज़ सुनाई दी है।
“कोई नहीं, खा लेता हूँ रोटी... पेशाब कर आऊँ।" कहकर मैं घर में से बाहर आ गया हूँ– पौधों के पास। गड्ढ़ा ताजा मिट्टी से भरा पड़ा है। कोई कोंपल नहीं फूटी अभी... लगता है, चाकू ही नकली है। उदासी भरी हालत में मैं घर की तरफ लौट पड़ता हूँ।

लेखक सम्पर्क :
गांव व पोस्ट आफिस –बोहा
जिला–मानसा(पंजाब)
पिन–151503, भारत।
दूरभाष : 09872 092101



नई किताब

आख़िरी पड़ाव का दु:ख- सामाजिक चेतना सम्पन्न कहानियाँ
रूपसिंह चन्देल

हिन्दी साहित्य में आज जिस आपा-धापी को लेकर कुछ लेखक और अधिकतर पाठक चिन्तित और परेशान हो रहे हैं, उसे कुछ समय में उपजी स्थिति का परिणाम नहीं कहा जा सकता। इसके उत्स नई कहानी और उसके पश्चात के आन्दोलनों में खोजे जाने चाहिए। आज की पीढ़ी या मेरे समकालीनों में राजनीति करने वाले रचनाकारों का अभाव नहीं, लेकिन इस सबके बावजूद कुछ ऐसे रचनाकार हैं जो साहित्यिक राजनीति से लहू-लुहान होते हुए भी निरंतर लिख रहे हैं। कथाकार सुभाष नीरव भी उनमें से एक हैं।
सुभाष नीरव बहुआयामी रचनाकार हैं। कहानी, कविता, लघुकथा, समीक्षा, रिपोर्ताज आदि विधाओं में हमें जहां उनके सृजनशील व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं, वहीं उन्होंने पंजाबी के अनेक वरिष्ठ और युवा रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद कर हिन्दी पाठकों से उन्हें परिचित करवाया है। हाल ही में उनका चौदह कहानियों का नवीनतम कहानी संग्रह “आखिरी पड़ाव का दुख” प्रकाशित हुआ है। कहानियों में लेखक का गहन जीवनानुभव अभिव्यक्त हुआ है। ये कहानियां लेखक की सामाजिक चेतना को प्रमाणित करती हैं। अधिकांश कहानियों में पारिवारिक-सामाजिक विद्रूपता, आर्थिक विषमता, संबन्धों की विश्रृखंलता और व्यवस्थागत विरूपता की यथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सहजता, जिसे भाषा की अकृतिमता अधिक ही बोधगम्य बनाती है। संवेदना के स्तर पर ये कहानियां अंतर-मन को गहराई तक स्पर्श करती हैं ।
नीरव की कहानियों की सम्प्रेषणीयता एक अलग विशेषता है। उदाहरणार्थ ‘आवाज’, ‘दैत्य’, ‘वेलफेयर बाबू’, ‘अंतत:’, ‘इतने बुरे दिन’, ‘सांप’ आदि कहानियों को लिया जा सकता है। ‘आवाज’ अपने सपनों और मृत मां की स्मृतियों में डूबी एक युवती को जिस मार्मिकता से उद्घाटित करती है, वह अविस्मरणीय है। मित्रों के साथ पिता की बातचीत का जो अर्थ वह लगाती है, वह स्वाभाविक है लेकिन अंत में लेखक जिस नाटकीयता से मित्रों के साथ पिता की बातचीत की वास्त्विकता प्रकट करता है, वह न केवल युवती को झकझोर देता है बल्कि उसके प्रति संवेदनशील हो उठा पाठक भी हिल उठता है। पिता घर में नई माँ ले आता है। ‘अंतत:’ में एक युवक की बेरोजगारी से उपजी पीड़ा को शब्दायित किया गया है जो मंगलवार के दिन सड़क पर हनुमान का चित्र उकेरकर पैसे कमाने के लिए अभिशप्त है । ‘दैत्य’ में भी एक युवक की बेरोजगारी के बहाने राधेश्याम जैसे धूर्त और लम्पट ठेकेदार को लेखक ने बखूबी बेनकाब किया है। ‘चुप्पियों के बीच तैरता संवाद’ एक ऐसे बुज़ुर्ग दम्पति की व्यथा-कथा है, जिसके तीन नौकरी-पेशा बेटे हैं, लेकिन उनकी अपनी दुनिया है। बड़ा बेटा किशन और मंझला राज बीमार पिता को देखने आने की औपचारिकता ही निभाते हैं, जबकि छोटा संकोच में अपने को फंसा अनुभव करता है । समाज की वर्तमान दारुण स्थिति का वास्तविक चित्रण है उक्त कहानी ।
नीरव के पास व्यापक अनुभव हैं। ‘वेलफेयर बाबू’ कहानी के मुख्य पात्र हैं हरिदा। एक प्राइवेट कम्पनी में हेडक्लर्क थे हरिदा। अवकाश प्राप्त करने से पूर्व उन्होंने ‘सर्वप्रिय कॉलोनी’ में एक प्लॉट खरीदा और उसमें मकान बनाकर तब रहने आ गये जब कॉलोनी में दो- चार मकान ही बने थे। लेकिन कुछ ही समय में कॉलोनी पूरी तरह आबाद हो गयी। आबाद हुई तो उसकी कुछ समस्याएं भी पैदा हुई। हरिदा ने लोगों को समस्याओं के प्रति जागरूक करने और सरकारी महकमों से कॉलोनी के लिए सुविधा प्राप्त करने का बीड़ा उठाया। लोगों ने साथ भी दिया । ‘सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन‘ बना तो उन्हें महामंत्री बनाया गया। कॉलोनी में असलम और गणेशी जैसे लोगों को इसमें हरिदा की छुपी राजनीतिक महत्वाकांक्षा दिखाई दे रही थी। ‘‘ बिन स्वारथ आजकल कोई जनसेवा नहीं करता विलफेयर बाबू !” असलम के कथन से यह स्पष्ट है। लेकिन जब कॉलोनी में एक मात्र हरिदा के मकान पर शहर प्राधिकरण वालों का बुलडोजर चला तब कॉलोनी के लिए जान देने वाले हरिदा को बचाने कोई व्यक्ति नहीं आया। आगे आया असलम जिसने उन्हें अपने घर शरण दी थीस। लेखक ने समाज के एक नग्न सत्य को ‘वेलफेयर बाबू’ में उद्घाटित किया है ।
‘इतने बुरे दिन’ बेटों की उपेक्षा का शिकार एक वृद्ध दम्पत्ति की करुण गाथा है। ‘सांप’ बिशन सिंह तरखान के बेटे लक्खा सिंह और उसकी पत्नी सोहणी की कहानी है, जिसमें पंजाबी परिवेश का पूर्ण प्रभाव परिलक्षित है। कहानी में न केवल पंजाबी लोक-जीवन अभिव्यक्त हुआ है बल्कि पहाड़ों और जंगलों से घिरी कलाल घाटी का जीवंत अंकन भी हुआ है। संग्रह की अन्य कहानियों से भिन्न यह एक आकर्षक कहानी है। ‘आखिरी पड़ाव का दुख’ एक वृद्धा मां को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है, जिसका एक बेटा ब्रिटेन में जा बसा है, जिसे वहां भेजने में बड़ा बेटा कर्जदार हो चुका है, लेकिन उसे अपनी और अपनी गोरी पत्नी की चिन्ता है भाई द्वारा लिए कर्ज की नहीं… माँ की भी नहीं। बड़ा भाई माँ को उसके पास भेजना चाहता है। वृद्धा दोनों भाइयों को लड़ता हुआ सुनती है। उस क्षण विशेष का लेखक ने जो चित्र खींचा है, वह मार्मिक है। लेखक के शब्दों में माँ की पीड़ा।, ‘‘दुख देणे, अपनी माँ को ही बोझ समझने लगे हैं…। पुत्तर , मैं तुम्हे कुछ नहीं कहती। जब तक दो सांसें बची हुई हैं, मुझे इसी कमरे में अपने पास रहने दो… मुझ बूढ़ी को इस आखिरी वक्त में क्यों अपनी आंखों से ओझल करते हो?… मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे बस यहीं रहने दो, परमात्मा के वास्ते ! वाहे गुरु तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को लम्बी उम्र दे…।" ( पृष्ठ 83) । ‘लौटना’ एक प्रेम कहानी है । ‘जीवन का ताप‘ भी एक वृद्ध दम्पति के जीवन को व्याख्यायित करती बेहद मर्मस्पर्शी कहानी है। इसके अतिरिक्त ‘सफर में आदमी’, ‘एक और कस्बा’ , ‘मकडि़यॉं’, और ‘चटके घड़े’ संग्रह की लघुकहानियॉं हैं जिनकी विशिष्टता इनको पढ़कर ही समझी जा सकती है।
नि:संदेह सुभाष नीरव का यह कहानी-संग्रह पाठकों को पसन्द आएगा।

समीक्षित कृति-
‘आखिरी पड़ाव का दुख’(कहानी संग्रह)
लेखक – सुभाष नीरव
आवरण – राजकमल
भावना प्रकाशन, 109–ए, पटपड़गंज ,
दिल्ली – 110 009
पृष्ठ - 112 , मूल्य – 150 रुपये।


श्रद्धाजंलि
डा0 अरुणा सीतेश का निधन
विगत 19 नवम्बर 2007 को दिल्ली में हिंदी की सुविख्यात लेखिका अरुणा सीतेश का निधन हो गया। वे पिछ्ले काफी समय से अस्वस्थ चल रही थीं। वह हिंदी की जानी-मानी कथाकार थीं और गत दस वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ महिला कालेज में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत थीं। ‘चांद भी अकेला है’, ‘वही सपने’, ‘कोई एक अधूरापन’, ‘लक्ष्मण रेखा’ तथा ‘छलांग’ उनकी चर्चित कृतियाँ हैं।

हिंदी कवि त्रिलोचन नहीं रहे
गत 9 दिसम्बर 2007 को 91 वर्षीय हिंदी के प्रख्यात कवि त्रिलोचन जी का निधन हो गया। वह लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। “मुझे मरने का कोई दु:ख नहीं, शब्दों से मेरा संबंध छूट जाएगा” पंक्ति लिखने वाले त्रिलोचन जी भाषा और शब्द की गहन जानकारी रखते थे जो उनकी कविता की ताकत थी। वे ऐसे कवि थे जिनके अन्दर कविता की संपूर्ण परंपरा जीवित थी। ‘धरती’, ‘गुलाब और बुलबुल’, ‘शब्द’, ‘उस जनपद का कवि हूँ’, ‘ताप के ताये हुए दिन’, ‘अरघान’ तथा ‘मैं तुम्हें सौंपता हूँ’ उनके चर्चित काव्य-संग्रह रहे हैं। हिंदी में ‘सानेट’ लिखने वाले वह अकेले कवि थे।
साहित्य-सृजन परिवार की ओर भावभीनी श्रद्धांजलि।

अगला अंक

जनवरी 2008

-मेरी बात
-बद्रीसिंह भाटिया की हिंदी कहानी-“गुप्त दान”।
-अंजना बख्शी की कवितायें।
-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथायें।
-"भाषान्तर” में नीला कर की बंगला कहानी- “आंधी” (हिंदी अनुवाद : श्यामसुंदर चौधरी)
-“नई किताब” के अंतर्गत रूपसिंह चन्देल के उपन्यास “शहर गवाह है” पर डा0 राहुल की समीक्षा
-“गतिविधियाँ” के अंतर्गत माह दिसम्बर 2007 में सम्पन्न हुई साहित्यिक/सांस्कृतिक गोष्ठियों की रपट तथा संक्षिप्त समाचार।