सोमवार, 11 मई 2009

साहित्य सृजन – मई-जून 2009


“साहित्य सृजन” के सितंबर-अक्तूबर 2008 के अंक के बाद किसी तकनीकी समस्या के चलते अगला अंक पोस्ट करने में काफी विलम्ब हुआ है जिसका हमें खेद है। यद्यपि इस समस्या को अभी आंशिक रूप में ही दूर कर पाना संभव हो सका है, परन्तु हमें विश्वास है कि शीघ्र ही इसे पूर्ण रूप से दूर कर लिया जाएगा और “साहित्य सृजन” निरंतर पोस्ट की जा सकेगी। प्रस्तुत अंक में “मेरी बात” के अन्तर्गत वरिष्ठ कथाकार ‘अपनी बात’ कह रहे हैं। “माँ दिवस” पर विशेष रूप से कथाकार बलराम अग्रवाल ने हमें ‘माँ’ पर केन्द्रित अपनी चार कविताएं प्रेषित की हैं जिन्हें यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ लघुकथाकार सुरेश शर्मा की दो लघुकथाएँ के साथ-साथ अनुवाद के अन्तर्गत पंजाबी की बिलकुल नई कथापीढ़ी के बहुचर्चित कथाकार जतिंदर सिंह हांस की दलित और स्त्री विमर्श को रेखांकित करती कहानी “रखेल” का हिन्दी अनुवाद तथा ‘साहित्य सृजन’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो रहे तोलस्तॉय के उपन्यास “हाज़ी मुराद” (जिसका हिन्दी अनुवाद वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने किया है) की अगली किस्त (किस्त-सात) यहाँ प्रकाशित की जा रही है।
‘साहित्य सृजन’ को और बेहतर बनाने के लिए हमें आपके रचनात्मक सहयोग तथा बेबाक राय की प्रतीक्षा रहेगी।

मेरी बात

इससे ज्यादा त्रासद और क्या हो सकता है ?
-अशोक गुप्ता

श्वान-युगल की रति-क्रिया बचपन में मेरे लिए एक कौतुक भरा दृश्य हुआ करती थी। उपसंहार में उनकी देहों का जुड़ जाना, फिर छूटने की ज़िद्दोज़हद में विपरीतमुखी हो कर प्रलाप की स्थिति में भीड़ में घिर जाना, पत्थरों की मार, और प्राय: संधि भंग करने की कोशिश में संधिस्थल पर लाठी-डंडे का प्रहार। सब कुछ मेरे लिए उन दिनों बस कौतुक ही था।

कुछ बड़े होने पर लगा कि यह पूरा दृश्यविन्यास कौतुक का नहीं बल्कि एक ट्रेजडी है, बेहद दुर्गति भरी त्रासदी … मैं ईश्वर को धन्यवाद देता था कि उसने मनुष्य को ऐसी जलालत से मुक्त रखा है और शायद इसीलिए मनुष्य रति-क्रिया में देह के साथ मन की आवृति की ज़रूरत को समझ पाया। उसने जाना कि एकांत और व्यवधान मुक्त परिवेश ही उस सुख को जुटा पाने की अनिवार्यता है, जिसे प्रत्यक्षत: किसी तीसरे के साक्ष्य की कोई ज़रूरत नहीं होती।

फिर मैंने ज़िंदगी का कुछ अनुभव जुटाया और मुझे लगा कि प्रकृति ने भले ही हमें कैसी भी सुविधा दी हो, हम मनुष्य बहरहाल श्वान गति को ही प्राप्त होने के लिए बाध्य हैं। मन से छ्त्तीस के आंकड़े के साथ देह का जुड़ाव, प्रलाप, आसपास कुतूहल से देखते लोगों की भीड़, बरसते पत्थर… यह सब मनुष्य के साथ भी सच है और त्रासद् है।

मनुष्य के लिए जो कि बुनियादी तौर पर एक संवेदनशील और विचारवान प्राणी है, स्त्री और पुरूष के बीच देह का जुड़ाव एक अद्भुत, चरम आनन्द भरे सुख का रास्ता खोलता है जिससे रचनात्मकता की अनन्त संभावानाएं मुखर होती हैं। इस क्रम में जो तत्व रति क्रिया को पाश्विकता से अलग स्थापित करता है, वह है देह की कामना में मन से जुड़ने की वृति जो देह की गति को एक फ़र्क सी रिदम देती है। उसक झंकार मनुष्य को वायवीय बनाती है। इसी स्थिति को ऑर्गेज्म या चरम सुख कहा जाता है।

इस ऑर्गेज्म की एकांतिकता के बीच, श्वान नियति रचती पहले खड़ी हुई नैतिकता, जिसने विवाह संस्था के रूप में स्त्री की देह पर (सिर्फ़ स्त्री के लिए) यौन शुचिता का प्रतिबंध रच दिया। यह पुरुष प्रधान व्यवस्था का एक कुटिलता पूर्वक रचा हुआ विधान था जो आज सही मायने में उसके लिए भी घाटे का दांव साबित हो रहा है।
इस यौन शुचिता के मूल्य ने स्त्री की देह को चारों तरफ भिनभिनाती मक्खियों के बीच, घर की देहरी पर रखा दूध का प्याला बना दिया। अगर एक भी मक्खी उस प्याले में गिर जाए तो प्याला उठा कर घूरे पर ही फेंका जाना पड़े, फिर चाहें उसे कुत्ते चाटें या कोई और…

इसी व्यवस्था ने स्त्री देह को एक कमोडिटी में बदल दिया और पुरुष एक कन्ज्यूमर हो गया। उपभोक्ता जिसने अपने संज्ञा रूपांतरण में कुछ नहीं गंवाया, उसने यही माना।

… लेकिन यह सच नहीं है। पुरुष ने गंवाया अपना चरम सुख, अपना ऑर्गेज्म, जो होता है तो स्त्री पुरुष दोनों का साझा होता है या होती है सिर्फ़ श्वान-नियति। वस्तु-स्त्री से ऑर्गेज्म नहीं पाया जा सकता, भले ही वह वस्तु रूप में किसी पिता द्वारा दान में मिली हो। वैसे भी, विवाह व्यवस्था में पति और पत्नी के बीच आराध्य और दासी का संबंध हो, ऐसा विधान है। ऐसे में, ऑर्गेज्म दूर दूर तक संभव नही है और यह स्थिति पति पुरूष को भी बराबर से विपन्न करती है, भले ही अपने दंभ के कवच में पुरूष को इसका आभास कभी भी न हो पाए।

ऑर्गेज्म, यानी चरम सुख से रिक्त हो कर देह के जुड़ाव को जितना फीका-कड़ुवा हो जाना चाहिए था, वह हो गया। देह का जुड़ाव पाश्विकता भरा कृत्य बन गया। मात्र मांसपेशियों का आक्रमण। एक देह से दूसरी देह की नोच-खसोट ने रतिक्रिया को एक युद्ध में बदल दिया। इससे कुछ हासिल न होने की खीझ में कृत्रिम आनन्द की तलाश शुरू हो गई। चकाचौंध रोशनी में हो तो शायद मजा आए… दारू पी कर हो…भीड़ में हो… और इस तरह रति संसार में विकृतियाँ भरती चली गईं, इस हद तक कि इस सब को समाज में, बतौर एक फैशन स्वीकृति मिलने लगी। प्रदर्शन का अतिरेक, चरम सुख की जगह उन्माद, ब्लू फिल्में, शोर भरा संगीए और तमाम दूसरी चीज़ें… लेकिन इससे हुआ क्या ? नैतिकता की और ज्यादा ऐसी- तैसी हुई।

पहले नैतिकता की स्थापना ने सुख छीना था फिर सुख के छिन जाने से नैतिकता का और ज्यादा क्षय हुआ। वह तो होना ही था क्योंकि इस नैतिकता के आधार में सुव्यवस्था नहीं थी, केवल पुरुषवादी कुटिलता थी जो स्त्री पर आधिपत्य बनाये रखने का एक सुनियोजित तंत्र थी, वरना केवल माया मेम साहब ही क्यों पीतीं ज़हर का प्याला…?

छद्म और कुटिल सोच की उपज नैतिकता ने समाज को हमेशा विकृति की ओर धकेला है। इससे आस्था मरी है, प्रेम वर्जित हुआ है, मानवीयता की क्षति हुई है और स्वार्थवृति बढ़ी है। यौन तृप्ति से वंचित समाज में एक ओर दुधमुंही बच्चियों तक से बलात्कार हुए हैं, पिता और भाई भी अपनी भूमिका में मात्र पुरुष रह जाने से बच नहीं पाए हैं, तो दूसरी ओर प्रेमी युगल ने या तो पत्थरों की बौछार झेली है या आत्महत्या… ।

नैतिकता के आतंक से एकांत संदर्भ सड़क पर आ गया और उसने श्वान नियति सा उपसंहार पाया… इससे ज्यादा त्रासद और क्या हो सकता है?

यह सही समय है जब प्रेम की वापसी का उपक्रम किया जाए और नैतिकता के नये आयाम प्रेमवृति तय करें। उसके बिना समाज में सहजता नहीं लौटेगी। सौ-सौ चैनलों का मनोरंजन भी आनन्दहीनता से उपजा क्षय नहीं भर पाएगा। इंसान कुत्ता होता रहेगा। बूढ़े भौंकेंगे, भुख्खड़ लौंडे उसे पत्थर मारेंगे।
००

29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली – 110089 मोबाईल नं- 09871187875

कविता



“माँ” पर बलराम अग्रवाल की चार कविताएं
(‘माँ दिवस’ पर विशेष)

॥1॥
अब सिर्फ देह नहीं रही माँ
पहले भी
सिर्फ देह वह थी ही कब?
वह सु-संस्कार थी
अब भी है
और रहेगी आगे भी
वह जुझारूपन थी
अब भी है
और रहेगी आगे भी
समरांगण में
साक्षात विजय थी वह
अब भी है
और रहेगी आगे भी।
वह गई कहीं नहीं,
विस्तार पा गई है पितरों जितना।
पहले उसकी हथेलियाँ,
छूती थीं हमें
और हमारी त्वचा कराती थी आभास
उस छुअन का,
उसकी नजरें
चूमती थीं हमें
और हमारी इन्द्रियाँ महसूस करती थीं
दैविक तृप्ति का।
अब उसके आशीष
बरसते रहेंगे हम पर
सुहानी धूप और शीतल चाँदनी बनकर।
माँ जब नहीं थी वहाँ,
बादल बरसाते थे पानी;
अब वे अमृत बरसाएँगे।
हरे-भरे रखेंगे
देश के खेतों-बागों-बगीचों को
भरा-पूरा रखेंगे खलिहानों को।
माँ
कभी भी
जाती कहीं नहीं देह को छोड़कर
विस्तार पा जाती है पितरों जितना।

॥2॥
जल में कुम्भ
कुम्भ में जल है
बाहर-भीतर पानी—
को पढ़कर
अपने छोटे-से कमरे से
कभी मैं बाहर होता हूँ
और कभी भीतर
पर
लाख प्रयत्नों के बावजूद भी
समा सकूँ कमरे को
स्वयं में
इतना विस्तृत नहीं हो पाता
लेकिन
कबीर की इस बानी को
सिद्ध कर दिखाने वाली
चतुर जादूगरनी निकली माँ
अपने आप को
पूरी उम्र
वह पिता के भीतर भी रखे रही
और
बाहर भी

॥3॥
खरहरी खाट पर
उलट-पलट कर
पूरे बदन की मालिश कर देने
और
कानों में दो-दो बूँद
सरसों का तेल डाल देने के बाद
एक बूँद तेल
नाभि में भी
जरूर टपकाती थी माँ
पूरे शरीर का केन्द्र है ये
मैल
इसमें भी आता है
वह कहती थी
साफ रहना चाहिए
केन्द्र को जरूर

॥4॥
बबुआ
रो रहा था
कई-कई बाल विशेषज्ञों पर
चढ़ा आए नकदी
लेकिन
न बंद हुआ न कम
उसका रोना
माँ ने
ध्यान-से देखा
परखा उसके रोने को
बोली—घबराओ मत
पछेरुओं से परेशान है बबुआ
साफ रुई का एक फाहा लाओ
और
घिसा हुआ थोड़ा-सा माजूफल
नितम्बों के बीच
फाहा कूच
पीठ को थपथपा
बबुआ को सुला दिया माँ ने
बीमारियों को
बच्चों से दूर रखनेवाली
बड़ी ही सिद्ध
वैद्य थी माँ!
00


बलराम अग्रवाल का जन्म २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था. आपने हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.
लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.
हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.
अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.
कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.
सम्प्रति : स्वतन्त्र लेखन .
हिन्दी ब्लॉग :
www.jangatha.blogspot.com
www.kathayatra.blogspot.com
सम्पर्क : एम-७०, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११००३२.
फोन . ०११-२२३२३२४९,मो. ०९९६८०९४४३१

लघुकथाएं



दो लघुकथाएं – सुरेश शर्मा

कच्चे धागे


पति-पत्नी में मन-मुटाव जब चरमसीमा पर जा पहुँचा तो बात तलाक तक जा पहुँची। तलाक के लिए दोनों राजी-खुशी तैयार थे। किंतु दो वर्षीय बालक पर अपना अधिकार छोड़ने को कतई तैयार नहीं थे।
“बालक तो मेरे साथ ही रहेगा।” पति ने आदेश दिया।
“नहीं, उसे तो मैं किसी भी हालत में नहीं छोड़ सकती।” पत्नी ने भी सख़्त रुख अपनाया।
काफी बहस के बाद दोनों टस से मस नहीं हो रहे थे। अंत में पति आवेश में आते हुए बोला- “ठीक है, मैं इसके लिए कोर्ट में जाऊँगा।”
“तुम्हारी मर्जी, जाओ कोर्ट। जो बात ढकी हुई है, अच्छा है, ज़माने को भी मालूम पड़ जाए। डी एन ए टैस्ट के बारे में तो तुमने सुना ही होगा।” पत्नी ने अंतिम शस्त्र का उपयोग किया। पति इस आकस्मिक आक्रमण को सहन नहीं कर सका। ऊपर से नीचे तक कांप उठा। भयातुर स्वर में धीमे स्वर में बोला- “ठीक ह, बच्चा मेरे पास रहे या तुम्हारे, क्या फ़र्क पड़ता है।”
उसके जाने के बाद पत्नी दु:खी होते हुए बुदबुदाई, “काश, मुझ पर नहीं तो अपने आप पर ही विश्वास किया होता।”
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नया मकान

रामलाल जब इस मकान में रहने आया, तभी से माँ का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। काफी इलाज करवाने पर भी माँ की दशा में सुधार नही हो रहा था। डॉक्टरों की फीस तथा दवाइयों के खर्चों तथा बच्चों की पढ़ाई के भारी खर्चों ने उसके सीमित बजट में सेंध लगा दी थी। ऐसे में लोक-लाज के कारण लोगों की सलाह मानकर बार-बार डॉक्टर, अस्पताल, दवाइयाँ बदलते-बदलते रामलाल को आर्थिक, मानसिक और शारीरिक संकट ने हिला कर रख दिया। उसे कष्ट में देखकर रिश्तेदारों, मित्रों ने सुझाया कि तुम्हारा मकान ही अशुभ है, इसे बदल डालो। मगर एक तो वह ऑफिस के नज़दीक होने से, दूसरा बड़ा कारण कि इतने कम किराये पर नया मकान कहाँ मिलेगा, यही सोचकर कुछ समय तक वह लोगों की राय को अनसुनी करता रहा। लेकिन जब पानी सिर से ऊपर आ गया तब रामलाल ने आख़िर दूसरा मकान खोज ही लिया। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। पहले पंडितों की राय ली गई। जब पंडितों ने मकान शुभ-फलदायी बताया तो वह उसमें रहने आ गया।
अभी एक माह भी नहीं हुआ था कि एक दिन माँ की तबीयत ऐसी बिगड़ी कि आख़िर वह चल बसी। अर्थी को कंधा देते समय रामलाल के दिमाग में विचार कौंधा – पंडित ने ठीक ही कहा था कि नया मकान शुभ-फलदायी रहेगा।
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सुरेश शर्मा
6 मई 1938, इन्दौर(मध्य प्रदेश)
कृतियाँ : छोटे लोग, शोभा, थके पाँव(सभी कहानी संग्रह)। 40 से अधिक लघुकथा संकलनों में लघुकथाएं संकलित। ‘कहानी और कहानी’ वार्षिकी, ‘समान्तर’, ‘क्षतिज’, ‘संयोग –साहित्य’ के लिए संपादकीय सहयोग। मालवा अंचल के कथाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं पर आधारित लघुकथा संकलन “काली माटी” का संपादन।
सम्मान : लघुकथा लेखन के लिए कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सम्पर्क : 235, क्लर्क कालोनी, इन्दौर-452011
दूरभाष : 0731-2553260/09926080810

पंजाबी कहानी


रखेल
जतिंदर सिंह हांस
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

चेयरमैन : सरपंचनी कुर्सी पर बैठी सरपंच बनने की सज़ा भुगत रही है। हालांकि बैठी वह थाने में है, पर मन उसका घर में भटक रहा है। घर में चूल्हा ठंडा पड़ा होगा। बच्चे और गुलगुलजारा भूखे-प्यासे होंगे। गुलगुलजारा तो जल भुनकर कोयला हो गया होगा। उसकी व्हील-चेयर इधर-उधर घूम रही होगी, मानो साले को मिर्चें लगी हों। जल भुन तो तभी गया होगा जब उसे पता चला होगा कि सरपंचनी मेरे साथ गयी है। उसका चेहरा चुनाव में हारे उम्मीदवार की तरह हो गया होगा। बड़बड़ाया होगा-''कुत्ती औरत, कार का मजा लेने के लिए फिसल गयी।''
थानेदार थाने में नहीं है। कहीं बाहर गया हुआ है। मेरी उससे मोबाइल पर बात हुई है। कहता है-''जब हुक्म करोगे, आ जाऊँगा सरकार।'' जब तक मंत्री साहब का हाथ मेरे सिर पर है, तब तक ऐसे ही चलेगा। हेमू बनिये की तरह चमड़े की चलायेंगे। हम हुए मंत्री साहब के जिगर के टुकड़े ! पुलिस हुई हमारी रखेल ! सरपंचनी को इस तरह बैठा देखकर मेरा पेट हँसने लगता है। ये वो लोग हैं जो जल्दी ही पैर छोड़ जाते हैं। इसीलिए इसे आज अच्छी तरह टांग के नीचे से निकालकर घर भेजना है। ताकि हर किसी के सामने बोलने की हिम्मत न करे। इसका तकिया-कलाम 'हाँ जी, हाँ जी' कभी 'ना जी, ना जी' न हो जाए। कई बार मन में आता है- क्यों लिए फिरता हूँ, इस दो टके की जनानी को कार में। साली को अक्ल, न शक्ल। पर साली सियासत बड़ी कुत्ती चीज है। अगर वोट लेने की मजबूरी न हो, दुनिया को सुई के छेद में से निकाल दूँ।
आज वाला केस भी अजीब है। देबी और पाली की घरवालियाँ आपस में लड़ पड़ीं। दोनों सगे भाई हैं। उधर लड़ने वाली सगी बहनें हैं। एक ने नाली में रोड़ा लगाकर पानी रोक दिया। दूसरी ने नाली में से रोड़ा निकाल दिया। फिर दोनों एक-दूजे को गालियाँ बकने लगीं, आपस में गुत्थम-गुत्था हो गयीं। पाली और देबी, माँ के पिये दूध की लाज रखने के लिए लाठियाँ उठा लाए।
राज़ीनामा तो इनका गाँव में ही हो सकता था। बात इतनी खास नहीं थी। पर थाने गए बगैर इन्हें रोटी हज़म नहीं होती। जैसा कि चुटकला सुनाया करते हैं। पुलिस दोनों दलों को जूते मारकर पूछती है, ''राजी ?'' दोनों दल मार खाकर हाथ जोड़कर कहते हैं, '' हाँ जी, राजी।''
थानेदार कहता है, ''फिर निकालो नामा।'' अगर नोट नहीं देने तो फिर कोर्ट-कचहरी का चक्कर। पार्टी अपनी गरज को मार भी खाती है, नामा भी देती है। थानेदार हाथ रंग लेता है। मेरी बहुत इज्ज़त करता है। कभी-कभी जब बड़ी रकम हाथ लगती है, दसवां हिस्सा मेरा भी निकाल देता है। जिसे वह तेल-पानी का खर्चा कहकर ज़बरन मेरी जेब में ठूंस देता है। बीस साल हो गए सरपंची करते और पार्टी के दूसरे पदों पर रहकर इलाके की सेवा करते हुए। मैंने तो यह निष्कर्ष निकाल रखा है कि राज़ीनामा कभी गाँव में होने ही न दो, दोनों पार्टियों को थाने पहुँचाओ। तभी दोनों दल तुम्हें बाप की तरह पूजते हैं। गाँव में जिस किसी को समझाने के लिए कुछ कह दो, उसी का मुँह फूल जाता है। वोट टूट जाते हैं। जिन्होंने लड़ाई छेड़ी थी, वे दोनों औरत होने का फायदा उठाकर घर में बैठी हैं। मुख्तयार कौर जिसका जुर्म सरपंच होना ही है, वह थाने बैठी है। दो धड़ों में बंटे गाँव में थानेदार के न आने के कारण जैसे सूखा पड़ गया है। लोग टोलियाँ बना-बनाकर आपस में बातें किये जाते हैं। घास खोदने वाली जात कुर्सी पर डटी बैठी है। मेड़ पर घास खोदती यह खुश होती है, पर कुर्सी पर होंठ लटकाकर ऐसी बैठी है जैसे इसके माँ-बाप मर गए हों। इसे देखकर हँसी आती है। करना करवाना इसने कुछ भी नहीं। थानेदार से मार खाकर, उसे पैसे देकर, दोनों दलों ने लिखत में राज़ीनामा करना है। इसने उस राज़ीनामे पर टूटे हुए अक्षरों में मुख्तयार कौर लिखना है। मुझे इस तरह मन मसोसकर बैठी पर तरस नहीं आता, न ही इसके भूखे-प्यासे बैठे परिवार पर, न ही बेज़ुबान पशुओं पर, न ही इसके अपाहिज पति गुलगुलजारे पर। बल्कि उसकी घूमती व्हील-चेयर के बारे में सोचकर हँसी आती है। मन में ठंडक पड़ती है। उस साले ने मुझे भी इसी तरह तड़पाया था। उस समय मेरे दिल्ली की पार्लियामेंट या चंडीगढ़ विधानसभा में जाने के चांस बनते थे। गुलगुलजारे साले ने ऐसी लात खींची, चौरासी वाले चक्कर में जा फँसा। अब तक तानी-बानी ठीक नहीं बैठी। साली चेअरमैनी के साथ ही गुजारा करना पड़ा। चेअरमैनी भी जूतम-पजार करके ली थी। नहीं तो मैं मंत्री बना लाल बत्ती वाली गाड़ी में घूमता। सलूट बजते, माया की वर्षा होती। कसूर कुछ मेरा भी था। मेरा अपना अनुभव कि चार साल ग्यारह महीने इन लोगों को जितना चाहे कूटते रहो, पर वोटों से महीनाभर पहले पुच-पुच करो तो सब कुछ भूल-भुलाकर ये पूंछ हिलाने लगते हैं- गलत साबित हो गया था। लोग मेरे द्वारा कुछ अधिक ही कूटे गए थे। मंत्री के साथ मिलकर पंचायती ज़मीन का सौ किल्ला दबाने के वक्त लोग पुलिस की मारपीट और थाने-कचहरियों को नहीं भूले थे। हरिजन बस्ती की वोटों पर मैं उछलता फिरता था। वे सभी गुलगुलजारे ने बहुजन समाज पार्टी की ओर से खड़े होकर तोड़कर रख दीं। मैंने इसे बैठ जाने के लिए बहुत लालच दिए, पर यह टस से मस न हुआ। बोला- काशी राम कहते हैं... हमारा बहुजन का राज आने वाला है। वोटें हालांकि इसे घर की ही मिलीं, पर इतनी सी वोटों पर ही मैं हार गया। ऊपर से चाहे मैं कितना ही 'हाँ भैया' करूँ, पर अन्दर से मैं इससे खार खाता हूँ।
सरपंची हार कर मेरे मन में उस लड़की वाली कहानी घूमने लगी जो अपनी सहेली को बताती है-''बापू मेरी शादी नहीं करता।''
सहेली कहती है-''ले, बेटियाँ भी किसी ने घर में रखी हैं।''
उसकी मंगनी हुई। सहेली ऑंखें-सी नचा कर बोली, ''क्यों, अब खुश है ?''
लड़की ने कहा, ''मुझे अभी भी नहीं लगता कि मेरा ब्याह होगा।''
विवाह का दिन तय हो गया। फेरे हो गए। डोली वाली कार में बैठने के लिए लड़की चल पड़ी। सहेली ने उसकी बगल में चिकौटी काटकर कान में कहा, ''अब तो खुश है ?'' लड़की बोली, ''अभी भी मेरे मन में धुकधुक-सी है।''
लड़की डोली वाली कार में बैठ गयी। लड़के का बाप ऊपर से पैसे फेंकने लगा। कार धीमे-धीमे चलने लगी। लड़की रोने का शगुन-सा करने लगी। लड़की का बाप लड़के वालों के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला- ''भाई बारात वालो, मैंने अपना पूरा जोर लगाकर ये कारज किया है। अपनी ओर से बारात की पूरा सेवा की है। आप खुश हैं ?''
बारातिये बोले, ''हाँ जी, हम तो बहुत ही खुश हैं।''
बाप ने झट से कार का दरवाजा खोला। लड़की को बांह से पकड़कर बाहर खींच लिया। बोला- ''उतर बेटी, तू तो रोती है, ये ससुरे के खुश हुए फिरते हैं।''
मेरे साथ भी उस लड़की जैसा ही हुआ था। हाई-कमान ने पार्टी फंड लेकर मेरा मंगना-सा कर दिया। मेरी जायज़-नाजायज़ ढंग से जमा की गयी माया, खाड़कुओं के साथ वाले संबंध माफ करके सात फेरे भी दिला दिए। लेकिन, टिकट देते समय यह दलील देकर डोली वाली कार में से बाहर खींच लिया कि जो सरपंची नहीं जीत सकता, वह एम.एल.ए. या एम.पी. कैसे बन सकता है। उस वक्त हमारी पार्टी की हवा अच्छी थी। लोग कहते थे कि अगर इस बार गधे को भी टिकट मिल जाए तो लोग उसे भी एम.एल.ए. बना देंगे। हाई-कमान ने यह तजरबा हमारे इलाके में किया। वह गधा पाँच साल शिक्षा मंत्री रहा।
यह निष्कर्ष मेरा उसी समय का निकाला हुआ है कि आदमी का आधार अपने गाँव में मजबूत होना चाहिए। गाँव में कोई भी अच्छी-बुरी घटना घटती है, उसका हल सियासी हितों के आधार पर करो। अगले बरसों में मैं चेअरमैनी करता रहा और गाँव में अपना आधार मजबूत करता रहा। लेकिन, इस बार हमारा गाँव आरक्षित हो गया।
गिद्धे में लड़कियाँ बोली डालते हुए तमाशा-सा किया करती हैं। एक लड़की सिर पर चुन्नी लपेटकर 'करतारे का भाइया' बन जाती है। दूसरी लड़की बोली डालती है-
-रे, करतारे के भाइया !
-हाँ जी।
-रे, मेरे पीर कलेजे !
-हाँ जी।
-रे, दो खट्टियाँ ला दे।
-हाँ जी।
-रे दो मिट्ठियाँ ला दे।
-हाँ जी।
-रे मैं मरती जाती...
-हाँ जी।
वह तंग आकर कहती है-
-रे, तेरी मर जाए हाँ जी !
-हाँ जी।
मुझे ऐसे उम्मीदवार की आवश्यकता थी जो मेरी हाँ में हाँ मिलाये। उसका हर उत्तर 'हाँ जी' हो। सबसे पहले मेरी निगाह हमारे घर में काम करती माया पर पड़ी। वह हमारी सीरी भइये की घरवाली थी। मैं उसे मजाक में मायावती भी कह देता। भइया साला मूर्ख निकला, बोला, ''हम क्यूं चमरवा बनें, हम तो यादव हैं।'' चमरवा तो मैं उसे बना लेता, फिर सोचा- इस उड़ते पंछी का क्या पता, कब उड़ जाए। अगर इसने किसी के सामने भौंक दिया तो सारे किए कराये पर पानी फिर जाएगा। भइये के जवाब देने के बाद बस्ती और बाज़ीगरों के डेरे पर निगाह दौड़ाई।
हम निजी सम्पर्क प्रोग्राम के अधीन घर-घर जाकर लोगों को शराब बांट रहे थे और अपना चुनाव चिह्न समझा रहे थे। मेरा फार्मूला है कि वोट मांगने दुश्मन के घर भी जाओ। माना कि 'गुग्गा पुत्त' नहीं बख्शेगा, पर माथा तो टेकने से नहीं रोकेगा। हम इनके घर गए। साथ में और लोग भी थे। मैंने मुख्तियारो से कहा, ''मुख्तयार कौर, इस बार हाथ को वोट डालनी है।''
मेरे साथ गए बुज़ुर्गों से पल्ला करते हुए उसने कहा, ''हाँ जी, सरकार जी, हम तो हर बार आपके पंथ (अकालियों) को ही वोट डालते हैं।''
सभी हँसने लगे तो यह घबरा गयी। मैंने बात संभाली, ''मुख्तयार कौर, इस बार पंथ की तरफ नहीं हाथ की तरफ हूँ। मोहरें हमने हाथ पर लगानी हैं। मैंने उनकी तरफ रहकर भी देख लिया, पंथ-वंथ उनका कोई नहीं। उनका तो वह काम है कि 'नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे मेरे पुत्त दा भला।''
वह शर्मसार-सी होकर कहती रही, ''सरदार जी, हमने क्या लेना किसी पंथ-वंथ से, हमारा तो सब कुछ आप ही हो।''
ऐसे ही उम्मीदवार की मुझे ज़रूरत थी। बात मुख्तियारे के मान जाने की नहीं थी। उसने तो 'हाँ जी, हाँ जी' ही कह देना था। बात तो गुलगुलजारे के मानने की थी। शाम को घर जाकर इन्हें समझाया। गुलगुलजारा पैरों पर पानी नहीं पड़ने देता था। साला लंगड़दीन !
''ये तो अनपढ़ है।''
''अपनी पार्लियामेंट के आधे नेता अनपढ़ हैं। वे देश चलाये जाते हैं। इसने तो गाँव को देखना है। जब तू सरपंच बना हुआ था, तू कौन-सा बी.ए. पास था।''
''हम गरीब हैं। इतना खर्च कहाँ से करेंगे। पिछली बार खर्चा न करने के कारण मेरा डिब्बा खाली निकला।''
''तू क्या समझता है, स्कूल के आगे गोलियाँ-टाफियाँ बेचकर टाटा-बिरला बन जाएगा। मुख्तियारो घास खोद-खोद कर इंदिरा गांधी बन जाएगी। सरपंची तो पहली सीढ़ी है। अपने हलके का एम.एल.ए. जिसका बाप टांगा चलाया करता था, वह अब कारू बादशाह से भी ज्यादा माया इकट्ठी किए बैठा है। चुनाव में तेरा सारा खर्चा मैं करुँगा। फिर लाखों की ग्रांटें मिलेंगी। छत लेना पक्का मकान। खाते रहना सरकारी पैसा।''
''पर सरदार, हमारी पार्टी ने तो बन्दा खड़ा किया हुआ है।''
''तुझे सौ की एक सुनाऊँ, पार्टी-वार्टी कुछ नहीं होती। यूं ही कुर्सियाँ लेने के लिए पार्टियों के नाम रखे हुए हैं। गुलजार सिंह, सब कुछ कुर्सी के लिए होता है। राज यहाँ न अकालियों का, न कांग्रेसियों का, न भाजपा का। राज है यहाँ सरमायेदारों का। अगर हमने इनसे राज छीनना है तो हमें उठना होगा। अब आ रहा है पंचायती राज। मैं तो चाहता था, यह राज हमारी भाभी करे, आगे तुम्हारी मर्जी।'' मेरे शब्दजाल में फंस कर उसने 'जैसे आपकी मर्जी' कहकर हथियार फेंक दिए।
जैसे-तैसे करके मैंने इसे सरपंचनी बनवा दिया। ग्रांट इससे गलत ढंग से खर्च करवा दी। अब अगर यह अपना सब कुछ भी बेच दे, सरकारी पैसा जो इसने नहीं खाया, इससे वापस होने से रहा।
थानेदार आ गया। दोनों दलों के आदमी सींखचों से बाहर निकाल लाए गए। राज़ीनामे पर दस्तख़त-अंगूठे हुए। दोनों दल अपनी-अपनी ट्रालियों में जा बैठे। मुख्तियारो कार में आ बैठी। ट्रालियाँ अभी खड़ी हैं क्योंकि अभी नंबरदार नहीं आया है। मैंने मुख्तियारो से कहा, ''हो तो अंधेरा ही गया, पर थानेदार के आए बग़ैर बात खत्म नहीं होनी थी। तेरे दस्तख्तों के बिना राज़ीनामा नहीं होना था।'' कह कर मैंने उसे चौड़ा कर दिया। वह बोली, ''हम अब गाँव का फैसला गाँव में ही कर लिया करेंगे। अपने लोगों को थाणे-कचेरियों में नहीं भटकने देंगे।'' उसके मुँह से सियानी-सी बात सुन कर मैं हैरान रह गया। नंबरदार को हांक मारते-मारते रुक गया। सरपंचनी की छातियों की ओर देखकर कार आगे बढ़ा ली। कार के अन्दर वाली लाइट का स्विच आफ कर दिया।

गुलजारा : सरकारी हाई-स्कूल के सामने टाफियाँ-बिस्कुट और दूसरा छोटा-मोटा सामान बेचने के लिए पूरी दिहाड़ी दुकान लगाकर बैठा रहा। पर आज कमाई अधिक नहीं हुई।
पी.टी. मास्टर हाथ में अखबार लिए निकला। अखबार हर वक्त उसके हाथ में ही होता है। बड़ा कमीना आदमी है। खाता भी रहेगा और साथ में कहता भी रहेगा- 'भई सरपंच, सामान बढ़िया रखा कर।' जितनी कमाई होती है, उससे अधिक नुकसान ये मोटे पेट वाला कर देता है। पर आज उसका व्यवहार बदला हुआ था।
''सरपंच, तुम्हारी तो मौजें हैं। पंचायती राज आ गया अब। ये देख, सरकार पंचायतों को कितने अधिकार दिए जा रही है। ये देख, आज का अख़बार, शिक्षा विभाग और स्वास्थ्य विभाग तुम्हारे अंडर हैं। अगर अब तू कहा करेगा कि मास्टर जी, बच्चों को फिर पढ़ाना, पहले मेरी ये दुकान देखना, तो मुझे देखनी ही पड़ेगी। भई अब हमारे पर मेहरबानी रखना...ं।''
सरपंचनी तो मेरी घरवाली है मुख्तियारो, पर लोग मुझे ही सरपंच कहे जाते हैं।
''छोड़ो जी, क्यूं मजाक करते हो। आप तो हमारे अफसर हो।'' मैंने कहा। लेकिन, मन में खुशी के लड्डू फूटने लगे। मन में सोचा, ''जरा अंडर हो जाओ बेटा, फिर देखना हाथ।'' एक फायदा तो होगा ही, हैड-मास्टर आकर घूरा नहीं करेगा कि तेरी चीजें खाकर बच्चे बीमार हो जाते हैं। न ही ये मोटे पेट वाला मेरी चीजें डकार कर मेरा नुकसान किया करेगा।
''नहीं मास्टर जी, सरपंच तनखाहें कहाँ से दिया करेंगे।'' मैंने अपनी चिन्ता ज़ाहिर की।
''उसकी तू चिन्ता न कर... बस हमारे ऊपर कृपा रखना...ं।'' कह कर पकौड़ियों की मुट्ठी भर कर वह स्कूल की ओर चल दिया।
मेरा मन हुआ, पी.टी. मास्टर से अख़बार लेकर उसकी फोटो कापियाँ करवा कर गली-गली में लगवा दूँ। हर एक को बताता घूमूंं कि आ गया जनता का राज। अख़बारें तो कब से ख़बरें दे रही हैं कि पंचायती राज होने वाला है। पंद्रह अगस्त को ईसड़ू में होने वाली सभा में लीडर भी तो भाषण झाड़ते थे। कहते थे, ''अंग्रेजों के जाने के बाद अब धोतियों वाले काले अंग्रेजों के हाथ में राज आ गया। हमारे देश का भला तब तक नहीं होगा जब तक शक्तियाँ निचले स्तर पर नहीं बांटी जातीं। यानी पंचायती राज।'' शायद वही पंचायती राज आ गया। मुख्तियारो को सरपंचनी बनाकर मैंने कोई गलती नहीं की।
सामान समेटकर घर को चल पड़ता हूँ। घर जाकर मुख्तियारो को बताऊँ- जैसे इंदिरा देश की रानी थी, मायावती किसी सूबे की रानी है, वैसे तू गाँव की रानी है। इसे कहते हैं- ऊपर की नीचे, नीचे की ऊपर। सरपंचों के भी अधिकार होते हैं। लोग यों ही नहीं सरपंची के पीछे लड़ते घूमते। चेअरमैन के कहने के मुताबिक, कुर्सी बड़ी कुत्ती चीज है।
खुद-ब-खुद मेरे होंठ गुनगुनाने लगे-

होवां नशियां' च गहिरा
दसां शाम नूं दुपहिरा
किहड़ा ढेका ला लूं पहिरा
झल्लणी मुताज ना
ढाई घंटे साडे ते
किसे दा राज ना।

मुझे लगा मानो मेरी व्हील-चेअर लाल बत्ती वाली कार हो। सड़कों पर चलते-फिरते लोग कीड़े-मकोड़े हों। अब समझ में आया कि जो लोग हमारे बीच से कुर्सियों के मालिक बनते हैं, वे बड़े लोगों की बोली क्यों बोलने लगते हैं। अभी अख़बार में ख़बर ही आयी है। लोग 'सरपंच जी, सरपंच जी' कहकर झुक-झुककर सलाम कर रहे हैं। अभी मेरी पहियों वाली कुर्सी गाँव के बाहर ही थी कि 'कीकनियों' का भजना खेतों की ओर जाता मिल गया। बोला, ''आ भई खड़पैंचा, तुझे कैसा गाँव का मोहरी बनाया, तू जिम्मेवारी समझता ही नहीं। गाँव में आंधी चल रही है, तू आराम से व्यापार करता घूम रहा है। तुझे गाँव की जरा भी फिकर है ? सारा गाँव थाणे पहुँचा हुआ है। गाँव की तो क्या, तुझे घर की भी फिकर नहीं। तुझे तब अकल आएगी जब चेअरमैन सरपंचनी को शहर वाली कोठी में रख लेगा।'' मुझे लगा, ठीकठाक खड़े को अचानक पीछे से किसी ने पीट डाला हो।
''जा, भैण का यार कुत्ता।'' जब मैंने कहा, वह दूर निकल चुका था।

मुख्तियारो को शहर वाली कोठी में रखने वाली उसकी बात मुझे डसे जा रही थी। नहीं, चेअरमैन ऐसा नहीं कर सकता। न ही मुख्तियारो ऐसा कर सकती है। पर 'चार बच्चों की माँ प्रेमी के साथ फरार' वाली खबर भी तो पी.टी. मास्टर ने सवेरे सुनाई थी, जो पंचायतों को अधिक अधिकार वाली ख़बर के नीचे दबकर रह गयी थी। घर लौटा तो दरवाजे बन्द। ज़रूर मुख्तियारो थाणे गई होगी- भैण देने चेअरमैन के साथ। बच्चे भैंस के लिए चारा लेने गए होंगे। मुझे मुख्तियारो पर गुस्सा आने लगा। अब उसे मुझ अपाहिज से क्या लेना। जब से टांगों से मुहताज हुआ हूँ, कुत्ती औरत को पंख लग गए। बिलांद भर लम्बी ज़बान लग गयी। पहले साली के मुँह से रोने के सिवा कोई आवाज़ नहीं निकलती थी। उसका फ़र्ज़ नहीं बनता था कि अपने खसम से पूछकर जाती। मैं मछली की भांति छटपटाने लगा। पहियों वाली कुर्सी कभी इधर, कभी उधर घूमने लगी। कहाँ से साला सरपंची का स्यापा गले में डाल लिया। पहले सुख से दो रोटी खाते थे। जात-बिरादरी भी तोड़ ली। कहते हैं- जब हम पहले खड़े थे, फिर तूने क्यों मुख्तियारो को सरपंच बनाया। चुनाव हारकर भी रुलिया ने कहा, ''कोई बात नहीं गुलजार सिंह, लोगों का फैसला सिर माथे।'' पर चेअरमैन ने दरार बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। छोटे-छोटे बच्चों से गाँव में जुलूस निकलवाया, नारे लगवाये-

जित्ती आ भई जित्ती आ,
जित्त गई मुख्तियारो।
हार गया भई हार गया,
हार गया रुलिया।
की करुगा गोहा-कूड़ा।

पहले हम भाइयों की तरह बरतते थे। दुख-सुख में आते-जाते थे। अब सभी मेरी खिल्ली उड़ाते हैं।
अंधेरा हो गया। मुख्तियारो अभी घर नहीं लौटी। मेरी पहियों वाली कुर्सी का मुँह चेअरमैन के घर की तरफ हो गया। उसके घर में बन रहे पकवानों की खुशबू मेरे दिमाग को चढ़ गयी। मेरी भूख और चमक उठी। गुस्सा फितूर बनकर दिमाग को चढ़ गया। गुस्से पर काबू करते हुए सरदारनी के आगे हाथ जोड़े, ''सरदारनी जी, मेरा टब्बर भूख से परेशान है। डंगर-पशु भूखे खड़े हैं। सरदार को फोन करो।''

अंधेरा और गहरा हो गया। मेरी पहियों वाली कुर्सी चेअरमैन के आंगन में इधर-उधर घूमे जा रही थी। क्रोध में ऑंखों के आगे अंधेरा छा रहा था। पता नहीं, किस वक्त मेरे मुँह से चेअरमैन के लिए गालियाँ निकलने लगीं। हर वक्त हँसने वाली सरदारनी लाल-पीली होकर अन्दर से निकली और बोली, ''अपनी औकात में रह।'' भइये ने 'साला चमरुआ' कहकर मेरे थप्पड़ मारे। मेरी कुर्सी घुमा दी। फिर उलटा दी। सरदारनी ने उसे रोका, ''छोड़ परे रामू, छोटे लोगों के मुँह नहीं लगा करते।'' मेरी कुर्सी भइये से ठीक करके मुझे उस पर बिठाया। शायद मेरे नाक से बहता खून देखकर उसे तरस आ गया हो। मुझे कहने लगी, ''गुलजार भाई, लोगों से लड़ने की बजाय मुख्तियारो को समझा।''

कुर्सी को धकेलता पता नहीं कैसे मैं घर पहुँचा। भूखे-प्यासे बच्चों ने शोर मचा रखा था। घर के अन्दर अंधेरा था। बिल न भरने के कारण बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। दीया पता नहीं कहाँ रखा है। मूर्ख औरत लौटकर वापस घर आये तो सही... आज नहीं छोड़ूंगा। साली कार का मजा लिए घूमती है !
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जतिंदर सिंह हांस
शिक्षा- एम ए , बी एड।
प्रकाशित कृति : पावे नाल बन्निया होया काल(कहानी संग्रह)- पंजाबी में।
पाये स बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)- हिन्दी में।
संपर्क : गाँव-अलूना तोला, पोस्ट आफिस-अलूना पल्लाह,जिला-लुधियाना(पंजाब)-41414
फोन : 01628-275220, 09463352107

भाषांतर



धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-7)

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

॥ सात ॥
घायल आवदेयेव को छावनी के निकासी द्वार के निकट के अस्पताल में, जो लकड़ी के एक छोटे-से मकान में था, ले जाया गया और जनरल वार्ड के एक खाली बेड पर लिटा दिया गया। वार्ड में चार मरीज थे। एक सन्निपात-ग्रस्त टायफायड का केस था, और दूसरा निस्तेज, ज्वरग्रस्त, धंसी हुई आँखें, सदैव मरोड़ उठने की आशंका से ग्रस्त और लगातार जम्हुआई लेनेवाला मरीज था । दो और थे जो तीन सप्ताह पहले हुए हमले में घायल हुए थे। एक, जो खड़ा हुआ था, हाथ में और दूसरा; जो बिस्तर पर बैठा हुआ था, कंधे में घायल था। टायफायड वाले मरीज को छोडकर शेष ने नवागन्तुक को घेर लिया और उसे लेकर आने वालों से प्रश्न करने लगे।
'' वे लोग कभी-कभी धुंआधार गोलीबारी करते हैं, लेकिन इस बार उन्होंनें केवल आधा दर्जन बार ही फायर की थी,''- लेकर आने वालों में से एक ने उन्हें बताया ।
''भाग्य की बात है।''
''ओह।'' आवदेयेव दर्द को रोकने का प्रयास करता हुआ कराहा, जब वे उसे बिस्तर पर लेटा रहे थे। जब उन्होनें उसे लेटा दिया, उसने त्योरियाँ चढ़ाई और कराहना बंद कर दिया, लेकिन पैर के कारण बेचैनी अनुभव करता रहा। उसने घाव को अपने हाथों से पकड़ लिया और एकटक अपने सामने की ओर देखने लगा। डाक्टर आया और उन्हें आदेश दिया कि उसे औंधा पलट दें यह देखने के लिए कि क्या गोली पीछे से बाहर निकल गयी थी।
''यह क्या है ?'' डाक्टर ने पीठ और नितम्बों पर बने क्रास के लंबे सफेद निशान की ओर संकेत करते हुए पूछा।
''सर, पुराने घाव का निशान है !'' कराहते हुए आवदेयेव बुदबुदाया।
उसने धन का अपव्यव किया था। उसके लिए उसे जो दण्ड दिया गया था, यह उसीका निशान था।
उन्होंने उसे पुन: पलट दिया, और डाक्टर ने सलाई से उसके पेट में गहराई तक टटोला और गोली तक पहुँच गया, लेकिन उसे निकाल नहीं सका। उसने घाव की ड्रेसिंग की और चिपकनेवाला प्लास्टर चढ़ाया, फिर चला गया। पूरे परीक्षण और घाव की ड्रेसिंग के समय आवदेयेव दांत भींचे और आँखें बंद किये लेटा रहा था। जब डाक्टर चला गया उसने आँखें खोलीं और विस्मय से चारों ओर देखा। उसकी आँखें मरीजों और अर्दली की ओर घूमीं, फिर भी उसे लगा कि वह उन्हें नहीं देख रहा है, बल्कि विस्मित कर देने वाला कुछ और ही देख रहा है।
आवदेयेव के साथी पानोव और सेरेगिन आए हुए थे। वह अचम्भित-सा उन्हें टकटकी लगाकर देखता हुआ, उसी प्रकार लेटा रहा। देर तक वह अपने मित्रों को पहचान नहीं पाया, हालांकि उसकी आँखें सीधे उन्हें ही देख रही थीं।
''पीट, क्या तुम घर से कुछ मंगाना चाहते हो ?'' पानोव ने पूछा।
आवदेयेव ने कोई उत्तर नहीं दिया, हालांकि वह पानोव के चेहरे की ओर ही देख रहा था।
'' मै पूंछ रहा हूँ, तुम घर से कुछ मंगाना चाहते हो ?'' उसके ठण्डे हाथ को स्पर्श करते हुए पानोव पुन: बोला।
आवदेयेव को चेतना वापस लौटती हुई-सी प्रतीत हुई।
''हैलो, अन्तोनिच।''
''हाँ, मैं आ गया। तुम घर से कुछ मंगाना चाहते हो ? सेरेगिन लिख देगा।''
''सेरेगिन,'' कठिनाई से अपनी आँखें सेरेगिन की ओर घुमाते हुए आवदेयेव बोला, ''क्या तुम लिख दोगे ? तब उन्हें यह लिखो - आपका बेटा पीटर मर गया । मुझे अपने भाई से ईर्ष्या थी - यही बात पिछली रात मैं कह रहा था … लेकिन अब मैं प्रसन्न हूँ। ईश्वर उसे सौभाग्यशाली करे। मैं उसकी खुशकिस्मती की कामना करता हूँ। मैं प्रसन्न हूँ। ऐसा ही कुछ लिख दो।”
जब वह यह सब कह चुका, उसने पानोव पर एकटक दृष्टि गड़ायी और लंबी चुप्पी साध ली।
पानोव ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''तुम्हारा पाईप, तुम्हारा पाईप, मैं कहता हँ, वह तुम्हें मिल गया ?'' आवदेयेव ने पूछा।
''वह मेरे सामान में था।''
''अच्छा, अच्छा। अब मुझे एक मोमबत्ती दो। मैं मरने वाला हूँ।'' आवदेयेव बोला।
उसी समय पोल्तोरत्स्की उसे देखने आया।
''तुम कैसा अनुभव कर रहे हो … खराब ?'' वह बोला।
आवदेयेव ने आँखें बंद कर लीं और सिर हिलाया। उसका दुबला चेहरा निष्प्रभ और कठोर था। उसने उत्तर नहीं दिया, लेकिन पानोव से पुन: बोला:
''मुझे मोमबत्ती दो, मैं मरने वाला हूँ।''
उन्होने एक मोमबत्ती उसके हाथ में रख दी, लेकिन यह सोचकर कि उसकी उंगलियाँ उसे पकड़ नहीं पायेगीं, उन्होंने मोमबत्ती उसकी उंगलियों के बीच में रखा और उसे थामे रहे। पोल्तोरत्स्की कमरे से बाहर चला गया और उसके जाने के पाँच मिनट बाद अर्दली ने आवदेयेव के हृदय के पास कान लगाया और कहा कि वह मर गया।
तिफ्लिस को जो रिपोर्ट भेजी गई उसमें आवदेयेव की मृत्यु का विवरण इस प्रकार दिया गया था- ''23 नवम्बर को कुरियन बटालियन की दो कम्पनियाँ जंगल साफ करने के लिए छावनी से गयी थीं। वृक्ष काटने वालों पर आक्रमण कर दिया। अग्रिम चौकी पर तैनात दलों ने वापस लौटना प्रारंभ कर दिया, जब कि दूसरी कम्पनी ने संगीनों से धावा बोल दिया और कबीलाइयों को खदेड़ दिया। युद्ध के दौरान हमारे दो सिपाही सामान्य रूप से घायल हुए थे और एक की मृत्यु हो गयी थी। कबीलाइयों के लगभग सौ लोग हताहत हुए थे।''
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(क्रमश: जारी…)

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