सोमवार, 14 जनवरी 2008

साहित्य सृजन- जनवरी 2008

मेरी बात



सुभाष नीरव

नव वर्ष 2008 के आगमन पर अपनी ही एक कविता को आपसे साझा करना चाहता हूँ-


शुक्र है-
निरन्तर बढ़ रहे इस विषाक्त वातावरण में
बची हुई है, थोड़ी-सी प्राणवायु।

शुक्र है-
कागज और प्लास्टिक की संस्कृति में
बचा रखी है फूलों ने अपनी सुगन्धि
पेड़ों ने नहीं छोड़ी अपनी ज़मीन
नहीं छोड़ा अपना धर्म
स्वार्थ में डूबी इस दुनिया में।

बेईमान और भ्रष्ट लोगों की भीड़ में
शुक्र है-
बचा हुआ है थोड़ा-सा ईमान
थोड़ी-सी सच्चाई
थोड़ी-सी नेकदिली।

शुक्र और राहत की बात है
इस युद्धप्रेमी और तानाशाही समय में
बची हुई है थोड़ी-सी शांति
बचा हुआ है थोड़ा-सा प्रेम
और
अंधेरों की भयंकर साजिशों के बावजूद
प्रकाश अभी जिन्दा है।

एक बेहतर दुनिया के लिए
थोड़ी-सी बची इन अच्छी चीजों को
बचाना है हमें-तुम्हें मिलकर
भले ही हम हैं थोड़े –से लोग !


आइये, इस नये साल में हम-आप ये शुभकामनाएं करें और संकल्प लें कि एक बेहतर दुनिया के लिए थोड़ी-सी बची अच्छी चोजों को हम खत्म न होने देंगे…



हिंदी कहानी

गुप्त दान
बद्री सिंह भाटिया

गंगा भाभी के मन में न जाने कब कोई बात सरका गया कि जिनके संतान नहीं होती, उनकी गति नहीं होती। इस बात से वह मन ही मन अशांत हो गई थी। संतान में बेटा होना तो लाजिमी है। अन्त समय में कपाल क्रिया और फिर धर्मराज तक की यात्रा के लिए पिंडदान, वैतरणी पार के लिए गऊदान बहुत आवश्यक होता है और गर ये सब न हो तो कोई गुप्तदान भी चल सकता है। निराकरण का निचोड़ यह था।
गांव में किसी गप्प-गोष्ठी, विशेषकर महिलाओं की, में कब कौन-सी बात उठ जाये, पता नहीं चलता। मन को उद्वेलित करने वाली बात की चर्चा चूल्हे के पास शाम को होती है। मगर गंगा भाभी इस बात की चर्चा करे तो किससे? विधवा और उस पर निस्संतान का क्या चूल्हा, क्या चौका? पकी तो पकाई, न पकी तो चुप। या किसी ने दे दी कटोरी सब्जी तो हो गया डंग निकालने का गुजारा। कहते भी हैं ‘कल्ला नी देखणा खान्दा, टब्बर नी देखणा कमान्दा।’ सो अकेले के जो बात मन में गड़ गई, वह हो गई फैसला।
गंगा भाभी का घर हमारे घर से कोई सौ-फुट होगा। पर्दा केवल इतना कि बीच में बांस का बीड़ा है जिससे ये पता नहीं चलता कि भाभी आंगन में बैठी है या पिछवाड़े। हमारे घर का रास्ता उसके आंगन की दीवार से लगता बना है। रास्ते के नीचे कोई तीन-फुट की दो पौड़ियाँ उतर कर उसके आंगन में आ सकते हैं।
गंगा भाभी से मेरी बात इतनी ही थी कि रास्ते से गुजरते नमस्कार और एक वाक्य निकलता, ‘ठीक-ठाक हो न।’ यह वाक्य इतना चलते कहा जाता कि प्रत्युत्तर की आशा न होती, चलते-चलते तब तक उसके घर के कोने तक पहुंच जाता जब तक वह कहती–‘ठीक ही हूं।’ कई बार पीछे से आवाज आती– ‘मंया बैठा बी कर, कब्बी।’ पता नहीं मैं क्यों भाभी से कतराता हूं। ...उसका सामना नहीं करना चाहता।
यदि भाभी से रास्ते में सामना हो ही जाये, जैसे वह मवेशी खाने से लौट रही हो या दुकान से बीड़ी का बंडल लाकर आ रही हो, तो इतना उल्हाना देती ‘मैं ठीक कां हूं। देख मेरी नाड़ी।’ और अपनी सूखी, सूनी कलाई मेरे आगे कर देती। मानों मैं कोई नामी वैद हूं।

मैं शहर और गांव के बीच सातवें दिन से जुड़ा हूँ। शहर तक हमारे गांव से बस से दो-अढ़ाई घंटे का रास्ता है। सो प्रति शनिवार उपस्थिति हो जाती है। रविवार को घर के काम, गांव वालों से मिलना, कोई समाज-सेवा का कार्यक्रम या दुकान पर गप्पों में रम जाना आदि दिनचर्या रहती।

कोई दो महीने पूर्व भाई साहब ने आंगन में धूप सेंकते हुए कहा, ‘तू नीचे चला जाया कर...गंगा भाभी के पास। बहुत पूछती रहती है।’
‘क्यों क्या बात?’ मैं सहज ही पूछ गया।
‘उसने कोई बात करनी है तुझसे।’
‘मुझसे क्या बात? मेरे नाम वसीयत तो नहीं करनी?’ सहसा निकला मेरे मुंह से। फिर अपनी बात का अर्थ समझा। मैं हँस दिया। अपने को सही करते हुए मैंने तर्क दिया कि यह मैंने यूं कहा कि उसके संतान तो है नहीं। सूख कर कांटा सी हो गई है। जीवन का क्या पता, सो ऐसे लोग बुढ़ापे का सहारा ढूंढते रहते हैं। शायद...।
‘नई यार। ऐसा नहीं है। और हो भी तो बुरा क्या है?’ भाई ने द्विअर्थी बात फिर कही।
भाई की बात के दूसरे अर्थ को अपनी सोच से मेल खाता समझा मैंने। उसी तरह कुर्सी से चिपके हुए कहा, ‘साफ क्यों नहीं कहते?’ सामने बैठी मां भी हमारी बात सुन रही थी। उसने ही कहा, ‘वो’ बीमार है, काफी। उस दिन सौ गज दूरी तीन बार बैठ कर पार की उसने?’

‘मतलब?’
‘उसे रास्ते में आराम के लिए रूकना पड़ा।’
मैंने फिर बात को हवा में उड़ाना चाहा– ‘वह तो रोज की बीमार है। दुनिया के सारे भूत-प्रेत उसे ही लगे हुए हैं। मुझे तो पसंद नहीं।’ अब मैं पहले की तरह नहीं था, थोड़ा गम्भीर हो गया था।
‘पर वह तो तुझे ही चाह रही है। तू एक बार जाकर तो आ उसके पास। तेरे लिए तड़पती रहती है। कितनी बार आ गई यहां।’ मां ने कातरता से कहा।
दुकान तो जाना ही था। गंगा भाभी के घर के पास से गुजरते आवाज दी–‘भाभी।’
भीतर से प्रत्युत्तर आया– ‘हां। इधर आ।’ ऐसा लगा मानो वह मेरी ही बाट जोह रही हो। बाहर से बोले मेरे शब्द उसने पहचान लिए, जैसे उसे इनकी ही आशा हो। मेरे कदम फाटक की ओर हो लिए। फाटक पार कर आंगन के दस कदमों में मैंने महसूस किया कि वह चारपाई पर से उठने का उपक्रम कर रही हैं। दरवाजे पर से कहा–‘भीतर आऊं या तुम बाहर आ रही हो।’
‘बाहर आ रही हूँ पिछवाड़े चल। बहुत काम है तुझ से।’ भाभी के बोलने में यद्यपि पूर्ववत् की कराहट थी, मगर थोड़ा अन्तर भी था जो यह स्पष्ट कर रहा था कि वह अब वास्तव में बीमार है।
पिछवाड़े जाड़े के दिनों में धूप बहुत अच्छी लगती है। बोरी बिछा कर बैठ गये हम। उसने उल्हाना दिया– ‘मंया थक गई मैं तो बुलाती, पर तू तो निठुर निकला।....मेरा कुण है। सारा गांव दुश्मणों से भरा है, लोक नजर लगाये हैं कि कब मुर्दा उठे।’
‘क्यों तेरे वो हिसाबी जो हैं।’ मैंने दूर के एक वारिस का जिक्र किया।
‘मुए हिसाबी, लेणे के। आज छ: महीने हुए मेरे को, ली खबर किसी ने। दवा लेणे को तेरे भाई को भेजती हूँ।’ भाभी के चेहरे पर पीड़ा उभर आयी।
‘मेरे से कुछ काम बता रही थी।’ मैंने प्रसंग बदला।
‘हां, अच्छा ये बता, पर तू हंसणा नी, ये गुप्तदान क्या होता है?’ उसने जरा हंस कर कहा। और बीड़ी निकालने के लिए पाकेट में हाथ डाला मानों अपने कहे शब्दों से उठ आई शर्मिन्दगी को छुपाने का बहाना मिल गया हो।
‘गुप्तदान तो गुप्तदान होता है.....जो गुप्त रूप से दिया जाये।’
‘क्या भला?’
‘कुछ भी, धन, जमीन तक...।’
‘मैंने सुना जिनके बच्चे नहीं होते, उनकी गति नी होती।’ फुसफुसाई वह और, प्रश्न-भरी दृष्टि मेरे चेहरे पर डाली।
‘ये तो चन्दू पंडित को होगा पता। वो ई करता रहता है, ऐसी बातें?’
‘उसने नी बताया।’
‘तो फिर किसने कहा?’
‘कोई कह रहा था। बताऊंगी, पर मेरे मन में बी है कि मैं बी दान करूं।’ हल्का मुस्कराई वह।
‘तो करो। मुझे बता क्या करना है।’
‘पैले इसका अर्थ समझा, फिर बताऊंगी? तू तो ज्ञान-ध्यान वाला है।’ सम्भवत: उसने कभी दुकान पर उठी बहस के बीच मुझे धर्म पर बोलते सुन लिया होगा, जिसे मैं दुकानदार को हराने के लिए और अपनी टांग ऊपर रखने के लिए हथियार स्वरूप इस्तेमाल किया करता था और इसने ऐसा अन्दाज लगा लिया होगा। पर मैं क्या बताता। मुझे तो ये सब चोंचले लगते हैं। फिर सोचा अगर यह बात नहीं है तो इसने जरूर किसी भागवत या सत्यनारायण की कथा में कोई प्रसंग सुना होगा या किसी ने कहा होगा कि फलां आदमी ने मंदिर बनवाने को इतना गुप्तदान दिया...। जाने कितने पक्ष मेरे जहन में उभर गये। फिर बोला– ‘भाभी जी, यदि मन में कुछ विचार उठा है, और उसकी आप में सामर्थ्य है, तो उसे पूरा कर लेना चाहिए। ये नहीं पूछना या देखना चाहिए कि क्या होता है और क्या फल? इसमें कुछ तो होता ही होगा। कम से कम मन तो शांत हो जाता है। जीवन का उतरार्द्ध है, अब तुम्हें अपने बारे में भी सोच लेना चाहिए। मैंने सुना तुम ज्यादा बीमार हो? डाक्टर को दिखाना था।’
‘दिखाया था। दस दिन अस्पताल रह कर आई हूँ। अब प्राण नहीं रहे। सो मेरा ये दान करा दो। और...।’ वह रुक गई। मन में अंत समय के डर से उठी पीड़ा उभर आई थी, गला भी भर आया था उसका।
‘क्या दान करना चाहती हो?’
अपने को संयत कर कहा उसने, ‘मैं गीता की किताब और सौ रुपया दान करूंगी। मैंने पंडित से बात की थी। उसने इसके साथ जो सामग्री लगती है वो लिखी है। तू बी देख, लाती हूं।’ वह बड़ी मुश्किल से उठी और दीवार के सहारे भीतर चली गई। मुझे उसकी चाल से लगा ये अब कुछ ही महीनों की मेहमान है। अकेली रहती है– क्या पता खाना भी खाती है कि नहीं? भाई से कहूंगा कि इसे खाने के लिए पूछ लिया करें। ऐसे लोग बीमारी से कम भूख से ज्यादा मरते हैं।
वह आ गई थी। कागजों का पुलिंदा लिए। उसने कुछ चीथड़े हुए कागज और एक ताजा लिखा तह किया कागज, सब मेरे हाथ में दे दिये–‘तू देख भला क्या लिखा है? चीथड़ा हुए कागजों में सबसे ऊपर वाले कागज की ओर इशारा कर कहा उसने। फिर मुस्कराई और बैठ गई।
अस्पताल से छुट्टी का कार्ड था। डायग्नोसिस की जगह डाक्टरी लिखाई में लिखा था, ‘ब्रोंकोंजेनिक कारसीनोमा...।’ दवाइयां और दस दिन बाद अस्पताल के रेडियोथेरेपी विभाग में रिपोर्ट करने की हिदायत।
‘बीमारी पढ़ कर मैं भी घबरा गया। पूछ बैठा–‘तू अकेली रही अस्पताल में?’
‘तो कौन रहता। मेरा है कुण? ये जिनको तू कैता है न टब्बर वाल़े। मुए ये....।’ भाभी का मुंह कसैला हो गया।
‘मेरी बहन का लड़का ले गया था। दो बार हुंआ भी आया। बाकी खुद भटकती रही। ऊपर-नीचे। चार बार तो एक्स-रे हुआ। तू जाणता है, अस्पताल...।’ वह रूआंसी हो गई।
‘फिर क्या बोला उन्होंने?’
‘बोले, कैंसर बी हो सकता है, सो परे जाओ अब।’
‘परे?’
‘हां, हुआं कैंसर अस्पताल को....सो मैं आ गई घर। मरना ई है तो फिर आज मरे कि कल। तू ये देख पंडत का पर्चा।’
दूसरे कागज अस्पताल में बाजार से मंगाई दवाओं की पर्चियां और बिल थे। ताजा लिखा कागज पंडित द्वारा दिया दान सामग्री का पर्चा था।
पंडित जी ने गीता की पुस्तक के साथ, जनाना, मर्दाना कपड़े, बूट, धोती, हवन आदि की सामग्री के साथ सोने-चांदी की प्रतिमाएं आदि लिखी थीं।
‘ये तो कोई पांच सौ का सामान है। तू कहती थी कि गीता की पुस्तक और सौ रुपये...।’
‘कुछ बी है पर ये करना है, जीवन का क्या भरोसा। सो जितना हो जाये ठीक है। उसने जरा रुक कर कहा– ‘पंडत से पूछा था, बोला था कि शास्त्र के मुताबिक दान में ये तो लगते हैं– दान पूरण होणा चाहिए। हां! ये तुम किसी मंदिर में भी दे सकती हो। फिर पूजा-वूजा की जरूरत नहीं। सो मैंने तो विधि के मुताबक करना है कल उल्टा न पड़े। मैं भी बाल-बच्चेदार हूं।’
और उसने अपनी बगल की पाकेट में हाथ डाल। सौ-सौ के पांच नोट निकाले, मुझे थमाये और कहा ‘तू ला दे ये, अगले इतवार को दिन अच्छा बताया है।'
‘ठीक है, मैं ला दूंगा। पैसे रहने दो।’
‘नहीं, ये तो लेणे ई पड़ने। ऐसा दिन बार-बार नी आणा।' भाभी ने आग्रह किया। उसके आग्रह से लगा मानो बहुत परिवर्तन आ गया है उसमें। वरना गांव के भण्डारे का जोड़ लेते समय वह अपने अकेले होने का रोना रो कर, दस की जगह दो रुपये देती थी।
‘हां! एक बात और।’ भाभी ने कहा।
‘कहो।’
‘मैं वसीयत बी करना चाहती हूं।’
‘ये ठीक है, भाभी। तुझे अब किसी को अपने साथ रख लेना चाहिए। बहुत थक गई है तू।’ मैंने उसकी बात का समर्थन किया। परोक्ष में कैंसर से होने वाली मृत्यु की ओर भी इशारा था।
‘तू दस(बता) किसको रखूं? हिंया सब लुटेरे हैं। बोलते हैं, पैले लिख दे। फिर करेंगे सेवा? अब तू दस जे मैंने लिख दिया। होर फेर नी पूछा किसी ने तो मेरा क्या होगा?’
‘नहीं ऐसा नही होता।’ मैंने कहा।
‘क्यों नी होता? देख उस मनभरू को। कर मरी न हिब्बा। फेर क्या दिया उसने। मुआ अंत में लकड़ी डालने बी नहीं आया। आखिरी कर्म करना तो दूर बेचारा वो टब्बर वाला हिसाबी ई खरा था जो काम आया। वो हिसाबी जिसकी परछाई नी लेणा चाहती थी। सो मैंने नी करना ऐसा– तू जाण। मेरे बचार में तो तू है, सो तू देख ले।’ अपने मन की बात आखिर कह ही दी उसने।
‘मैं?’
‘होर क्या?’
‘मैं भी तो इसी गांव का हूँ, मुझ पर ऐसा विश्वास क्यों?’
‘ये मैं जाणती हूं, मैंने सबको परखा है, भैया मैं नी जाणती जे कितनी दया करता है तू...।’ उसका गला भर आया था।
‘मैं तो ऐसे बी देख लिया करूंगा। पर तू होर बता, क्या है तेरे मन में?’
उसने बताया कि मेरा एक बचार और भी है– मेरा घर गांव की सभा में रहे। गवाइण ग्राम देवता को। उस पर पांच हजार रुपया खर्च कर देणा। मेरे पास बीस हजार रुपया है– मेरा कर्म-पिंड और सेवा, दवा-दारू उसी तरह करना जैसे अपने पिता के किए थे। वह रो दी। मुझे लगा– बे-औलाद देखो अपने अंत समय को किस तरह सुरक्षित रखते हैं! फिर कहा– ‘अरे! भाभी, आप घबराती क्यों हो। हर शनिवार को आता हूँ। भाई है, घरवाली है, तुम चिंता न करो। वसीयत को छोड़ो, पहले ठीक तो हो लो। यूं दिल छोटा नहीं करते।’ सांत्वना के दो शब्द।
‘जिंदगी का क्या भरोसा। मैं अपनी जमीन उनको नी देणा चाहती, जो मेरे टब्बर के बणते हैं होर मेरा मुरदा उठणे की प्रार्थना करते हैं।’ उसने अपनों के प्रति उठी मन की कड़वाहट उगल दी।
‘अपनी बहन के लड़के को दे दो।’
‘उसके अपणी ही नहीं सम्भाली जाती। अकेला मुझे क्या देखेगा। यूं भी पिछले एक साल से तेरा भाई ई देख रा है।’ मुझे उसकी बात से हैरानी हुई। भाई ने कभी जिक्र ही नहीं किया?
‘ठीक है। अगले इतवार को सोचेंगे? सामग्री मैं ले आऊंगा।’ मैं उठ गया, पर्चा लेकर।
घर आया तो भाई को सारी स्थिति बताई। उसे उल्हाना भी दिया। फिर नई जिम्मेवारी के सभी पहलुओं पर विचार किया– कैंसर की मरीज, कौन सेवा करेगा? आप अकेले। बच्चे तो मानते नहीं। मैं भी घर का कम शहर का ही ज्यादा हूँ। नौकरी से छुट्टी नहीं मिलती। वैसे एक बात और है यह ब्रोकोंजेनिक कारसीनोमा है– क्या पता कब फट जाये? गारंटी कोई नहीं।
‘सोच लो। जमीन यूं ही नहीं मिल जाती।’ भाई ने निराश आवाज में कहा।

सोमवार को मैं शहर चला गया। उसका सामान एकत्र करने लगा था। बाकी सामग्री तो आसान थी, मगर सुनार से प्रतिमा बनवाना कठिन था। शहर के सुनार इस प्रकार के काम को हुज्जत समझते हैं।
वीरवार को मैं बाजार से होता हुआ गुजर रहा था कि गांव का एक आदमी मिला। ‘अरे ! मैं तो थक गया ढूंढता। वो सयाणी ज्यादा बीमार है। तुझे घर बुलाया है– किसी को अपने नेडे़ नहीं मानती। बस, तुम्हारी ही रट लगा रखी है।’
‘क्यों क्या हुआ? सण्डे को तो ठीक थी।’
‘बस कल ही हुआ कुछ? तुम्हारा भाई बता रहा था कि थूक में खून भी आया। चक्कर भी और वह तब से बिस्तर में है। मुझे भेजा यहां।’
अगले दिन में सारी सामग्री लेकर गांव आ गया। भाभी की तबीयत ज्यादा खराब थी। उसने गुप्तदान की बात फिर दोहराई। आवाज में फुसफुसाहट थी। मैंने बाहर देखा तो उसके दो टब्बर वाले और उनकी घरवालियां खड़ी थी। शंकालू दृष्टि से देखते। बड़के ने मुझे बुलाया और एक ओर ले जा कर कहा, ‘ये हमारी प्रापर्टी है चाचा जी। देखना कुछ गलत न कर देना?’ बाकी लोग भीतर चले गये थे। बड़के की बात का मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। भीतर जा कर भाई को कहा कि वे घर चले जाएं, यहां ये कर लेंगे। स्वयं स्थानीय सुनार के पास सोने के घोड़े की प्रतिमा बनवाने चला गया। सोचता इसके हिसाबियों को अब पता चल गया है कि ये नहीं रहेगी। कहीं वसीयत न कर दे इसलिए, टोक दो। पर एक वायदा है जो निभाना है, इसका गुप्तदान करवा देना है, चाहे कुछ जेब से ही खर्च क्यों न हो जाये...।
सुनार पहले तो हँसा– ‘यार।! और बता कुछ। मरने दे बुढि़या को– सारी उम्र तो अन्न दान नी किया। अब करेगी घोड़े और गीता का दान। तब होनी बैतरणी पार। होर धर्मराज कहेगा कि दानवीर कर्ण के बाद यदि कोई हुआ है तो वह है गंगा भाभी।’ हँसा वह।
मैं प्रतिमा के लिए आग्रह करता इससे पहले ही उसने सोने की तार का टुकड़ा अरणी पर पतला करना शुरू कर दिया। प्रतिमा सुबह मिल जायेगी। आश्वस्त हो मैं भाभी के घर आया। वे लोग उसकी सेवा में मशगूल थे। और वह बेबश। लगभग बेहोश सी।

मैं गहरी नींद में सोया था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला, भाभी के हिस्सेदारों का बड़का था, ‘चाचा जी ! नीचे चलो जरा।’
समय की नजाकत समझ मैं नीचे आया देखा, भाभी की सांसों की गति धीमी और मुंह खुलता-बंद होता जा रहा था। मैंने सिरहाने रखा गंगा जल का एक चमच भाभी के मुंह में डाला। उसने पानी की तरावट से आंखें खोलीं, मुझे देख एक प्रश्न भरा हुआ लगा– गुप्तदान। मैंने कहा, ‘हौंसला रख, सुबह हो जायेगा।'
पर ये क्या यह तो आंखें पलटने लगी। नाड़ी पर हाथ रखा, नाड़ी हटने लगी। फिर एक क्षण में ही मैंने सिरहाने के नीचे से पंचरत्न की पुड़िया निकाली और मुंह में झाड़ दी। पीछे मुड़ कर टोकरी से गीता की पुस्तक उठाई और उसके ठण्डे हाथों में रख दी। पर ये क्या, उसकी नाड़ी तो बंद हो गई थी। पुस्तक यूं ही पकड़ी और फिर टोकरी में रख दी। सोने का घोड़ा तो सुबह मिलना था– यदि पास होता तो शायद मैं उसे भी उसके हाथ पर रखता।
गंगा भाभी की इहलीला समाप्त होई गई थी। हमने उसे बिस्तर से उतारा। केले के पत्तों की सेज बिछाई और उत्तर सिरहाना कर लिटा दिया। तभी बड़के ने शंख में सीधी फूंक मारी। शंख किनारे रख कर जेब से एक स्टॉंप पेपर निकाला, दिखाते हुए कहा, ‘चाचा जी इन्होंने अपनी चल-अचल सम्पत्ति मुझे दान कर दी है।’ कोर्ट के कागजों पर भाभी का अंगूठा था। बड़के ने कागज तह कर अपनी जेब में रख दिये। फिर बोला, ‘चाचा जी, आप गवाह रहेंगे। लोग आने वाले हैं सो दस्तखत बाद में कर लेंगे। आप जानते हैं प्रापर्टी का मामला है। हां ! यदि दस्तखत आप नहीं करेंगे तो उसका भी इंतजाम मैंने किया है।’ उसकी धमकी समझ मैं अवाक किनारे हट गया।


लेखक संपर्क :
2, हरबंस काटेज
संजौली, शिमला-171006
दूरभाष : 0177-2842308
094184-78868





तीन कविताएं/ अंजना बख्शी
(1) बेटियाँ






बेटियाँ रिश्तों-सी पाक होती हैं
जो बुनती हैं एक शाल
अपने संबंधों के धागों से।

बेटियाँ धान-सी होती हैं
पक जाने पर जिन्हें
कट जाना होता है जड़ से अपनी
फिर रोप दिया जाता है जिन्हें
नई ज़मीन में।

बेटियाँ मंदिर की घंटियाँ होती हैं
जो बजा करती हैं
कभी पीहर तो कभी नैहर में।

बेटियाँ पतंगें होती हैं
जो कट जाया करती हैं अपनी ही डोर से
और हो जाती हैं परायी।

बेटियाँ टेलिस्कोप-सी होती हैं
जो दिखा देती हैं– दूर की चीज पास।

बेटियाँ इन्द्रधनुष-सी होती हैं, रंग-बिरंगी
करती हैं बारिश और धूप के आने का इंतजार
और बिखेर देती हैं जीवन में इन्द्रधनुषी छटा।

बेटियाँ चकरी-सी होती हैं
जो घूमती हैं अपनी ही परिधि में
चक्र-दर-चक्र चलती हैं अनवरत
बिना ग्रीस और तेल की चिकनाई लिए
मकड़जाले-सा बना लेती हैं
अपने इर्द-गिर्द एक घेरा
जिसमें फंस जाती हैं वे स्वयं ही।

बेटियाँ शीरी-सी होती हैं
मीठी और चाशनी-सी रसदार
बेटियाँ गूँथ दी जाती हैं आटे-सी
बन जाने को गोल-गोल संबंधों की रोटियाँ
देने एक बीज को जन्म।

बेटियाँ दीये की लौ-सी होती हैं सुर्ख लाल
जो बुझ जाने पर, दे जाती हैं चारों ओर
स्याह अंधेरा और एक मौन आवाज़।

बेटियाँ मौसम की पर्यायवाची हैं
कभी सावन तो कभी भादो हो जाती हैं
कभी पतझड़-सी बेजान
और ठूंठ-सी शुष्क!

(2) कराची से आती सदाएँ

रोती हैं मजारों पर
लाहौरी माताएँ।

बांट दी गई बेटियाँ
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरहदों पर।

अम्मी की निगाहें
टिकी हैं हिन्दुस्तान की धरती पर
बीजी उडि़कती है राह
लाहौर जाने की।

उन्मुक्त विचरते पक्षियों को देख-देख
सरहदें हो जाती हैं बाग-बाग।

पर नहीं आता कोई
पैगाम काश्मीर की वादियों से
मिलने हिन्दुस्तान की सर-ज़मीं पर।

सियासी ताकतों और नापाक इरादों ने
कर दिया है क़त्ल
अम्मी-अब्बा के ख्वाबों का
सलमा की उम्मीदों का
और मचा रही हैं स्यापा लाहौरी माताएँ
बेटियों के लुट-पिट जाने का
मौन गमगीन है
तालिबानी औरतों-मर्दों के
बारूद पे ढेर हो जाने पर।

लेकिन कराची से आ रही है सदाएँ
डरो मत...
मत डरो...
उठा ली है
नुसरत ने बंदूक।

(3) औरतें


औरतें मनाती हैं उत्सव
दीवाली, होली और छट्ट का
करती है घर भर में रोशनी
और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी
खुशियों की मुस्कान
फिर, सूर्य देव से करती हैं
कामना पुत्र की लम्बी आयु के लिए।

औरतें मुस्कराती हैं
सास के ताने सुनकर
पति की डांट खाकर
और पड़ोसियों के उलाहनों में भी।

औरतें अपनी गोल-गोल
आँखों में छिपा लेती हैं
दर्द के आँसू
हृदय में तारों-सी वेदना
और जिस्म पर पड़े
निशानों की लकीरें।

औरतें बना लेती हैं
अपने को गाय-सा
बंध जाने को किसी खूंटे से।
औरतें मनाती है उत्सव
मुहर्रम का हर रोज
खाकर कोड़े
जीवन में अपने।

औरतें मनाती हैं उत्सव
रखकर करवाचौथ का व्रत
पति की लम्बी उम्र के लिए
और छटपटाती हैं रात भर
अपनी ही मुक्ति के लिए।

औरतें मनाती हैं उत्सव
बेटों के परदेश से
लौट आने पर
और खुद भेज दी जाती हैं
वृद्धाश्रम के किसी कोने में।

कवयित्री संपर्क :
207, साबरमती हॉस्टल
ज्वाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी
नई दिल्ली–110067



दो लघुकथायें/रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
विजय–जुलूस
नेताजी का विजय-जुलूस निकल रहा था। ‘जिन्दाबाद’ और ‘जय हो, जय हो’ के नारे लगाती हुई भीड़ आगे बढ़ी। जुलूस के आगे-आगे चलने वाला युवक सड़क के बीचोंबीच पड़ी लाश को देखकर झपटा। उसने टाँग पकड़कर लाश को घसीटा और एक किनारे कर दिया।
‘‘इसे भी आज ही मरना था।’’
‘‘जीकर क्या करता?’’
‘‘अपने देश में भिखारियों की संख्या बढ़ती जा रही है।’’
पास से गुज़रता एक भिखारी ठिठक गया– ‘‘अरे! ये तो जोद्धा है।’’
‘‘जोद्धा! किस लड़ाई का जोद्धा?’’ किसी ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा।
‘‘आज़ादी की लड़ाई में गोलियाँ खाई थीं इसने साहब। हाथ-पैर छलनी हो गए थे। न किसी ने रोटी दी न काम दिया। भीख माँगकर पेट भरता था…’’ भिखारी बोला।
उसने पास में मैली-कुचैली झोली उलट दी। कई बदरंग चिट्ठियाँ इधर-उधर बिखर गईं। जोद्धा को बड़े-बड़े नेताओं के हाथ की लिखी चिट्ठियाँ!
विजय-जुलूस आगे निकल चुका था।

प्रवेश-निषेध
एक बार राजनीति वेश्या के अड्डे पर पहुँची। दरवाज़े पर खड़े बूढ़े दलाल ने उसको सिर से पैर तक घूरा–‘‘तुम कौन हो?’’
“मैं राजनीति हूँ। बाई जी से मिलना है।’’
दोनों की बातचीत सुनकर बाई जी दरवाजे़ की ओट में खड़ी हो गई और बोली–‘‘यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है। हमें अपना धंधा चौपट नहीं कराना। तुमसे अगर किसी को छूत की बीमारी लग गई तो मरने से भी उसका इलाज नहीं होगा।’’ कहकर उसने खटाक् से दरवाज़ा बंद कर लिया।


प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय

आई ई एफ हज़रतपुर-283103

ज़िला- फिरोजाबाद(उत्तर प्रदेश)

ई मेल - rdkamboj@gmail.com

दूरभाष : 03991805777





भाषांतर

बंगला कहानी

आंधी
नीला कर
मूल बंगला से अनुवाद : श्याम सुन्दर चौधरी


बिजली ने यह अच्छा मजाक बना रखा है। रोज़ रात को सोते वक्त ही चली जाती है। इस लोड-शेडिंग से कब छुटकारा मिलेगा पता नहीं। बत्ती का अभाव अधिक नहीं खटकता, पर पंखे के बगै़र तो मानो दम ही निकल जाता है। कितनी भीषण गर्मी है। कहीं भी हवा का नामोनिशान नहीं। आज शाम से ही सुतपा के सिर में दर्द है।
गांव के जिस छोटे-से स्कूल में वह नौकरी करती है, वहाँ पंखा है ही नहीं। रोज़ दस मील दूर बस से जाना पड़ता है। उसके बाद एक मील पैदल। जाते समय भी धूप, आते समय भी। छाता भी सहायता करने में असमर्थ रहता है। बस के अन्दर भी किसी तरह की राहत नहीं। भीड़ भरी बसों में खड़े-खड़े ही जाना पड़ता है।



पसीने की दमघोटू गंध, ऊपर से धक्का-मुक्की। सुतपा का जी मिचलाने लगता। आज लौटकर वह काफी देर तक तसल्ली से नहाती रही। लेकिन उस पर भी आराम कहाँ। शाम के वक्त भी पानी इतना गर्म! ऊपर की टंकी का पानी दिन भर की धूप से तपकर अगर नीचे आएगा तो यही होगा।
स्विच को हाथ लगाते ही पता चला, पंखा बन्द। ‘ओफ, यह लोड-शेडिंग...’ शरीर से फिर पसीना बहने लगा। वह तेजी से लगभग भागती हुई छत पर जा पहुँची, शायद थोड़ी-बहुत हवा मिल जाए। लेकिन, वहाँ भी हवा नहीं है, अपितु मच्छरों का उत्पात मचा हुआ है। वह नीचे उतर आयी। अकारण ही विरक्ति-सी महसूस करने लगी।
चौका-बर्तन करने वाली लड़की जया उससे खाने के बारे में पूछती है तो वह झल्ला उठती है, ‘कुछ नहीं खाना है, तुम जाओ यहाँ से।'
सुतपा का सिर मानो दर्द से फटा जा रहा था। वह फर्श को एक भीगे कपड़े से पोंछकर उस पर लेट गई।
पूरे दो घंटे किस तरह बीत गए, सुतपा जान नहीं पायी। अब पंखा पूरी गति से चल रहा था। हवा में अब कोई ज्यादा गर्मी भी नहीं थी। घर में अंधेरा था। शायद, जया ने ही सोती हुई दीदी की सुविधा के लिए बत्ती बुझा दी थी। उसकी नींद टूटी जया की आवाज़ पर।
‘दीदी, खाना खा लीजिए।'
हड़बड़ा कर उठ बैठी वह। उसे लगा, रात बहुत हो चुकी है। बेचारी जया! बहुत देर से इंतज़ार करती रही होगी। जया को खाना लगाने के लिए कहकर वह बाथरूम की ओर चली गई।
आह, इतना सो चुकने पर भी सिर-दर्द अभी खत्म नहीं हुआ। उसने आँख और मुँह पर पानी की छींटे मारे। हाँ, अब पानी कुछ ठंडा लग रहा है। पलकें कुछ भारी लग रही थीं, शायद अधिक देर सोने के कारण। भूख लग रही थी, पर खाने की इच्छा खत्म हो चुकी थी। आज महीने का अन्तिम बृहस्पतिवार है। आज तो रेडियो में नाटक आ रहा होगा। वह रेडियो चला देती है।
हाँ, नाटक आ रहा है। अब तो दस बज कर पच्चीस मिनट हो चुके हैं। नाटक बहुत पहले से ही शुरू हो गया होगा। वह ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगी। रेडियो में एकाएक तेज आंधी चलने की आवाज़ आयी जैसे कोई किसी को बुला रहा है। लेकिन कोई जवाब नहीं। कुंडी खटखटाने की आवाज़, कोई फिर किसी को आवाज़ देता है। कौन बुला रहा है। क्यों बुला रहा है?
कुछ देर तक सुतपा सुनती रही। ऊंह, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। वह रेडियो बन्द कर देती है। सिर का दर्द शायद आज खत्म नहीं होगा। वह न चाहते हुए भी नींद की गोली ले लेती है। सिर के ऊपर कृष्णा नगर की बनी हुई काली की मूर्ति लगी हुई थी। सुतपा उसे प्रणाम करती है।
सफेद हल्की लाइन वाली मसहरी को जया ने बहुत खींचकर बांधा है। घर के अन्दर जैसे एक और छोटा-सा घर बन गया हो। नींद का घर लेकिन वहाँ पर भी एक अजीब-सी आंधी। पाँच नंबर पर चलते हुए पंखे की आंधी। अच्छा, रेडियो में जो बुला रहा था, वह क्या अजनबी था– कोई आगंतुक था?
तभी कहीं से कोई आवाज़ आयी। ओह कॉल बेल। हाँ-हाँ... कॉल बेल की ही आवाज़ है। काफी देर से घंटी बजती जा रही है। लेकिन इतनी रात को कौन आया है?... कौन बुला रहा है?... फर्श पर सो रही जया को उठाते हुए बोली, ‘उठ जया, देख तो कौन घंटी बजा रहा है?’ लेकिन फिर कहती है, ‘अच्छा, रहने दे। मैं ही देखती हूँ।'
उसने बत्ती जलानी चाही पर रुक गई। बाहर गेट के पास ही तो लाइट पोस्ट है। पहले खिड़की से देख लूँ, कौन आया है, क्यों आया है।
‘कौन... कौन है उधर?’
‘मैं... मैं हूँ।'
‘मैं कौन?’
‘मैं... मैं...’
सुतपा कुछ समझ नहीं पा रही थी। अंधेरे में उस व्यक्ति को देख पाना आसान नहीं था। तेज आवाज़ में कहती है, ‘इधर खिड़की के पास आइये, यहाँ आकर कहिये।'
हाँ, अब वह आदमी रोशनी में दिख रहा है। नहीं, आदमी नहीं, कोई लड़का है। उस लड़के को अब वह ठीक से देख सकती है।
‘मैं पुरुलिया से आया हूँ... रातुल सेन नाम है मेरा...’
‘क्या बात है... मैं तो आपको... मेरा मतलब तुम्हें ठीक से पहचान नहीं पा रही हूँ।'
‘आप मुझे नहीं पहचान सकेंगी। मैं... मेरा मतलब... मेरे पिता का नाम सुदीप्त सेन है।'
‘सुदीप्त... सुदीप्त नाम तो...’
‘सुदीप्त सेन... यानी बारासात के सुदीप्त सेन... वही, जिनके साथ आप काव्य पाठ किया करती थीं।'

‘ओह... सुदीप्त... बारासात के सुदीप्त सेन... तुम उन्हीं के पुत्र हो?...’
रेडियो क्या फिर किसी ने चालू किया है। अभी भी क्या उसमें वही आंधी चल रही है। इतनी तेज आंधी एकाएक कहाँ से आ गई। आज जैसे बैशाख के आकाश में काला मेघ उतर आया है। उड़ते हुए बालों और आंचल को संभालते हुए सुतपा ने कहा, ‘आओ... आओ... भीतर आओ। जया बाहर का किवाड़ खोल दे। बरामदे की बत्ती जला दे।'
बत्ती जला कर जया ने सदर दरवाजे का ताला खोला। रातुल भीतर आ गया। पहनी हुई साड़ी ठीक करते हुए सुतपा ने डायनिंग टेबल की कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बैठने को कहा। आश्चर्य, अब उसे ज़रा भी गर्मी नहीं लग रही है। एक अजीब-सी सिहरन दौड़ गई सारे शरीर में। हथेली को कुछ देर तक रगड़ती रही। दोनों ही हाथ ठंडे लग रहे हैं। अकारण ही थोड़ा झुककर पैर से खींचकर साड़ी को और नीचे करती है। अजीब बात है, ज़बान तो जैसे जड़ हो चुकी है। कुछ बोलते ही नहीं बन रहा।
लेकिन, बात तो कुछ करनी ही है। यह नीरवता कुछ अच्छी नहीं लग रही। सामने बैठा है सुदीप्त सेन का बेटा रातुल सेन। बीसेक साल किस तरह सुतपा के शरीर और मन से दूर जा चुके थे, उसको याद ही नहीं। पर आज सामने उपस्थित हैं वही बीस साल। सुदीप्त सेन का दूसरा जन्म या बीस साल बाद का वर्तमान रातुल सेन। एक...दो... तीन... नहीं, पूरे बीस वर्ष इस तरुण की देह मन और चरित्र में जमा हो गए हैं। इधर बीस बरस किस तरह से सुतपा के शरीर, मन और जीवन से निकल चुके थे।
‘यहाँ कहाँ आये थे? इतनी रात को कहाँ से आ रहे हो?’
रातुल अब तक स्थिर और ठंडी आँखों से सुतपा को देख रहा था। धीरे से जैसे एक पर्दा-सा चेहरे से हट गया। एक हल्की-सी हँसी, कितनी सुन्दर, निर्मल हँसी।
‘मैं यहाँ एक शादी में आया हूँ। मेरे मौसेरे दादा की शादी है न...’
‘ओ, अच्छा... कहाँ है शादी? किस मुहल्ले में?’
‘काली बाजार में। काफी लोग आये हैं।'
‘इतनी रात को तुम्हारा काली बाजार से इतनी दूर आना उचित नहीं है। काफी रात हो गई है। नई जगह है, कोई भी दुर्घटना हो सकती थी।'
‘ऐसी बात नहीं। अब मैं बड़ा हो गया हूँ, डर की क्या बात है। और फिर सड़क पर थोड़े-बहुत आदमी तो चलते-फिरते रहते हैं न।'
‘घर कैसे पहचाना? पता जानते थे?’
‘पता पिताजी ने दिया था।'
सुतपा अचानक कांप उठी, ‘ओ...’
‘आपका पता बताते हुए उन्होंने यहाँ के बारे में अच्छी तरह से समझा दिया था। और एक आश्चर्य की बात मालूम है? वहाँ पर काफी लोग आपको पहचानते हैं।'
‘किसका घर है, बताओ तो...।'
‘समीर गुप्ता, एडवोकेट।'

‘ओ... हाँ... हाँ... पहचानती हूँ। वहाँ पर तो मैं सभी को जानती हूँ।' मन ही मन सुतपा शंकित हुई। परिचित घर में रातुल न ही आता तो अच्छा था।
‘जानती हैं आपके इस मोहल्ले में आकर कितना परेशान हुआ। मकान खोजते हुए सोच रहा था, किसी गलत मकान की कुंडी खटखटाने लग जाऊँ तो...’
सुतपा मन ही मन कहती है, ‘गलत घर में तुम नहीं जा सकते रातुल। भूल जैसी कोई बात तुम्हारे खून में नहीं है।’ लेकिन कहा, ‘पर इतनी रात को ही सही, घर कैसे ढूँढ़ लिया तुमने?’
‘अरे वो ... गली के नुक्कड़ पर पान की दुकान खुली हुई थी। चायवाली दुकान भी बन्द नहीं हुई थी। वो लोग आपको बहुत अच्छी तरह जानते हैं।'
‘वाह... तुम तो बहुत बहादुर हो गए। अच्छा, अब बताओ किस क्लास में हो?’
‘बी.एससी. आनर्स कर रहा हूँ।'
‘बहुत खूब... तुम्हारे और भी तो भाई-बहन होंगे।'
‘हाँ, मेरे बाद तीन बहनें और हैं– सुजाता, सुलपा और सुमना। वो सब स्कूल में पढ़ती हैं। पिताजी ने हम भाई-बहनों को आपके विषय में बहुत कुछ बता रखा है।'
कुछ असहनीय-सा लगा सुतपा को। मेरे बारे में जानते हैं, सबकुछ जानते हैं... कितना जानते हैं। मेरे संबंध में कैसी कहानी उन्हें मालूम है। सुदीप्त ने क्या मेरे खिलाफ गवाह तैयार कर रखे हैं... या यह बीस साल...आज एक स्पष्ट जिज्ञासा लेकर उसके पास आया है।
‘तुम्हारी सूरत तो बिल्कुल तुम्हारे पिता से मिलती है।' सुतपा ने एकटक उसे देखते हुए कहा।
‘आप भी क्या कह रही हैं। पिताजी तो मुझसे कितने सुंदर हैं। सभी कहते हैं कि मैं पिता जैसा लगता ही नहीं हूँ। मेरी बहनें मुझसे बहुत सुंदर लगती हैं। छोटी बहन तो एकदम उनकी तरह लगती है।'
‘अरे वाह! तुम तो बिल्कुल बड़ों जैसी बातें कर रहे हो। पिता का रंग ज़रूर तुमने नहीं पाया, लेकिन इसके अलावा और कोई कमी नहीं है। अपनी अभी की तस्वीर मिलाकर देखना, दोनों एक ही आदमी की मालूम पड़ेंगी। कारण, तस्वीर में रंग का तो पता नहीं चलता न।'
ऐसा नहीं है कि चेहरे में भिन्नता नहीं है। ज़रूर है। लेकिन फिर भी खोये हुए उन बीस सालों को वह इस वक्त पकड़कर रखना चाहती है। रातुल के किसी भी तरह के प्रतिवाद को वह इस वक्त नहीं मान सकती। उसे लग रहा है कि यह सब बातें रुक-रुककर एक आंधी की सृष्टि कर रही हैं। फिर, एकाएक जैसे खिड़की का पर्दा उड़ने लगा। सुतपा ने महसूस किया कि इस वक्त एक सवाल बहुत ज़रूरी हो चुका है, ‘सुदीप्त कैसे हैं?’
कम से कम इतना पूछना आवश्यक लग रहा है, ‘तुम्हारे पिता कैसे हैं?’ पर कोई शब्द उसकी जबान से नहीं निकला। खरखराते हुए गले को साफ करके वह पूछ बैठती है, ‘तुम्हारी माँ कैसी है?’
‘माँ ठीक नहीं है, बहुत दिनों से बिस्तर पर है।'
‘क्यों?... क्या हुआ उन्हें?’
‘ठीक से तो पता नहीं, शायद स्नायु रोग है। डाक्टर ने कहा कि माँ का बायां हिस्सा बहुत दिनों से काम नहीं कर रहा।'
‘लकवा तो नहीं?'
‘नहीं, वह भी नहीं। हाथ-पैर थोड़ा-बहुत हिला लेती हैं, पर उठना मुश्किल होता है।'
कुछ देर के लिए निस्तब्धता छा जाती है। हवा भी स्थिर हो चुकी थी। सुतपा को ध्यान आया कि शाम तक जो सिरदर्द इतनी तकलीफ़ दे रहा था, अब कैसा हल्का हो चला है। हवा में कैसी अजीब ठंडक मालूम पड़ रही है।
रातुल अचानक सुतपा की ओर स्थिर दृष्टि से कुछ पल देखने के बाद पूछता है, ‘पिताजी के बारे में तो आपने कुछ भी नहीं पूछा।'
सुतपा थोड़ी देर के लिए कांप उठी। होंठ सूखे लगने लगे। जीभ जैसे चिपकी जा रही हो। फिर भी, उसने किसी तरह रातुल से कहा, ‘मुझे तो लगता है, तुम्हारे जैसे अच्छे बच्चों के साथ वह ज़रूर सुखी हैं। असल में अक्सर हम सब फूल से ही उस पेड़ की पहचान करते हैं या उसके स्वरूप के बारे में जानने की कोशिश करते हैं। इसलिए तुम्हें देखने के बाद अलग से तुम्हारे पिता के बारे में पूछना याद ही नहीं रहा। सुतपा अपने को ही शाबासी देती हुई मन ही मन कहती है, ‘वाह! आजकल वह बहुत काव्यात्मक वाक्य बोलने लगी है।’
आंधी फिर अब शुरू होने वाली है, रातुल ने उठते हुए कहा, ‘अच्छा, अब चलता हूँ।'
सुतपा भी उठकर खड़ी हो गई। सचमुच आंधी आ रही है। बिजली की चमक उन दोनों के चेहरे पर पड़ने लगी।
‘हाँ, आंधी आ रही है। अब और ज्यादा देर करना उचित नहीं। एक काम करो न, कल सवेरे एकबार आ जाओ। बहुत खुशी होगी।'
‘बहुत मुश्किल है।' रातुल ने सुतपा के चरण-स्पर्श करते हुए कहा। सुतपा जड़वत खड़ी रही। रातुल के सिर पर हाथ रखते ही कैसी कुंठा भर गई उसके भीतर, पर अच्छा भी तो लग रहा है। आँखें थोड़ी देर के लिए बंद हो गईं।
‘भोर को ही हम लोग चल देंगे। मैं जानता था, इतनी रात को आप आराम कर रही होंगी। आप परेशान होंगी, जानकर भी चला आया। जानती हैं क्यों?...’
‘क्यों?’ सुतपा को अपनी सांसें अटकती हुई जान पड़ीं। आखि़र, रातुल क्या कहना चाहता है।

‘मेरी अपनी तो कोई बुआ नहीं। बचपन से हम लोग बुआ के रूप में आपको ही जानते हैं। पिताजी अक्सर आपका जिक्र करते हुए कहते रहे हैं कि आप उनके लिए सगी बहन से भी बढ़कर हैं। आपको देखने की बहुत इच्छा होती थी। पिताजी से कितनी बार कहा, आपके पास ले आने के लिए, लेकिन उनके पास तो समय ही नहीं रहता। आज भी आने को कहा, पर पिताजी नहीं आये। मैंने उनसे पता ले लिया था और समय निकालकर इतनी रात को आपसे मिलने चला आया।'
जया ने किवाड़ खोल दिया। रातुल चला गया। बीस वर्ष फिर जैसे कहीं खो गये। सांस लेने में कष्ट हो रहा था। फिर वहीं शोर, आंधी उठी। बिजली चली गई। फिर अंधकार! जया किवाड़ बंद करके सो गई।
सुतपा को सांस लेने में और भी कठिनाई होने लगी। ऐसे तो सो ही नहीं पायेगी। खिड़की का पर्दा उठा दिया। लाइट पोस्ट की बत्ती जा चुकी थी। उड़ी हुई धूल गीली मिट्टी के ऊपर गिरने लगी। जोरों की बरसात शुरू हो गई। उतनी ही तेज आंधी। हवा की गति इस वक्त कितनी है, कौन जानता है। पानी की बौछार में सुतपा का चेहरा-आँखें भीगने लगे। साड़ी का आँचल शरीर से चिपका जा रहा था।
बादल के गरजने की आवाज़ तीखी हो गई। बिजली की चौंध से आँखें बंद हो जातीं। पानी मुँह और होंठों को भिगोने लगा। सुतपा मुँह पोंछती है। बरसात का पानी क्या नमकीन होता है? आंधी के साथ क्या नमक का पहाड़ उड़कर आता है? उड़ती हुई हवा हल्की होकर आंधी का जन्म लेती हैं? सीने की आग में क्या इतना ही ताप रहता है जो इतने दिनों तक भीतर इसी तरह जमा हुआ था?
रेडियो की आंधी क्या अभी तक चल रही है? आंधी की रात में उस आगंतुक के सांकल खटखटाने पर क्या किसी ने आवाज़ दी है?...

अनुवादक संपर्क:
एच-61/4, साहनी कालोनीकैंट, कानपुर-208004(उत्तर प्रदेश)




नई किताब



“शहर गवाह है”-
सामाजिक विमर्श और इतिहास का अनूठा दस्तावेज
डॉ0 राहुल


रूपसिंह चन्देल ने साहित्य की विविध विधाओं में सार्थक सृजन किया है, किन्तु उनकी पहचान एक कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित है- विशेषकर एक उपन्यासकार के रूप में। उपन्यास उनके लिए एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से वह अपने चारों ओर बिखरे जीवन-समाज और ऐतिहासिक परिवेश को अभिव्यक्ति देने में पूरी तरह कामयाब हुए हैं। ‘शहर गवाह है’ उनका सद्य: प्रकाशित उपन्यास है जिसमें कानपुर और उसके निकटस्थ गांवों-कस्बों और नगरों के सामाजिक-बोध के साथ क्रान्तिकारियों के जीवन-दर्शन और उनके कर्तव्य को इस औपन्यासिक कलेवर में बड़ी बारीकी से उद्घाटित किया गया है। अछूते इतिहास के इस अनूठे दस्तावेज को पॉंच भागों में विभक्त किया गया है जो कथात्मक दृष्टि से पारिवेशिक पार्थक्य के बावजूद एक दूसरे से ‘को-रिलेटेड‘ हैं । उदाहरणार्थ – कथान्विति, संवेदनशीलता और प्रभावान्विति के तत्वों का मौलिक निरूपण इसकी अपनी विशेषता है।
थामस हार्डी, लियो तोल्स्तॉ्य, चेखव, शरतचन्द्र और प्रेमचन्द के उपन्यासों की सबसे बड़ी शक्ति जन-जीवन, समाज के स्थानीय रंगों की पहचान और उन्हें उनकी वास्तविकता में गहराई से चित्रित कर देने की योग्यता थी। उन्हें यह भी लगा कि उपन्यास के पात्र अपने देश की स्थानीय मिट्टी के बने होने चाहिए। उपन्यास में नैसर्गिकता तभी आ सकती है जब पात्रों के द्वारा कहा गया एक-एक शब्द उनकी जीवनगत स्थितियों- परिस्थियों द्वारा स्वत: उद्भूत हों। चन्देल के प्रस्तुत उपन्यास में कानपुर और उसके समीपस्थ-क्षेत्रों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से ही पात्रों-चरित्रों का चयन-चुनाव किया गया है जिससे यह उपन्यास प्राणवान बन गया है।

उपन्यास के तीन भाग जहॉं आजादी-पूर्व के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में महान क्रान्तिकारियों के त्याग-बलिदान, ब्रिटिश हुकूमत के काले-कारनामों तथा तत्काकालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों के आतिशी अक्स हैं तो शेष दो भाग सामाजिक जीवन के सरोकारों की जीवन्त कथाएं है जिनमें लेखक ने अपनी लेखन-शक्ति का समुचित उपयोग किया है। पूर्वांचल के किसानों की दशा-दुर्दशा के वर्णन तो पहले भी हुए हैं लेकिन यहॉं नये नजरिये से तराशने की कोशिश है। डी0ए0वी0 कॉलेज कानपुर में उपन्यास के प्रमुख पात्र बाबू राधिकारमण सिंह की महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद से भेंट और भगतसिंह, विजयकुमार सिन्हा, अजयघोष, सुरेन्द्र पाण्डे, जंगबहादुरसिंह, सुरेश भट्टाचार्य आदि देश-प्रेमियों के प्रसंग, कुरसवां क्लब, प्रकाश पुस्तकालय के संदर्भ को पढ़ते हुए लगता है, मानो इतिहास के पन्ने पलट रहे हों- मन में राष्ट्र- राग का भव्य-भाव भर जाता है । उपन्यास की शुरूआत जसवन्त नगर नामक गॉंव के किसानों के जीवन की विसंगतियों से होती है। बीच- बीच में प्रकृति की मोहक-मार्मिक छवि-छटा से मन आल्हादित होता है अनुभूति के आधार पर सृजित समीक्ष्य उपन्यास में अतीत के आइनें में समकालीन दृश्य संवेदना से समन्वित लगते हैं।
इसमें सन् 1857 की क्रान्ति और कानपुर के सामरिक महत्व के साथ-साथ कानपुर के औद्योगिक विकास, बलवन्त नगर और अन्य कस्बों के विकास- निर्माण का रूपायन अपने पूरे परिवृत्त में उत्कर्ष और ऊंचाई लिए हुए है। क्रान्तिकारी संगठनों, सामाजिक संस्थानों की देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका का बहुत यथार्थ अंकन हुआ है। कंजी आँखों वालों के खूनी-खूंखार चेहरों के कच्चे-चिट्ठे भी इस उपन्यास को ऐतिहासिकता प्रदान करते हैं। ‘‘बौखलाए अंग्रेज सिपाही ने पेड़ों की झुरमुट में एक मानवाकार ठूंठ को निशाना साध ताबड़तोड़ गोलियॉं दागी थीं।" रामचन्द्र मुसद्दी और कमला मुसद्दी (जो चन्द्रशेखर आजाद को अपना भाई मानती थीं) का जिक्र और राधिका का कथन – ‘‘ मातृभूमि के लिए आत्माहुति से बढ़कर कुछ नहीं।" उल्लेखनीय हैं।
चन्देल के पूर्व उपन्यास ‘नटसार’ में यथार्थ चेतना की जैसी ताज़गी विद्यमान है उसकी जैसी ही अनुभूति – ‘शहर गवाह है' में भी होती है। उपन्यासकार ने बड़ी शिद्दत से आँचलिकता की सभी विशेषताओं को जूही की माला में चम्पक पुष्पों की भॉंति पिरो दिया है। वृहद कलेवर में रचित इधर एक दशक के कुछ चर्चित-अचर्चित उपन्यासों को देखें और उनका आकलन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि अन्तर्मन की अनुभूतियों को अधिक अभिव्यक्ति देने के कारण वे पाठक से जुड़ गए। यह जन-जुड़ाव ही उनकी लोकप्रियता की पहचान है। चन्देल का आलोच्य उपन्यास आत्मान्वेषण के स्तर पर समाज-जीवन के सत्य से साक्षात्कार करने वाला उपन्यास है। यह सामाजिक-ऐतिहासिक कथा का ऐसा सुष्मित समन्वय है कि ऐसा प्रतीत होता है कि अतीत की कोई महाकाव्यात्मक कथा रच दी गयी है। सचमुच साधारण सामाजिकता में ही नयी विशिष्टता की खोज साहित्यिक सृजन का सबसे बड़ा मूल्य है।
उपन्यास में सामाजिक जीवन के बीच व्याप्त खोखलापन और व्यक्तिमन की तड़प और ललक का अभीष्ट चित्रण हुआ है। लेखक व्यक्ति को उसके पूरे परिवेश मे रखकर देखना चाहता है। यद्यपि कहीं-कहीं पात्रों को उनके पूरे परिवेश सहित चित्रित करने के चक्कर में उन्हे छोड़ दिया गया है, या उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ गयी है, जिससे उन्हें सीधे जिन्दगी के धरातल पर खड़ा कर दिया गया है। दिलीप सिंह, भूरेसिंह ऐसे ही पात्र-चरित्र हैं। बरक्स इसके कि पात्र और परिवेश स्वत: ही सप्राणता और प्रामाणिकता पा जाते- खलीलुर्रहमान, जैतुन्निसा, हीरानन्द और सुखई सिंह परिगण्य पात्र हैं, जो ज़िन्दगी को जोड़ने के लिए अभिशप्त हैं। भीतर टूट चुके समर बहादुर सिंह बाहर से मजबूत दिखते हैं मगर इकट्ठे होकर दिशाहीन और अलग- अलग रहकर गतिहीन बने रहना कुछ लोगों की नियति होती है। लेखक ने ऐसे व्यक्तियों के द्वन्द्व- पीड़ा को भी बड़ी गहराई से उकेरा है ।

उपन्यास में वस्तुगत विस्तार है - आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक विकृतियों की समस्या का विस्तार! अन्तर्बाह्य जन-जीवन के मूल्यगत सामाजिक- राजनीतिक निरूपण का मोह लेखक को निरन्तर बॉंधे हुए है। इसीलिए औपन्यासिक घटनाओं को किसी कथासूत्र में संवारने के बजाय वह मन:स्थितियों और प्रकृति का चित्रण जगह- जगह करते चलते हैं ‘‘पश्चिमी क्षितिज में सिन्दूरी रंग बिखेरे हुए सूर्य ने किरणें समेट ली थीं।" ‘‘जून के अन्तिम सप्ताह का पहला दिन था। सुबह से ही आसमान में बादल छाये हुए थे। रात वर्षा हई थी, परन्तु सुबह पॉंच बजे के आसपास वर्षा थम गयी थी। लेकिन काले-भूरे बादलों के समूह पश्चिम की ओर दौड़ते दिखाई दे रहे थे। मंथर गति से हवा बह रही थी।" ‘‘प्रभा छत पर चली गयी। उसे सारा शहर कोहरे में डूबा हुआ नज़र आया। कहीं-कहीं टिमटिमाती रोशनी दिख रही थी।" इससे कथा में सहज रोचकता आ गयी है। लेखक ने कथा-भाव में पारम्परिक रूढ़ि को तोड़ने का प्रयास भी किया है जिससे प्रस्तुत उपन्यास शिल्प के पृथक प्लेटफार्म पर अवस्थित है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि रूपसिंह चन्देल का उपन्यासकार अपने कथ्य के प्रति बड़ा सजग और सतर्क दिखता है । शहरी संस्कृति और सोच के साथ ग्राम्यबोध के बिम्ब मन को मुग्ध करते हैं। आंचलिकता के रंग स्वाभाविकता को बढ़ाते और प्रामाणिकता पैदा करते हैं। निर्मला कहती है ‘‘ हम पुरखन की ड्योढ़ी छोडि़ कै न जइबे।" हलधर बाजपेयी की क्रान्तिधर्मी सोच, उनकी आत्मकथा का प्रसंग और सन् 1927-28 का देशव्यापी मजदूर आन्दोलन, 9 अगस्त 1925 का काकोरी काण्ड, साइमन कमीशन और 1932 का व्यापक क्रान्तिकारी आन्दोलन राष्ट्रीय चेतना को जगाते हैं। अंग्रजों के विरुद्ध अनेक संगठनों की उठती विद्रोही लौ-लहर, और अंकित तिथियॉं साक्ष्य पेश करती हैं - ‘‘जब महान क्रान्ति-पुरुष हलधर बाजपेयी वास्तविक आज़ादी का सपना देखते असम के गोलाघाट नामक स्थान में एक मकान के मलबे में दबकर समाप्त हो गये थे। वह 18 अगस्त 1950 का दिन था।" लेखक को भी महसूस होता है कि हम स्वाधीन तो हो गए मगर स्वतन्त्र नहीं। विकास, नव-निर्माण की गति धीमी है। यहॉं मोहभंग का स्वर तो नहीं पर चेतना आक्रान्त अवश्य है – ‘‘ छुटभैय्ये सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बेताब हैं। यही नहीं, कल तक दबे-छिपे अंग्रेजों का साथ देने वाले राजे-महाराजे, जमींदार, जागीरदार आज कांग्रेस में घुसकर अपनी जगह मजबूत बनाने की कोशिश में हैं। मुझे देश का भविष्य बहुत उज्वल नहीं दिख रहा। इनका शासन का ढंग अंग्रेजों से भिन्न नहीं होगा। क्या पता ये भी उनका अनुकरण करें … अभी न सही… बाद में … यानी जातीय संघर्ष को बढ़ावा दो - बॉंटो और शासन करो।
राधिकारमण सिंह की उक्त उक्ति को यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह अवधारणा सहज में ही हो सकती है कि वस्तुनिष्ठ सघन अनुभव होने के नाते यथार्थ में अस्तित्ववादी दर्शन की दृष्टि (भी) रहती है। अस्तित्ववादी चिन्तन ने आज जटिल परिवेश में उलझी स्थितियों को समझने की शक्ति और दिशा भी दी है। अस्तु, चाहे सही समाधान न मिले पर असली जायजा जरूर मिल जाएगा। आजादी के पार्टीशन के दौरान कानपुर में विस्थापित परिवार की दारुण दशा-व्यथा का चित्रण दिलकश है। देवेन्द्र अहूजा का परिवार एक ऐसा ही समस्याग्रस्त परिवार है जिसने बॅंटवारे के दर्दीले दंश को देखा, भोगा, जिया है। पाकिस्तान में अपने घरवालों से बिछड़ जाना, दिल्ली के कश्मीरी गेट इलाके में आकर अस्थायी रूप से बसना और फिर कानपुर प्रस्थान-विस्थापन। अकेलेपन की गहरी अनुभूति, राधे की मॉं निर्मला की मृत्यु, कहीं राधिका को पुत्र-पुत्रियों के भविष्य की चिन्ता तो कहीं अपने दायित्व और कर्तव्य के प्रति निर्णय लेने की विवशता-विफलता, तो कहीं प्रेम-प्रणय के प्रसंग आत्माविभक्ति की ओर ले जाते हैं। वितृष्णा भी जगाते हैं। प्रेम-प्रसंग से गुजरते हुए अज्ञेय ( शेखर : एक जीवनी ) के शेखर की याद ताजा हो आती है।
उपन्यास का उत्तरार्द्ध सामाजिक जीवन-बोध से विशेष जुड़ा है। राधिका रमण के अतीत जीवन की मार्मिक झांकी-मन को सिक्त और रिक्त करती है। चित्रदर्शन बाबू की मृत्यु से उनके जीवन में उदासी भर आती है। एक प्रकार की मुक्ति तथा आरोपित जीवन जीने के लिए मजबूर से बन जाते हैं राधिकारमण सिंह। पुत्री शैलजा के अपने पति के साथ उनके मानसिक असन्तुलन का लाभ उठाकर छद्म रूप से उनके द्वारा बनवाई गई ‘कोठी ठाकुरान‘ की वसीयत अपने नाम करवा लेना और छोटी बेटी नमिता का कोठी से भावात्मक जुड़ाव और अंत में शैलजा के पति शिवम सिद्धार्थ द्वारा कोठी को बेच दिये जाने के बाद उस पर- ‘‘कोठी इस्माइल खॉं" खुदा देखकर नमिता का विक्षिप्त हो जाना वाकई मनोवैज्ञानिक व्यंजना का उत्कर्ष लिए हुए है। इस प्रकार कहीं कथा-शैली, कहीं आत्मकथात्मक शैली, कहीं मनोविश्लेषणात्मक शैली, कहीं वर्णनात्मक, कहीं संवाद और कहीं पत्र शैली में रचित यह उपन्यास अपने भीतर कर्मशील प्रेरणाओं, अनुप्रेरणाओं, सम्प्रेषणाओं और संवेदनाओं को विश्वसनीय बनाता है और व्यक्तित्व की पारदर्शिता में पात्रों के चरित्र का विज़न सौंपता है - ऐसा प्राय: कम औपन्यासिक कृतियों में प्राप्त होता है।
सारत: हर उम्दा उपन्यास अपने समय-समाज को सार्थक शब्द देता है। ‘शहर गवाह है’ में भी परिवेश-जन्य युग-स्थिति और जीवन्त पात्रों का सहज सम्बन्ध स्थापित हुआ है। कालजयी कृति के विशिष्ट गुण-तत्व से युक्त यह उपन्यास आँचलिक संस्पर्श और स्थानीय रंग; त्महपवदंस बवसवनत ंदक सवबंस जवनबीद्ध से अधिक मूर्तमान हो उठा है । चन्देल के लेखन की विशेषता है कि आंचलिक बोध की तूलिका से वे अपनी कथात्मक रचना को अधिक आकर्षक, रोचक और मार्मिक बना देते हैं। अवधी, भोजपुरी शब्द-प्रयोग के साथ अंग्रेजी के शब्द कथा – प्रवाह में बाधक नहीं, बल्कि मिठास घोलते हैं। लोकोक्तियों तथा लोकगीतों के प्रयोग से अतिरिक्त स्वाभाविकता आ गयी है। यूं उपन्यास को पढ़ते हुए कानपुर शहर का एक ‘अब्सट्रेक्ट’ मन-मस्तिष्क में उभरता है और शिल्प-विध के अभिनव प्रभावी-प्रयोग से आश्वस्त कर जाता है ।
समीक्षित कृति :
‘शहर गवाह है’ – लेखक : रूपसिंह चन्देल
भावना प्रकाशन, 109 -ए , पटपड़गंज,
दिल्ली – 110 091
मूल्य – 450/ – पृ0 384






गतिविधियाँ
केन्द्रीय विद्यालय- हज़रतपुर में "लेखक से मिलिए" कार्यक्रम

गत दिनों नेशनल बुक ट्रस्ट दिल्ली की ओर से केन्द्रीय विद्यालय हजरतपुर में ‘‘लेखक से मिलिए’’ कार्यक्रम का आयोजन सम्पन्न हुआ। इस कार्यक्रम के अंतर्गत विद्यालय की छात्र-छात्राओं ने देश के जाने-माने लेखकों- श्रीमती क्षमा शर्मा–कार्यकारी संपादक नंदन, श्रीमती सुरेखा पाणंदीकर एवं द्विजेन्द्र कुमार सम्पादकीय सहायक ‘पाठक मंच बुलेटिन’ से उनकी लेखन प्रक्रिया, उपलब्धियों एवं उनकी रचनाओं के बारे में अनेक प्रश्न पूछकर अपनी ज्ञान-पिपासा को शान्त किया। छात्रों के प्रश्न के उत्तर में देते हुम श्रीमती सुरेखा पाणंदीकर ने कहा कि जीवन की छोटी से घटना भी कभी-कभी कहानी बन जाती है, जो कि बाद में पुस्तक के रूप में पाठकों के सामने आती है। अपनी पुस्तक ‘चिटकू’ का उदाहरण देकर उन्होने अपने कथन को प्रमाणित किया। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में श्रीमती सुरेखा ने बताया कि उनकी पुस्तक ‘सहेली’ की प्रेरणा उन्हें राजस्थान यात्रा के समय एक बालिका के चरित्र से मिली। श्रीमती सुरेखा पाणंदीकर को हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारतेन्दु पुरस्कार तथा एशियन कल्चरल सोसाइटी द्वारा भी सम्मानित किया गया हैं।
श्रीमती क्षमा शर्मा के मतानुसार छोटे शहरों में आज भी लड़कियों के लिए उन्नति के पर्याप्त अवसर नहीं हैं। इसकी तुलना में महानगरों में लड़कियों के लिये ज्यादा अवसर हैं। अपने संघर्षमय जीवन का उदाहरण देते हुए कहा कि व्यक्ति में अगर साहस है तो वह विपरीत परिस्थितियों में भी बड़ा कार्य कर सकता है। अपने विगत तीन दशकों में लेखन फिल्म, दूरदर्शन आदि पर अपनी प्रतिभा दिखा चुकी श्रीमती क्षमा शर्मा देश के कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं- यथा, हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारतेन्दु हरिशचन्द पुरस्कार आदि।


क्या इलैक्ट्रानिक मीडिया के कारण देश की कई प्रतिष्ठित साहित्यक पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हुआ है? प्रश्न के उत्तर में श्रीमती शर्मा ने कहा- इसके लिये इलैक्ट्रानिक मीडिया को दोष देना गलत है। इसका वास्तविक कारण पाठक की रूचि में परिवर्तन है, वास्तव में तो इलैक्ट्रानिक मीडिया ने प्रिंट मीडिया को फायदा पहुँचाया है। अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये उन्होने भीष्म साहनी के उपन्यास तमस का उदाहरण दिया। जिसके टी.वी. पर प्रसारित होने पर इस उपन्यास की माँग बढ़ी।
श्रीमती क्षमा शर्मा, द्विजेन्द्र कुमार एवं श्रीमती सुरेखा पाणंदीकर ने सभी छात्र-छात्राओं का आहवान किया कि वे अधिक से अधिक संख्या में लेखन से जुड़ें।
श्रीमती सुरेखा एवं श्रीमती क्षमा शर्मा ने बच्चों के साथ मिलकर ‘किताबों की दुनिया, हमारी ये दुनिया’ आशु कविता की रचना की।

आमंत्रित अतिथियों का स्वागत करते हुए केन्द्रीय विद्यालय ओ.ई.एफ. हजरतपुर के प्राचार्य रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने विश्वास व्यक्त किया कि नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित कार्यक्रम से विद्यालय के छात्र-छात्राओं में लेखन के प्रति रूचि बढ़ेगी तथा लेखकों से विभिन्न प्रश्नों पर प्रश्न कर वे उनका यथोचित उत्तर पा सकेंगे। प्रश्न मंच कार्यक्रम में विद्यालय के कु. पल्लवी दीक्षित, कु. पूजा गौतम, सोनाली सिंह, शालिनी, कु. सुलेखा, आदित्य राणा, मनीष गौतम, नीरज पांडे, कु. भूमिका शर्मा, ऋचा भारती, अजीत सिंह, गजेन्द्र यादव, शेखर सुमन पांडे ने भाग लिया। कार्यक्रम के अन्त में प्रश्नकर्ता सभी छात्रों को पुरस्कृत किया गया। कार्यक्रम का संचालन ऋषि कुमार शर्मा पुस्तकालय अध्यक्ष ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन चन्द्र देव राम उप प्राचार्य द्वारा किया गया। कार्यक्रम के आयोजन में डा0 रेखा, श्रीमती गीता प्रकाश, श्रीमती सुदेश दत्त शर्मा, अखिलेश गोस्वामी, रवि मोहन एवं रवि शंकर ने सक्रिय सहयोग प्रदान किया।




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फरवरी 2008

-मेरी बात
-एस आर हरनोट की हिंदी कहानी- “मोबाइल”।
-देवी नागरानी की ग़ज़लें।
-अशोक भाटिया की लघुकथायें।
-“भाषान्तर” में लियो ताल्स्ताय के उपन्यास “हाजी मुराद” के धारावाहिक प्रकाशन की पहली किस्त। हिंदी अनुवाद : रूपसिंह चन्देल।
-“नई किताब” के अंतर्गत द्रोणवीर कोहली के उपन्यास “चौखट” पर सुभाष नीरव की समीक्षा
-“गतिविधियाँ” के अंतर्गत माह जनवरी 2008 में सम्पन्न हुई साहित्यिक/सांस्कृतिक गोष्ठियों की रपट तथा संक्षिप्त समाचार।