सोमवार, 11 मई 2009

साहित्य सृजन – मई-जून 2009


“साहित्य सृजन” के सितंबर-अक्तूबर 2008 के अंक के बाद किसी तकनीकी समस्या के चलते अगला अंक पोस्ट करने में काफी विलम्ब हुआ है जिसका हमें खेद है। यद्यपि इस समस्या को अभी आंशिक रूप में ही दूर कर पाना संभव हो सका है, परन्तु हमें विश्वास है कि शीघ्र ही इसे पूर्ण रूप से दूर कर लिया जाएगा और “साहित्य सृजन” निरंतर पोस्ट की जा सकेगी। प्रस्तुत अंक में “मेरी बात” के अन्तर्गत वरिष्ठ कथाकार ‘अपनी बात’ कह रहे हैं। “माँ दिवस” पर विशेष रूप से कथाकार बलराम अग्रवाल ने हमें ‘माँ’ पर केन्द्रित अपनी चार कविताएं प्रेषित की हैं जिन्हें यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ लघुकथाकार सुरेश शर्मा की दो लघुकथाएँ के साथ-साथ अनुवाद के अन्तर्गत पंजाबी की बिलकुल नई कथापीढ़ी के बहुचर्चित कथाकार जतिंदर सिंह हांस की दलित और स्त्री विमर्श को रेखांकित करती कहानी “रखेल” का हिन्दी अनुवाद तथा ‘साहित्य सृजन’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो रहे तोलस्तॉय के उपन्यास “हाज़ी मुराद” (जिसका हिन्दी अनुवाद वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने किया है) की अगली किस्त (किस्त-सात) यहाँ प्रकाशित की जा रही है।
‘साहित्य सृजन’ को और बेहतर बनाने के लिए हमें आपके रचनात्मक सहयोग तथा बेबाक राय की प्रतीक्षा रहेगी।

मेरी बात

इससे ज्यादा त्रासद और क्या हो सकता है ?
-अशोक गुप्ता

श्वान-युगल की रति-क्रिया बचपन में मेरे लिए एक कौतुक भरा दृश्य हुआ करती थी। उपसंहार में उनकी देहों का जुड़ जाना, फिर छूटने की ज़िद्दोज़हद में विपरीतमुखी हो कर प्रलाप की स्थिति में भीड़ में घिर जाना, पत्थरों की मार, और प्राय: संधि भंग करने की कोशिश में संधिस्थल पर लाठी-डंडे का प्रहार। सब कुछ मेरे लिए उन दिनों बस कौतुक ही था।

कुछ बड़े होने पर लगा कि यह पूरा दृश्यविन्यास कौतुक का नहीं बल्कि एक ट्रेजडी है, बेहद दुर्गति भरी त्रासदी … मैं ईश्वर को धन्यवाद देता था कि उसने मनुष्य को ऐसी जलालत से मुक्त रखा है और शायद इसीलिए मनुष्य रति-क्रिया में देह के साथ मन की आवृति की ज़रूरत को समझ पाया। उसने जाना कि एकांत और व्यवधान मुक्त परिवेश ही उस सुख को जुटा पाने की अनिवार्यता है, जिसे प्रत्यक्षत: किसी तीसरे के साक्ष्य की कोई ज़रूरत नहीं होती।

फिर मैंने ज़िंदगी का कुछ अनुभव जुटाया और मुझे लगा कि प्रकृति ने भले ही हमें कैसी भी सुविधा दी हो, हम मनुष्य बहरहाल श्वान गति को ही प्राप्त होने के लिए बाध्य हैं। मन से छ्त्तीस के आंकड़े के साथ देह का जुड़ाव, प्रलाप, आसपास कुतूहल से देखते लोगों की भीड़, बरसते पत्थर… यह सब मनुष्य के साथ भी सच है और त्रासद् है।

मनुष्य के लिए जो कि बुनियादी तौर पर एक संवेदनशील और विचारवान प्राणी है, स्त्री और पुरूष के बीच देह का जुड़ाव एक अद्भुत, चरम आनन्द भरे सुख का रास्ता खोलता है जिससे रचनात्मकता की अनन्त संभावानाएं मुखर होती हैं। इस क्रम में जो तत्व रति क्रिया को पाश्विकता से अलग स्थापित करता है, वह है देह की कामना में मन से जुड़ने की वृति जो देह की गति को एक फ़र्क सी रिदम देती है। उसक झंकार मनुष्य को वायवीय बनाती है। इसी स्थिति को ऑर्गेज्म या चरम सुख कहा जाता है।

इस ऑर्गेज्म की एकांतिकता के बीच, श्वान नियति रचती पहले खड़ी हुई नैतिकता, जिसने विवाह संस्था के रूप में स्त्री की देह पर (सिर्फ़ स्त्री के लिए) यौन शुचिता का प्रतिबंध रच दिया। यह पुरुष प्रधान व्यवस्था का एक कुटिलता पूर्वक रचा हुआ विधान था जो आज सही मायने में उसके लिए भी घाटे का दांव साबित हो रहा है।
इस यौन शुचिता के मूल्य ने स्त्री की देह को चारों तरफ भिनभिनाती मक्खियों के बीच, घर की देहरी पर रखा दूध का प्याला बना दिया। अगर एक भी मक्खी उस प्याले में गिर जाए तो प्याला उठा कर घूरे पर ही फेंका जाना पड़े, फिर चाहें उसे कुत्ते चाटें या कोई और…

इसी व्यवस्था ने स्त्री देह को एक कमोडिटी में बदल दिया और पुरुष एक कन्ज्यूमर हो गया। उपभोक्ता जिसने अपने संज्ञा रूपांतरण में कुछ नहीं गंवाया, उसने यही माना।

… लेकिन यह सच नहीं है। पुरुष ने गंवाया अपना चरम सुख, अपना ऑर्गेज्म, जो होता है तो स्त्री पुरुष दोनों का साझा होता है या होती है सिर्फ़ श्वान-नियति। वस्तु-स्त्री से ऑर्गेज्म नहीं पाया जा सकता, भले ही वह वस्तु रूप में किसी पिता द्वारा दान में मिली हो। वैसे भी, विवाह व्यवस्था में पति और पत्नी के बीच आराध्य और दासी का संबंध हो, ऐसा विधान है। ऐसे में, ऑर्गेज्म दूर दूर तक संभव नही है और यह स्थिति पति पुरूष को भी बराबर से विपन्न करती है, भले ही अपने दंभ के कवच में पुरूष को इसका आभास कभी भी न हो पाए।

ऑर्गेज्म, यानी चरम सुख से रिक्त हो कर देह के जुड़ाव को जितना फीका-कड़ुवा हो जाना चाहिए था, वह हो गया। देह का जुड़ाव पाश्विकता भरा कृत्य बन गया। मात्र मांसपेशियों का आक्रमण। एक देह से दूसरी देह की नोच-खसोट ने रतिक्रिया को एक युद्ध में बदल दिया। इससे कुछ हासिल न होने की खीझ में कृत्रिम आनन्द की तलाश शुरू हो गई। चकाचौंध रोशनी में हो तो शायद मजा आए… दारू पी कर हो…भीड़ में हो… और इस तरह रति संसार में विकृतियाँ भरती चली गईं, इस हद तक कि इस सब को समाज में, बतौर एक फैशन स्वीकृति मिलने लगी। प्रदर्शन का अतिरेक, चरम सुख की जगह उन्माद, ब्लू फिल्में, शोर भरा संगीए और तमाम दूसरी चीज़ें… लेकिन इससे हुआ क्या ? नैतिकता की और ज्यादा ऐसी- तैसी हुई।

पहले नैतिकता की स्थापना ने सुख छीना था फिर सुख के छिन जाने से नैतिकता का और ज्यादा क्षय हुआ। वह तो होना ही था क्योंकि इस नैतिकता के आधार में सुव्यवस्था नहीं थी, केवल पुरुषवादी कुटिलता थी जो स्त्री पर आधिपत्य बनाये रखने का एक सुनियोजित तंत्र थी, वरना केवल माया मेम साहब ही क्यों पीतीं ज़हर का प्याला…?

छद्म और कुटिल सोच की उपज नैतिकता ने समाज को हमेशा विकृति की ओर धकेला है। इससे आस्था मरी है, प्रेम वर्जित हुआ है, मानवीयता की क्षति हुई है और स्वार्थवृति बढ़ी है। यौन तृप्ति से वंचित समाज में एक ओर दुधमुंही बच्चियों तक से बलात्कार हुए हैं, पिता और भाई भी अपनी भूमिका में मात्र पुरुष रह जाने से बच नहीं पाए हैं, तो दूसरी ओर प्रेमी युगल ने या तो पत्थरों की बौछार झेली है या आत्महत्या… ।

नैतिकता के आतंक से एकांत संदर्भ सड़क पर आ गया और उसने श्वान नियति सा उपसंहार पाया… इससे ज्यादा त्रासद और क्या हो सकता है?

यह सही समय है जब प्रेम की वापसी का उपक्रम किया जाए और नैतिकता के नये आयाम प्रेमवृति तय करें। उसके बिना समाज में सहजता नहीं लौटेगी। सौ-सौ चैनलों का मनोरंजन भी आनन्दहीनता से उपजा क्षय नहीं भर पाएगा। इंसान कुत्ता होता रहेगा। बूढ़े भौंकेंगे, भुख्खड़ लौंडे उसे पत्थर मारेंगे।
००

29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली – 110089 मोबाईल नं- 09871187875

2 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

अशोक गुप्ता बात दरअसल स्त्री विमर्श या कहें कि स्त्री शोषण की करना चाह रहे थे, लेकिन श्वानयुगल के उद्धरण ने उन्हें इस कदर भरमाया कि वह मात्र यौन क्रियाओं के इर्द गिर्द ही घूमते रहे. भाई, यह एक गंभीर मुद्दा है. इसे मात्र क्रियाओं के बल पर अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता. विषय का सही निर्वाह नहीं कर पाये लेखक.

बहुत खराब आलेख है. सुभाष, तुम्हारी ब्लॉग पत्रिका एक सम्माननीय पत्रिका है. कृपया ऎसे आलेखों से बचें.

अशोक गुप्ता से क्षमा सहित,

रूपसिंह चन्देल

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna ने कहा…

भाई सुभाष जी, अन्यथा न लेंगे, रूप सिंह चंदेल जी के विचार से मैं भी इत्तेफ़ाक रखता हूं। साहित्य-सृजन को ऐसे अनगढ़ विचलनों से तो बचना ही चाहिए।