बुधवार, 18 जून 2008

कविताएं- डा0 हरि जोशी

सोना और काम

सिर्फ़ काम काम अथवा सोना सोना,
दोनों का अर्थ होता अपना जीवन खोना।
सोना और काम पर दोनों ज़रूरी ,
बिना इनके ज़िन्दगी सचमुच अधूरी ।

पहले और बाद में

उन दिनों मैं बहुत अधिक सोता था,
अपने सभी मित्रों के और निकट होता था ।
आजकल थोड़ा-सा ही जागता हूं ,
सारे निकटस्थों से दूर-दूर भागता हूं ।


कितने पशु मेरे अंदर

मेरी दो वर्षीय नातिन,
मेरे पेट और छाती पर,
आगे पीछे कूदकर,
चिल्लाती बार-बार ‘‘ घोड़ा ओ घोड़ा”
‘‘अच्छा ” वह भी जानती है,
मैं भी रहा हूँ कभी, रेस का घोड़ा,
जीवन की दौड़ में, मेरे कई सहधावक,
मुझसे तेज़ भागे,
कुछ कछुए सिद्ध हुए,
जिनसे तो मैं ही निकल भगा आगे ।

कभी-कभी सोचता हूं,
डर में या आदर में, कहकर घोड़ा,
योग्यता से अधिक पद दे दिया
उसने थोड़ा।

वास्तव में मैं घोड़ा नहीं गधा हूं,
न सिर्फ़ भांति-भांति के बोझों से लदा,
कई अवांछित मान्यताओं से भी बंधा हूं ।


घोड़े और गधे का अंतर वह जानती नहीं,
चेहरे को देखकर समझी शायद थोड़ा,
सवार हो चिल्ला पड़ी ‘‘ चल घोड़ा, चल घोड़ा”।

सर्दी के मौसम में,जब लगाता बंदर टोपी,
चिल्लाती दूर से बंदर ओ बंदर,
तोतली भाषा में समझा दिया उसने मुझे,
बैठे हैं एक साथ कई पशु मेरे अंदर।
0

कोई टिप्पणी नहीं: