मंगलवार, 5 अगस्त 2008

साहित्य सृजन – जुलाई-अगस्त 2008(संयुक्तांक)



मेरी बात


दलित विमर्श और हिन्दी उपन्यास
रूप सिंह चन्देल


लगभग दो दशक से हिन्दी दलित साहित्य चर्चा में है. १९८८ के पश्चात दलित समाज में जो सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से होना ही था. आज हिन्दी में अनेक रचनाकार विभिन्न विधाओं में निरन्तर सृजनरत हैं. इतने अल्प-समय में दलित-साहित्य का विकास आश्वस्तिकारक है. प्रारम्भ में भले ही 'दलित-साहित्य' और 'दलित-साहित्यकार' की अवधारणा ने जन्म न लिया हो लेकिन गत कुछ समय से यह चर्चा का विषय बन गया है कि क्या वही साहित्य दलित -साहित्य की परिधि में आता है जो दलित-साहित्यकारों द्वारा लिखा जा रहा है या वह साहित्य भी दलित साहित्य है जिसके लेखक गैर दलित हैं, लेकिन जिनमें दलित जीवन की सघन, विश्वसनीय और वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है.

इस विषय में दलित आलोचक डॉ. तेज सिंह का कथन है, "अभी पिछले दिनों दलित साहित्यकारों ने 'स्वानुभूति' और 'सहानुभूति' दो अनुभूतिपरक शब्दों को बहस के केन्द्र में लाकर दलित-साहित्य को गैर दलित-साहित्य से पूरी तरह अलग कर दृढ़तापूर्वक अपनी स्थापना रखी कि दलित जीवन पर गैर दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य 'सहानुभूति' का साहित्य है और उसे किसी अर्थ में दलित-साहित्य नहीं कहा जा सकता और न ही उसे उसमें शामिल ही किया जा सकता." (आज का दलित-साहित्य, पृ० ५९) . इस तर्क से साहित्य के विषय में अब तक स्वीकृत यह मान्यता खंडित हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि साहित्यकार 'स्वानुभूत' विषयों की ही भांति 'परानुभूत' विषयों को भी उतनी ही गहनता से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान करता है. कितनी ही बार वह दूसरों के भोगे यथार्थ को कहीं अधिक गहराई से लिख पाता है बजाय अपने भोगे यथार्थ के. यदि अपने भोगे यथार्थ की अवधारणा के साहित्य को ही साहित्य माना जाता तो शायद ही हमें 'अन्ना कारिनिना' जैसा विश्व प्रसिद्ध उपन्यास प्राप्त होता. प्रेमचन्द का तो यहां तक मानना था कि कहानी के 'प्लॉट' ट्रेन में यात्रा करते हुए- अखबार पढ़ते हुए (किसी अन्य के साथ घटी घटना को देखते हुए) भी ग्रहण किये जा सकते हैं. आवश्यकता होती है कि लेखक ऎसे विषयों को कितनी गहराई तक अपने अन्दर जीता है. अर्थात यथार्थ अपना भोगा हुआ हो या दूसरे का जब तक वह गहन मानवीय संवेदना से आवेष्टित होकर रचनाकार को उद्वेलित नहीं कर देता, वह रचनात्मक स्वरूप ग्रहण नहीं करता. एक अच्छी रचना दीर्घ अन्तर्यात्रा के पश्चात ही जन्म लेती है. अस्तु, मैं यहां उन हिन्दी उपन्यासों पर संक्षिप्त चर्चा करना चाहूंगा, जिनमें दलित जीवन की सघन अभिव्यक्ति हुई है. यद्यपि हिन्दी कथा साहित्य के उद्भव से आज तक सैकड़ों रचनाएं हैं, जिनमें किसी-न-किसी रूप में दलितों के जीवन पर प्रकाश डाला गया है; किन्तु वह मूल कथा के एक अंग के रूप में ही उद्भाषित हुआ, न कि विशेष रूप से उन्हें चुना गया अर्थात वह केन्द्रीय विषय कभी नहीं रहा. लेकिन गोपाल उपाध्याय का उपन्यास 'एक टुकड़ा इतिहास', अमृतलाल नागर का 'नाच्यो बहुत गोपाल', जगदीश चन्द्र का 'नरक कुण्ड में बास (यह उनके उपन्यास-तृयी - धरती धन न अपना, नरककुण्ड में बास और यह ‘ज़मीन तो अपनी थी’ का दूसरा भाग है), मदन दीक्षित का 'मोरी की ईंट' तथा गिरिराज किशोर का 'परिशिष्ट' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण उपन्यास हैं; क्योंकि इनमें केवल और केवल दलित जीवन ही विषय-वस्तु के रूप में व्याख्यायित हुआ है.

यह आश्चर्यजनक संयोग है कि उपरोक्त उपन्यासों में पहले चार के लेखक ब्राम्हण हैं. यहां मुझे कथाकार कमलेश्वर की बात याद आती है ( जो मुझसे उन्होंने एक साक्षात्कार के समय कही थी ) कि इन उपन्यासों पर से यदि उनके लेखकों के नाम हटा दिये जायें और किसी ऎसे व्यक्ति से पूछा जाये जो उनके विषय में न जानता हो कि वे किसकी कृतियां हैं तो वह उन्हें केवल 'दलित-साहित्य' ही कहेगा. सच यह है कि लेखक वह प्राणी होता है जो परकाया प्रवेश करता है और वह उसके दुख-दर्द को आत्मसात कर अभिव्यक्ति प्रदान करता है. अतः आवश्यक नहीं कि वह अपने भोगे यथार्थ को ही गहनता से अभिव्यक्त करे.

'मोरी की ईंट' के विषय में कहा गया है, "नरक बटोरने वाले, अछूत जातियों के लिए भी अछूत-मेहतरों के जीवन की आंतरिक झांकी." और मेहतरों की इस आंतरिक झांकी को अंदर से देखने-पाने के लिए मदन दीक्षित नाम का किशोर मेहतर बस्ती का अंग बन जाता है. दीक्षित इस उपन्यास के विषय में कहते हैं, "इसी अपनेपन की पूंजी के सहारे मुझे दूसरी जगहों के मेहतर समाजों से अंतरंतगता कायम करने में कभी कोई कठिनाई सामने नहीं आई और उनकी परम्पराएं, मर्यादाएं, व्यथा-कथाएं, संघर्ष गाथाएं और ढेर सारे निर्बल-सबल चरित्रों के संस्मरण मेरे अपने ज्ञान-कोष के अभिन्न अंग बन गये. इसी बीच अन्य बहुत-सी बातों के साथ मुझे इस बात का भी खूब अच्छी तरह से अहसास हो गया कि सवर्ण और मध्यम जातियां तो क्या, अधिकांश अनुसूचित जातियां भी मेहतरों को अछूत ही समझती हैं और धर्म बदल लेने पर भी भारतीय समाज में मेहतरों की मेहतरियत में कोई अंतर नहीं आता." (वाजिबुल अर्ज़).

'मोरी की ईंट' उपन्यास मुख्य रूप से दलितों (मेहतरों) के धर्म परिवर्तन को उद्घाटित करता है और यह बताता है कि धर्मांतरण के बाद भी धर्मांतरित लोगों का दर्जा नये समाज में पूर्व जाति के आधार पर ही निर्धारित होता है. कर्नल ब्राउन का खानसामा खैराती कर्नल के प्रयास से मेहतर से क्रिस्टान हो जाता है और उसका बेटा सैम्युअल उच्च शिक्षा प्राप्त करता है, लेकिन विक्टर पंत और एडगर जोशी, जो कभी अल्मोड़ा के नन्दलाल पन्त और मोहन चन्द्र जोशी थे, सैमुअल को वह सामाजिक सम्मान देने को तैयार नहीं थे, नये समाज में जिसका वह हकदार था; क्योंकि उनके पूर्व ब्राम्हणवादी संस्कार धर्मांतरण के पश्चात भी उनके अन्दर मौजूद थे. ऎसे ही अनेक दलित-परिवारों के संघर्ष और मार्मिक जीवन प्रसंगों को 'मोरी की ईंट' में प्रमाणिकता के साथ चित्रित किया गया है.

जगदीश चन्द्र का उपन्यास 'नरक कुण्ड में बास' में चमारों की दारुण जीवन-स्थितियों का वास्तविक चित्रण किया गया है. कथानायक काली गांव के चौधरी से अपने प्राण बचाकर जालन्धर आ जाता है. बैलों के स्थान पर स्वयं जुतकर रेहड़ा खींचने से लेकर मजूरी के अन्य ढंग- कुलीगिरी के बरास्ते वह एक ऎसी कम्पनी में काम करने लगता है जहां चमड़ा तैयार करने का काम होता है. काली को मांस और खून से सनी मक्खियों के अम्बार से ढकी खालों को नमक और चूने के पानी में डूबकर दिनभर में साफ करना और सुखाना होता है. उपन्यास हमें जिस दुनिया की यात्रा करवाता है उसे यदि 'जीवित नर्क' कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी. हिन्दी में दलित जीवन पर यह एक श्रेष्ठ उपन्यास है. सम्भव है कोई दलित रचनाकार जिसने काली जैसा जीवन जिया हो, काली और उस जैसे मजदूरों के जीवन की नारकीयता को और बेहतर कहने की कोशिश करता, लेकिन जगदीश चन्द्र से कुछ भी तो नहीं छूटा. चमड़ा कारखाना के पास बहते गन्दे नाले में कारखाने का सड़ांध युक्त पानी बहकर उसे इतना अधिक बदबूदार बना देता है कि किसी भी सभ्य समाज की बस्ती उस नाले के किनारे रह नहीं सकती , लेकिन गरीब मजदूरों की झोपड़ बस्ती उस नाले के किनारे सड़ांध , मक्खियों और अनेक संक्रामक रोगों से जूझती रहने को अभिशप्त है. काली के अनेक साथी नमक युक्त पानी में दिनभर रहकर चमड़ा तैयार करने के कारण गले पंजो(पैर) और असह्य खुजली का शिकार बन कारखाने के काम के लिए अयोग्य बन मृत्यु की कामना करते उसी बस्ती में रहते हैं.

यहां यह ध्यातव्य है कि जगदीश चन्द्र पंजाब की अनेक दलित संस्थाओं से सम्बद्ध थे और दलित आन्दोलन (पंजाब) में उनकी अहम भूमिका होती थी. यह सुखद तथ्य है कि पंजाबी दलित साहित्यकारों द्वारा वे सदैव समादृत रहे और यदि यह उपन्यास पंजाबी भाषा में प्रकाशित हुआ होता तो निश्चित ही इसका उचित मूल्यांकन हुआ होता. हिन्दी की तरह उपेक्षित न रहा होता, जबकि एक सत्य यह भी है कि अन्तिम दशक के श्रेष्ठतम उपन्यासों में एक होने का यह अधिकारी है.

'नाच्यो बहुत गोपाल' और 'एक टुकड़ा इतिहास' में ऎसी दो नारी पात्रों के माध्यम से दलित जीवन चित्रित किया गया है, जिनमें एक निर्गुणिया (नच्यो बहुत गोपाल) ब्राम्हण पुत्री होकर एक मेहतर मोहना की पत्नी बन जाती है और दूसरी चनुली (चन्दा देवी - 'एक टुकड़ा इतिहास') दलित होकर एक ब्राम्हण कान्तिमणी की पत्नी बनकर ब्राम्हणी होने का स्वप्न देखती है. दोनों पात्रों के संघर्ष भिन्न हैं. चनुली तो ब्राम्हणी नहीं बन पाती - प्रताड़ित होकर पुनः दलित समाज में धकेली जाने के बाद एक दुर्द्धर्ष दलित महिला के रूप में जिस प्रकार अपना विकास करती है और सवर्ण समाज के लिए चुनौती बनती है वह आश्चर्यचकित करता है. गांव की उपेक्षित-शोषित युवती जिजीविषा और संघर्ष का दामन पकड़ अपने समाज के उत्थान के लिए जिस प्रकार कटिबद्ध दिखती है, वह प्रेरणादायी है - आज की दलित नारी के लिए. दलित चेतना तो दो दशक पूर्व जागृत हुई जबकि यह उपन्यास उन्नीस सौ चौहत्तर में प्रकाशित हो चुका था. निर्गुणिया का संघर्ष पूर्ण मेहतरानी बन जाने का है. वह बनती भी है, लेकिन उस सबके लिए उसे जैसी शारीरिक, मानसिक यन्त्रणाओं से होकर गुजरना पड़ता है वही उसकी शक्ति है और वह इस उपन्यास को 'दलित साहित्य की परिधि में ला खड़ा करता है. गिरिराज किशोर के उपन्यास 'परिशिष्ट' में भी दलित जीवन को गम्भीरता से चित्रित किया गया है. अपने समय का यह चर्चित उपन्यास है.

उपरोक्त उपन्यास इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ईमानदार लेखक सदैव दुख-दर्द, पीड़ा - शोषण-दमन के साथ खड़ा होता है, चाहे वह दलित हो या गैर दलित. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाएं भी युगों से दलित-शोषित जीवन जीने के लिए अभिशप्त रही हैं. आज भी हैं. भले ही वह निम्न वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, मध्य वर्ग या फिर आभिजात्य वर्ग की ही क्यों न हों ! आज की महिला कथाकार यदि यह मांग करने लगें कि नारी जीवन की अभिव्यक्ति का अधिकार मात्र उन्हें ही है- यह पुरुष कथाकारों का क्षेत्र नहीं है तो हमें शरत चन्द्र की रचनाओं को खारिज कर देना होगा. वास्तव में बहस वही सार्थक होती है जो विकास की ओर अग्रसर करे और जब बहस अपने में ही उलझकर श्रम/प्रतिभा का क्षरण करने लगे तब वह अवरोधक हो जाती है. अतः दलित साहित्य 'क्या' और 'किसका' से आगे जाकर साहित्यकारों को केवल साहित्य और अच्छे साहित्य पर अपने को केन्द्रित करना चाहिए . अच्छी रचनाओं का मूल्यांकन समय स्वयं करता है. चर्चित हो जाने की हड़बड़ाहट में कभी उत्कृष्ट साहित्य नहीं रचा जा सकता. उत्कृष्ट दलित-साहित्य को भी इन्हीं शर्तों से होकर गुजरना होगा, उसे चाहे दलित रचनाकार लिखें या गैर - दलित.

3 टिप्‍पणियां:

तेजेन्द्र शर्मा ने कहा…

भाई रूपजी

आपका लेख बहुत अच्छा है किन्तु मैं साहित्य को अलग अलग खांचों में बांटने के ख़िलाफ़ हूं। मैं महिला लेखन, दलित लेखन, स्वर्ण लेखन, प्रवासी लेखन आदि के रूप में नहीं देखता। किसी भी विश्व भाषा में यह कैंसर नहीं होना चाहिये। समूचा हिन्दी साहित्य केवल हिन्दी साहित्य कहलाए और हम सब उसका आनन्द उठाएं। इसका बेहतरीन उदाहरण हैं एस. आर. हरनोट, जिनके कथा साहित्य को केवल हिन्दी साहित्य माना जाता है। कोई उन्हें दलित नहीं कहता और न ही उनके साहित्य को दलित साहित्य। - तेजेन्द्र शर्मा - लन्दन।

वर्षा ने कहा…

बात आपकी सही है, अनुभव झेलकर भी होता है, देखकर भी। मैं एक किताब और एक लेखक का नाम बताना चाहूंगी दोनों दलित विमर्श से जुड़े हैं।
मैं हिंदू क्यों नहीं हूं और दूसरी लेखक बेबी हालदार।

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय तेजेन्द्र भाई,

मैं आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं. अपने आलेख में मैंने अप्रत्यक्ष रूप से यही प्रतिपादित करना चाहा है. सवर्णों द्वारा दलितों के जीवन पर सार्थक-उत्कृष्ट काम किया गया है-- यह कहने के पीछे यही भाव था. आपको जानकर अच्छा लगेगा कि दलितों में नयी पीढ़ी के कुछ युवाओं से मिलना हुआ और वे भी इसतरह से सोचने लगे हैं. यह तो साहित्य में अपने को किसी तरह स्थापित देखने के इच्छुक दलितों द्वारा चलाया जा रहा अभियान है . हम जानते हैं साहित्य वही जिन्दा रहेगा जो जिन्दा रहने योग्य होगा.

चन्देल