मंगलवार, 5 अगस्त 2008

पुस्तक समीक्षा

उम्मीदें जगाती कहानियां
जाहिद खान

तरुण भटनागर नई सदी की पहली दहाई के उन युवा कथाकारों में से एक हैं, जिनकी कहानियों ने अल्प समय में ही हिन्दी कथा साहित्य पर अमिट प्रभाव छोडा। ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित उनके पहले कहानी संग्रह “गुलमेंहदी की झाडियां” में कुल जमा 7 कहानियां हैं, प्रत्येक अपनी भाषा, शिल्प, कथा, रुप-विन्यास के लिहाज से बिल्कुल जुदा। कहीं भी दोहराव नहीं है और एक मंजे हुए किस्सागो की तरह तरुण जिस तरह अपनी कहानियां पेश करते हैं, उसके मोहपाश से पाठक बच नहीं सकता। पाठकों को बांध रखने में सफल इन कहानियों पर वरिष्ठ आलोचक परमानंद श्रीवास्तव की टीप्पणी बिल्कुल सही है ,‘संग्रह कई समयों के द्वंद्व का रोचक आख्यान है।’
संग्रह की प्रतिनिधी कहानी “हैलियोफोबिक” है, यद्यपी संग्रह का टाइटल एक अन्य कहानी पर “गुलमेंहदी की झाडियां” है। यह कहानी जब पहल-85 में आई थी, काफी चर्चा में रही थी। अफगान युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी युद्ध और शरणार्थी कैंपों की विभीषिका को बडे प्रभावशाली ढंग से दिखाती है। जंग की सियासत पर क्रिटिक की तरह, यह खान जो इसका मुख्य पात्र है, सिर्फ़ उसका ही नहीं बल्कि हमारे समय का कडवा सच है। कहानी को लेखक ने 1988 तक सीमित करके अमेरिकी साम्राज्यवाद को इसका हिस्सा नहीं बनाया है, बावजूद इसके यह एक नायाब कहानी है। अपने कथ्य और विषयवस्तु के लिहाज से हिन्दी कथा साहित्य में पहली भी।

जिंदगी में अभावग्रस्तता कैसे-कैसे मुहावरे गढ लेती है, कहानी गुणा भाग इसका अहसास कराती है। संपेरों की बस्ती और एक अल्हदा संसार जहां जीवन से नहीं, बल्कि मौत से उम्मीद है। चंपालाल का बेटा देव स्कूली पढाई के दौरान भी जिंदगी और मौत का गुणा-भाग लगाता रहता है – ‘लडके का गुणा भाग कठिन हो गया। शिव का प्रसाद… सांप देवता... जहर अच्छा है, मरने पर खुशी का गीत… बुजुर्गों की खुद को सांप से डसवाने की कहानी… सरकार के पचास हजार रुपये वह भी सात दिनों में… फिर जिंदा रहना बडी बात कैसे ? हर जगह मरना बडा है, तब जीना बडी बात कैसे ?....फिर क्या गुणा भाग ठीक है ? ऐसे में गुणा भाग ठीक कैसे ? कतई नहीं… कहीं तो गडबड है, गुणा भाग गडबड है...।’ कहानी में ब्यौरे और मंजर इतने नायाब हैं, कि सपेरों की दुनिया साकार हो जाती है। हाशिये पर खडे समाज की जिंदगी को इतनी बारीकी से देखना काबिले तारीफ है। यही बात “गुलमेंहदी की झाडियों” में भी है, जिसमें लेखक ने कचरा बीनने वाले बच्चों के जीवन में झांकने की कोशिश की है ।
“बीते शहर से फिर गुजरना”, “फोटो का सच” और “कौन सी मौत” कहानियों पर ‘निर्मलीय प्रभाव’ दीखता है। कहानियों में जज्बातों का अंधड बाकी तत्वों को उडा ले जाता है, हां, भाषाई चमत्कार खूब है – ‘वह नहीं होती तो यह एक बीता हुआ शहर होता। उन बीते शहरों में से एक जहां फिर से जाने का कोई कारण नहीं बचा है। ऐसे बहुत से शहर हैं जो बीत गये। जहां जाना समय को खोना है। जहां जाकर कुछ नहीं हो सकता। पर वह थी और आज यूं यह शहर पूरी तरह से बीत नहीं पाया है। उसके होने के कारण यह शहर मर नहीं पाया है। लगता है कुछ रह गया है। कुछ रह गया है बीतने से। कुछ रह गया है, इसे पूरी तरह से बेजान बनाने से। यह शहर अभी खोया नहीं है। इस शहर को अभी गुम होना है। उसने अभी इसे गुमने नहीं दिया है।’(बीते शहर से फिर गुजरना)

“हंसोड हंसुली” संग्रह की वह कहानी है, जो बरसों में एकाध ही लिखी जाती है। किस्सागोई, भाषा और शिल्प इतना अद्भुत है, कि यह किसी नये रचनाकार की प्रारंभिक कहानी नहीं लगती है। झारखण्ड के छोटा नागपुर के गांव लोरमी की यह कहानी बडी रोचक है। गांव से एक के बाद एक लोग गायब होते चले जाते हैं और पूरा गांव लडइय्यों के आतंक से हिल जाता है। पर लडइय्यों की हकीकत क्या है ? कौन है इसके पीछे ? यह कहानी को पढकर ही जाना जा सकता है । कहानी का अंत क्लासिक है, जो अप्रत्याशित है और चौंकाता भी है– ‘यह कहानी आज सिर्फ़ बाबू जी जानते हैं। दुनिया में और किसी को यह नहीं पता। बाबू जी के साथ ही यह अनजानी कहानी भी एक दिन गुमनाम हो जायेगी। किसी को पता नहीं चलेगा कि, क्या हुआ था। इस कहानी का कुछ नहीं हो सकता है। यह कहानी कही नहीं जा सकती है। कुछ कहानियां बिना किसी को पता चले खत्म होती हैं। यह वैसी ही कहानी है। इसीलिए शुरु में ही बता दिया गया है, कि यह एक झूठी कहानी है। इस कहानी को ना तो किसी ने किसी को बताया और ना कभी बतायेगा। इस कहानी का होना, इसका पता चलना नहीं है। बाबू जी कभी नहीं कहेंगे। यह कहानी कभी भी किसी को पता नहीं चल सकती।’

अपनी कहानियों में तरुण शब्दों के साथ खूब खिलवाड़ करते हैं । कहानी का नैरेशन कई बार कविताई और शब्दों के चुनाव से जोरदार बन पडता है –‘एक से काकभगाऊ और एक से कौए । सबके लिए रांपे से एक सी अंगार झौंकती धूप। मिट्टी, गोबर और गेरुये की एक सी कडवी गंध वाली दीवारों पर लुढकी, एक सी गांवडी खपरीली छतें। ढेकी और हालर की एक सी किडरकिडर। एक सी आडी टेढी जोंक सी खेतों की मेड। एक से कुंये। एक सी कुण्डि, डबरा-डबरी…। एक सी कुंओं की पार। एक सी लोहे की किरर-खिडर घिर्रियां। एक से यतीम खलिहान। और... । और बस शकलों से अलग चेहरे।’

कुल मिलाकर यह संग्रह खूब उम्मीदें जगाता है और आश्वस्ति भी देता है, कि तरुण की कलम से ऐसी और कहानियां निकलेंगी जो पाठकों को नई दुनिया से रुबरु करायेंगी और साहित्य को समृद्ध करेंगी ।
-महल कालोनी शिवपुरी ,म.प्र.
कहानी संग्रह – गुलमेंहदी की झाड़ियां
लेखक– तरुण भटनागर ,
प्रकाशक– भारतीय ज्ञानपीठ ,
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया,
लोदी रोड, नई दिल्ली-110003
पृष्ठ संख्या – 152 ,मूल्य–120 रुपये।

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