गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

साहित्य सृजन – सितंबर-अक्तूबर 2008


‘मेरी बात’ के अन्तर्गत इस बार प्रस्तुत है - हिंदी की प्रख्यात कथाकार सुधा अरोड़ा द्वारा हिंदी के वरिष्ठ लेखक और ‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव के नाम लिखा गया एक खुला पत्र जो हिंदी कथा मासिक ‘कथादेश’ के अगस्त 2008 अंक में ‘औरत की दुनिया’ स्तंभ के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है। इस पत्र को सुधा जी ने ‘साहित्य सृजन’ में विशेष रूप से पुनर्प्रकाशन के लिए प्रेषित किया है। अपने इस पत्र के साथ उन्होंने प्रभुजोशी का आलेख ‘स्त्री देह का बाजार और स्त्री की जय-पराजय’ भी प्रेषित किया था लेकिन स्थानाभाव के कारण हम उसका प्रकाशन नहीं कर रहे पा रहे हैं। इस पत्रनुमा आलेख के बहाने सुधा जी ने स्त्री विमर्श को लेकर जो प्रश्न उठाये हैं, वे न केवल विचारणीय हैं, बल्कि एक बुनियादी बहस की भी मांग करते हैं।

‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव के नाम एक खुला पत्र

स्त्री-विमर्श के नाम पर कृपया साहित्य में प्रदूषण न फैलायें
-सुधा अरोड़ा


‘हंस’ के जून अंक का सम्पादकीय ‘एक और स्त्री विमर्श पढ़कर एक घटना याद आ गयी।
फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्यौरा देते हैं, जहाँ एके विशालकाय चौपड़ का चार खाने वाला ढाँचा है। उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहाँ से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पासा फेंकते थे। हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे पीले लाल नीले रंग के वस्त्रों, आभूषणों से सजी कन्याएँ खड़ी रहती थीं और पासे को फेंककर अगर चार नम्बर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रों से सजी सुसज्जित कन्या पैरों में झांझर पहने झँकारती इठलाती हुई नृत्य के अन्दाज में चार घर चलती थीं। जाहिर है, जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के महल में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं। ‘हंस’ के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इन्द्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहाँ अप्सराओं(!) को रिझाने लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इन्द्र बाकायदा ‘हंस’ की शतरंजी चौपड़ का पासा फेंक रहे हैं।

आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है। स्त्री की अहमियत क्या है ? महज एक देह! इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं। स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आयी है और हम उसे रोक नहीं पा रहे। लड़कियाँ यह कहने में शर्मिन्दगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पास देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं ? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहाँ आड़े रहे हैं ? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंडे प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है। मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा है, ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ को उस दिखाऊ उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए। आप जैसे विचारवान सम्पादक का ‘एक और स्त्री विमर्श’ तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ थपथपाता ही नहीं, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है।
हंस का जून अंक आया और अचानक स्त्री विमर्श पर छायी धुन्ध को लेकर पटना से निकलने वाली ‘साहिती सारिका’ के सम्पादक सलिल सुधाकर और ‘अक्सर’ के वरिष्ठ सम्पादक हेतु भारद्वाज ने स्त्री विमर्श के स्वरूप से चिन्तित होकर परिचर्चाएँ आयोजित करने का निर्णय लिया। स्त्री विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुन्ध है, न भारत में। भारत में इस धुन्ध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही। जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा है और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का सम्पादक कर रहा है- लोलुपता और लम्पटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाजिक मान्यता प्रदान करना।
स्त्री देह को लेकर गालियाँ, अश्लीलता, छिछोरापन कब किस समाज में, किस युग में नहीं रहा ? साहित्य में वह गुलशन नन्दा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है। दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से सम्बन्धित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ दे रहा है। निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं।
पश्चिम में पूँजी के आधिक्य से और भारत में पूँजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आयी है। निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की माँगें और महत्वकांक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएँ जुटा लेती हैं। शिकागो या न्यू्यॉर्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियाँ ब्रॉ और शॉट्र्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं। समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नज़र आना हैरानी का बायस नहीं बनता। वहाँ के बाशिन्दों को इसकी आदत हो चुकी है और वहाँ कोई ठिठककर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं। वहाँ की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बारह निकल आयी है। भारत के बाशिन्दे अब भी नेक लाइन पर आँखें गड़ा देते हैं और जीन्स से बाहर झाँकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते। नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहाँ आज भी स्त्री देह को सौन्दर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज़ माना जाता है। उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है।
स्त्री को ‘अदर दैन बॉडी’ डिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं निर्देशकों में, न आप जैसे सम्पादकों में। अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी ‘मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है’ को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौन्दर्य को उसकी सम्पूर्णता में न देखकर ‘निचले हिस्से का सच’ जैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं। यह दृष्टि दोष लाइलाज है।
महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर। उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए। महिलाओं की बेशुमार अन्तहीन सामाजिक समस्याएँ हैं। बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को सम्भालनें और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लम्पटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलती औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है जहाँ देह की आजादी या देह मुक्ति कोई मायने नहीं रखती। आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ‘ओथेलो’ भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिन्दा है। बलात्कार और भ्रूण हत्यायें पहले से कई गुना बढ़ गयी हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है (द टेलीग्राफ: लंदन 22 जून 2008 -अमित राय) पर वह ‘हंस’ के सरोकार का मुद्दा नहीं है।
‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा’ का झंडा लिए आप अरसे से घूम रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हुए हैं। आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। हर शहर में वे पनप रही हैं। पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियाँ अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं। ‘हंस’ के स्त्री देह मुक्ति अभियान से आन्दोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेन्द्र यादव जैसे भ्रमित सम्पादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं। अपने इस अश्वमेघ यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं- रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों से तवज्जोह दी गयी, यह किसी शोध का विषय नहीं है।
आपके अनुसार योनि शब्द अश्लील और आपत्तिजनक है क्यों ‘योनि अकेली ही किसी एटम बम से कम है’। योनि शब्द से किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को परहेज नहीं हो सकता। परहेज तब होता है जब उसे प्रस्तुत करने के नजरिये में खोट दिखाई देता है। ‘हंस’ के जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डॉ. रामवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी कर दी है।
कृपया प्रेमचन्द की पत्रिका 'हंस' के साथ 'जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ की स्लोगन लाइन हटाकर ‘स्त्री देह की आजादी का मुखपत्र’ रख दें। पचास साल बाद राजेन्द्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जायेगा, इसकी गारन्टी कोई नहीं दे सकता, पर ‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह मुक्ति से शुरू होगा’ की उद्घोषणा के प्रथम प्रवक्ता और प्रणेता के रूप में ‘हंस’ सम्पादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।

मैं चाहती हूँ कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शुरू हो जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजशास्त्र और बाजार के देहशास्त्र के बीच रखकर ही न देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खाजा जा सके क्योंकि ये प्रश्न अन्ततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं। आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी। क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लाँघ कर आगे भी जाएंगे ?
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जन्म - ४ अक्टूबर १९४६ को लाहौर (पश्चिमी पाकिस्तान) में
शिक्षा - कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में १९६७ में एम.ए. , बी.ए. (ऑनर्स) दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम।
कार्यक्षेत्र - कलकत्ता के जोगमाया देवी कॉलेज तथा श्री शिक्षायतन कॉलेज - दो डिग्री कॉलेजों के हिंदी विभाग में '६९ से '७१ तक अध्यापन। १९९३ से महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। कई कार्यशालाओं में भागीदारी।
लेखन - पहली कहानी 'मरी हुई चीज़' सितंबर १९६५ में 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित, कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, और पोलिश भाषाओं में अनूदित। डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक भाषा में तथा डॉ. कोकी नागा द्वारा जापानी भाषा में कुछ कहानियाँ अनूदित। 'युद्धविराम', 'दहलीज़ पर संवाद' तथा 'इतिहास दोहराता है' पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित, दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फ़िल्मों का निर्माण फिल्म पटकथाओं, टीवी धारावाहिक और रेडियो नाटकों का लेखन।
प्रकाशन - कहानी संग्रह 'बतौर तराशे हुए' (१९६७) 'युद्धविराम' (१९७७) तथा 'महानगर की मैथिली' (१९८७)। 'युद्धविराम' उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
संपादन - कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पत्रिका 'प्रक्रिया' का सन १९६६-६७ में संपादन। बंबई से सन १९७७-७८ में हिंदी साहित्य मासिक 'कथायात्रा' के संपादन विभाग में कार्यरत। निम्न मध्यम-वर्गीय महिलाओं के लिए 'अंतरंग संगिनी' के दो महत्वपूर्ण विशेषांकों 'औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो' का संपादन।स्तंभ लेखन - कहानियों के साथ-साथ '७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' के लोकप्रिय स्तंभ 'आम आदमी : ज़िंदा सवाल' का लेखन। '९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 'जनसत्ता' के साप्ताहिक स्तंभ 'वामा' का लगभग एक वर्ष तक लेखन। महिलाओं की समस्याओं पर कई आलेख प्रकाशित। स्त्री विमर्श से संबंधित लेखों का संकलन। दो कहानी संग्रह तथा एक एकांकी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति - भारतीय भाषाओं के प्रकाशन 'वसुंधरा' की मानद निदेशक। संपर्क
: sudhaarora@gmail.com

13 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

सुधा जी हंस के सम्पादक राजेन्द्र जी के नाम आपका खुला पत्र (जिसे सुभाष नीरव ने ठीक ही आलेख कहा) विचारोत्तेजक है. बहुत ही सच कहा है. बिल्कुल आपकी तरह ही सोचता हूं. नारी मुक्ति देहमुक्ति से ही होगी , कहने वालों का अप्रत्यक्ष संदेश नारी देह शोषण से ही है--- और वह हो ही रहा है. आपने लगभग सभी पहुलओं को छुआ है.

डॉ रामवीर जी को शायद नहीं मालूम कि राजेन्द्र यादव जी का हंस वह ’हं” नहीं है जिसे प्रेमचन्द निकालते थे. यदि सूचना गलत नहीं है तो यह हंस दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी महाविद्याल से निकलने वाली पत्रिका थी, जिसे राजेन्द्र जी ने ले लिया था. उनकी सलाह सही है.

आपके आलेख को ’साहित्य सृजन’ में पुनः प्रकाशित कर सुभाष नीरव ने इसे भारत से बाहर बैठे लोगों तक पहुंचा दिया है. हालांकि राजेन्द्र जी के ’स्त्री विमर्श’ के विषय में बाहर बैठे लोग हमसे कम नहीं जानते और वे यह भी जानते हैं कि उनसे प्रेरित कई बरसाती मेढकियां एक कहानी संग्रह प्रकाशित करवाने के लिए प्रकाशकों को किस प्रकार खुश कर रही और लेखिका होने का भ्रम पाल रही हैं. रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री के विषय में आपने जो कहा उससे पूर्णतया सहमत हूं. रमणिका गुप्ता की आत्मकथा के अंश हंस में पढ़्कर उबकाई आ गई थी.

आलेख के लिए आपको बधाई और प्रकाशित करने के लिए सुभाष नीरव को.

रूपसिंह चन्देल

बेनामी ने कहा…

Dhanyawaad Subhash ji. Sari blogzine mili hain aur beech beech main kuch pad bhi leti hun. Sudha ji ko pada.ab unki pratikriya par pratikriya chapegi ..
Namita Rakesh ki kavitaein acchi lagi.
baki phir kabhi..

Ila

बेनामी ने कहा…

Thanx for providing nice litrature.

Ashfaque Ahmed Siddiqui
Mumbai
mob.no9820117150

बेनामी ने कहा…

साहित्य स्रजन का नया अंक अच्छा लगा । सुधा जी का कहना बिल्कुल सही है- " आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी। क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लाँघ कर आगे भी जाएंगे ?" कविताएं और कहानियां भी अच्छी लगीं । काका हाथरसी पुरस्कार की राशि का भी उल्लेख ज़रूरी था ।
देवमणि पाण्डेय,मुम्बई

बेनामी ने कहा…

Subhash Neerav ji ,
Aapka blog dekha . Dhanyavaad . Aapne mera khula patra jo liya hai , kripaya usme kuchh sudhaar kar len . Aapke Blog me changes aap hi kar sakte hain --
1.'' Dilli ke '' kaat den ... ek pankti beech me choot gayee thi . Fateh pur Sikri Agra me hai , dilli me nahin --
2. '' Hans '' ki '' Baayeen line'' nahin -- '' Bi Line '' yaani slogan line -- janchetana ka pragatisheel katha maasik.. kripaya yeh dono ghalatiyan sudhaar len

Aabhaar Sahit ,
Sudha .

--
Sudha Arora
1702,Solitaire,Hiranandani Gardens,
Powai,Mumbai - 400 076.
Ph-91-22-25797872 / 4005 7872
098218 83980.

बेनामी ने कहा…

Subhash ji ,
Aur bhi ek ghalati reh gayee hai .
Dr. Ramveer ka quote nahin hai wah ki -- '' kripaya premchand ke Hans se .......... swarnim aksharon me darz kiya jayega .'' wah mere lekh ka hi hissa hai .

Sabhaar,
Sudha .

सुभाष नीरव ने कहा…

आदरणीय सुधा जी,
आपने जिन गलतियों की ओर इशारा किया है, वे मेरी अज्ञानता के चलते चली गई हैं। क्षमाप्रार्थी हूँ। कहते हैं न, 'नकल' में भी 'अक्ल' की ज़रूरत होती है। दर असल, आपने ई मेल से जो मैटर भेजा था, उसे फ़ोन्ट की समस्या के चलते मैं इस्तेमाल नहीं कर पाया। लिहाजा, 'कथादेश' से ही पूरा का पूरा (अंत में आंशिक संशोधन के साथ) मैंने पुन: यूनीकोड में टाईप किया। लगभग जो-जो त्रुटियाँ 'कथादेश' में गईं, वही 'साहित्य सृजन' में छ्पे आपके आलेख में चली गईं। बहरहाल, मैंने इन्हें दुरस्त कर दिया है। और भी कोई त्रुटि रह गई हो, तो नि:सकोच बताएं।
-सुभाष नीरव

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

Bhai Subhash,

Sudha ji ke aapelkh par tippani karate samay maine socha tha ki tumbhe bata dunga ki Fatehpur Sikari Agra ke pas hai, Delhi mein nahi, lekin bhul gaya. Use Sudha ji ne thik kara diya. Lekin ashcharya ki Harinarayan ji Agra ke hokar bhi Kathadesh mein kaise is galati ko nahi dekh paye.

Chandel

हिन्दीवाणी ने कहा…

काफी जोरदार बहस चलवा दी है आपने। कथादेश पत्रिका लंबे समय से हंस के खिलाफ किसी न किसी बहाने अभियान चलाती रही है। सुधा जी, कुछ सवाल उठाए हैं। आपने यह नहीं बताया कि आप सुधा जी के विचारों से सहमत हैं या फिर हंस के उस अंक को लेकर असहमत? बहरहाल, आपकी पत्रिका भी बहुत अच्छी है। आप काफी मेहनत करते हैं।

Ek ziddi dhun ने कहा…

सुधा जी, फैशनेबल और पुरुष संरक्षण में चल रही स्त्री लेखन वाली नहीं हैं बल्कि उस तरह के फर्जीवाडे को सामने लाती रहती हैं।

भगीरथ ने कहा…

a hard hitting reply.
congratulation
bhagirath

भगीरथ ने कहा…

a hard hitting reply to Rajendra Yadav.
gyansindhu

रंजना ने कहा…

प्रशंशा को शब्द नही मेरे पास......क्या कहूँ???? सुधा जी और सुभाष जी,आप दोनों को नमन और कोटिशः धन्यवाद इस सार्थक और सुंदर आलेख के लेखन व् प्रकाशन हेतु..

सुधा जी ने जो लिखा है वह अपने आप में इतना पूर्ण है,संक्षिप्त कलेवर में सारे मुद्दों को समेट कर इतने सुंदर ढंग से कह दिया गया है कि इससे अधिक और कहने को कुछ बचा नही.यह राजेंद्र यादव को ही नही बल्कि स्त्री उत्थान और स्त्री मुक्ती की बात करने वाली उन लेखिकाओं को भी जवाब है,जो निर्लज्जता,नग्नता और दुराचार को स्वतंत्रता का पर्याय मानती हैं.