गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

पुस्तक समीक्षा

जीवन के विभिन्न पक्षों के आस्वाद, रूप और रंग की कहानियाँ
प्रताप दीक्षित

अन्य कलाओं से इतर साहित्य की एक विशिष्टिता होती है कि वह देशकाल और समय की ही नहीं बल्कि भाषाओं की भी सीमा पार कर जाता है। यहीं पर साहित्य की एक विशेष भूमिका ब्रह्माण्ड से परे दिगदिगन्त की यात्रा के रूप में प्रारंभ होती है। शब्दों की शक्ति को सीमाएं बांध नहीं पाती हैं। भारतीय भाषाओं के संदर्भ में तमाम भाषाओं के साहित्य में समान प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं। बंगला भाषा का साहित्य भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। बंगला साहित्य में मूल्यों के प्रति आग्रह, संवेदना और मनुष्यता के प्रति सम्मान का भाव विद्यमान है।
“लौकिक-अलौकिक” में संग्रहित हिंदी कथाकार श्याम सुंदर चौधरी द्वारा बंगला भाषा की अट्ठारह अनूदित कहानियाँ इस बात का प्रमाणित करती हैं कि संवेदना, आकांक्षाओं और देशकाल की परिस्थितियों ने कथाकारों को सदैव झकझोरा है। वह दौर चाहे गत शताब्दी के प्रारंभ का रहा हो अथवा आधुनिक चेतना के प्रादुर्भाव का।
किसी रचना का भाषान्तर बहुत ही दुरुह और चुनौतीपूर्ण कार्य है। शायद इतना जटिल कि मौलिक लेखन की अपेक्षा अनुवाद कर्म अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। जैसे का तैसा रख देना एक यांत्रिक कार्य जैसा होता है। ऐसे अनुवाद न तो पाठक को उद्वेलित कर पाते हैं, न ही संवेदित।
किसी भाषा का एक अनुवाद से दूसरी भाषा में अनुवाद के लिए आवश्यक है कि अनुवादक को मूल भाषा और अनुवाद की भाषा का न केवल गहरा ज्ञान हो वरन् उस भाषा के संस्कार और जीने का अनुभव होना चाहिए। दोनों के मिथ, परम्पराएं, विकास क्रम, मुहावरों, प्रतीकों और बिम्बों को अनुवादक के लिए आत्मसात करना जरूरी है। इस दृष्टि से इस अनुवाद संग्रह को प्रभावी भावानुवाद कहा जा सकता है। मूल रचनाओ की भाव सम्पदा एवं संदेश को सरलता, प्रवाहमयता और प्रमाणिकता से प्रस्तुत किया गया है।
इन रचनाओं के लिए अनुवादक ने एक सर्जनात्मक भाषा अविष्कृत की है। पढ़ते हुए यह अनुभव ही नहीं होता कि हिन्दी के अतिरिक्त दूसरी भाषा की रचना पढ़ रहे हैं। सफल अनुवाद का एक कारण यह भी है कि अनुवादक स्वयं हिंदी का लेखक है।
जहाँ तक रचनाओं का प्रश्न है, अनुवादक ने विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र से लेकर युवतम दुर्गादास चटर्जी तक के कथाकारों की रचनाओं को संकलन हेतु चुना है। यह जीवन के विभिन्न पक्षों के आस्वाद, रूप, रंग की कहानियाँ हैं। दरअसल, कहानी ने भाषा, शिल्प और लहजे में ही नहीं कथा-चेतना के द्वारा भी समय की महत्वपूर्ण विधा के रूप में अपनी पहचान बनाई है। यह अपने समय के संदर्भों से जूझते हुए मानव मूल्यों के प्रति सरोकारों से जुड़ कर रागात्मक धरातल पर जीवन को अर्थ प्रदान करती हैं। अनुवादक रचनाकारों द्वारा प्रस्तुत युगीन परिस्थितियों की अनुकृति मात्र नहीं करता बल्कि रचनाओं के परिवेश की पुनर्रचना प्रस्तुत करता है। परिवेश द्वारा परिवर्तन की संभावनाओं का निर्माण करता है।
संग्रह की पहली अनूदित कहानी रवीन्द्र नाथ टैगोर की “सम्पादक” शीर्षक से है। लेखकीय बौद्धिक अहं एवं प्रतिद्वंदिता के बीच खो गए सहज प्रेम और संवेदना की तलाश की कहानी है। सहज उपलब्ध स्नेह जिसे मनुष्य अपने अहं और प्रमाद में स्वयं खो देता है। शरतचन्द्र चटर्जी की कहानी “महेश” का कथ्य पिछली शताब्दी का होने पर भी उसकी पीड़ा शाश्वत और सर्वकालिक है। यह केवल जमींदारों के द्वारा किए गए शोषण और अत्याचार को ही उद्घाटित नहीं करती, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और करुणा से आप्लावित भी करती है।
लोकप्रिय लेखक विमल मित्र की कहानी “बीस मिनट की कहानी” मानवीय संवदेना और एक मृगतृष्णा की कथा है। शायद हर एक व्यक्ति किसी न किसी मृगतृष्णा के पीछे जीने के लिए विवश है। “लौकिक-अलौकिक के बीच”(राणा चट्टोपाध्याय), “चुल्लू भर पानी”(वरेन गंगोपाध्याय) और “मृत्यु संवाद’(तरुण दास गुप्ता)- ये तीनों कहानियाँ मृत्युबोध की कहानियाँ हैं। “लौकिक-अलौकिक” में न केवल जीवन मृत्यु के प्रश्नों पर दार्शनिक चिंतन है बल्कि कुलीनता ऐसी चीजों की निस्सरता पर भी विचार-मंथन किया गया है। अन्ततः सबकुछ छूट जाता है। “चुल्लू भर पानी” में भी कभी प्रसिद्ध रहे हुए व्यक्ति की अपरिचित लोगों के बीच अनजान मौत द्वारा लेखक इन सब बाहरी उपादानों की व्यर्थता को ही अप्रत्यक्षतः उजागर करता है। मृत्यु के बाद की भी औपचारिकताएं अर्थहीन ही होती हैं। “मृत्यु संवाद” मात्र ओ. हेनरी की कहानियों की तरह कौतूहलपूर्ण चौकाने वाले अन्त की सधारण-सी कहानी है।
यद्यपि ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कहानी “पदमा” का अन्त भी कौतूहलपूर्ण अप्रत्याशित होता है परन्तु कहानी में वातावरण का जीवंत चित्रण, चन्द्र महाशय की जिजीविषा, उनका अन्तर्द्वन्द्व, पति-पत्नी का अप्रतिम प्रेम, समर्पण और पद्मा की आस्था एवं कर्तव्यभावना के बीच होने वाले संघर्ष का निर्वाह जिस खूबी से लेखक ने किया है, उससे यह एक श्रेष्ठ कहानी बन जाती है। इसका अन्त मनुष्यता पर आस्था को दृढ़ करता है।
अमिया सेन की कहानी “निर्मला भाभी” नौकरशाही पर प्रहार करने वाली एक अच्छी कहानी हो सकती थी, परन्तु इसका अन्त भी इसके अच्छी कहानी होने की संभावनाओं को समाप्त कर देता है। यह, अंधविश्वासों के विरुद्ध बहु-विक्रय वाली पत्रिकाओं में प्रकाशन योग्य दूसरे-तीसरे दर्जे की कहानी होकर रह जाती है। “विश्वास”(झरा बसु) एक चिकित्सक की सेवा भावना, कर्तव्य परायणता, सहयोग और उससे उपकृत तथाकथित ‘छोटे लोगों’ की सहृदयता एवं विश्वास की पारम्परिक कहानी है। कहानी के तथ्य अप्रमाणिक हैं। गायनाक्लाजिस्ट प्लास्टर नहीं चढ़ाता। एनेमिया में रक्त नहीं चढ़ाया जाता।
बुद्धदेव गुहा की कहानी “बोनसाई” आधुनिकता की त्रासदी की कहानी है। शायद सफलता का आसमान छूने की कोशिश में पिछड़ जाने की यन्त्रणा ही आज के आदमी की नियति बन गई है। ऊपर से बड़े दीखने वाले अन्दर से कितने छोटे हैं। इसी स्वार्थ और रिश्तों की निस्सारता और दिखावे की रचना है यह। सुनील दास की “वोक्काटा” पारिवारिक जुल्म से वेश्यावृत्ति पर विवश नारी मन के गह्वरों में गहरे छिपे प्रेम, प्रतिशोध, अन्तर्द्वन्द्व की मनौवैज्ञानिक कहानी है। वास्तव में प्रेम और घृणा एक ही मनोभाव के दो पहलू हैं। नायिका की पारम्परिक छवि से अलग पहचान बनती है।
नीला्कर की “आंधी” कहानी में बाह्य प्रतीक आंधी के द्वारा स्त्री चरित्र के मन में गहरे छिपे अदम्य आकर्षण, अविस्मृत प्रेम, अकेलेपन जैसे भावावेगों की मनोवैज्ञानिक कहानी है। दुर्गादास चट्टोपाध्याय की “नशा”। वास्तव में समस्त अध्ययन, चिंतन, अर्जन मनुष्य के निमित्त ही होता है। परन्तु आश्चर्य है कि इन सभी क्रियाकलापों का केन्द्र मनुष्य नेपथ्य में खो चुका है। मनुष्य देखने का नशा इसी मनुष्य को सतह से केन्द्र में लाने का प्रयास है। वृद्ध होने पर भी यह नशा मानवीय जिजीविषा का प्रतीक है।
अनिल भट्टाचार्य की कहानी “तरसती आँखों की सुबह” अभावों के बीच पलती एक लड़की, तद्जनित बालमन पर उसके प्रभाव की मनोवैज्ञानिक कहानी है। कितने ही भी्षण अभाव या समस्याएं हों, बच्चे उसे सहज और सरलीकृत कर लेते हैं। यही आशावादिता उन्हें स्पृहणीय बना देती है। इसी प्रकार विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय की कहानी “तुच्छ” अभावों के बीच छोटी-छोटी खुशियों की कहानी है।
सफलता और विकास के बीच कितना कुछ छूट जाता है। रिश्तों के बीच उगी संवेदनहीनता को रेखांकित करती गोविन्द भट्टाचार्य की कहानी “उन सबका ऋण” को देखा जाता है। दूसरी तरफ, “एक सूखती नदी का महाकाव्य”(जीवन सरकार) और “एक समर्पण ऐसा भी”(शचीन्द्र नाथ बंद्योपाध्याय) दोनों ही प्रेम कहानियाँ हैं। “सूखती नदी....” प्रेम की दैहिक अभिव्यक्ति की कथा है। उम्र, अनाम रिश्तों, संबोधन से परे एक नारी मन की मनोवैज्ञानिक रचना। फ्रायड के मनोविज्ञान को विश्लेषित करती कहानी। दूसरी ओर “एक समर्पण” में दो एकाकी लोगों के प्रेम के चरमोत्कर्ष की सम्पूर्ण गाथा है। जिस प्रेम में सब देना ही देना है, बिना अपेक्षा के। यही प्रेम हिंसक को करुणा का सागर बना देता है।
बंगला भाषा के साहित्य का हिन्दी में एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। रवीन्द्र नाथ टैगोर, शरतचन्द्र चटर्जी, विमल मित्र आदि हिन्दी में मूल भाषा के कथाकारों के समान ही लोकप्रिय हैं। पृथक रूप में इनकी पुस्तकें विशेष रूप से उपन्यास हिन्दी में उपलब्ध हैं। यद्यपि अधिकांश अनुवाद स्तरीय नहीं है। लेकिन श्याम सुंदर चौधरी ने बंगला के विभिन्न रचनाकारों को एक साथ प्रस्तुत करके एक स्तुतनीय कार्य किया है।
सम्प्रति- साहित्य की प्रत्येक विधा ने आधुनिक भावबोध की सीढि़यों के कई पायदान पार कर लिए हैं। समाज भी संक्रमण काल की विसंगतियों और तनावों से ग्रस्त है। पाठकों को समकालीन सामाजिक सरोकारों से संबंधित विषयों पर लिखी गई रचनाओं की अपेक्षा रहती है। परन्तु यहाँ “लौकिक-अलौकिक” में चयनित कहानियों से यह उम्मीद पूरी नहीं होती। गत कुछ वर्षों में कहानी के स्वरूप में कई परिवर्तन आए हैं। दलित, बाजारवाद, ग्लोबलाईजेशन के बीच उपेक्षित आम आदमी से संबंधित रचनाएं प्रत्येक भाषा में लिखी जा रही हैं। संग्रह में इनका अभाव बंगला साहित्य का एकांगी परिचय देता है। बंगला के कई चर्चित कथाकारों यथा- शंकर, समरेश बसु, सुनील गंगोपाध्याय, प्रेमेन्द्र मित्र, नवनीता देव सेन, विमल कर, सुकुमार सेन आदि का अभाव खटकता है। यद्यपि इसमें रचनाओं की उपलब्धता बंगला रचनाकारों अथवा उनके परिवार के द्वारा असहयोग, अनुवादक की अपनी पसंद आदि सीमाएं हो सकती हैं। फिर भी, अनुवादक ने अपनी सर्जनात्मक उत्कृष्टता से उपलब्ध कहानियों का जो रूप प्रस्तुत किया है, उससे ये रचनाएं गद्यगीत के तरल प्रवाह से मनुष्य की जीवितेष्णा बनाए रखने का उपक्रम करती प्रतीत होती हैं।

-8/182, आर्य नगर, कानपुर (उत्तर प्रदेश)

लौकिक-अलौकिक (अनूदित बंगला कहानी संकलन)
अनुवादक : श्याम सुंदर चौधरी
प्रकाशक : यात्री प्रकाशन, बी-131, सादत पुर, दिल्ली।
पृष्ठ : 168, मूल्य : 100 रुपये ।

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