सोमवार, 27 जुलाई 2009

साहित्य सृजन – जुलाई-अगस्त 2009


‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में हिंदी अकादमी, दिल्ली के ताज़ा प्रकरण पर “मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत पढ़ें- डॉ0 रूपसिंह चन्देल का आलेख ‘दिल्ली में क्या साहित्यकारों का अभाव है?” इसके अतिरिक्त, समकालीन हिंदी कविता में उभरती हुई कवयित्री सुश्री ममता किरण के चार कविताएं, हिंदी की प्रख्यात कथा लेखिका सुधा अरोड़ा की कहानी ‘डेजर्ट फोबिया उर्फ़ समुद्र में रेगिस्तान’, पंजाबी लघुकथा की प्रथम पीढ़ी के चर्चित और सशक्त लेखक श्यामसुंदर अग्रवाल की दो लघुकथाएं तथा ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की आठवीं किस्त।
संपादक : साहित्य-सृजन

मेरी बात

दिल्ली में क्या साहित्यकारों का अभाव है ?
-डॉ. रूपसिंह चन्देल

यह सर्वविदित है कि सभी साहित्यिक संस्थांओं में शीर्ष पदों के चयन प्राय: विवादित होते रहे हैं. विवाद व्यक्ति की योग्यता, साहित्यिक क्षमता और उसके साहित्यिक अवदान की अपेक्षा चयन प्रक्रिया को लेकर अधिक होता है. अधिकांश जोड़-जुगाड़ और राजनैतिक पैठ वाले लोग ही अपने सिर पर उस पद का ताज पहनने में सफल होते हैं. हिन्दी अकादमी दिल्ली इसका अपवाद कैसे हो सकती है. अपनी संस्थापना से लेकर आज तक वहां यही होता आया, लेकिन तमाम विवादों और आंतरिक विद्रूपताओं के बावजूद यहां वह सब नहीं हुआ जो आज हो रहा है. इससे स्पष्ट है कि हिन्दी में सहिष्णुता के लिए अब कोई स्थान नहीं रहा. अहंकार सदैव टकराते रहे, लेकिन सार्वजनिक तौर पर किसी साहित्यकार के लिए अपमानजनक शब्दों के प्रयोग से लोग परहेज करते थे. हिन्दी अकादमी दिल्ली में पिछले सप्ताह जो घटित हुआ, वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि हिन्दी साहित्य की पतनशील राजनीति का एक ज्वलंत उदाहरण भी है.

अकादमी की 'अध्यक्ष' और दिल्ली की मुख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित हैं. शीला जी का हिन्दी प्रेम सर्वविदित है. हिन्दी के विकास के लिए उनके प्रयास श्लाघनीय हैं. यही कारण है कि उन्होंने अकादमी का बजट वर्षों पहले दो करोड़ कर दिया था, लेकिन बजट की घोषणा कर देना ही पर्याप्त नहीं था. 'बजट' कैसे खर्च किया जा रहा है… इस पर दृष्टि रखना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा, क्योंकि शायद अकादमी के अधिकारियों पर उन्हें कुछ अधिक ही विश्वास रहा. इस दृष्टि से अकादमी के विगत कुछ वर्ष अधिक ही ध्यानाकर्षण करने वाले रहे. आश्चर्यजनक रूप से कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई थी जो अनेक आशंकाओं को जन्म देने के लिए पर्याप्त थे. तरह-तरह की चर्चाएं थीं. वह सब हिन्दी साहित्य के विकास के नाम पर आम जनता के धन का सदुपयोग था या दुरुपयोग, यह एक निष्पक्ष जांच के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा. और उस काल में अकादमी की वर्तमान संचालन समिति से त्यागपत्र देनेवाली प्रसिद्ध आलोचक अर्चना वर्मा तब भी संचालन समिति की सदस्य थीं. अर्चना जी ने अशोक चक्रधर के विरोध में संचालन समिति से त्यागपत्र दिया, जिन्हें अकादमी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है. समाचार पत्रों के अनुसार अशोक चक्रधर के लिए 'विदूषक' के अतिरिक्त अन्य अनेक आपत्तिजनक उपाधियों से संबोधित करते हुए उन्होंने अपना त्यागपत्र दिया है. उनके बाद युवा आलोचक और अकादमी के सचिव डॉ. ज्यातिष जोशी ने भी त्यागपत्र दे दिया, लेकिन अपनी छवि के अनरूप डॉ. जोशी ने चक्रधर के विरुद्ध विष वमन नहीं किया. आखिर यह त्याग पत्र उसी दिन क्यों नहीं दिये गये थे जिस दिन चक्रधर को अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था ?

अशोक चक्रधर से मेरा परिचय नहीं है. मैं उनका प्रशंसक भी नहीं हूँ, लेकिन मुझे उनके लिए 'विदूषक' जैसा अपमानजनक शब्द प्रयोग करने पर आपत्ति है. अर्चना जी सुरेन्द्र शर्मा के साथ बैठकर काम कर सकती हैं, पर अशोक चक्रधर के साथ नहीं. मैं जानना चाहूंगा. अर्चना जी एक गंभीर आलोचक और कहानीकार हैं. मिरांडा कॉलेज में हिन्दी की प्रोफेसर हैं. वह इससे इंकार नहीं करेगीं कि 'हास्य' भी साहित्य की एक विधा है. हास्य और व्यंग्य रचनाएं लिखना सहज नहीं है. एक अतिरिक्त प्रतिभा की दरकार होती है. शायद इसीलिए ऐसे रचनाकारों की संख्या कम होती है और इन विधाओं को हाशिये पर डाला जाता रहा है. अशोक चक्रधर ने जामिया मिलिया में वर्षों हिन्दी पढ़ाई है, अत: उन्हें साहित्य की तमीज नहीं, यह कहना उचित नहीं होगा. उनकी जिस टिप्पणी से उनके गुरू और अकादमी के वर्षों से संचालन समिति के सदस्य बनते आ रहे डॉ. नित्यानंद तिवारी को आपत्ति है और शायद त्यागपत्र देने वालों को भी इस टिप्पणी ने उत्तेजित किया होगा, वह थी 'साहित्य को लोकरंजन' का रूप बताया जाना और हास्य-व्यंग्य साहित्य और गंभीर साहित्य में एक सांमजस्य स्थापित करना. अर्थात नये उपाध्यक्ष की कार्यशैली पूर्व उपाध्यक्षों से भिन्न होने वाली थी. इससे संचालन समिति के सदस्यों और अकादमी के अधिकारियों की गतिविधियां बाधित होने वाली थीं. अच्छा तो यह रहा होता यदि कुछ माह चक्रधर की कार्यशैली को देखने के बाद उसे साहित्य और अकादमी के प्रतिकूल पाकर ये कदम उठाये गये होते.

यहां एक तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने के बाद अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा. 6 जुलाई को अकादमी की संचालन समिति के लिए चौबीस लोगों के नामों की घोषणा की गई. इनमें से अनेक नाम ऐसे हैं जो वर्षों से संचालन समिति की शोभा बढ़ा रहे हैं. क्या दिल्ली में साहित्याकारों का इतना अभाव है? अर्चना जी भी उनमें से एक हैं. कहते हैं कि देश में सर्वाधिक साहित्याकार और पत्रकार दिल्ली में बसते हैं, फिर अकादमी द्रोणवीर कोहली, राजी सेठ, कृष्ण बलदेव वैद,, विष्णुचन्द्र शर्मा, हरिपाल त्यागी, महेश दर्पण, राजेन्द्र गौतम, राजकिशोर, विभांशु दिव्याल, मधुसूदन आनंद, अशोक कुमार आदि लोगों को कैसे भूल जाती है?

एक साहित्यकार के नाते मैं हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष और दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित जी से कहना चाहता हूँ कि अकादमी में ऐसे नियम बनाये जाने चाहिएं कि एक व्यक्ति को एक बार से अधिक संचालन समिति का सदस्य न बनाया जाये और यदि बनाया ही जाये तो दस वर्ष के बाद. इसके अतिरिक्त एक 'मॉनीटरिंग कमेटी' भी बनायी जाये जो न केवल अकादमी के आर्थिक मुद्दों पर दृष्टि रखे बल्कि पुरस्कारों पर भी दृष्टि रखे- हस्तक्षेप नहीं. मैं चित्रा मुद्गल और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के विचारों से सहमत हूँ जो उन्होंने कवि और अनुवादक नीलाभ द्वारा साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार को अस्वीकार करने पर राष्ट्रीय सहारा में व्यक्त मिये थे. चित्रा जी का कहना था कि दस में दो पुरस्कारों का चयन ही निष्पक्ष होता है. अर्थात अस्सी प्रतिशत 'मैनेज' किये जाते हैं (चित्रा जी भी अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चकी हैं). इस दृष्टि से विगत कुछ वर्षों के अकादमी पुरस्कारों की पड़ताल की जानी चाहिए. आखिर क्या कारण है कि 'वाह कैम्प' (प्रकाशन वर्ष 1994) जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले द्रोणवीर कोहली पचहत्तर पार कर गये और आज तक अकादमी ने उन्हें साहित्याकार पुरस्कार के याग्य भी नहीं माना, जबकि कुछ लोगों के खाते में मात्र एक कृति जुड़ते ही उन्हें इस पुरस्कार से नवाजा गया. यह बातें हिन्दी अकादमी की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त हैं.

हिन्दी अकादमी को इस साहित्यिक राजनीतिक उठा-पटक और बंदरबांट से उबारने की आवश्यकता है, ताकि लक्ष्य से भटक चुकी यह संस्था पूर्णत: अपना लक्ष्य ही न खो बैठे.
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14 टिप्‍पणियां:

Devi Nangrani ने कहा…

एक साहित्यकार के नाते मैं हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष और दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित जी से कहना चाहता हूँ कि अकादमी में ऐसे नियम बनाये जाने चाहिएं कि एक व्यक्ति को एक बार से अधिक संचालन समिति का सदस्य न बनाया जाये और यदि बनाया ही जाये तो दस वर्ष के बाद. इसके अतिरिक्त एक 'मॉनीटरिंग कमेटी' भी बनायी जाये जो न केवल अकादमी के आर्थिक मुद्दों पर दृष्टि रखे बल्कि पुरस्कारों पर भी दृष्टि रखे- हस्तक्षेप नहीं. मैं चित्रा मुद्गल और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के विचारों से सहमत हूँ जो उन्होंने कवि और अनुवादक नीलाभ द्वारा साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार को अस्वीकार करने पर राष्ट्रीय सहारा में व्यक्त मिये थे. चित्रा जी का कहना था कि दस में दो पुरस्कारों का चयन ही निष्पक्ष होता है. अर्थात अस्सी प्रतिशत 'मैनेज' किये जाते हैं (चित्रा जी भी अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चकी हैं).
विचार करने योग्य प्रश्न है जिसका समाधान अगर है तो वह अकादमी के administrative mandal के मार्गदर्शन से ही मिलेगा.

डॉ. रूपसिंह चन्देल ke is alekh par follow up ki zaroorat hai.

Devi Nangrani

अमरेन्द्र: ने कहा…

नीरव जी,

रूप सिंह जी का आलेख बहुत ही सुलझा और मार्गदर्शक लगा।

सादर,

अमरेन्द्र

Unknown ने कहा…

डॉ. रूपसिंह चन्देल जी के आलेख में हिन्दी अकादमी के संदर्भ में अकादमी की अध्यक्ष के लिए जिन बातों का सझाव दिया गया है वे महत्वपूर्ण हैं. निश्चित ही यह छोटा लेकिन सुलझा हुआ आलेख एक बहस से अधिक कार्यवाई की मांग करता है.

सच यह है कि हिन्दी अकादमी दिल्ली का वहां के अफसरों और संचालन समिति के सदस्यों द्वारा दर्भा़ग्यपूर्ण दोहन किया गया है. चन्देल जी का कहना उचित है कि इस बात की निष्पक्ष जांच किसी जांच एजेन्सी से करायी जानी चाहिए तब पता चलेगा कि कितने लोग इस कीचड़ में डूबे हुए थे.

मनोज रंजन

बलराम अग्रवाल ने कहा…

इस पूरे प्रकरण में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि स्वयं ज्योतिष जोशी भी उसी प्रक्रिया से चुनकर वहाँ पहुँचे थे जिससे चुने जाकर चक्रधर वहाँ पहुँचे। जैसाकि आदरणीय (नित्यानंद) तिवारी जी ने कहा कि 'ये दोनों ही उनके शिष्य रह चुके हैं।' चंदेल जी ने जिनके कार्यकाल का जिक्र किया है,अकादमी के वे पूर्व-सचिव भी(संभवत:)तिवारी जी के शिष्य रह चुके हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि उन्हीं का यह धवल 'शिष्य' गुरुदेव की छत्रछाया से दूर भाग रहा है! अर्चना(वर्मा)जी द्वारा चक्रधर को 'विदूषक' कहने पर पहली बार जाना कि जीवन में हास्य को उन्होंने किस हद तक दूर माना हुआ है और यह भी कि हिंदी शब्दकोश अभी कितना अधूरा है।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

रूप सिंह जी की बाकी बातों सेसहमति होते हुए भी…अशोक चक्रधर को उपाध्यक्ष बनाया जाना बिल्कुल गले नहीं उतरता।

वह पहले कुछ भी रहे हों अब लवस्कार करने वाले विदूषक ही हैं।

सहज साहित्य ने कहा…

चन्देल जी की खरी-खरी कुछ को अखरेगी ।साहित्यकार इतना उदार होता है कि दूसरे साथियों की खुशी में खुश होता है । किसी साथी की नियुक्ति पर इस्तीफ़ा भी देने लगे , वह कुछ भी हो , पर संतुलित आदमी तो नहीं कहला सकता । रही बात कवि होने की, कवि तो बहुत हैं । कुछ केवल पाठ्यक्रम तक सीमित रहते हैं । पाठ्यक्रम से बाहर हुए तो गायब ।मंच पर उस तरह की कविता कोई सुनना नहीं चाहेगा; उनके ऊपर ढेला ज़रूर फेंकेगा । कुछ ऐसा साहित्य रच रहे हैं कि उनके मरने से पहले उनका साहित्य [?] मर जाता है ।चक्रधर जी के लिए हाय -तौबा मचानेवाले इस पर ज़रूर विचार करेंगे कि क्या मंच पर पाठ करने से रचनाकार छोटा हो जाता है ? शरद जोशी जी ने मंच पर व्यंग्यलेख भी पढ़े हैं ;लोगों ने उनको सम्मान पूर्वक सुना भी है ।लोग हिन्दी भाषा की विभिन्न विधाओं में उस तरह की वाचन -कला का का विकास क्यों नहीं करते? केवल स्यापा करने से हिन्दी का विकास नहीं हो सकता ।कितने ऐसे मरणधर्मा हैं जो आज यूनिकोड का प्रचार करके हिन्दी को उसके कठिन फ़ोण्ट-जंजाल से निकालने का काम कर रहे हैं। चक्रधर जी इसके लिए बहुत पहले से कार्यरत हैं । आशा है दुख [?]की इस घड़ी में हिन्दी के पुरोधा उदारता से काम लेंगे ।
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त्वरित टिप्पणी टाइप करने के कारण चन्देल जी की जगह सुभाष नीरव जी का नाम टाईप हो गया । इसके लिए खेद है । काम्बोज

महावीर ने कहा…

डॉ. चन्देल जी का यह सुलझा हुआ गवेषणात्मक आलेख है जिसमें वे तटस्थ और निभ्रांत समीक्षादर्श रूप से हिन्दी अकादमी दिल्ली के जोड़-जुगाड़ और राजनीतिक पैठ वाले लोगों का विवेचन किया है. इसमें कोई दो राय नहीं कि हास्य और व्यंग्य रचनाएं लिखना सहज नहीं है. एक अतिरिक्त प्रतिभा की दरकार होती है. शायद इसीलिए ऐसे रचनाकारों की संख्या कम होती है और इन विधाओं को हाशिये पर डाला जाता रहा है. अशोक चक्रधर के लिए 'विदूषक' जैसा अपमानजनक शब्द प्रयोग करने वाले की अभिवृत्ति दर्शाती है.
डॉ. चन्देल जी के सुझावों के महत्व ध्यानयोग्य हैं:
अकादमी में ऐसे नियम बनाये जाने चाहिएं कि एक व्यक्ति को एक बार से अधिक संचालन समिति का सदस्य न बनाया जाये और यदि बनाया ही जाये तो दस वर्ष के बाद. इसके अतिरिक्त एक 'मॉनीटरिंग कमेटी' भी बनायी जाये जो न केवल अकादमी के आर्थिक मुद्दों पर दृष्टि रखे बल्कि पुरस्कारों पर भी दृष्टि रखे- हस्तक्षेप नहीं.विगत कुछ वर्षों के अकादमी पुरस्कारों की पड़ताल की जानी चाहिए.
हिन्दी अकादमी को इस साहित्यिक राजनीतिक उठा-पटक और बंदरबांट से उबारने की आवश्यकता है, ताकि लक्ष्य से भटक चुकी यह संस्था पूर्णत: अपना लक्ष्य ही न खो बैठे.

सुरेश यादव ने कहा…

भाई रूपसिंह चंदेल द्वारा बहुत संतुलित तरीके से हिंदी अकादमी के हाल के विवाद को उठाया गया है .हिंदी अकादमी एक गौरव शाली संस्था रही है ,उसका गौरव बनाये रखना आवश्यक था ,परन्तु दुर्भाग्य वश हाल की घटनाओं ने इस गरिमा को तार तार किया है.यह दुखद और इसे स्वार्थ पूर्ण खींच तान का परिणाम बताया जा रहा है. हिंदी साहित्य और उससे जुडी संन्स्थाएं भी गरिमा की तरफ बढ़ सकती हैं बशर्ते की हम चुटकुलों को न लिख पाने के कारन महानकवियों में अतिरिक्त प्रतिभा का आभाव न देखें .

pran sharma ने कहा…

JAB SE MAINE HOSH SAMBHAALAA HAI
HAR KSHETRA MEIN AESEE HEE UTHA-
BAITHAK CHAL RAHEE HAI.SANSTHAAON
MEIN GARIMA AAYE TO KAESE AAYE?
CHINTA JANAK BAAT HAI.

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

चंदेल जी,
सोचने पर मजबूर करता आप का लेख पढ़ा---
एक साहित्यकार के नाते मैं हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष और दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित जी से कहना चाहता हूँ कि अकादमी में ऐसे नियम बनाये जाने चाहिएं कि एक व्यक्ति को एक बार से अधिक संचालन समिति का सदस्य न बनाया जाये और यदि बनाया ही जाये तो दस वर्ष के बाद. इसके अतिरिक्त एक 'मॉनीटरिंग कमेटी' भी बनायी जाये जो न केवल अकादमी के आर्थिक मुद्दों पर दृष्टि रखे बल्कि पुरस्कारों पर भी दृष्टि रखे- हस्तक्षेप नहीं. मैं चित्रा मुद्गल और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के विचारों से सहमत हूँ जो उन्होंने कवि और अनुवादक नीलाभ द्वारा साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार को अस्वीकार करने पर राष्ट्रीय सहारा में व्यक्त मिये थे. चित्रा जी का कहना था कि दस में दो पुरस्कारों का चयन ही निष्पक्ष होता है. अर्थात अस्सी प्रतिशत 'मैनेज' किये जाते हैं (चित्रा जी भी अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चकी हैं). इस दृष्टि से विगत कुछ वर्षों के अकादमी पुरस्कारों की पड़ताल की जानी चाहिए. आखिर क्या कारण है कि 'वाह कैम्प' (प्रकाशन वर्ष 1994) जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले द्रोणवीर कोहली पचहत्तर पार कर गये और आज तक अकादमी ने उन्हें साहित्याकार पुरस्कार के याग्य भी नहीं माना, जबकि कुछ लोगों के खाते में मात्र एक कृति जुड़ते ही उन्हें इस पुरस्कार से नवाजा गया. यह बातें हिन्दी अकादमी की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त हैं.
हिन्दी अकादमी को इस साहित्यिक राजनीतिक उठा-पटक और बंदरबांट से उबारने की आवश्यकता है, ताकि लक्ष्य से भटक चुकी यह संस्था पूर्णत: अपना लक्ष्य ही न खो बैठे.
यह सब ध्यान देने योग्य बातें हैं--अब भी अगर साहित्यकारों ने आवाज़ न उठाई तो फिर कब ?

ashok andrey ने कहा…

priya bhai chandel tumhare aalekh ko bade dhayan se pada tatha uprokt sahitya karon dawara vykt vicharon se sehmat hoon jab se in akadmion ki sathapna hui hai tabhi se iss par prashan chinh legte rahe hain
kaii bar un logon ko sathapit kiya gaya hai jinka vajood matr sahitya kar kehlane ke sivaye kuchh bhii n tha iss tarah ke logon ka sahitya ke saath-saath samaj ka bhi ahit karna raha hai inn logo ne sahitya ko samoohon me baat diya hai mei kaii bar sochta hoon ki kaya bina puruskar ke aachchha sahitya nahii prosaa jaa sakta hai kya puruskar itne mahatpoorn ho gaye hain ki un par rajniti karne ki jarurat ho gaii hei ore ham ek doosre ko vidushak shabd se nvaajne lage hein kaya samaj mei pehle se itni kuritiyan kam hein ki sahitya ko bhii iss kiichad men phasa diya jaye sharm aati hei iss tarah ke logon ko sahitya kar kehne mein ye log iss tarah kis samaj ka bhalaa kar rahe hein inlogon ke haathon mei aakadmion ka bhavishya isse jayada achchha ore kaya ho sakta hei jo ham log dekh hii rahe hein
mei chahta hoon ki in aakadmion me kuchh achchhe log aaen taki iss tarah ki isthiti dubara n peida ho sake yeh ham sabhi sahitya karon ka dayeta hei

ashok andrey

Sufi ने कहा…

Neerav jee,
Namskar,
Mujhy Roop Singh Chandel ji ki ye baat bilkul sahi lagi ki Vidha koi bhi ho Sahityakar ki pratibha ko vidushak keh kar apmaan dena kisi bhi tarah uchit nahi hai...! Ye to saaf zahir hai ki Ashok Chakardhar ji se aapsi eershah ke kaaran hi ye sab kiya ja raha hai...jo ki Durbhagya pooran hai..!!! Jis ki sabhi ko ninda karni chahiye...!!!
Dr.Priya Saini

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

एक ही प्रश्न करूंगी
हम सहमत है - डाक्टर चंदेल जी के आलेख से तथा भाई सुभाष नीरव जी की प्रस्तुति से
तो ,
मेरा प्रश्न यही है के,
हमारी बात, क्या बस यहीं समाप्त हो जायेगी या समिती तक पहुँच पायेगी ?
-- सादर,
- लावण्या

सुभाष नीरव ने कहा…

लावण्य जी, इस प्रकरण को लेकर बहुत से लोगों ने अपने अपने ढ़ंग से, अपने अपने मंचों से, अखबारों, पत्रिकाओं, ब्लॉगों के जरिये अपनी बात रखी है। "साहित्य सृजन" ने भी इस बाबत चुप्पी साधना उचित नहीं समझा, तभी तो चन्देल जी के आलेख के माध्यम से अपनी बात रखी।सभी के सामूहिक प्रयासों से उठाई गई बात दिल्ली सरकार, हिन्दी अकादमी की अध्यक्षा श्रीमती शीला दीक्षित और हिन्दी अकादमी दिल्ली की समिति के कानों तक नहीं पहुंची होगी, ऐसा संभव नहीं है। फिर भी, इस बारे में निर्णय तो दिल्ली सरकार को लेना है। वह क्या निर्णय लेती है, समय बताएगा।