‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में आप पढ़ेंगे –
“मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत वरिष्ठ कथाकार रूप सिंह चंदेल का आलेख “साहित्यिक सर्वेक्षणों के मायने.”, कवयित्री- रश्मि प्रभा की कविताएं, कथाकार बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ, पंजाबी के युवा कथाकार जतिंदर सिंह हांस की पंजाबी कहानी “ बूँद बूँद कहानी ” का हिन्दी अनुवाद, ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की दसवीं किस्त, वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा शरद सिंह के चर्चित उपन्यास ‘पिछ्ले पन्ने की औरतें’ की समीक्षा…
संपादक : साहित्य-सृजन
मेरी बात
साहित्यिक सर्वेक्षणों के मायने
-रूपसिंह चन्देल
इस परम्परा का प्रादुर्भाव कब हुआ प्रामाणिकता के साथ यह बता पाना मेरे लिए कठिन है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसे सर्वेक्षणों की बाढ़-सी आ गई और इस दिशा में प्रतिष्ठित साहित्यिक-राजनैतिक पत्रिकाओं के साथ छोटी-मझोली, चर्चित-अचर्चित पत्रिकाएं भी अपनी सक्रियता प्रदर्शित करती दिखीं. अधिकांश पत्रिकाओं ने कहानी और उपन्यास को ही केन्द्र में रखा. लघुकथा, आलोचना, रिपोर्ताज, यात्रा, संस्मरण, आत्मकथा, व्यंग्य, बाल-साहित्य .... अर्थात् साहित्य की अन्य विधाओं को दरकिनार रखा गया. यही वह कारण है जिसने मुझे इस दिशा में सोचने और अपने विचार आपके विचारार्थ प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया.
प्रश्न है कि ऐसे कौन-से कारण हैं जिससे केवल दो विधाओं को ही सर्वेक्षण का आधार बनाया गया और अन्य विधाओं को छोड़ दिया गया. एक तर्क यह हो सकता है कि हिन्दी साहित्य की ये दो विधाएं ही सर्वाधिक चर्चा में रहती हैं. दूसरा तर्क यह कि लेखकों की सर्वाधिक हिस्सेदारी इन्हीं विधाओं में है और उनमें उत्कृष्टता की पहचान कर पाठकों को उससे अवगत कराना सर्वेक्षक पत्रिकाओं का मुख्य ध्येय होता है. एक तर्क यह भी कि शेष विधाओं में रचनाकारों की सीमित संख्या के कारण पाठक स्वयं उनकी श्रेष्ठता या स्तरहीनता का आकलन करने में सक्षम रहता है.
संभव है सर्वेक्षकों (सम्पादकों) के पास अपने सर्वेक्षण के लिए कुछ अन्य तर्क भी हों, लेकिन मेरी मोटी अक्ल में उपरोक्त या अन्य तर्कों से इतर सर्वेक्षण करवाने के पीछे सम्पादकों की नीयत और अपनों के अस्तित्व संकट का प्रश्न सबसे बड़ा कारण समझ आता है. इस अस्तित्व संकट ने साहित्य में 'मुख्यधारा' जैसे राजनैतिक शब्द को कुछ इस तरह परोसा कि हर दूसरा साहित्यकार उसको चभुलाता घूम रहा है और यह सोचकर प्रसन्न है कि वह मुख्यधारा का लेखक है इसलिए वह एक सफल और समर्थ लेखक है.
साहित्यिक सर्वेक्षणों के द्वारा सम्पादक उन लेखकों की रचनाओं को उस सूची में शामिल कर उन्हें महत्वपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं जो उनके चहेते होते हैं और उनके पीछे तन-मन और धन से समर्पित रहते हैं.
इन सर्वेक्षणों के पीछे सर्वथा दृष्टि का अभाव होता है. प्राय: ये एकल निर्णय का परिणाम होते हैं, और रचनाओं और रचनाकारों की सूची में कुछ स्थापित रचनाकारों को शामिल कर निर्णायक शेष उन्ही नामों को शामिल करते हैं जिनके लिए उन्हें वह आयोजन करना पड़ता हैं. यह सब किसी षडयंत्र की भांति होता है और इस प्रक्रिया में कितनी ही उत्कृष्ट रचनाओं की उपेक्षा की जाती है और अपने चहेते की दोयम दर्जे की रचना को सदी या पचीस वर्षों की श्रेष्ठतम रचनाओं में शुमार कर लेते हैं. क्या कभी किसी सम्पादक ने पाठकों से यह जानने की कोशिश की कि उनकी दृष्टि में कौन-सी रचना क्रमानुसार श्रेष्ठता की किस श्रेणी में आती है ? क्या किसी पत्रिका ने किसी मान्यता प्राप्त सर्वेक्षक संस्था से कभी ऐसे सर्वेक्षण करवाए ? नहीं , क्योंकि तब वर्षों से उनके द्वारा प्रकाशित की जाने वाली सूची से कितने ही नाम नदारत हो जाते. ऐसी संस्थाओं को कार्य सौंपने के विषय में सीमित साधनों से निकलने वाली पत्रिकाएं यह कह सकती हैं कि इस कार्य हेतु उन संस्थाओं को देने के लिए उनके पास पर्याप्त आर्थिक आधार नहीं हैं, लेकिन ऐसे साहित्यिक सर्वेक्षण इंडिया टुडे जैसी साधन-सम्पन्न पत्रिकाएं भी करवाती रही हैं और आगे भी करवाएंगी. इंडिया टुडे ने भी इस कार्य के प्रति कभी गंभीर दृष्टिकोण का परिचय न देते हुए उन्हीं लोगों को इसमें संलग्न किया जिनके चहेतों की अपनी फेहरिश्त होती है. यदि किसी शोघकर्ता से यह कार्य करवाया भी गया तो उसके द्वारा सौंपी गयी रपट को कूड़ेदान के हवाले किया गया. (सम्पादकों और आलोचकों के साथ जे.एन.यू. के एक शोधछात्र से कुछ वर्ष पहले यह कार्य करवाया गया था और उसकी रपट प्रकाशित नहीं की गई थी, जबकि वह एक निष्पक्ष रपट थी). इंडिया टुडे भी उन्हीं सम्पादकों या सेठाश्रयी आलोचकों को यह कार्य सौंपकर इति मान लेती रही जो साहित्यिक राजनीति के अच्छे खिलाड़ी हैं. कुछ लोगों ने अपनी इस स्थिति का भरपूर दोहन किया. देश-विदेश की मुफ्त यात्राओं का लाभ ही नहीं मिला उन्हें बल्कि साहित्यिक आयोजनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका तय होने लगी.
पिछले दिनों एक आश्चर्यजनक घटना हुई. दिल्ली के एक उपन्यासकार एक सम्पादक से मिले और उसे उपन्यासों के सर्वेक्षण के लिए प्रेरित करना चाहा. हाल में उन लेखक का नया उपन्यास प्रकाशित हुआ था. सम्पादक ने उनकी प्रेरणा ग्रहण नहीं की. यदि कर लेते तब वह उसे सर्वेक्षित सूची में अपने उपन्यास को शामिल करने के लिए दबाव बनाते. सम्पादक ने उनकी नीयत भांप ली थी.
हिन्दी में मुझे एक ही पत्रिका की जानकारी है जो अपनी पत्रिका में प्रकाशित वर्ष भर की कहानियों पर अपने पाठकों की राय मांगती है और उनसे मिली राय के आधार पर वह तीन रचनाकारों को सम्मानित करती है. पत्रिका का नाम है 'कथाबिंब'- रचनाओं की उत्कृष्टता मापने का पैमाना पाठकों से बड़ा दूसरी नहीं हो सकता.
साहित्यकार के लिए पाठकों की अदालत से बड़ी कोई अदालत नहीं. प्रतिवर्ष विभिन्न पत्रिकाओं की सर्वेक्षित सूची को वे कभी गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि उन्हें स्वयं पर अधिक भरोसा है और वे सर्वेक्षणकर्ताओं की नीयत को भी अब जान गए हैं. आज का पाठक साहित्य की हकीकत को बखूबी जानता है. कोई सम्पादक या सर्वेक्षक उसे भ्रमित नहीं कर सकता.
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“मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत वरिष्ठ कथाकार रूप सिंह चंदेल का आलेख “साहित्यिक सर्वेक्षणों के मायने.”, कवयित्री- रश्मि प्रभा की कविताएं, कथाकार बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ, पंजाबी के युवा कथाकार जतिंदर सिंह हांस की पंजाबी कहानी “ बूँद बूँद कहानी ” का हिन्दी अनुवाद, ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की दसवीं किस्त, वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा शरद सिंह के चर्चित उपन्यास ‘पिछ्ले पन्ने की औरतें’ की समीक्षा…
संपादक : साहित्य-सृजन
मेरी बात
साहित्यिक सर्वेक्षणों के मायने
-रूपसिंह चन्देल
इस परम्परा का प्रादुर्भाव कब हुआ प्रामाणिकता के साथ यह बता पाना मेरे लिए कठिन है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसे सर्वेक्षणों की बाढ़-सी आ गई और इस दिशा में प्रतिष्ठित साहित्यिक-राजनैतिक पत्रिकाओं के साथ छोटी-मझोली, चर्चित-अचर्चित पत्रिकाएं भी अपनी सक्रियता प्रदर्शित करती दिखीं. अधिकांश पत्रिकाओं ने कहानी और उपन्यास को ही केन्द्र में रखा. लघुकथा, आलोचना, रिपोर्ताज, यात्रा, संस्मरण, आत्मकथा, व्यंग्य, बाल-साहित्य .... अर्थात् साहित्य की अन्य विधाओं को दरकिनार रखा गया. यही वह कारण है जिसने मुझे इस दिशा में सोचने और अपने विचार आपके विचारार्थ प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया.
प्रश्न है कि ऐसे कौन-से कारण हैं जिससे केवल दो विधाओं को ही सर्वेक्षण का आधार बनाया गया और अन्य विधाओं को छोड़ दिया गया. एक तर्क यह हो सकता है कि हिन्दी साहित्य की ये दो विधाएं ही सर्वाधिक चर्चा में रहती हैं. दूसरा तर्क यह कि लेखकों की सर्वाधिक हिस्सेदारी इन्हीं विधाओं में है और उनमें उत्कृष्टता की पहचान कर पाठकों को उससे अवगत कराना सर्वेक्षक पत्रिकाओं का मुख्य ध्येय होता है. एक तर्क यह भी कि शेष विधाओं में रचनाकारों की सीमित संख्या के कारण पाठक स्वयं उनकी श्रेष्ठता या स्तरहीनता का आकलन करने में सक्षम रहता है.
संभव है सर्वेक्षकों (सम्पादकों) के पास अपने सर्वेक्षण के लिए कुछ अन्य तर्क भी हों, लेकिन मेरी मोटी अक्ल में उपरोक्त या अन्य तर्कों से इतर सर्वेक्षण करवाने के पीछे सम्पादकों की नीयत और अपनों के अस्तित्व संकट का प्रश्न सबसे बड़ा कारण समझ आता है. इस अस्तित्व संकट ने साहित्य में 'मुख्यधारा' जैसे राजनैतिक शब्द को कुछ इस तरह परोसा कि हर दूसरा साहित्यकार उसको चभुलाता घूम रहा है और यह सोचकर प्रसन्न है कि वह मुख्यधारा का लेखक है इसलिए वह एक सफल और समर्थ लेखक है.
साहित्यिक सर्वेक्षणों के द्वारा सम्पादक उन लेखकों की रचनाओं को उस सूची में शामिल कर उन्हें महत्वपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं जो उनके चहेते होते हैं और उनके पीछे तन-मन और धन से समर्पित रहते हैं.
इन सर्वेक्षणों के पीछे सर्वथा दृष्टि का अभाव होता है. प्राय: ये एकल निर्णय का परिणाम होते हैं, और रचनाओं और रचनाकारों की सूची में कुछ स्थापित रचनाकारों को शामिल कर निर्णायक शेष उन्ही नामों को शामिल करते हैं जिनके लिए उन्हें वह आयोजन करना पड़ता हैं. यह सब किसी षडयंत्र की भांति होता है और इस प्रक्रिया में कितनी ही उत्कृष्ट रचनाओं की उपेक्षा की जाती है और अपने चहेते की दोयम दर्जे की रचना को सदी या पचीस वर्षों की श्रेष्ठतम रचनाओं में शुमार कर लेते हैं. क्या कभी किसी सम्पादक ने पाठकों से यह जानने की कोशिश की कि उनकी दृष्टि में कौन-सी रचना क्रमानुसार श्रेष्ठता की किस श्रेणी में आती है ? क्या किसी पत्रिका ने किसी मान्यता प्राप्त सर्वेक्षक संस्था से कभी ऐसे सर्वेक्षण करवाए ? नहीं , क्योंकि तब वर्षों से उनके द्वारा प्रकाशित की जाने वाली सूची से कितने ही नाम नदारत हो जाते. ऐसी संस्थाओं को कार्य सौंपने के विषय में सीमित साधनों से निकलने वाली पत्रिकाएं यह कह सकती हैं कि इस कार्य हेतु उन संस्थाओं को देने के लिए उनके पास पर्याप्त आर्थिक आधार नहीं हैं, लेकिन ऐसे साहित्यिक सर्वेक्षण इंडिया टुडे जैसी साधन-सम्पन्न पत्रिकाएं भी करवाती रही हैं और आगे भी करवाएंगी. इंडिया टुडे ने भी इस कार्य के प्रति कभी गंभीर दृष्टिकोण का परिचय न देते हुए उन्हीं लोगों को इसमें संलग्न किया जिनके चहेतों की अपनी फेहरिश्त होती है. यदि किसी शोघकर्ता से यह कार्य करवाया भी गया तो उसके द्वारा सौंपी गयी रपट को कूड़ेदान के हवाले किया गया. (सम्पादकों और आलोचकों के साथ जे.एन.यू. के एक शोधछात्र से कुछ वर्ष पहले यह कार्य करवाया गया था और उसकी रपट प्रकाशित नहीं की गई थी, जबकि वह एक निष्पक्ष रपट थी). इंडिया टुडे भी उन्हीं सम्पादकों या सेठाश्रयी आलोचकों को यह कार्य सौंपकर इति मान लेती रही जो साहित्यिक राजनीति के अच्छे खिलाड़ी हैं. कुछ लोगों ने अपनी इस स्थिति का भरपूर दोहन किया. देश-विदेश की मुफ्त यात्राओं का लाभ ही नहीं मिला उन्हें बल्कि साहित्यिक आयोजनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका तय होने लगी.
पिछले दिनों एक आश्चर्यजनक घटना हुई. दिल्ली के एक उपन्यासकार एक सम्पादक से मिले और उसे उपन्यासों के सर्वेक्षण के लिए प्रेरित करना चाहा. हाल में उन लेखक का नया उपन्यास प्रकाशित हुआ था. सम्पादक ने उनकी प्रेरणा ग्रहण नहीं की. यदि कर लेते तब वह उसे सर्वेक्षित सूची में अपने उपन्यास को शामिल करने के लिए दबाव बनाते. सम्पादक ने उनकी नीयत भांप ली थी.
हिन्दी में मुझे एक ही पत्रिका की जानकारी है जो अपनी पत्रिका में प्रकाशित वर्ष भर की कहानियों पर अपने पाठकों की राय मांगती है और उनसे मिली राय के आधार पर वह तीन रचनाकारों को सम्मानित करती है. पत्रिका का नाम है 'कथाबिंब'- रचनाओं की उत्कृष्टता मापने का पैमाना पाठकों से बड़ा दूसरी नहीं हो सकता.
साहित्यकार के लिए पाठकों की अदालत से बड़ी कोई अदालत नहीं. प्रतिवर्ष विभिन्न पत्रिकाओं की सर्वेक्षित सूची को वे कभी गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि उन्हें स्वयं पर अधिक भरोसा है और वे सर्वेक्षणकर्ताओं की नीयत को भी अब जान गए हैं. आज का पाठक साहित्य की हकीकत को बखूबी जानता है. कोई सम्पादक या सर्वेक्षक उसे भ्रमित नहीं कर सकता.
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9 टिप्पणियां:
SHRI ROOP SINGH CHANDEL KE
VICHAARON KO PADHNA HAMESHA
ACHCHHA LAGTAA HAI.SEEDHEE- SAADEE
BAAT KARNAA UNKEE FITRAT MEIN
HAI.
चन्देलजी का यह लेख वर्तमान साहित्यिक बाजार की एक महत्वपूर्ण रग पर उँगली रखता है। साहित्यिक सर्वेक्षण पाठक को भ्रमित कर पाते हों या न कर पाते हों, बल्क में किताबों का ऑर्डर देने में सक्षम अधिकारियों और मोटी रकम मेज के नीचे से सरकाकर उक्त ऑर्डर्स को लपक लेने में सक्षम पूर्तिकर्ताओं की चाँदी वे अवश्य कर देते हैं-ऐसा मुझे लगता है।
uf ! kya padhun kya na padhun?
outstanding hindi writers are also
outstanding literary politician
ignore all except self and close
friends.chandel must be congratulated
for speaking the truth
chandel bhai tumhaara sarthak lekh padaa achchha lagaa isme tumne bahut sahee sawaal oothaaye hain jinpar gour kiyaa janaa chahiye dekhte hain iske baad
lekin mai badhaai detaa hoon
ashok andrey
bhai chandel ka lekh bhi satik tha ye prashna koi naya nahin hai.. kya prakashan aur kya kavi sammelan sabhi jagah apne pithuon ki hi pooja hoti rahi hai.chandel ji badhai ke patra hai.
-sudhir kumar rao
raosudhir_55@yahoo.in
वाह क्या लिख डाला--चंदेल भाई इतनी सही बात कहनी अच्छी नहीं...
आप की बेबाक लेखनी को हमेशा ही सराहा है..लिखते रहिए ...
आपके पोस्ट पर आना सार्थक होता है । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
aapne jo bhi likha vah ekdam sateek bat hai...aise me naye aur samarth lekhakon ko uchit sthan nahi mil pata..lekin isaka hal kya hai???
sateek vishleshan.
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