बुधवार, 18 जून 2008

लघुकथाएं- रणीराम गढ़वाली

शान्ति

सुरेश प्रसाद अपने पिता की तेहरवीं मना रहा था। तेहरवीं पर बुलाए गए ब्राह्मणों को जब वे कम्बल व धोती कुर्ता बांटने के लिए ले जाने लगे तो उनके बेटे रवि ने कहा, “पापा जी, आप कम्बल क्यों दे रहे हैं ?”
“बेटा दान करने से तुम्हारे दादा जी की आत्मा को शान्ति मिलेगी।”
“लेकिन पापा जी दादा जी की आत्मा को तो शान्ति मिल चुकी है।”
“तुम्हें कैसे पता ?”
“पापा जी, आपको याद है ना, जब दादा जी ने एक बार रात में आपसे कम्बल ओढ़ने के लए मांगा था, तब मम्मी ने कहा था कि कम्बल पता नहीं कहाँ रखा है, सुबह ढूँढ़ूगी। उस रात दादा जी रोने लगे थे। तब उन्होंने रोते हुए कहा था– मौत भी निष्ठुर हो गई है। आती ही नहीं। आ जाती तो मेरी आत्मा को शान्ति मिल जाती। दादा जी मर गए हैं। इसलिए उनकी आत्मा को शान्ति मिल गई है।”
अपने बेटे की बात सुनकर सुरेश के हाथों से कम्बल छूटकर जमीन पर फैल चुके थे।

अस्थियाँ

रात को सोते वक्त तीनों भाइयों में बहस छिड़ गई थी कि माँ की अस्थियों को लेकर कौन हरिद्वार जाएगा ? सबसे बड़े भाई ने अपने से छोटे भाई से कहा, “रामदुलारे, तू कल माँ की अस्थियाँ लेकर हरिद्वार चला जा।”
“आप तो जानते ही हैं भाई कि मेरी प्राइवेट नौकरी है। मैं चला गया तो नौकरी भी हाथ से जाएगी।”
“अच्छा छोटे, तू ही कल माँ की अस्थियाँ हरिद्वार ले जाकर गंगा में बहा आना, माँ की आत्मा को शान्ति मिल जाएगी।” बड़े भाई ने सबसे छोटे भाई से कहा।
“गंगा में माँ की अस्थियाँ बहाने से क्या माँ की आत्मा को शान्ति मिल जाएगी ? ज़िन्दगी भर तो माँ रोती ही रही थी।”
“यह माँ की इच्छा थी छोटे।”
स्वर्ग-नरक किसने देखा है भाई। माँ को मरना था तो मर गई, अब माँ की इन अस्थियों को बहाओ या मत बहाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता।” मंझले ने कहा।
“मंझले भैया ठीक कहते हैं भाई, कल मुझे आई.टी.ओ. जाना है। मैं मटके में रखी माँ की अस्थियों को पुल पर से यमुना नदी में फेंक दूंगा। गंगा न सही तो यमुना ही सही, वैसे भी आजकल गंगा बहुत मैली व प्रदूषित हो गई है।” कहकर छोटे ने करवट बदल ली थी।

लेखक परिचय :

जन्म: जून 1957, ग्राम–घन्डियाल(मटेला), उत्तरांचल।
प्रका्शित पुस्तकें : “खंडहर” और “बुरांस के फूल”(कहानी संग्रह)
“आधा हिस्सा”(लघुकथा संग्रह)
सम्पर्क :आज जै़ड 668/38 ए, गली नं0 18 सी–1, साधनगर,
पालम कालोनी, नई दिल्ली–110045
दूरभाष :0899386568

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