बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

पुस्तक समीक्षा

आम औरत, जिन्दा सवाल
लेखिका – सुधा अरोड़ा
सामयिक प्रकाशन
3320-21 , जटवाड़ा , नेताजी सुभाष मार्ग ,
दरियागंज , नई दिल्ली- 110 002 .
मूल्य : सजिल्द संस्करण रुपए 300 /- पेपरबैक 120/-



आम औरत के सवालों पर लिखी गई एक खास किताब
-शालिनी माथुर

इक्कीसवी शताब्दी के इस पहले दशक में एक प्रश्न यह है कि विचार धाराओं और मूल्यों के प्रति टूटते सम्मोहन के बीच में होने वाला परिवर्तन दूसरे क्षेत्र में भी हलचल मचाता है। इस हलचल की अनगूंज साहित्य में भी सुनाई पडनी चाहिए क्योंकि साहित्य व्यक्ति के भीतरी जगत को प्रभावित करता है - उसकी भावभूमि और उसके मूल्य बोध का निर्माण करता है। क्या आज के समय में रचा जा रहा साहित्य ऐसा कर पा रहा है? क्या साहित्यकार अपनी भूमिका निभा पा रहे हैं? प्रख्यात वरिष्ठ रचनाकार सुधा अरोडा की सामाजिक सरोकारों को लेकर रची गई कृति ''आम औरत, जिन्दा सवाल'' सन् 2008 में प्रकाशित इसी प्रश्न के आलोक में पढ़ी जानी चाहिए।
समसामयिक प्रवृत्तियों, घटनाओं और सामाजिक परिवर्तनों पर यह एक महिला कथाकार की टिप्पणियों का संकलन है, जिनमें लेखिका की दृष्टि सिर्फ कथानक के पात्रों की आन्तरिक करुणा पर नहीं है, वे एक सक्रिय जागरूक नागरिक के रूप में उन कारणों की शिनाख्त करती है, जिन्होंने स्त्री की दशा को गिराया है और उनके विरूद्ध विरोध का स्वर उठाती हैं। ये एक ऐसे साहित्यकार की टिप्पणियां है जिसने स्वयं भी ज़मीनी काम में दखल रखा है और जिसने ज़मीनी काम करने वाले सामाजिक कर्मियों के काम को भी गौर से देखा है।
भंवरी देवी के बलात्कार और उस पर हुई अपमानजनक अदालती कार्यवाही, नारी संगठनों द्वारा प्रतिरोध में की गई रैलियां और बाद में उस पर बनी फिल्म ‘बवंडर’ और फिल्म निर्माता जगमोहन मूंघडा द्वारा पहले से ही अपमानित भंवरी देवी का अपनी फिल्म की पब्लिसिटी के लिए इस्तेमाल और पैसे के लेन देन के मामले मे छलकपट, सारे विवरण टिप्पणियों में इस प्रकार आते है कि पाठक समझ सकता है, लेखिका इस पूरे घटना क्रम के बीच लगातार उपस्थित है, बहस करती हुई, भाग लेती हुई, अपना ठोस नजरिया प्रस्तुत करती हुई, दो टूक भाषा में बेबाकी से प्रतिरोध करती हुई।
मटुकनाथ चौधरी और जूली के प्रकरण पर मीडिया द्वारा प्रायोजित भौंडी चर्चाएं, राजकुमारी डायना की मृत्यु पर लिखी गई शोभा डे की हृदयहीन खिल्ली उड़ाती टिप्पणी, इमराना पर उसके ससुर द्वारा बलात्कार या आई आई टी की छात्रा चंद्राणी हालदार की मौत, लेखिका एक सजग और प्रतिबद्ध रचनाकार की तरह इन्हें अपनी टिप्पणियों का विषय बनाती हैं। खास बात यह है कि वे केवल घटनाओ की भर्त्सना नही करतीं, वे यह भी बताती चलती हैं कि असली मुद्दा है क्या और इसका तोड़ क्या हो सकता है।
नारीवाद का मखौल उड़ाने वाली, नारीवाद को पश्चिम से आयातित दर्शन और भारत के लिए महत्वहीन समझने वाली, नारीवाद को खिलवाड़ समझ कर हास्य व्यंग्य के खिलंदडेपन से पृष्ठ रंगने वाली और नारीवाद को कलावादी समझ से परखने वाली लेखिकाओं से अलग यह एक रचनात्मक लेखिका का एक्टिविस्ट के रूप में किया गया काम और लिखा गया दस्तावेज है। आज ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है, जो कविता-कहानी-उपन्यासों की रचना करने के बजाय विमर्श कर रहे है और साहित्य के क्षेत्र में प्राप्त प्रतिष्ठा का लाभ उठाते हुए विमर्शकार कहला रहे है। ऐसे लेखक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, जो किसी जमीनी काम, दंगों या विसंगतियों पर शोध और साक्षात्कार या आंकड़ों के बिना केवल अपनी कल्पना, भावना और कामना के आधार पर स्त्री-विमर्श कर रहे हैं। हिन्दी पुस्तकों की दुकानों पर स्त्री-विमर्श नाम से अलग से ऊंचे-ऊंचे शेल्फ ऐसी पुस्तकों से लदे-फंदे पड़े हैं। ऐसे में यह पुस्तक एक ईमानदार ज़मीनी काम और अनुभव के आधार पर तैयार किया गया दस्तावेज माना जाएगा।
पुस्तक में संग्रहीत 1995 से 2001 के बीच लिखी गई टिप्पणियों से साफ जाहिर होता है कि रचनाकार सुधा अरोड़ा का व्यक्तित्व तथा कृत्तित्व बहुआयामी है। वे लेखन, फिल्म, टी वी सीरियल के पटकथा लेखन, परिचर्चाओं, पत्र-पत्रिकाओं के नियमित स्तंभों, कार्यशालाओं से सीधे जुडी रही है। एक बानगी देखें -
'' हकीकत यह है कि एक घरेलू औरत या हाउस वाइफ का दर्जा एक सम्भ्रान्त भिखारी से ज्यादा नहीं होता। घर खर्च के लिए जो मिलता भी है , वह एहसान के तौर पर उसकी फैली हुई हथेली पर आता है।'' (पृ. 45) सुधा एक सामान्य पाठक को स्पष्टता से संदेश दे रही है कि गृहणियां अपनी बेटी को सब कुछ दें पर यह 'भिक्षापात्र' उनके हाथ में न थमाएं। यह 'भिक्षापात्र' विरासत में देने के लिए नहीं है – (पृष्ठ 43)
उधर, शादी की मंडी में अप्रवासी भारतीय, एक सामयिक विषय है। अमरीका में बसे एन आर आई लडकों के प्रति भारतीय, खास कर पंजाब के, लडकियो के मां-बाप का आकर्षण, और एन.आर.आई. लडकों द्वारा पंजाबी लडकियों को विलायत ले जाकर उनका अपमान और शोषण एक जवलंत समस्या है। ऐसे मामलो की संख्या हजारों में है। इतने हजार कि राष्ट्रीय महिला आयोग को अलग से एक एन.आर.आई. सेल का गठन करना पडा है। अपने ''बिगडे हुए'' आधे देशी, आधे अमरीकी लडकों को राह पर लाने के लिए उनके पुरातनपंथी एन.आर.आई. बाप पंजाब से लड़की चुन लाते हैं, जो अमरीका में नौकरानीनुमा जीवन व्यतीत करती हैं और कुछ दिन बाद ''बिगडे हुए'' पति द्वारा पिट कर या जला दी जाकर उसकी कहानी पर पूर्णाहुति होती है।
'' कितना ही संभ्रान्त पढ़ा-लिखा उच्च मध्यवर्गीय परिवार हो, अपने इंजीनियर डॉक्टर बेटे को एक ''ब्लैंक चैक'' समझता है - जिसकी कीमत चुकानी पडती है - एक उतनी ही जहीन, तमीजदार लडकी को '' सुधा अरोड़ा के कांउसिलिंग के अनुभव जगह जगह टिप्पणी के रूप में उतर आते हैं - ''अर्चना अंबाती और अनु टंडन दोनों पढी-लिखी आधुनिक सोच वाली, समझदार लडकियां थीं फिर उन्हें इतनी शारीरिक और मानसिक यातना झेलने की, भूखे रहने, बासी खाना खाने और यौन शोषण सहने की क्या जरूरत थी? सीधा उत्तर यह है कि एक भारतीय लडकी को अपने मां-बाप के प्रति गहरा लगाव होता है। वह अपने मां-बाप के रंगीन सपने कि उनकी बेटी सुखी है - को नहीं तोड़ना चाहती।'' शादी की मंडी में अप्रवासी भारतीय ( पृष्ठ - 53 )
सुधा अरोड़ा का एक्टिविज्म केवल हाशियाग्रस्त महिला तबके के सरोकारों तक सीमित नहीं है। वे अपनी लेखक बिरादरी की खबर लेने के लिए भी जानी जाती हैं। अपने सहकर्मी साहित्यकारों की करतूतें लेखिका ने स्वयं देखी हैं । उनकी पत्नियों की व्यथा सीधे उन्हीं की जबानी सुनी भी है। प्रगतिशील कहलाने के शौकीन फिल्मकारों, लेखकों, कवियों, संपादकों द्वारा अपने सम्पर्क में आने वाली स्त्रियों का यौन शोषण, अपनी पत्नी के प्रति हिंसा, उदासीनता तथा चारित्रिक लंपटता सुधा जी के निशाने पर रही है। रिंकी भट्टाचार्य और लीला नायडू के प्रसंगों और जाने-माने सरकारी प्रशासनिक पद पर आसीन हिन्दी लेखक द्वारा पत्नी के साथ बदसलूकी और उदीयमान लेखिकाओं के साथ रंगरेलियों की ओर संकेत करते हुए वे कहती है कि ''विवाह में जिम्मेदारी, वफादारी और ईमानदारी के गुण अन्तर्निहित हैं। जो इनकी परवाह नहीं करते, उन्हें विवाह जैसे बन्धन से दूर रहना चाहिए।'' ( मटुकनाथ कहां नहीं हैं ! - पृ. 236 )
स्त्री पुरुष की समानता का डंका पीटने वाले, तथाकथित प्रगातिशील रचनाकारों के चारित्रिक दोहरेपन को रोशनी में ला कर वे एक महत्वपूर्ण काम करती रही हैं। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि अधिकाश रचनाकार स्वार्थ, भाईचारे, पुरस्कारों-प्रशंसाओं की लालसा में ऐसी लम्पटता तथा विचलनों को जानबूझ कर नजरअदांज करते हैं। छपने के लिए छटपटाती इस टोली की तरह सुधा जी इस पर चुप्पी नहीं साधतीं। निर्भीकता से वे कहती है -
'' हमारा सरोकार यह है कि इन प्रोफेसर मटुकनाथ चौधरी को तात्कालिक रूप से ही सही, निलम्बित किया गया, पर हिन्दी साहित्य में विराजमान उन अघोषित मटुकनाथों की कतार से हम कैसा सलूक करेंगे जिनकी अटूट श्रृंखला में अनगिनत जूलियां रही हैं और जो अपनी बेहद शालीन, सुसंस्कृत पत्नी के हाथ का बना खाना भी खाते हैं, उसकी जुटाई गई सुविधाओं के बीच हिंदी के ये तथाकथित संवेदनशील कथाकार तराजू के तोल के हिसाब से कागज काले कर कथा साहित्य में अपने रूमानी उपन्यासों का कबाड़ भी दर्ज कराते हैं और सहमी हुई पत्नी को पीटने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं होता। संवेदनशील कहलाए जाने वाले इन सर्जकों की निजी दुनियां इतनी क्रूर और अमानवीय क्यों है और ये सवाल साहित्य के दायरे से, विश्वासघातों के स्त्री-विमर्श के बाहर क्यों हैं?'' ( पृ. 240 )
पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर स्वयं लेखिका पुस्तक के प्रारम्भिक पृष्ठों में दे चुकी हैं - ''कुल जमा बात यह है कि पति चाहे कितना भी प्रतिष्ठित या दौलतमंद क्यों न हो, औरत को थोड़ी-सी स्पेस या सांस ले पाने की जगह अपने लिए जरूर रखनी चाहिए कि वह आड़े वक्त अपने पति की आर्थिक दया से अलग अपने पैरों पर खडी हो सके। उसके और उसके पति के बीच मालिक और गुलाम का रिश्ता न रहे। (पृ.45)
इस पुस्तक के पहले 30 पृष्ठ लेखिका ने अपने डायरीनुमा आत्मकथ्य को सौंपे हैं। यह जानना बेहद रुचिकर लगता है कि किसी रचनाकार का रचना संसार कैसे निर्मित हुआ होगा। उसने किस कालखंड में, किन परिस्थितियों में, किस भावना से रचना का सृजन किया होगा। कलावादी रचनाओं के लिए ये बात भले ही बेमानी हो पर यह बात उन रचनाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है जो रचनाएं अपने समसामयिक घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया कर रही होती हैं, जो रचनाएं बहस को, इतिहास को और समाज की सोच को नया मोड़ देने के उद्दश्य से लिखी गई होती हैं। सुधा अरोड़ा का तेरह साल की आयु से कविता लिखना, महादेवी वर्मा टाइप कविताएं, काल्पनिक प्रेमकथाएं गढ़ना, बार-बार बीमार पडना, 1971 मे विवाह, 1981 से 1994 तक साहित्य के क्षेत्र से अनुपस्थिति, 1993 में हेल्प संस्था से जुडना, 1994 से महिला मुद्दों पर लिखना और इन सबके बीच उनकी डायरी की मौत, यह सारे प्रंसग उनके लेखिका से एक्टिविस्ट बनने और निरन्तर मानवीय भावनाओं को केन्द्र में रखकर काम करते और लिखते रहने की क्षमता को प्रकाश में लाते हैं।
सुधा अरोड़ा हिन्दी साहित्य की एक सुप्रतिष्ठित और प्रतिबद्ध लेखिका हैं। भाषा के सौन्दर्य, कलात्मक अभिव्यक्तियों, छवियों और बिम्बों के प्रयोग से भलीभांति परिचित लेखिका की इस पुस्तक में रचनात्मक प्रतिभा के प्रदर्शन का कोई आग्रह नहीं है। इस पुस्तक की रेखांकित करने लायक विशिष्टता है - कथन, भाषा शैली की सादगी, स्पष्टता और संप्रेषणीयता। दुरूहीकरण वे ही करते हैं जिनके पास वैचारिक स्पष्टता नहीं होती। मेरे अपने विचार से श्रेष्ठ रचना वही होती है जो जटिल विषय को सरलता से प्रस्तुत कर सके, न कि सरल विषय को कलात्मकता के आवरण में ढक कर दुरूह बना दे। इस कसौटी पर यह रचना शत-प्रतिशत खरी उतरती है।
'' अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी '' जैसी कहानी, जो मेरी दृष्टि में हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक है, लिखने वाली कथाकार ने एक पत्रकार की भांति सामाजिक परिघटनाओं और उनमें चोट खाती, छटपटाती और संघर्ष करके फिर से उठती हुई स्त्रियों पर टिप्पणियां की हैं। उल्लेखनीय है कि इनका रचना काल 1993 से 2008 तक पंद्रह सालों में विस्तृत है। ये किसी क्षणिक आवेश या आवेग में लिखी रचनाएं नहीं हैं।
पहली मई के हिन्दुस्तान टाइम्स के मध्य पृष्ठ पर ऑस्कर वाइल्ड की उक्ति छपी है - पत्रकारिता और साहित्य में यह फर्क है कि पत्रकारिता अपठनीय होती है और साहित्य कोई पढता नही। पर यह पुस्तक एक साहित्यकार द्वारा रचित पठनीय पत्रकारिता है।
यह एक खास रचनाकार द्वारा आम औरत के विषय में लिखी गई खास किताब है। साहित्यकार समाज से ही प्रंसग उठाता है और उनमें कल्पना के रंग भर कर नाटक, कहानी, उपन्यास और कविता के रूप में अपनी रचना कहकर प्रस्तुत करता है। साहित्यकार समाज का ऋणी होता है। विमर्श के नाम पर प्रकाशित सैकड़ों पुस्तकों के बीच कथाकार और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा अरोड़ा की यह पुस्तक अपनी इस विषेशता के लिए जानी जाएगी कि इस किताब के रूप में एक साहित्यकार ने समाज को उसका ऋण चुकाया है ।
-शालिनी माथुर,
ए 5/6 कॉरपोरशन फ्लैट्स ,
निराला नगर , लखनऊ - 226 020
फोन - 0522 2787830 / 098390 14660
ई-मेल : shalinilucknow@yahoo.com

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सुधा जी स्त्री पुरुष की समानता का डंका पीटने वाले, तथाकथित प्रगातिशील रचनाकारों के चारित्रिक दोहरेपन को रोशनी में ला कर वे एक महत्वपूर्ण काम करती रही हैं। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि अधिकाश रचनाकार स्वार्थ, भाईचारे, पुरस्कारों-प्रशंसाओं की लालसा में ऐसी लम्पटता तथा विचलनों को जानबूझ कर नजरअदांज करते हैं। छपने के लिए छटपटाती इस टोली की तरह सुधा जी इस पर चुप्पी नहीं साधतीं।

जी हाँ! सुधा अरोरा जी की कहानिओं को पढ़ते उनके मनोभावों से अवगत रही हूँ. चौपाल और अनेकों वरिष्ट कथाकारों के बीच अनेक कहानियां औरत को मधे नज़र रखते हुए उनकी कलम से एक धारावाहिक बनकर हर सैलाब तोड़ती हुई अपनी राह निकाल लेती है. एक नारी ही नारी का मर्म टटोल सकती है , उस अनकही पीडा को शब्दों में उजगार कर सकती है और वही सब सुधाजी की कलम भी चुप रहने से रही, उनकी लेखनी की ख़याल रही हूँ.शालिनी माथुर ने बखूबी उनकी रचनात्मक कोण को उजगार किया है और इन्साफ भी

देवी नागरानी

भगीरथ ने कहा…

सुधा अरोडा की पुस्तक पर शालिनी की समीक्षात्मक
टिप्पणी ने मुझे पुस्तक क्रय करने के लिये प्रेरित किया। जानकारी देने के लिये धन्यवाद