सोमवार, 11 मई 2009

कविता



“माँ” पर बलराम अग्रवाल की चार कविताएं
(‘माँ दिवस’ पर विशेष)

॥1॥
अब सिर्फ देह नहीं रही माँ
पहले भी
सिर्फ देह वह थी ही कब?
वह सु-संस्कार थी
अब भी है
और रहेगी आगे भी
वह जुझारूपन थी
अब भी है
और रहेगी आगे भी
समरांगण में
साक्षात विजय थी वह
अब भी है
और रहेगी आगे भी।
वह गई कहीं नहीं,
विस्तार पा गई है पितरों जितना।
पहले उसकी हथेलियाँ,
छूती थीं हमें
और हमारी त्वचा कराती थी आभास
उस छुअन का,
उसकी नजरें
चूमती थीं हमें
और हमारी इन्द्रियाँ महसूस करती थीं
दैविक तृप्ति का।
अब उसके आशीष
बरसते रहेंगे हम पर
सुहानी धूप और शीतल चाँदनी बनकर।
माँ जब नहीं थी वहाँ,
बादल बरसाते थे पानी;
अब वे अमृत बरसाएँगे।
हरे-भरे रखेंगे
देश के खेतों-बागों-बगीचों को
भरा-पूरा रखेंगे खलिहानों को।
माँ
कभी भी
जाती कहीं नहीं देह को छोड़कर
विस्तार पा जाती है पितरों जितना।

॥2॥
जल में कुम्भ
कुम्भ में जल है
बाहर-भीतर पानी—
को पढ़कर
अपने छोटे-से कमरे से
कभी मैं बाहर होता हूँ
और कभी भीतर
पर
लाख प्रयत्नों के बावजूद भी
समा सकूँ कमरे को
स्वयं में
इतना विस्तृत नहीं हो पाता
लेकिन
कबीर की इस बानी को
सिद्ध कर दिखाने वाली
चतुर जादूगरनी निकली माँ
अपने आप को
पूरी उम्र
वह पिता के भीतर भी रखे रही
और
बाहर भी

॥3॥
खरहरी खाट पर
उलट-पलट कर
पूरे बदन की मालिश कर देने
और
कानों में दो-दो बूँद
सरसों का तेल डाल देने के बाद
एक बूँद तेल
नाभि में भी
जरूर टपकाती थी माँ
पूरे शरीर का केन्द्र है ये
मैल
इसमें भी आता है
वह कहती थी
साफ रहना चाहिए
केन्द्र को जरूर

॥4॥
बबुआ
रो रहा था
कई-कई बाल विशेषज्ञों पर
चढ़ा आए नकदी
लेकिन
न बंद हुआ न कम
उसका रोना
माँ ने
ध्यान-से देखा
परखा उसके रोने को
बोली—घबराओ मत
पछेरुओं से परेशान है बबुआ
साफ रुई का एक फाहा लाओ
और
घिसा हुआ थोड़ा-सा माजूफल
नितम्बों के बीच
फाहा कूच
पीठ को थपथपा
बबुआ को सुला दिया माँ ने
बीमारियों को
बच्चों से दूर रखनेवाली
बड़ी ही सिद्ध
वैद्य थी माँ!
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बलराम अग्रवाल का जन्म २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था. आपने हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.
लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.
हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.
अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.
कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.
सम्प्रति : स्वतन्त्र लेखन .
हिन्दी ब्लॉग :
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सम्पर्क : एम-७०, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११००३२.
फोन . ०११-२२३२३२४९,मो. ०९९६८०९४४३१

2 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

अब सिर्फ देह नहीं रही मां
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माँ
कभी भी
जाती कहीं नहीं देह को छोड़कर
विस्तार पा जाती है पितरों जितना।

मां पर कही बलराम अग्रवाल की चारों कविताएं उल्लेखनीय हैं, लेकिन पहली कविता का तो जवाब ही नहीं. अंतिम पंक्तियां बार बार पढ़ने का मन करता है.

आप दोनों को बधाई.

रूपसिंह चन्देल

प्रदीप कांत ने कहा…

BALARAM JI KI ACHCHI KAVITAEN PADHANE KO MILI