‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में आप पढ़ेंगे – हिन्दुस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर की पुण्य-तिथि(30 अक्तूबर) पर “मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत कथाकार अशोक गुप्ता का मार्मिक आलेख “जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....”, समकालीन हिंदी कविता में अपनी विशिष्ट और पृथक पहचान रखने वाली कवयित्री कात्यायनी की कविताएं, सुपरिचित हिंदी कवयित्री-कथाकार अलका सिन्हा की कहानी “फिर आओगी न”, एक अरसे बाद लेखन में पुन: सक्रिय हुए लेखक सुधीर राव की लघुकथाएं, ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की नौवी किस्त, वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की पुस्तक “आम औरत, ज़िन्दा सवाल” की समीक्षा तथा गतिविधियाँ…
संपादक : साहित्य-सृजन
मेरी बात
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirzleGQnDaEqglOvaTUG-GU9kTi2Gjl7o1E9PMD9radtZLCoVapX-Yl20C7xA8COHAYdWU20jKHW89OHELmgYemdK0KnKHk41A_VkEjH3XclUMpVLtrMJPH5-NaG5CFMzFhr71gsMJJ7Px/s200/Fountain%2520Pen.jpg)
बेगम अख़्तर की पुण्यतिथि पर विशेष
जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....
-अशोक गुप्ता
“जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है, जो साज़ पे गुज़री है वो किस दिल को पता है ? ”
यह एक बहुत पुराना शे’र है जो मुझे याद आ गया है। यह शे’र अचानक नहीं याद आया, अचानक याद आयीं बेगम अख्तर, जब मैंने किसी को यूँ ही गुनगुनाते सुना,
“जिस से लगाई आँख उसी को दिल का दुश्मन देखा है...”
तस्कीन कुरैशी के यह बोल जब भी, जैसे भी कानों में पड़ते हैं, कद्रदान श्रोता झूम उठते हैं, एक बार नहीं, सौ सौ बार.. लेकिन इसके आगे कभी किसी की नज़र बेगम अख्तर की ज़िन्दगी के उन पन्नों की तरफ नहीं जाती जहाँ इबारत खून से लिखी हैं और उस कलम पर बाकायदा नामज़द उँगलियों के निशान देखे जा सकते हैं। वहां तक तो न किसी नज़र गयी न किसी का वास्ता रहा। बेगम अख्तर गाती रहीं, हम सब सुनते रहे..
“तमाम उम्र रहे हम तो खैर काँटों में...”
इत्तेफाक से इस समय मेरे हाथ में उन्हीं पन्नों से उठाए हुए दर्द के कुछ टुकडे हैं, जिन्हें जानना, जो साज़ पर गुज़री है, उसे जानने जैसा है... कहता हूँ ।
मुश्तरी उस बीबी अख्तर की माँ का नाम है, जिसे पहले अख्तरी बाई के नाम से जाना गया फिर, बेगम अख्तर के नाम से. मुश्तरी जब कमसिन ही थीं, जनाब असगर हुसैन उन पर फ़िदा हो गए। वह एक नौजवान वकील थे, बाकायदा कानून से वाकिफ थे, सो बावजूद उस वक्त एक बीबी के शौहर होने के, उन्होंने मुश्तरी से शादी की। उस शादी से मुश्तरी ने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया जो जोहरा और बीबी अख्तरी कहलाईं। उसके बाद असगर हुसैन साहब ने अपनी इस मुश्तरी बेगम को उनकी दो दुधमुहीं बच्चियों के साथ घर से निकाल फेंका.... हो गया उनका इश्क का शौक पूरा।
अख्तरी और जोहरा को ले कर मुश्तरी ने संघर्ष किया। दोनों लड़कियों को कुदरत ने गायन का हुनर दिया था और बाप ने दर्द का समंदर.. खारे पानी में कोई आसानी से कहाँ डूबता है.. धीरे-धीरे अख्तरी बाई की गायकी पहचान पाने लगी, शोहरत उसके दरवाज़े पर आ खड़ी हुई, लेकिन शोहरत और नाम एक चीज़ है और मर्द की फितरत एकदम दूसरी। इसी रवायत के चलते एक दिन अख्तरी बाई के एक सरपरस्त ने उन्हें अपनी हवस का शिकार बना डाला। खुदा ने भी अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। अख्तरी बाई लड़की से औरत तो बनी ही, औरत से माँ भी बनने की दुर्गति में फंस गईं। सन तीस के सालों में, न तो लोगों में जानकारी थी, न ही सहूलियत, हिम्मत भी थी तो उसे जज़्बात ने अपनी मुठ्ठी में कर रखा था। तो नतीजा यह हुआ कि अख्तरी बाई ने एक बेटी तो जनी लेकिन उम्र भर उसे अपनी बेटी कह कर पुकार नहीं सकीं। परवरिश तो दी, लेकिन बतौर उस यतीम की रिश्तेदार। अख्तरी बाई को बाप नसीब नहीं हुआ था लेकिन उसे बाप का नाम तो मिला था और माँ भी उसके पास थी। अख्तरी बाई की बेटी को न तो बाप का मान मिला और न माँ का दामन...
अख्तर बाई गाती हैं-
“मेरे दुःख की दवा करे कोई...”
ग़ालिब के शे’र में अख्तरी बाई के लिए सिर छुपाने की जगह है. ओह ग़ालिब, अगर तुम न होते तो...?
वक्त के अगले दौर में जब अख्तरी बाई अपनी शोहरत और अपने हुनर की बुलंदी पर थीं, सन पैंतालिस का साल, बीबी अख्तरी की तीस को छूती उम्र, उन्होंने भी एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी कर ली। फिर, ढाक के तीन पात, शौहर की पाबन्दी बरपा हुई कि गायकी बंद।
पांच लम्बे बरसों तक बेगम अख्तर की आवाज़ उनके भीतर घुटती रही और बाहर आने को तरस गई. दुनिया जानती थी कि गायन बेगम अख्तर की जिंदगी का दूसरा नाम है, लेकिन बतौर शौहर, बैरिस्टर साहब का हुकुम आखिरी अदालत था..
दिनोंदिन बेगम अख्तर कि सांसें गर्क होती गईं, पहले एहसास और फिर शरीर गहरी बीमारी की लपेट में आ गया। गनीमत हुई कि एक डाक्टर ने मर्ज़ को समझा और कहा कि गाना शुरू करना ही मरीज़ का इलाज़ है, वरना मौत तो दरवाज़े पर ही खड़ी है।
बेहद मजबूरी में अब्बासी साहब में बेमन से हामी भरी और बेगम अख्तर ने गाना शुरू किया। सबसे पहले लखनऊ रेडियो स्टेशन पर बेगम अख्तर ने तीन गज़लें गाईं और उसके बाद वहीँ वह फूट-फूट कर रोने लगीं। उनका वह रोना हज़ार हज़ार ग़ज़लों से ज्यादा मन को झग्झोरने वाला था लेकिन वह किसी सीडी, किसी कैसेट में दर्ज नहीं है. किसी को उसकी तलब भी नहीं है।
30 अक्तूबर 1974 को जब उन्होंने दम तोडा, तब वह अहमदाबाद के एक सम्मलेन में गाने गईं थीं और अपने फेफडों की हैसियत पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा कर बैठीं, लेकिन फेफडे उन्हें दगा दे गए।
दगा तो बेगम अख्तर को उम्र भर किसी न किसी ने दिया, लेकिन उनको दिल पर भरोसा करने की बीमारी थी. वह मीर तकी मीर कि ग़ज़ल गाती थीं न -
“देखा इस बीमारिए दिल ने, आखिर काम तमाम किया...”
कितना सही था उनका अंदाज़, अपने बारे में और अपनी उस दुनिया के बारे में भी, जिसमे हम और आप आज भी हैं.
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29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली – 110089 मोबाईल नं- 09871187875
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बेगम अख़्तर की पुण्यतिथि पर विशेष
जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....
-अशोक गुप्ता
“जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है, जो साज़ पे गुज़री है वो किस दिल को पता है ? ”
यह एक बहुत पुराना शे’र है जो मुझे याद आ गया है। यह शे’र अचानक नहीं याद आया, अचानक याद आयीं बेगम अख्तर, जब मैंने किसी को यूँ ही गुनगुनाते सुना,
“जिस से लगाई आँख उसी को दिल का दुश्मन देखा है...”
तस्कीन कुरैशी के यह बोल जब भी, जैसे भी कानों में पड़ते हैं, कद्रदान श्रोता झूम उठते हैं, एक बार नहीं, सौ सौ बार.. लेकिन इसके आगे कभी किसी की नज़र बेगम अख्तर की ज़िन्दगी के उन पन्नों की तरफ नहीं जाती जहाँ इबारत खून से लिखी हैं और उस कलम पर बाकायदा नामज़द उँगलियों के निशान देखे जा सकते हैं। वहां तक तो न किसी नज़र गयी न किसी का वास्ता रहा। बेगम अख्तर गाती रहीं, हम सब सुनते रहे..
“तमाम उम्र रहे हम तो खैर काँटों में...”
इत्तेफाक से इस समय मेरे हाथ में उन्हीं पन्नों से उठाए हुए दर्द के कुछ टुकडे हैं, जिन्हें जानना, जो साज़ पर गुज़री है, उसे जानने जैसा है... कहता हूँ ।
मुश्तरी उस बीबी अख्तर की माँ का नाम है, जिसे पहले अख्तरी बाई के नाम से जाना गया फिर, बेगम अख्तर के नाम से. मुश्तरी जब कमसिन ही थीं, जनाब असगर हुसैन उन पर फ़िदा हो गए। वह एक नौजवान वकील थे, बाकायदा कानून से वाकिफ थे, सो बावजूद उस वक्त एक बीबी के शौहर होने के, उन्होंने मुश्तरी से शादी की। उस शादी से मुश्तरी ने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया जो जोहरा और बीबी अख्तरी कहलाईं। उसके बाद असगर हुसैन साहब ने अपनी इस मुश्तरी बेगम को उनकी दो दुधमुहीं बच्चियों के साथ घर से निकाल फेंका.... हो गया उनका इश्क का शौक पूरा।
अख्तरी और जोहरा को ले कर मुश्तरी ने संघर्ष किया। दोनों लड़कियों को कुदरत ने गायन का हुनर दिया था और बाप ने दर्द का समंदर.. खारे पानी में कोई आसानी से कहाँ डूबता है.. धीरे-धीरे अख्तरी बाई की गायकी पहचान पाने लगी, शोहरत उसके दरवाज़े पर आ खड़ी हुई, लेकिन शोहरत और नाम एक चीज़ है और मर्द की फितरत एकदम दूसरी। इसी रवायत के चलते एक दिन अख्तरी बाई के एक सरपरस्त ने उन्हें अपनी हवस का शिकार बना डाला। खुदा ने भी अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। अख्तरी बाई लड़की से औरत तो बनी ही, औरत से माँ भी बनने की दुर्गति में फंस गईं। सन तीस के सालों में, न तो लोगों में जानकारी थी, न ही सहूलियत, हिम्मत भी थी तो उसे जज़्बात ने अपनी मुठ्ठी में कर रखा था। तो नतीजा यह हुआ कि अख्तरी बाई ने एक बेटी तो जनी लेकिन उम्र भर उसे अपनी बेटी कह कर पुकार नहीं सकीं। परवरिश तो दी, लेकिन बतौर उस यतीम की रिश्तेदार। अख्तरी बाई को बाप नसीब नहीं हुआ था लेकिन उसे बाप का नाम तो मिला था और माँ भी उसके पास थी। अख्तरी बाई की बेटी को न तो बाप का मान मिला और न माँ का दामन...
अख्तर बाई गाती हैं-
“मेरे दुःख की दवा करे कोई...”
ग़ालिब के शे’र में अख्तरी बाई के लिए सिर छुपाने की जगह है. ओह ग़ालिब, अगर तुम न होते तो...?
वक्त के अगले दौर में जब अख्तरी बाई अपनी शोहरत और अपने हुनर की बुलंदी पर थीं, सन पैंतालिस का साल, बीबी अख्तरी की तीस को छूती उम्र, उन्होंने भी एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी कर ली। फिर, ढाक के तीन पात, शौहर की पाबन्दी बरपा हुई कि गायकी बंद।
पांच लम्बे बरसों तक बेगम अख्तर की आवाज़ उनके भीतर घुटती रही और बाहर आने को तरस गई. दुनिया जानती थी कि गायन बेगम अख्तर की जिंदगी का दूसरा नाम है, लेकिन बतौर शौहर, बैरिस्टर साहब का हुकुम आखिरी अदालत था..
दिनोंदिन बेगम अख्तर कि सांसें गर्क होती गईं, पहले एहसास और फिर शरीर गहरी बीमारी की लपेट में आ गया। गनीमत हुई कि एक डाक्टर ने मर्ज़ को समझा और कहा कि गाना शुरू करना ही मरीज़ का इलाज़ है, वरना मौत तो दरवाज़े पर ही खड़ी है।
बेहद मजबूरी में अब्बासी साहब में बेमन से हामी भरी और बेगम अख्तर ने गाना शुरू किया। सबसे पहले लखनऊ रेडियो स्टेशन पर बेगम अख्तर ने तीन गज़लें गाईं और उसके बाद वहीँ वह फूट-फूट कर रोने लगीं। उनका वह रोना हज़ार हज़ार ग़ज़लों से ज्यादा मन को झग्झोरने वाला था लेकिन वह किसी सीडी, किसी कैसेट में दर्ज नहीं है. किसी को उसकी तलब भी नहीं है।
30 अक्तूबर 1974 को जब उन्होंने दम तोडा, तब वह अहमदाबाद के एक सम्मलेन में गाने गईं थीं और अपने फेफडों की हैसियत पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा कर बैठीं, लेकिन फेफडे उन्हें दगा दे गए।
दगा तो बेगम अख्तर को उम्र भर किसी न किसी ने दिया, लेकिन उनको दिल पर भरोसा करने की बीमारी थी. वह मीर तकी मीर कि ग़ज़ल गाती थीं न -
“देखा इस बीमारिए दिल ने, आखिर काम तमाम किया...”
कितना सही था उनका अंदाज़, अपने बारे में और अपनी उस दुनिया के बारे में भी, जिसमे हम और आप आज भी हैं.
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7 टिप्पणियां:
वाह भाई अशोक. आलेख के अनुरूप भाषा ने मन मुग्ध कर लिया. बहुत ही सुन्दर आलेख. बधाई तुम्हे और प्रकाशित करने के लिए सुभाष को भी.
चन्देल
BEGUM AKHTAR KE BAARE MEIN YUN TO
BAHUT KUCHH PADH RAKHA HAI LEKIN
JANAAB ASHOK GUPTA KE LEKH NE UNKEE
YAAD TAAZAA KAR DEE HAI.CHHOTE LEKH
MEIN UNHONE BEGUM AKHTAR KE BAARE
MEIN BAHUT KUCHH SAMET LIYA HAI
JAESE GAGAR MEIN SAAGAR BHAR DIYA
HO.DEEWALI KE SHUBH PARV PAR UNHEN
MEREE BADHAAEE.
सधा हुआ आकर्षक संस्मरणात्मक लेख।
जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....
-अशोक गुप्ता की जब पढ़ी
वाह !!
लाजवाब मुद्दा है , रवानी और बुनावट इतनी सुंदर है जो आगाज़ से अंत का चोर छूटता ही नहीं
मुबारकवाद के साथ
देवी नागरानी
बहुत बढिया, रोचक संस्मरण.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति मीडियाई वेलेंटाइन तेजाबी गुलाब संवैधानिक मर्यादा का पालन करें कैग
भाई अशोक गुप्ता का यह संस्मरणात्मक आलेख अचानक सामने आ गया। इसी 15 अप्रैल, 2018 को इस खुशमिजाज मित्र ने संसार को विदा कह दिया। मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।
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