बुधवार, 2 दिसंबर 2009

लघुकथाएं



दो लघुकथाएं/ बलराम अग्रवाल

गुलमोहर
मकान के बाहर लॉन में सूरज की ओर पीठ किए बैठे जतन बाबू न जाने क्या-क्या सोचते रहते है। मैं लगभग रोजाना ही देखता हूँ कि वह सवेरे कुर्सी को ले आते हैं। कंधों पर शाल डाले, लॉन के किनारे पर खड़े दिन-ब-दिन झरते गुलमोहर की ओर मुँह करके, चुपचाप कुर्सी पर बैठकर वह धूप में सिंकने लगते हैं। कभी भी उनके हाथों में मैंने कोई अखबार या पुस्तक-पत्रिका नहीं देखी। इस तरह निठल्ले बैठे वह कितना वक्त वहाँ बिता देते हैं, नहीं मालूम। बहरहाल, मेरे दफ्तर जाने तक वह वहीं बैठे होते हैं और तेज धूप में भी उठकर अन्दर जाने के मूड में नहीं होते।
“लालाजी,” ऑफिस जाने के सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आया हुआ मैं अपने मकान-मालिक से पूछता हूँ—“वह सामने…”
“वह जतन बाबू है, गुलामी…”
“सो तो मैं जानता हूँ।” लालाजी की तरह ही मैं भी उनका वाक्य बीच में ही लपक लेता हूँ—“मेरा मतलब था कि जतन बाबू रोजाना ही…इस तरह…गुलमोहर के सामने…?”
“वही तो बता रहा हूँ बाबूजी!” सीधी-सादी बातचीत के दौरान भी चापलूस हँसी हँसना लालाजी की आदत में शामिल है। स्वाभानुसार ही खीसें निपोरते-से वह बताते हैं—“गुलामी के दिनों में जतन बाबू ने कितने अफसरान को गोलियों-बमों से उड़ा दिया होगा, कोई बता नहीं सकता। कहते हैं कि गुलमोहर के इस पौधे को जतन बाबू के एक बागी दोस्त ने यह कहकर यहाँ रोपा था कि इस पर आजाद हिन्दुस्तान की खुशहालियाँ फूलेंगी। वक्त की बात बाबूजी, उसी रात अपने चार साथियों के साथ वह पुलिस के बीच घिर गया और…”
“और शहीद हो गया।” लालाजी के वाक्य को पूरा करते हुए मैं बोलता हूँ।
“हाँ बाबूजी। जतन बाबू ने तभी से इस पौधे को अपने बच्चे की तरह सींच-सींचकर वृक्ष बनाया है। खाद, पानी…कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी। खूब हरा-भरा रहता है यह; लेकिन……”
“लेकिन क्या?”
“हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए इतने बरस बीत गए।” चलते-चलते लालाजी रुक जाते हैं—“पता नहीं क्या बात है कि इस पर फूल एक भी नहीं खिला…।”

लड़ाई
दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखा—सामने बैठे नौजवान पर मेरी नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन…बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होता—अपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
“अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त!” मैं उससे बोला।
“गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोश—कोई भी आम-वजह समझ लो।” वह लापरवाह अंदाज में बोला,“तुम सुनाओ।”
“मैं!” मैं हिचका। इस बीच दो ‘नीट’ गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
“है कुछ बताने का मूड?” वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की ‘कैपिसिटी’ थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
“मैं…एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…।” सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया,“लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है…हम तीन भाई हैं…तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले…माँ कई साल पहले गुजर गई थी…और बाप बुढ़ापे और…कमजोरी की वजह से…खाट में पड़ा है…कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को…उसने…पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन…तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का…अपनी मर्जी के मुताबिक…इस्तेमाल नहीं कर सकता…।”
“क्यों?” मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
“बुड्ढा सोचता है कि…हम…तीनों-के-तीनों भाई…बेवकूफ और अय्याश हैं…शराब और जुए में…जाया कर देंगे जायदाद को…।” मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला, “पैसा कमाना…बचाना…और बढ़ाना…पुरखे भी यही करते रहे…न खुद खाया…न बच्चों को खाने-पहनने दिया…बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले…लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को…लेकिन मैं…मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ…”
“तू…ऽ…” मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा, “बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।”
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर मैं उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे मैंने उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को मैंने बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
“कैसे हो?” आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
“ये पट्टियाँ…?” दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
“इसीलिए पीने से रोकती हूँ मैं।” वह बोली, “ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा…रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता…पता है?”
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
“वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…।” मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।
००

जन्म: 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
पुस्तकें : सरसों के फूल(1994), दूसरा भीम(1997), जुबैदा(2004), चन्ना चरनदास(2004), संस्कृत नाट्य:चिन्तन परम्परा और समाज (अप्रकाशित), समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन (अप्रकाशित)।
सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997) के अतिरिक्त प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की कहानियों के लगभग 15 कहानी-संकलनों एवं ‘वर्तमान जनगाथा’ सहित कुछेक पत्रिकाओं का संपादन/अतिथि संपादन। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। 1997 से हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्ट ब्लेयर(अण्डमान-निकोबार द्वीप-समूह) की पत्रिका ‘द्वीप लहरी’ के संपादन में सहयोग। कुछेक कहानियों का अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। हिन्दी फीचर फिल्म ‘पोस्टर’(1983) व ‘कोख’(1992) के संवाद-लेखन में सहयोग। हिन्दी ब्लॉग जनगाथा(Link:http://www.jangatha.blogspot.com), कथायात्रा(Link: http://kathayatra.blogspot.com) एवं लघुकथा-वार्ता(Link: http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com) का संपादन/संचालन।
सम्प्रति : अध्ययन और लेखन।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 (भारत)
दूरभाष : 011-22323249 मो0 : 09968094431
ई-मेल :
2611ableram@gmail.com

9 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत शानदार लघुकथायें. गुलमोहर में कितनी बडी सच्चाई को बयान किया है आपने.

Roop Singh Chandel ने कहा…

दोनों लघुकथाएं सुन्दर हैं लेकिन गुलमोहर लाजवाब है.

बधाई

PRAN SHARMA ने कहा…

BALRAM AGARWAL SASHAKT KAHANIKAR
HAIN.SHRI ROOP SINGH NE SAHEE
KAHAA HAI KI UNKEE DONO LAGHUKATHAAYEN SUNDAR HAIN LEKIN
GULMOHAR LAJAWAAB HAI.KAHANI KAA
ANTIM YE WAKYA " HINDUTAN KO AZAD
HUE KITNE BARAS HO GAYE HAIN LEKIN
PATAA NAHIN KYA BAAT HAI KI US PAR
PHOOL EK BHEE NAHIN LAGAA HAI"
SACHCHAAEE PAR PARDA HATAATAA HAI.

Devi Nangrani ने कहा…

Guulmohar ko padkar is vidha ki niahaaN bareekiyon par soch ammad ho gay.
Bahut sunder aur arthpoorn
Devi Nangrani

alka mishra ने कहा…

kahane ko laghukathaayen hain prabhaaw bhaarii chhor rahi hain

सुरेश यादव ने कहा…

भाई बलराम अग्रवाल जी, दोनों ही लघु कथाएं बहुत कुछ कहती हैं.गुलमोहर के मद्ध्यम से जो सन्देश आप की रचना ने दिया है ,गहरी कशिश छोड़ गया .मेरे विचार से लघुकथा की पहचान को यह लघुकथा रेखांकित कराती है.बधाई.

ashok andrey ने कहा…

priya bhai balram jee aapki dono kathaaon ne apna gehraa prabhav chhoda hai
badhai
ashok andrey

बेनामी ने कहा…

balram ji ki laghu kathain bhi jaandar thi. itne achhe ank ke liye aapko bhi badhai.
-sudhir kumar rao
raosudhir_55@yahoo.in

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

दोनों लघु कथाएँ आती सुन्दर-गुलमोहर तो छील गई.