बुधवार, 2 दिसंबर 2009

पंजाबी कहानी




बूँद बूँद कहानी
जतिंदर सिंह हांस

अनुवाद: सुभाष नीरव

''...भाई साहब, यह न समझना, मैं दारू के घूंट पर मर जाने वाला टुच्चा बंदा हूँ। मैं तो पूरा जट्ट हूँ। इस ढाबे पर मेरी ही दारू चलती है। दारू मैं फन्ने बनाता हूँ। आग ऐसी लगती है जैसे पट्रोल को लगती है। पंजाबी भाइयों के लिए तो मैं लंगर लगाये रखता हूँ। यहाँ आज भी मेरी ही दारू चलनी थी, पर अब थोड़े दिनों से बाजी उलटी पड़ी हुई है। सारी दुनिया मुँह फेर गयी। बस जी, अब तो रस्सियों के साँप बन रहे हैं। महिगल गंज वाले थाने का दरोगा, जब मैं हाथ झाड़ता था तो कुत्ते की तरह पूंछ हिलाता था। अब वो रस्सी भी साँप बनी बैठी है। साब, ये यू.पी. बड़ी कसूती(टेढ़ी चीज) है।''
''वो परे बैठा जो डरैवर दारू पी रहा है, मैं उसके पास चला गया कि भई देस से आया है। देस का हालचाल पूछ लूँ। वह मुझे उल्टा पड़ गया, बोला- जा ओए टुच्चे, दारू देखकर राल टपकाने लगा।''
''पकड़ लेना था गिरेबान से।''
''ना जी, हम नहीं गुस्सा करते। जो मन्दा बोलेगा, खुद उसका मुँह गन्दा होगा।... भाई साहब, मैं कोई मलंग नहीं, ना ही दारू की बूँद पर मर जाने वाला भड़भूजा। मैंने तो दस हजार रुपया यूँ ही फूँक दिया एक जनानी पर। रही वो मेरे पास दसेक रातें। वैसे, मैं भी दुनिया को कहने लायक हो गया कि मेरे भी जनानी थी।''
''फिर तो एक हजार रुपये में एक रात पड़ गयी।''
''आपकी बात ठीक है, हजार रुपये में रात पड़ गयी। वैसे हजार में भी कहाँ पड़ी, जब आपको असली बात का पता लगेगा, आप कहोगे- सुखिया, तू तो बिलकुल ही लुट गया। पहले ये बताओ, जो बंदा हजार रुपया एक रात का फूँक सकता है, वह टुच्चा बंदा हो सकता है ?''
''न, बिलकुल नहीं।''
''वो ढाबे की दीवार पर देखते हो, फिल्मों में काम करने वाली औरत की फोटो। वो तो जी मेरी औरत के सामने कुछ भी नहीं। भाई साब, हम झूठ नहीं बोलते, गांजा भी पिया है, दारू आपने खुद पिलायी है, फिर भी बिलकुल सूफी हूँ। पर मेरी औरत इतनी सुन्दर थी कि उसे देखकर ही नशा हो जाता था।''
''अच्छा !''
''जिस पर मैंने दस हजार रुपया फूँका, वो मेरी ही औरत थी। बेड़ा गर्क हो गया लोगों की पत्थर-पाड़ नज़रों का और साथ में बीबी(माँ) का। तुमने वो बात सुनी है, साँपिन अपने बच्चे खुद ही खा जाती है। मैंने तो जी खाते हुए देखी है।''
''ओए काका पानी लाना।''
''ना जी ना, आप मुंडू को हांक न मारो। पानी मैं लेकर आता हूँ, बर्फ़ डलवा कर। आप हो हमारे मेहमान, मुझे करनी है आपकी सेवा। और क्या इन भइयों ने सेवा करनी है ?''
''...ये लो सलाद, और ये बर्फ़ वाला पानी। इस ढाबे वाले तो हमको बाप की तरह मानते हैं। जब कोई पंजाबी मिलता है तो मुझे चाव चढ़ जाता है, जैसे किसी रिश्तेदार से मिलने पर चढ़ता है।''
''फिर तेरा दस हजार रुपया कुएँ में ही गया ?''
''वही बात बताने लगा हूँ जी... ऐसे नहीं आपकी समझ में आने वाली, शुरू से बताता हूँ।''
''डाल ले फिर बूँद-बूँद, ज्यादा न डालना। इसका कौन-सा कोई लालच है।''
''नाम है भाई साहब मेरा- सुक्खा। सुक्खा यानी भांग। दुनिया में हर तरफ मिल जाता है सुक्खा, चाहे यू.पी. चाहे पंजाब। आप कौन-सा अनजान हो, ट्रकों के मालिक हो, दुनिया घूम रखी है आपने...। सुक्खे से जो सुख मिलता है, दूसरी किसी चीज से नहीं मिलता। इसके पत्तों को हाथ से मलो, बत्तियाँ उतारो, बन जाता है बढ़िया गांजा। गांजा बड़ा राजा नशा है। दरख्त के पत्तों की चिलम बनाओ। बीड़ी के तम्बाकू में गांजा मिलाकर सुट्टा मारो। स्वर्ग दिखता है, स्वर्ग ! जब इंदिरा का कत्ल हुआ, तब जट्ट और झाले (पंजाबियों के घर) के पास पचास बूटे सुक्खे के खड़े थे। देहाती, पंजाबियों के घर लूटने लगे। हम अपनी जानें बचा कर भाग खड़े हुए। और तो जो उन्होंने लूटना था, लूटा, मेरे साले मेरा सुक्खा भी काटकर ले गए। भाई साहब, ये यू.पी. बड़ी कसूती है। इंदिरा को मारा किसी ने, सुक्खा मेरा काटकर ले गए।... वैसे क्यों मारनी थी औरत, किसी का घर ही बसाती।''
''वो तो बहुत बड़ी औरत थी।''
''अच्छा जी, फिर भी किसी का बसता घर क्यों उजाड़ना था।''
''... ये जो लोग औरतों को मारते हैं, ये लेने-देने के पीछे, मुझे तो ज़हर लगते हैं। अगर मैं दुनिया का राजा होऊँ, औरत मारने वालों को खुरचने गरम कर-कर के लगाऊँ हाथों पर। पूछूं, भाई सालो, इन्हीं हाथों से ही मारा ? फिर दूसरे तसीहे (यंत्रणाएं) दे-देकर खत्म कर दूँ। भाई साहब, मैंने तो औरत पर एक बार हाथ उठाया था। उसी पाप का मारा हुआ हूँ। आज तक औरत नसीब नहीं हुई।''
''अभी तो कहता था, मैंने अपनी औरत पर दस हज़ार फूंका है।''
''वह भी बताता हूँ भाई साहब, पहले पाप वाली बात तो सुन लो।''
''बचपन में मैंने बड़ा राज भोगा। सारे परिवार का लाड़ला था। तीन-चार जमातें पढ़ा। पढ़ा भी क्या था, बस यों ही स्कूल फेरा लगाने चला जाता झोला उठाकर। कभी किसी से तख्ती लिखा लेता, कभी किसी से। आता मुझे कुछ भी नहीं था। एक दिन मास्टर ने हमारे गाँव वाले जागर की लड़की को कछुए और खरगोश की कहानी पढ़ने पर लगा दिया। खुद कमरे में जाकर, कुर्सियाँ जोड़ कर, पंखा चला कर आराम से सो गया। जागर की लड़की कहानी पढ़कर कहने लगी, इस कहानी का यह सार निकलता है -कुछए ने नारा मारा कि जिसने अंहकार किया, वही मारा गया। मुझे बड़ा गुस्सा आया। नारा हमारे बापू का नाम है जी। मैंने उसे कहा, कछुए ने नारा-नूरा कुछ नहीं मारा। कछुए ने जागर मारा। मैंने तख्ती मारकर उसका सिर फाड़ दिया। मेरी स्कूल से छुट्टी हो गयी। इसी श्राप ने मुझे मार लिया।''
''पंजाब में कौन-सा गाँव है तेरा ?''
''गाँव भी बताता हूँ भाई साहब, डाल लो बूँद-बूँद। किसी महापुरुष ने कहा है- जब तक जी, जी भरकर पी। जब उड़ गया जी, फिर कौन कहेगा पी।''
''पीछा हमारा है खानपुर का, लुधियाने के पास। परिवार बड़ा तगड़ा था। चाचा-ताऊ अभी भी उधर ही हैं। घर अभी पंजाब में हैं, वह हमने बेचा नहीं। परिवार इकट्ठा था, ट्रैक्टर था हमारे पास। मैंने कभी काम को हाथ लगाकर नहीं देखा था। अलग होने को बापू ने ही पहल की थी। अपने भाइयों से बोला- तुम लोग चोरी-चोरी पैसा इकट्ठा किये जाते हो, मेरे बच्चों का कुछ बनता नहीं। बंटवारा होने पर तीन किल्ले ज़मीन हाथ आयी, दो कमरो का घर। मुरब्बा जोतने वालों को तीन किल्ले यों लगे मानो किसी को महलों में से निकालकर मोटर (टयूबवैल) वाले कमरे में बन्द कर दें। हम दोनों भाई ब्याहने वाले, कोई देखने नहीं आता था। अगर आता तो घर तक न पहुँच पाता। लोग भाजी मार देते कि ज़मीन कम है, लड़के अनपढ़ हैं। अपने लोग भी साले उलटे हैं। लड़की वहाँ देंगे जो लेन-देन के कारण तंग करे, जो मेरे जैसा औरत के पैर धो-धो कर पीने को फिरे, वहाँ नहीं देते। बापू बैलों से खेती करता तो लोग हँसी उड़ाते। उसके भाई ताने मार-मार कर जीने न देते, कहते, ''अलग होकर शाह बन गया।'' बापू कहता, ''शाह बनकर दिखाऊँगा।'' हमने गाँव की ज़मीन बेच कर यहाँ ले ली यू.पी. में। ये महिगल गंज से तीनेक मील दूर, औरंगाबाद वाली सड़क पर। जैसा कि कहा करते हैं- चाहे सिरहाने पड़ जा, चाहे पैताने, बीच में ही आएंगे। जो फसल पंजाब में तीन किल्लों में निकलती थी, यहाँ सात किल्लों में निकलती है। फिर इंदिरा मरी तो देहाती हमारे बर्तन-औजार लूट कर ले गये। तभी तो मैं कहता हूँ- ये यू.पी. बड़ी कसूती है।''
''पंजाब भी बहुत खराब है।''
''हाँ, जी है पंजाब भी खराब, पर यहाँ अगर गांजा, तम्बाकू और दारू न हो तो बंदा शाम को मर जाए। ये डाल लो दो-दो बूँद। साला हलक-सा सूख गया। भाई साब, कहते हैं- राम के वक्त दूध था, कृष्ण के वक्त घी। आजकल तो दारू है, जी भरके पी। वैसे भाई साब, दारू तो राम के समय भी होती होगी, नहीं तो चौदह साल जंगलों में बनवास काटना कौन-सा आसान है। पर एक बात है, औरत उसकी साथ थी। औरत साथ हो तो आदमी नरकों में भी रह सकता है। ये यू.पी. भी साली बनवास है निरा।''
''...भाई साब, मुझे सब पता है, कैसे रात-रात भर जाग कर पैसा बनाते हो। मेरा छोटा भाई भी ट्रक चलाता है। औरत उसे भी नहीं नसीब हुई, पर वह पट्ठू सीतापुर बाजार में चक्कर लगा आता है। एक-दो बार मुझे भी लेकर गया। मैंने उससे कहा- छोटे भाई, मैं तेरा कर्जा कैसे उतारुँगा, यह तो स्वर्ग में ले आया तू। आप यकीन नहीं करोगे, यहाँ हम औरतों को तरसते हैं, वहाँ औरतें हांकें मारती हैं।... पर आप कौन-सा भूले हो। दुनिया घूमी है।''
''दुनिया घूमने को हम क्या ऐसी-वैसी जगह फिरते हैं ?''
''आप तो जी यूँ ही गुस्सा कर गये, मैं ये कहाँ कहता हूँ कि आप खराब जगह जाते हो। और वह तो खराब जगह हो ही नहीं सकती। खराब जगह तो हमारा घर है, जहाँ औरत को तरसते हैं। हम तो दूसरे ही रास्ते पड़ गये। अभी तो बोतल भी पूरी नहीं हुई। इस दुनिया से कुछ लेकर नहीं जाना। यहीं है जो खा-पी जाना है। पिछले दिनों हमारी बुढ़िया जाने वाली थी। बहुत ही बीमार हो गयी। कभी तो यूँ लगे भई अब नहीं बचेगी। मैंने कहा- बीबी, आज जो तेरी बहू होती तो सेवा करती... अब मर हड्डियाँ रगड़-रगड़ कर। एक तो बैठे बड़ी खराब जगह हैं। कोई नाते-रिश्तेदार नहीं। कोस-कोस तक कोई घर नहीं। यहाँ तो भाई साब, अगर औरत को देखने को दिल करे तो महिगलगंज आना पड़ता है। सबब से पंजाब में पता लग गया। चाचा-चाची खबर लेने आ गये। वैसे खबर भी कैसी लेने आये थे, हमारे खानपुर वाले घर की चाबी लेने आये थे कि हम इस्तेमाल करेंगे। चाची बड़े-बड़े गपोड़े मारती रही, कहती- भैण जी, तू तो बिलकुल ही बीत गयी। पंजाब चल, वहाँ तेरा इलाज करवायेंगे। यहाँ डाक्टर नहीं अच्छे, बीड़ियाँ पीने वाले। साथ ही, आँखों का इलाज करवा। अगर आँखों से रह गयी तो कोई नहीं पूछेगा। बंदा तभी तक जिंदा रहे जब तक अपनी क्रिया आप कर सके। परमात्मा किसी के आसरे तो डाले ना।''
चाचा बोला- आँखों का इलाज ज़रूर करवा। खर्चा मैं करुँगा। आँखों की कीमत अंधा आदमी ही जान सकता है। खन्ना शहर में बस-अड्डे पर एक बंदा यह कहकर भीख मांगा करता है- आँखों वालो, आँखें बड़ी नियामत चीज हैं।''
''मैंने मन में कहा -ये सब बातें ही हैं। किसने इसका इलाज करवाना है। तुम चाबी लेने आए हो, चाबी लेकर रास्ता पकड़ लोगे। यूँ ही मीठा बोल कर ठगने वाले...।''
''एक रात मैं अंधेरा होने के बाद महिगलगंज से घर लौटा। इसी ढाबे पर दारू बेच कर गया था। एक कमरे में बीमार बीवी के पास बापू पड़ा था। दूसरे कमरे में चाचा-चाची। मैं बाहर पड़ी चारपाई पर पड़ गया। दारू और गांजे के नशे में डूबा, पर मुझे नींद न आवे। मन में आता रहा, सुक्खे अगर आज तेरी बीवी होती, तू भी कहीं उसे लिए पड़ा होता। चाचा वाले कमरे से अजीब-सी आवाजें आती रहीं। बहू-बूटों के पास सोने वालों को आज मुश्किल से मौका मिला था। मैं कानों में उंगलियाँ ठूँसे पड़ा रहा। पता नहीं, मुझे क्या हो रहा था। दिल करे कि खन्ने वाले अंधे की तरह शोर मचा कर कहूँ- औरतों वालो, औरतें बड़ी नियामत चीज हैं। अपने आप से कहा- सुक्खे, कल सीतापुर बाजार में चक्कर लगा आ। पर दूसरे दिन और ही पंगा पड़ गया। माँ ज्यादा ही बीमार हो गयी। बापू और चाचा उसे लेकर डाक्टर के पास महिगलगंज चले गये। मुझे घर में रुकना पड़ गया। मेरे दिमाग में कुछ चढ़ता रहा, कान सुन्न होते रहे। चाची काम खत्म करके सोई पड़ी थी। उसे देखकर रात वाली अजीब-सी आवाजें कानों में गूंजने लगीं। सिर में बजने लगीं। मेरी चारपाई घूमने लगी। मुझे लगा, मानो मैं जाकर उसकी चारपाई पर पड़ गया होऊँ। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी, लगी मुझे गालियाँ निकालने। कहने लगी- ''मरजाणे सुक्खे, मैंने तुझे अपने हाथों में पाला। अभी तो मेरे नाखूनों से तेरा गूं भी नहीं निकला। तू एकदम ही गरक गया।'' मेरा तो जी रोना निकल गया। रोना सुनकर चाची चारपाई से उठकर मेरे पास आई, पूछा- क्या हुआ रे सुक्खे ?''
मैं तो बिलख उठा। मैंने कहा, ''चाची, ये यू.पी. बड़ी कसूती है। हुआ तो कुछ नहीं, पर हो बहुत कुछ जाने वाला था।''
''तू तो बड़ा पापी है।''
''पापी का एक और मतलब है- पा और पी यानी डालो और पिओ। फिर डाल लो जी बूँद-बूँद।''
''फिर, बुढ़िया चल बसी ?''
''कहाँ मरी है जी, अगर मर जाती तो अच्छा था, तड़पती ना। मुझे कहा करती थी- रे सुक्खे, मेरा तुम्हारे सिरों से पानी वार कर पीने को जी करता है। रे कुत्ते, अगर चार अक्खर तुम्हारे पेट में होते या तुम्हारे बाप के पास चार पैसे ज्यादा होते, आज छड़े-छड़ांक न होते। मैंने कहा- चल बीबी, मेरे पेट में तो कोई अक्खर है नहीं, छोटा तो अक्खरों से गले तक भरा हुआ है। सात जमातें पास है। उसका ब्याह कर ले। वैसे, भाई साब, बात अक्खरों की भी नहीं होती, बात किस्मत की होती है। मैंने दो पैसे के आदमी परियों जैसी औरतें लिये देखे हैं। मेरी बुरी आदत है, ऐरे -गैरे के साथ हाथ मिलाते रहने की। कुछ काम करते हुए लकीरें मिट गयीं, कुछ हाथ मिला-मिलाकर कर मिटा लीं। ब्याह वाली रेखा बिलकुल ही मिट गयी। एक दिन चाकू लेकर, जहाँ पंडित ने बताया था कि यहाँ विवाह वाली रेखा होती है, वहाँ बड़ा-सा चीरा मार लिया। बापू से कहा- बापू, ये यू.पी. बड़ी कसूती है, पास में पैसा हो तो चाहे शाम को ही औरत ले आएं। मैंने एक बंदे से बात कर ली है। लड़कियाँ हैं दो। बड़ी जो तेरी बहू बन जाएगी, वो है दस हज़ार की, छोटी पांच हज़ार की है।''
''पंजाब से शाह बनने आया बापू मेरी बातें सुनता रहा। दरगाह के चौकीदार की तरह देखता रहा। मैंने उसे कहा- शाह जी, पैसों का इन्तज़ाम करो अगर बहू वाला बनना है। नहीं तो दूसरा कुआँ खोदता हूँ...।''
''वह बोला- छोटे लड़के और मेरे हिस्से की ज़मीन की ओर तो झांकना मत। तेरे हिस्से की गिरवी रख देते हैं, जो चाहे कर।''
माँ की 'खानदानी -खानदानी' वाली रट मैंने सुनी ही नहीं। मेरे हिस्से की ज़मीन गिरवी रखकर शाहजहांपुर से पाँच हजार वाली औरत ले आए।''
''तू तो कहता था, दस हज़ार खर्च किया ?''
''रुपया दस हज़ार ही लगा भाई साब। वह भी बताता हूँ, डाल लो बूँद-बूँद। एक बात है, बंदे का जी दारू और औरत से भरता नहीं।''
''औरत लाई थी पहले तोड़ की बोतल जैसी। लोगों के कलेजे फुंक गए। सालों ने दरोगा को जा बताया, और क्या दरोगा को खुशबू आती थी ! दरोगा ने बापू को पकड़ लिया। बोला, तुम वो लड़की ब्याह लाये जिसकी अभी ब्याह की उम्र ही नहीं।''
''बापू ने और ज़मीन गिरवी रखकर पाँच हज़ार दरोगा को दिया, तब कहीं जाकर छुटकारा मिला। मैंने माँ से कहा- बीबी, यह यू.पी. बड़ी कसूती है। मैं इसे पंजाब लेकर जाता हूँ। वह भी तैयार हो गयी जैसे वह सरबाला हो।''
''हम खानपुर चले गए। माँ उसकी ऐसे रखवाली करती जैसे किसान फसल की करता है। उसके साथ ही सोती थी। अगर मैं बहाने-बेबहाने करीब जाता तो तुरन्त पास आकर खड़ी हो जाती। मुझे बात ही न करने देती। पूरी निगाह रखती। मुझ खीझे हुए के मन से बद्दुआएँ निकलती रहतीं। कितना अच्छा होता, माँ अगर तू आँख से अंधी हो जाती।''
''एक दिन पगड़ी बांधते समय मैंने ध्यान से देखा। आधा सिर धौला हुआ पड़ा था। बुढ़ापा तेजी से करीब आ रहा था। अगर साल-छमाही इन्तज़ार करता रहा तो तब तक मर मरा जाऊँगा। बूढ़ी कुड़क मुर्गी की तरह पंखों के नीचे मेरी औरत को छिपाये रखती। मैंने सोचा, कोई तरकीब सोचनी पड़ेगी। चाची जो यू.पी. गयी थी, उसके संग माँ का अच्छा सखीपना था। चाची का स्वभाव थोड़ा लालची है जी। रोज की तरह मैंने चाचा के साथ पशुओं के लिए हरा चारा कटवाया। लौटते समय किसी के खेत में से कद्दू तोड़ लाया। चाची की खाट पर कद्दू रखे। खुद धरती पर बैठ गया।
चाची बोली, ''नीचे क्यों बैठता है, सुख में ?''
मैंने कहा, ''सुख कहाँ है चाची, देख ले बूढ़ी की करतूतें। बीवी मेरी है कि उसकी।''
चाची मेरी बात का जवाब देने के बजाय कद्दुओं की तरफ देखने लगी। मैंने सोचा था, सब्जी देखकर खुश होगी। मेरे हक में माँ से बात करेगी।
वह छोटे-छोटे कद्दू उठाकर कहने लगी, ''रे सुक्खे, तू तो बिलकुल ही बर्बाद हो गया। ये छोटे-छोटे चूएं(कच्चे छोटे फल) तोड़ लाया, इनका तो पाप ही मार देगा... इक कद्दु की बुरकी लायक सब्जी नहीं बनेगी। बेटा, चूआं तोड़ना तो बहुत ही बुरा है।''
मैं औरत की बात करता रहा, वह कद्दुओं की बात करती रही। सोचा- सुक्खा सिंह, यह भी बूढ़ी के साथ मिली हुई है। अपना मुँह खुद ही धोना पड़ेगा।
एक दिन मैंने अवसर पाकर अन्दर से कुंडा लगा लिया। वह रोने लगी। मेरा उठना-बैठना आप जैसे सयाने बंदों के साथ था। उनसे सुन रखा था कि औरत का रोना यों ही चलित्तर होता है। अगर वह ना-ना करे तो असल में उसकी हाँ-हाँ होती है। उसका रोना सुनकर बाहर भीड़ जमा हो गयी। लोग दरवाजा खटखटाने लगे और हांकें मारने लगे। मैंने कहा, कुंडा मैं भी नहीं खोलने वाला। वे चौखट उखाड़ कर अन्दर आ गये। माँ ने तड़ाक से मेरे थप्पड़ दे मारा। ये तो थी जी मेरी सुहाग रात ! रात को पता नहीं उसे धरती खा गयी। कोना-कोना खोज मारा, पता नहीं चला कहाँ चली गयी। चित्त करे, माँ का सिर फोड़ दूँ, जिसने 'बच्ची है', 'बच्ची है' कहकर औरत हाथ से निकाल दी। चलो जी, डाल लो फिर बूँद-बूँद।''
''वो जो मुंडू घूम रहा है, आठ-नौ बरस का, इतनी थी ?''
''इससे बस कुछ ही बड़ी होगी।''
''तू तो सचमुच ही टुच्चा है। चल उठ...।''
''जाता हूँ जी, जाता हूँ... आपकी चीज है, अपना कौन-सा जोर है। वैसे अगर दो-एक बूँदें डाल देते तो रोटी लायक... ।''
''उठता है कि नहीं, साला महानंद का....।''
''जाता हूँ जी... जाता हूँ... ये यू.पी. बड़ी...।''

00
संपर्क : गाँव-अलूना तोला,
पोस्ट आफिस-अलूना पल्लाह
जिला-लुधियाना(पंजाब)-141414

कोई टिप्पणी नहीं: