मंगलवार, 5 अगस्त 2008

कहानी




शरूआत
नूर ज़हीर

साहिरा नदी के किनारे एक पत्थर पर बैठ गई। उसके सामने से नदी का किनारा काट कर एक तेज़ सोता, पास ही की पनचक्की में जा रहा था। पनचक्की की ‘खरर हुन, खरर हुन’ उसे साफ सुनाई दे रही थी। शायद अभी-अभी किसी ने गेहूं डाला था। उसने नदी के दोनों तरफ नज़र दौड़ाई। एक औरत नदी के किनारे किलटा रखे, उसमें से कपड़े निकाल कर साबुन से घिस रही थी। गेहूं भी शायद उसी ने पनचक्की में डाला होगा।
साहिरा ने अपने दुखते हुए घुटने पर हाथ रखा और खड़ी हो गई। अभी तो सर्वरी नदी की डिप्पी पार करके दोबारा चढ़ाई चढ़नी थी, तब कहीं जाकर पक्की सड़क आएगी, जहाँ से भूटी से आने वाली सवा चार की अन्तिम बस मिलेगी।
यह ‘लग’ वैली थी। अलग पड़ने वाली वैली को उच्चारण में दिया गया- ‘लग’। कुल्लू शहर से बहुत दूर नहीं थी यह वैली मगर उसको तहसील से जोड़ने वाली सड़क अभी कोई दो साल पहले ही बनी थी। इसी सर्वरी नदी पर तीन जगह पुल बांधकर यह सड़क बनाई गई थी। साहिरा को एजूकेशन डिपार्टमेंट की तरफ से कुल्लू के स्कूलों में सांस्कृतिक मूल्यबोध की स्कीम के तहत भेजा गया था। दूर, बिखरे पड़े गांवों के स्कूलों में नाटक द्वारा बच्चों में भारतीय मूल्यों का ज्ञान और सम्मान कराना। काम मुश्किल होगा, यह उसे मालूम था। समतल की रहने वाली, उसे पहाड़ों पर चढ़ने-उतरने की आदत पड़ते-पड़ते समय तो लगेगा। डुगीलग गाँव का चयन भी उसने अपनी मर्जी से ही किया था। नौ किलोमीटर बस की यात्रा और फिर ढाई किलोमीटर की चढ़ाई के बाद, एक शिखर की चोटी की सपाट ज़मीन पर बना मिडिल स्कूल। पहली बार तो उसकी हर जोड़ और मांसपेशी को मज़ा आ गया। सारा शरीर ऐसे चरमराने लगा जैसे उसकी नानी कहा करती थी, बिटिया, हाड़-हाड़ पिरात है। लेकिन डुगीलग गाँव और उसके चारों तरफ के प्राकृतिक सौंदर्य ने उसका दिल मोह लिया। इसलिए वह इन मुश्किलों के बाद भी, डी.ई.ओ. के सुझाव पर स्कूल बदलने को राजी नहीं हुई।
मगर आने-जाने की तकलीफ़, चढ़ाई-उतराई, सरकारी स्कूल के टीचरों की बेरूखी, एक-आध की फिकरेबाजी, सब झेलने के बाद, यह एक ऐसी मुश्किल थी जिसे वह पार नहीं कर पा रही थी।
स्कूल के पास जगह बहुत थी, मगर कमरे कम थे। कच्ची इमारत में कुल मिलाकर पाँच कमरे थे जिनमें से चार में आठ क्लासें चलती थीं और एक स्टाफ-रूम था। मुख्याध्यापिका ने हर क्लास के 10 मिनट कम करके, नाट्य शिविर के लिए डेढ़ घंटा तो अलग कर दिया था लेकिन कमरा वह कहाँ से लाती। साहिरा ने सबसे पहले तो स्कूल के बीच में छोड़ी गई जगह, जो बच्चों के खेलने के काम में भी आती थी, पर ही शिविर लगाया। पर नाटक का शोर क्लासों में जाता और पढ़ रहते बच्चों का ध्यान बंटता। स्कूल के पीछे की जगह थी तो बहुत सुन्दर, देवदार और चीड़ के जंगलों से घिरी हुई, मगर उसमें गाँव के लोग अपनी गाय-बकरियाँ भी चराते थे। जैसे ही नाटक की खबर फैली, वहाँ भीड़ जमा होने लगी। पहली बार नाटक कर रहे बच्चे वैसे ही डरे-सकुचाए से थे। जान-पहचान वालों की भीड़ देखकर ऐसा घबराए कि आधे से ज्यादा ने तो शिविर से अपने नाम वापस ले लिए। जो बच गए, उनके मुँह पर ताले लग गए। गाँव के बेरोजगार लड़के जिनके सिर गाय-बकरी चराने का काम मढ़ दिया जाता था, गिरोह बनाकर इन बच्चों पर तानाकशी करते, फ़ब्तियाँ कसते। तीन दिन से लगातार यह हो रहा था कि वह सब बच्चों को जमा करके, रिहर्सल करने की कोशिश करती और दो घंटे उन लौण्डों-लपाड़ों को डाँटते, फटकारते, भगाने में गँवा कर, बिना कुछ काम किए परेशान लौट आती।
इन्हीं सब मुश्किलों के बीच, एक छठी क्लास का लड़का चैतराम उसका साथी बन गया। वह गाता बहुत अच्छा था। दो-तीन दिन के बाद, नीचे बस स्टॉप के पास ही वह मिल जाता और फिर चढ़ाई पर, कहे बगै़र साहिरा का बैग ले लेता। वर्कशाप खत्म होने के बाद, साथ ही नदी तक आता और अक्सर कपड़ों का किलटा या सूखी लकडि़यों या घास का गट्ठर लिए लौटती हुई अपनी माँ के साथ वापस चला जाता। उसका घर गाँव से ज़रा अलग, बायें को चलकर, दस-बारह घरों के झुण्ड में था। भारत के गाँवों में वर्ग-दर-वर्ग की मौज़ूदगी को जानते हुए साहिरा समझ तो गई थी कि यह अनुसूचित जाति की बस्ती है लेकिन इसे महत्व न देना या नकारना, उसने अपने हिसाब से सांस्कृतिक मूल्यबोध का ज़रूरी अंग समझा था।
वह माँ के साथ अकेला रहता था। उसका बापू गर्मियाँ शुरू होते ही, आसपास की भेड़ें लेकर लाहौल-स्पिति की तरफ चला जाता और जाड़ों के शुरू में ही लौटता। आमदनी का दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। जब फल बिकने लगते तो महीना, दो महीना तोड़ने के समय, पलम, खुर्बानी, नाशपती और सेब, किलटा भर-भरकर नीचे सड़क तक पहुँचाने का काम मिल जाता। थोड़ी-सी ज़मीन थी जिस पर सब्ज़ी उगती थी। चैतराम पढ़ने में तेज़ था। पूरा नाटक भी चार दिन के अन्दर याद कर लिया। सबके साथ हँसता, बोलता, सारी टीचरें उसे काम देकर दौड़ाती रहतीं और उसकी तारीफ़ें करती रहतीं।
चैतराम भी उन कारणों में से एक था जिनके चलते वह डुगीलग स्कूल छोड़ना नहीं चाहती थी। मगर अब ऐसा लगने लगा था जैसे इसके अलावा और कोई चारा नहीं था।
यही सोचती हुई वह सड़क के किनारे पर आकर खड़ी हो गई। अभी बस आने में पंद्रह मिनट थे। वह सोच रही थी कि क्या किया जाए कि उसे सुनाई दिया, “मैडम ! मैडम !” वह पलटी और चाय के गिलास से टकरा गई जो उसके थामे हुए हाथ पर छलक गया। ‘सॉरी’ कहते हुए उसने जल्दी से गिलास ले लिया, फिर ज़रा खिसियाकर बोली, “चाय मेरे लिए है ?”
लड़का अपने घिसे हुए पतलून पर हाथ पोंछते हुए बोला, “हाँ जी, हाँ जी, ठाकुर साहब ने भेजी है, जी।”
पैंतीस साल की साहिरा को मालूम था कि वह दिखने में अच्छी नहीं तो बुरी भी नहीं है। अकेली अनजान इलाकों में घूमती है, यह बात भी फैलते देर नहीं लगती। अब यह ठाकुर साहब क्या चीज़ हैं ? उसने पलट कर सड़क के किनारे बनी हुई चाय की दुकान पर नज़र डाली। एक लम्बे से खूबसूरत, चालीस के करीब उम्र, हिमाचली टोपी, कुर्ता-पाजामा पहने हुए सज्जन ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वह बढ़ी और उनके सामने वाली बैंच पर बैठ गई। उसकी बेबाकी पर वह पल भर हैरान होते हुए, फिर मुस्कुराकर बोले, “चाय लीजिए, मैडम जी।”
“हाँ, चाय की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही है। आपका शुक्रिया। मैं...।”
“आप साहिरा जैदी हैं। मैं जानता हूँ।”
“तो अपने बारे में ज़रा बता दीजिए।” साहिरा ने पूछा।
“मैं रघुवीर सिंह ठाकुर हूँ। डुगीलग गाँव का प्रधान। आपको पिछले आठ-नौ दिन से इधर से जाते देख रहा हूँ। अच्छी परेड हो रही है आपकी भी।”
उसकी चढ़ाई-उतराई को परेड कहा जाना साहिरा को अच्छा लगा। ज़ोर से हँसी। वह ज़रा-सा झेंप गए और गोरे गालों पर दो गुलाबी चकत्ते नज़र आने लगे।
“देखिए, कितने दिन यह परेड कर पाती हूँ।”
“क्यों जी, क्या आपका काम खत्म हो गया ?” उन्होंने ज़रा उत्सुकता से पूछा।
“शुरू ही कहाँ हुआ। शुरू होने की उम्मीद भी नहीं है।”
“ऐसा क्यों, मैडम जी ? क्या स्कूल के अध्यापक कोऑपरेट नहीं कर रहे ?”
“नहीं, नहीं। ऐसा नहीं है।” फिर उसने ठाकुर साहब को पूरी बात समझानी शुरू की। आधी बात हुई थी कि बस आ गई। वह जल्दी से दौड़कर चढ़ ही रही थी कि पीछे से उसका भारी, स्क्रिप्टों से भरा बैग कन्धे से किसी ने ले लिया। आमतौर पर उसे खड़े-खड़े बाशिंग तक जाना पड़ता था, जहाँ आधे से ज्यादा सवारियाँ उतरती थीं। आज क्योंकि प्रधान जी साथ थे, खुद-ब-खुद दो सीटें खाली हो गईं। बैठते ही उन्होंने फिर बात की डोर पकड़ी और पूरे रास्ते सवाल पूछते रहे। कुल्लू उतरकर साहिरा को ख़याल आया कि यह तो ‘लग’ वैली की आख़िरी बस है। अब प्रधान जी वापस कैसे जाएंगे ?
“ओ जी, यह पहाड़िया पैदल ही निकल लेगा। दो साल पहले तक तो हम कुल्लू पैदल ही आते-जाते थे। वे जल्दी से पलटे और ढालपुर की ढलान पर रेंग रही खरीदारों की भीड़ में गायब हो गए।
अगले दिन सुबह, जब वह बस में उतरी तो वह चाय की दुकान के बाहर खड़े थे। साहिरा ज़रा चौकन्ना हुई। यह ज़रूरत से ज्यादा हो रहा था। तेज़ी से दुकान को अनदेखा करती हुई ऊपर की तरफ़ जाने वाली पगडण्डी की तरफ़ बढ़ रही थी कि वे लपकते हुए आए और साथ-साथ चलते हुए बोले, “ऐसा है मैडम जी, मैंने आपकी प्रॉब्लम का हल निकाल लिया है।”
“कौन-सा प्रॉब्लम, कैसा हल ?” साहिरा ने ज़रा रुखाई से पूछा।
“वह जो कमरे वाली, एक कमरे का इन्तजाम हो गया है, स्कूल के पास।”
“क्या, कहाँ ? कैसे ? कौन ?”
उसकी खुशी भरी हैरानी पर वह वैसे ही ज़रा-सा झेंप कर हँसे। स्कूल के पास पहुँचकर उन्होंने एक अलग जा रही पगडण्डी की ओर इशारा किया। कुछ दूर चलकर पगडण्डी मुड़ गई और सामने एक नए मकान पर आकर खत्म हो गई। उसी मकान की पहली मंजिल पर एक बड़ा-सा कमरा था। साफ़-सुथरा और हवादार।
“मैडम जी, यह कमरा आपके काम के लिए चलेगा ?”
“चलेगा ? यह तो ऐसा दौड़ेगा कि कहीं इसे ओलंपिक्स में भेजा जा सकता होता तो मेडल जीत लाता। कौन मुझ पर यह उपकार कर रहा है ?”
वे ज़रा बिगड़ गए, “उपकार आप पर क्यों ? उपकार तो आप कर रही हैं इस गाँव पर। क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता ?”
“तो यह घर आपका है। नया बना लगता है, यहीं रहते हैं आप ?”
“नहीं जी, अभी तो बनवाया ही है। मैं तो नीचे गाँव में रहता हूँ। अभी तो यहाँ कोई नहीं रहता। बाद में शायद छोटा भाई और उसके बाल-बच्चे यहाँ आ जाएँ।”
“आपका धन्यवाद कैसे करूँ, प्रधान जी ?”
“न कीजिए। आपको ठीक दो बजे कमरा खुला मिल जाएगा। जाते हुए आप बन्द करके किसी भी लड़के को चाबी दे दीजिएगा। कोई और ज़रूरत हो तो बताइएगा।”
काम तेज़ी से चल पड़ा। कुछ टीचरों ने बच्चों के स्कूल से बाहर जाने पर ज़रा परेशानी जताई थी, लेकिन गाँव प्रधान के खिलाफ़ बोलने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। साहिरा तो उनकी इतनी एहसानमन्द थी कि उसने प्रधान रघुवीर सिंह ठाकुर को नायक बनाकर एक नया नाटक सोचना शुरू कर दिया। शायद इसी वजह से वह तक़रीबन रोज़ ही उनके साथ बैठकर दोपहर की चाय पीती। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि वे शिमला यूनिवर्सिटी के स्नातक हैं। जब उसने उनके एक पिछड़े हुए गाँव में पड़े रहने पर ज़रा हैरानगी जताई तो वे मुस्कराए और बोले, “मेरे बापू तो जी, मुझे आठवीं के बाद पढ़ाना ही नहीं चाहता था। लड़-झगड़कर मैंने दसवीं और बारहवीं की। उसने समझा कि चलो, छुट्टी हुई बारहवीं के आगे तो इसके लिए पढ़ना सम्भव है ही नहीं।”
“वह क्यों, ठाकुर साहब ?” साहिरा ने ज़रा हैरानी से पूछा।
“जी, कुल्लू में तो डिग्री कॉलेज उस समय था ही नहीं ना। शिमला जाना पड़ता था, सो उसने सोचा, इतनी लम्बी उड़ान कहाँ भरेगा यह कुल्लू का उल्लू।” अपनी बात पर हँसते-हँसते उनकी आँखों में पानी आ गया, “फिर भी, मैंने अपने ही घर में चोरी की। माँ के सोने के कंगन लेकर शिमला भाग गया। जब वह चुक गए तो ढाबों में नौकरी की, टूरिस्ट गाइड रहा, बड़े पापड़ बेलकर, बी.ए. करके घर लौटा तो बाप फिर मुझे घर में रखने को राजी नहीं।”
“क्यों ? क्या वे अब तक नाराज़ थे ?”
“थे तो, पर अब नाराज़गी दूसरी थी। अब वे चाहते थे कि बी.ए. हो गया है तो सरकारी नौकरी कर ले। पर मेरी भी जिद। नौकरी नहीं करनी किसी की, सेवा जितनी मर्जी करवा लो।”
साहिरा के दिल में उनके लिए इज्जत बढ़ गई। अगर पढ़े-लिखे लोग गाँवों की उन्नति का भार संभाल लें तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। देश तरक्की ज़रूर करेगा, देहात ज़रूर जागेगा और अपना भविष्य खुद गढ़ेगा।
दो-तीन दिन के अन्दर, जब गाँव प्रधान के साथ उसकी दोस्ती की खबर फैली तो गाँव के दूसरे लोग भी उससे खुल गए। आते-जाते लोग नमस्ते करते, साथ चलने लगते, उसे गाँव और चारों तरफ़ की दिलचस्प चीज़ें दिखाते, लोक कथाएँ सुनाते। कोई चलते-चलते हाथ में चार खुर्बानियाँ या पलम रख देता, कोई ज़बरदस्ती घर बुलाकर छाछ पिता देता। उसे प्रधान के बारे में और जानकारी भी मिलती गई। डुगीलग में केवल प्राथमिक स्कूल था। पाँचवी के बाद आगे पढ़ने के लिए दस-ग्यारह साल के बच्चों को चार किलोमीटर दूर भूटी जाना पड़ता था। ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई छूट जाती। प्रधान जी ने डी.ई.ओ. और डी.सी. के दफ्तर के चक्कर लगाकर इसे माध्यमिक विद्यालय करवाया, अब यह कुल्लू के संसद सदस्य के पीछे पड़े थे कि वे कुछ पैसा दें ताकि एम.पी. फंड से स्कूल के तीन-चार और कमरे बन सकें। महिला-मंडल को भी अपने मिलने-मिलाने के लिए एक कमरा पंचायत घर के ऊपर बनवा कर दिया, छोटी बचत योजना चलाना समझाने के लिए कुल्लू से समाज सेविका बुलवाई, गाय खरीदने के लिए गाँव की नौ महिलाओं को बैंक से लोन दिलवाया। आजकल प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र खुलवाने की चिन्ता में बार-बार कुल्लू जाते हैं, इसीलिए चाय की दुकान पर बैठे मिलते हैं।

साहिरा के दिल में उनके लिए इज्जत बराबर बढ़ रही थी और दिमाग में उनके बारे में नाटक एक पुख़्ता शक्ल ले रहा था। बस, अब कहीं से अगर ऐसी किसी घटना का पता चल जाता जिसमें उन्होंने कोई प्रगतिशील कदम उठाने की कोशिश की थी और उसका विरोध हुआ और उस विरोध का सामना करके अपनी दृढ़ता और सच्चाई के सहारे, उन्होंने लोगों को अपने मत की तरफ़ झुकाया हो, तो ड्रामाटिक एलिमेंट मिल जाता और नाटक पूरा हो जाता।
“विरोध ? ठाकुर साहब का ? वे तो हमेशा हमारे भले की ही सोचते हैं, उनका कोई कैसे विरोध करेगा ?” इस तरह के जवाब पाकर साहिरा अपने नाटक के भविष्य के लिए तो निराश हो जाती मगर गाँव की तरक्की के बारे में उसे यकीन हो जाता। जब आम लोग इतना आप पर भरोसा करें और आपकी नीयत में भी कोई खोट न हो तो भला कामयाबी में क्या बाधा आ सकती है।

वह तेजी से चलती हुई ठाकुर साहब के घर की तरफ जा रही थी। आज एक अजीब बात हुई थी। चैतराम बस-स्टॉप पर नहीं था और न ही रास्तें में कहीं मिला। घर पर कुछ काम होगा या शायद स्कूल में। पगडण्डी पर चलती हुई वह घर के पास पहुँच गई। लेकिन उसमें कुछ बदला हुआ था। भला एक रात में क्या बदल सकता है ? वह सोच रही थी कि उसे एहसास हुआ कि एक अजीब तरह का सन्नाटा घर के चारों तरफ़ मंडरा रहा है। ज़रा घबराहट हुई। क्या बात है ? हमेशा तो बच्चे उसके पहुँचने से पहले ही आ जाते हैं और इतना शोर मचा रहे होते हैं कि दूर तक सुनाई देता है। उसके कदम तेज़ हो गए और वह तक़रीबन दौड़ती हुई घर तक पहुँची। सामने आँगन में चार बच्चे, एक झाड़ी के पीछे बिलकुल चुपचाप बैठे, ज़मीन के कंकड़ों से गिट्टे खेल रहे थे।
“क्या बात है ? तुम लोग अन्दर क्यों नहीं गए और बाक़ी बच्चे कहाँ हैं ?”
“कमरे में ताला लगा है। बाकी बच्चे स्कूल लौट गए हैं।” एक बच्चे ने जवाब दिया।
“ताला लगा है तो प्रधान जी के यहाँ जाकर चाबी क्यों नहीं मांगी ?” उसने ज़रा डांट कर पूछा।
“मांगी थी। उन्होंने मना कर दिया। कहते हैं, अब और चाबी नहीं देंगे।”
“क्या बकवास कर रहे हो ? ऐसा हो ही नहीं सकता। ज़रूर कोई गड़बड़ है। जाओ, जाकर दूसरे बच्चों को बुलाकर लाओ। मैं अभी चाबी लाती हूँ।”
बच्चे आपस में खुसुर-फुसुर करते स्कूल की तरफ़ चल दिए और वह प्रधान जी के रिहायशी मकान की तरफ़ वाली ढलान उतरने लगी। उनकी पत्नी बाहर रस्सी से कपड़े उतारते हुए मिलीं। बैठने और चाय की जब वह इसरार करने लगी तो साहिरा ने अपने आने की वज़ह बताई और हँसकर यह भी जोड़ दिया कि बच्चे भी पता नहीं क्या का क्या सोच जाते हैं।
उनका चेहरा गंभीर हो गया। संभल कर बोलीं, “बच्चे गलत नहीं समझे। ठाकुर साहब ने चाबी देने से मना कर दिया है।”
“कारण ?” साहिरा के मुँह से अपने आप निकला।
“कारण तो वे ही बताएँगे।”
“ठीक है, तो मैं उन्हीं से बात कर लेती हूँ।”
“वे तो हैं नहीं। डी.सी. के दफ्तर गए हैं।”
साहिरा की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। दो सप्ताह की मेहनत बरबाद हो जाएगी। पता चलना भी ज़रूरी है कि आखि़र कल और आज के बीच उसने ऐसा क्या कर दिया है कि उसे यह सज़ा दी जा रही है और उसके साथ-साथ इन मासूम बच्चों को भी।

डी.सी. के दफ्तर के बराबर में ही कुल्लू कोर्ट भी है और उसी से मिला हुआ जानवरों का सरकारी अस्पताल। यहाँ वकीलों, गवाहों, भेड़-बकरियों, गायों, गधे-घोड़ों और पुलिसवालों की बराबर भीड़ रहती है। साहिरा सोच ही रही थी कि प्रधान जी को किस सिरे से ढूँढ़ना शुरू करे कि पीछे से किसी ने कहा, “अरे मैडम, इस समय आप यहाँ कैसे ?” वे हमेशा की तरह मुस्करा रहे थे। उनकी मुस्कुराहट और उनका आप आकर मिलना, दोनों ने ही साहिरा को विश्वास दिलाया कि कुछ पलों में ही यह ग़लतफ़हमी साफ हो जाएगी। ढालपुर का मैदान पार करके दिल्ली हाइवे के किनारे बस-स्टॉप पर पहुँचकर, उसे खाली बेंच पर बैठने का इशारा करके, वे पास की जूस की दुकान से दो बड़े गिलास बनवा कर ले आए।
जूस लेकर साहिरा ने खखार कर गला साफ किया, “प्रधान जी, आज हमें कमरा बन्द मिला और चाबी भी नहीं दी गई। आपको मालूम है ?”
“हाँ जी, मालूम है।” उनके सीधे जवाब से वह थोड़ा सकपकाई। दिल के एक हिस्से ने कहा, आगे बात न बढ़ाओ, लेकिन दिल के दूसरे हिस्से ने वज़ह जाने बिना पीछे हटने से इनकार कर दिया।
“क्या जान सकती हूँ, मुझसे क्या भूल हो गई जो आपको यह कदम उठाने की ज़रूरत पड़ गई ?”
उसके वाक्य के बीच में ही उन्होंने गिलास रखकर हाथ जोड़ लिए थे। विनम्रता से बोले, “यह बाप क्या कह रही हैं ? आप तो गाँव के बच्चों के लिए इतना कर रही हैं।”
“तो फिर क्या बात है ?”
“वो जानना आपके लिए सही नहीं।”
“न सही, मगर जाने बिना मानूंगी भी नहीं।”
उन्होंने एक बेबसी भरी साँस छोड़ी और बोले, “मैडम, आप शहर की रहने वाली हैं। गाँव में, खासकर इस क्षेत्र में बहुत-से रिवाज ऐसे हैं जो आपकी समझ में नहीं आएँगे। ‘लग’ वैली में एक चलन है कि घर की निचली मंजिल में जानवर रहते हैं और उन्हें ऊपर वाली मंजिल पर नहीं आने दिया जाता।”
“यह तो ठीक है,” वह उनकी बात स्वीकारते हुए बोली, “अक्सर ऐसी प्रथाओं के पीछे गाढ़ी लॉजिक होती है। यह प्रथा ज़रूर सफ़ाई रखने और बीमारियों से बचने के लिए बनाई गई होगी।”
“लेकिन आप बराबर ऐसा करती रहीं।” उन्होंने सीधा आरोप लगाया।
“मैं ?...कहाँ ? जानवर तो... कभी नहीं...” सरासर झूठे आरोप से उसका सिर घूम गया।
“ऐसा करके आपने हमें सबके सामने नीचा दिखाया। हमें बड़ा दुख दिया।”
अब तक वह संभल गई थी, “नहीं, ठाकुर साहब, आपसे किसी ने झूठ कहा। जानवर तो कभी रिहर्सल के आसपास भी नहीं फटके, अन्दर कमरे में आना तो दूर की बात है।”
“मैंने कहा था न, आप समझेंगी नहीं। क्या आपके शिविर में चैतराम नहीं आता ?”
“वह छठी क्लास का लड़का ? हाँ आता है, पर जानवर तो उसके साथ कभी नहीं...”
“वह अछूत है, आपको मालूम नहीं ?”
“हाँ, बताया था किसी टीचर ने, पहले पहल के दिनों में।”
“तब जानते हुए भी आपने उसे ऊपर आने दिया। किसी ने हमें बताया भी नहीं। हमें तो तब पता चला, जब हमारा विरोधी दल यह प्रचार करने लगा कि हम अछूतों, जानवरों को ऊपर आने देते हैं और हमने आपका शिविर बन्द कर दिया।”
“प्रधान जी, जानवर और शिड्यूल कास्ट बराबर हैं ?”
“नहीं,” वे जूस का घूँट भरते हुए बोले, “जानवरों में कई उनसे ऊँचे हैं। गाय और उसकी बछिया ऊपर आ सकते हैं।”
साहिरा ने पहलू बदला, “प्रधान जी, मैं मुसलमान हूँ। आपने मेरे आने-जाने पर तो कभी कोई आप​त्ति नहीं जताई ?”
“क्या कहती हैं मैडम जी। आप जै़दी है, सैय्यद। आप लोग तो ब्राह्मण जैसे हैं।”
“आपको कैसे पता, जै़दी सैय्यद होते हैं ?”
“वाह जी, राजनीति में रहकर वर्गों, जातियों की खबर न रखें ? यह तो हमारी पहली ड्यूटी। न जाने, कब, कैसी परिस्थिति का सामना हो जाए।”
“और जिन्हें नीच जाति समझा जाता है, उन्हें बराबरी दिलाना आपकी ड्यूटी नहीं है?”
“जिन्हें भगवान ने छोटी जात बनाकर इस धरती पर भेजा है, उनसे इस जन्म में दुख भोगकर, अगला जन्म सुधारने का हक़ हम कैसे छीन सकते हैं। हाँ, कुछ मजबूरियाँ हैं, सरकारी नियम हैं। उन्हें स्कूल में दाखिला देना पड़ता है। लेकिन हमारे बच्चों से अलग अपने टाट पर बैठें। बर्तनों की अदला-बदली न हो, इसलिए मैंने खुद दोपहर का खाना देने की बजाय, कच्चा चावल ने की मंजूरी दिलवाई। उनके माँ-बाप भी खुश, टीचर भी फ्री, गन्दा भी नहीं और सवर्ण भी सुरक्षित। आप बाहर की हैं, भला आपका क्या दोष ? उस चैतराम या उसकी माँ को आपको बताना चाहिए था। खैर, उनकी तो कल रात को गाँव वालों ने अच्छी धुनाई की। आज अगर हम उन्हें ऊपर की मंजिल पर चढ़ने देगें तो कल तो वे हमारे सिरों पर चढ़ जाएंगे।”
वे दोनों गिलास लौटा कर, डी.सी. ऑफिस की तरफ़ चल दिए। साहिरा अकेली उस बेंच पर बैठी सोचती रही... वह यहाँ क्या करने आई थी ? यहाँ स्कूल खोले जा सकते हैं, इसलिए कि पढ़े-लिखे इंसानों की गिनती बढ़े, स्कूलों-आँगनबाडि़यों में दिन का खाना बाँटा जा सकता है ताकि सेहतमन्द इंसान बनें, उसके जैसे रंगकर्मी यहाँ आ सकते हैं ताकि सच्चाई और मूल्यों का बोध कराके ईमानदार इंसान जन्में, लेकिन यहाँ पर एक वर्ग दूसरे वर्ग को इंसान मानने से ही इंकार कर दे, उन्हें जानवरों से भी नीचा समझे, ऐसी जगह में मनुष्य को मनुष्य का दर्जा दिलाने के लिए कौन-से मूल्यों का सहारा लिया जाए, लड़ाई की शुरूआत कहाँ से, कितने नीचे से की जाए ?


लेखिका संपर्क : 20/17, गुलमोहर रोड, शिप्रा सनसिटी,
इंदिरापुरम, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)
फोन : 09811772361, 09305267913

2 टिप्‍पणियां:

तेजेन्द्र शर्मा ने कहा…

नूर ज़हीर की कहानी - शुरूआत पढ़ी। ठाकुर जी पर गुस्सा नहीं आया, बस तरस आया। दरअसल हम महानगरों में रहने वाले इस प्रकार की स्थितियां न तो देखते हैं न समझ पाते हैं। फिर भी यह हमारे गांव के समाज का एक अभिन्न अंग हैं। किन्तु कहानी के अन्तिम पैराग्राफ़ में नूर अपनी कहानी को भाषण बनाने से बचा नहीं पाईं। कहानी वहीं समाप्त हो जाती है - साहिरा अकेली उस बेंच पर बैठी सोचती रही... वह यहाँ क्या करने आई थी ?- तेजेन्द्र शर्मा - लन्दन

Chhaya ने कहा…

main Tejander ji ki baat se sehmat nahi....
kahani ka ant kaisa hoga yeh sirf uska lekhak hi tay kar sakta hai..
sach mein noor ji ke is ant ne hamein yeh soachne par majboor kar diya ki ladai ki shuruat kitne niche se ki jaye.....