सोमवार, 11 मई 2009

पंजाबी कहानी


रखेल
जतिंदर सिंह हांस
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

चेयरमैन : सरपंचनी कुर्सी पर बैठी सरपंच बनने की सज़ा भुगत रही है। हालांकि बैठी वह थाने में है, पर मन उसका घर में भटक रहा है। घर में चूल्हा ठंडा पड़ा होगा। बच्चे और गुलगुलजारा भूखे-प्यासे होंगे। गुलगुलजारा तो जल भुनकर कोयला हो गया होगा। उसकी व्हील-चेयर इधर-उधर घूम रही होगी, मानो साले को मिर्चें लगी हों। जल भुन तो तभी गया होगा जब उसे पता चला होगा कि सरपंचनी मेरे साथ गयी है। उसका चेहरा चुनाव में हारे उम्मीदवार की तरह हो गया होगा। बड़बड़ाया होगा-''कुत्ती औरत, कार का मजा लेने के लिए फिसल गयी।''
थानेदार थाने में नहीं है। कहीं बाहर गया हुआ है। मेरी उससे मोबाइल पर बात हुई है। कहता है-''जब हुक्म करोगे, आ जाऊँगा सरकार।'' जब तक मंत्री साहब का हाथ मेरे सिर पर है, तब तक ऐसे ही चलेगा। हेमू बनिये की तरह चमड़े की चलायेंगे। हम हुए मंत्री साहब के जिगर के टुकड़े ! पुलिस हुई हमारी रखेल ! सरपंचनी को इस तरह बैठा देखकर मेरा पेट हँसने लगता है। ये वो लोग हैं जो जल्दी ही पैर छोड़ जाते हैं। इसीलिए इसे आज अच्छी तरह टांग के नीचे से निकालकर घर भेजना है। ताकि हर किसी के सामने बोलने की हिम्मत न करे। इसका तकिया-कलाम 'हाँ जी, हाँ जी' कभी 'ना जी, ना जी' न हो जाए। कई बार मन में आता है- क्यों लिए फिरता हूँ, इस दो टके की जनानी को कार में। साली को अक्ल, न शक्ल। पर साली सियासत बड़ी कुत्ती चीज है। अगर वोट लेने की मजबूरी न हो, दुनिया को सुई के छेद में से निकाल दूँ।
आज वाला केस भी अजीब है। देबी और पाली की घरवालियाँ आपस में लड़ पड़ीं। दोनों सगे भाई हैं। उधर लड़ने वाली सगी बहनें हैं। एक ने नाली में रोड़ा लगाकर पानी रोक दिया। दूसरी ने नाली में से रोड़ा निकाल दिया। फिर दोनों एक-दूजे को गालियाँ बकने लगीं, आपस में गुत्थम-गुत्था हो गयीं। पाली और देबी, माँ के पिये दूध की लाज रखने के लिए लाठियाँ उठा लाए।
राज़ीनामा तो इनका गाँव में ही हो सकता था। बात इतनी खास नहीं थी। पर थाने गए बगैर इन्हें रोटी हज़म नहीं होती। जैसा कि चुटकला सुनाया करते हैं। पुलिस दोनों दलों को जूते मारकर पूछती है, ''राजी ?'' दोनों दल मार खाकर हाथ जोड़कर कहते हैं, '' हाँ जी, राजी।''
थानेदार कहता है, ''फिर निकालो नामा।'' अगर नोट नहीं देने तो फिर कोर्ट-कचहरी का चक्कर। पार्टी अपनी गरज को मार भी खाती है, नामा भी देती है। थानेदार हाथ रंग लेता है। मेरी बहुत इज्ज़त करता है। कभी-कभी जब बड़ी रकम हाथ लगती है, दसवां हिस्सा मेरा भी निकाल देता है। जिसे वह तेल-पानी का खर्चा कहकर ज़बरन मेरी जेब में ठूंस देता है। बीस साल हो गए सरपंची करते और पार्टी के दूसरे पदों पर रहकर इलाके की सेवा करते हुए। मैंने तो यह निष्कर्ष निकाल रखा है कि राज़ीनामा कभी गाँव में होने ही न दो, दोनों पार्टियों को थाने पहुँचाओ। तभी दोनों दल तुम्हें बाप की तरह पूजते हैं। गाँव में जिस किसी को समझाने के लिए कुछ कह दो, उसी का मुँह फूल जाता है। वोट टूट जाते हैं। जिन्होंने लड़ाई छेड़ी थी, वे दोनों औरत होने का फायदा उठाकर घर में बैठी हैं। मुख्तयार कौर जिसका जुर्म सरपंच होना ही है, वह थाने बैठी है। दो धड़ों में बंटे गाँव में थानेदार के न आने के कारण जैसे सूखा पड़ गया है। लोग टोलियाँ बना-बनाकर आपस में बातें किये जाते हैं। घास खोदने वाली जात कुर्सी पर डटी बैठी है। मेड़ पर घास खोदती यह खुश होती है, पर कुर्सी पर होंठ लटकाकर ऐसी बैठी है जैसे इसके माँ-बाप मर गए हों। इसे देखकर हँसी आती है। करना करवाना इसने कुछ भी नहीं। थानेदार से मार खाकर, उसे पैसे देकर, दोनों दलों ने लिखत में राज़ीनामा करना है। इसने उस राज़ीनामे पर टूटे हुए अक्षरों में मुख्तयार कौर लिखना है। मुझे इस तरह मन मसोसकर बैठी पर तरस नहीं आता, न ही इसके भूखे-प्यासे बैठे परिवार पर, न ही बेज़ुबान पशुओं पर, न ही इसके अपाहिज पति गुलगुलजारे पर। बल्कि उसकी घूमती व्हील-चेयर के बारे में सोचकर हँसी आती है। मन में ठंडक पड़ती है। उस साले ने मुझे भी इसी तरह तड़पाया था। उस समय मेरे दिल्ली की पार्लियामेंट या चंडीगढ़ विधानसभा में जाने के चांस बनते थे। गुलगुलजारे साले ने ऐसी लात खींची, चौरासी वाले चक्कर में जा फँसा। अब तक तानी-बानी ठीक नहीं बैठी। साली चेअरमैनी के साथ ही गुजारा करना पड़ा। चेअरमैनी भी जूतम-पजार करके ली थी। नहीं तो मैं मंत्री बना लाल बत्ती वाली गाड़ी में घूमता। सलूट बजते, माया की वर्षा होती। कसूर कुछ मेरा भी था। मेरा अपना अनुभव कि चार साल ग्यारह महीने इन लोगों को जितना चाहे कूटते रहो, पर वोटों से महीनाभर पहले पुच-पुच करो तो सब कुछ भूल-भुलाकर ये पूंछ हिलाने लगते हैं- गलत साबित हो गया था। लोग मेरे द्वारा कुछ अधिक ही कूटे गए थे। मंत्री के साथ मिलकर पंचायती ज़मीन का सौ किल्ला दबाने के वक्त लोग पुलिस की मारपीट और थाने-कचहरियों को नहीं भूले थे। हरिजन बस्ती की वोटों पर मैं उछलता फिरता था। वे सभी गुलगुलजारे ने बहुजन समाज पार्टी की ओर से खड़े होकर तोड़कर रख दीं। मैंने इसे बैठ जाने के लिए बहुत लालच दिए, पर यह टस से मस न हुआ। बोला- काशी राम कहते हैं... हमारा बहुजन का राज आने वाला है। वोटें हालांकि इसे घर की ही मिलीं, पर इतनी सी वोटों पर ही मैं हार गया। ऊपर से चाहे मैं कितना ही 'हाँ भैया' करूँ, पर अन्दर से मैं इससे खार खाता हूँ।
सरपंची हार कर मेरे मन में उस लड़की वाली कहानी घूमने लगी जो अपनी सहेली को बताती है-''बापू मेरी शादी नहीं करता।''
सहेली कहती है-''ले, बेटियाँ भी किसी ने घर में रखी हैं।''
उसकी मंगनी हुई। सहेली ऑंखें-सी नचा कर बोली, ''क्यों, अब खुश है ?''
लड़की ने कहा, ''मुझे अभी भी नहीं लगता कि मेरा ब्याह होगा।''
विवाह का दिन तय हो गया। फेरे हो गए। डोली वाली कार में बैठने के लिए लड़की चल पड़ी। सहेली ने उसकी बगल में चिकौटी काटकर कान में कहा, ''अब तो खुश है ?'' लड़की बोली, ''अभी भी मेरे मन में धुकधुक-सी है।''
लड़की डोली वाली कार में बैठ गयी। लड़के का बाप ऊपर से पैसे फेंकने लगा। कार धीमे-धीमे चलने लगी। लड़की रोने का शगुन-सा करने लगी। लड़की का बाप लड़के वालों के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला- ''भाई बारात वालो, मैंने अपना पूरा जोर लगाकर ये कारज किया है। अपनी ओर से बारात की पूरा सेवा की है। आप खुश हैं ?''
बारातिये बोले, ''हाँ जी, हम तो बहुत ही खुश हैं।''
बाप ने झट से कार का दरवाजा खोला। लड़की को बांह से पकड़कर बाहर खींच लिया। बोला- ''उतर बेटी, तू तो रोती है, ये ससुरे के खुश हुए फिरते हैं।''
मेरे साथ भी उस लड़की जैसा ही हुआ था। हाई-कमान ने पार्टी फंड लेकर मेरा मंगना-सा कर दिया। मेरी जायज़-नाजायज़ ढंग से जमा की गयी माया, खाड़कुओं के साथ वाले संबंध माफ करके सात फेरे भी दिला दिए। लेकिन, टिकट देते समय यह दलील देकर डोली वाली कार में से बाहर खींच लिया कि जो सरपंची नहीं जीत सकता, वह एम.एल.ए. या एम.पी. कैसे बन सकता है। उस वक्त हमारी पार्टी की हवा अच्छी थी। लोग कहते थे कि अगर इस बार गधे को भी टिकट मिल जाए तो लोग उसे भी एम.एल.ए. बना देंगे। हाई-कमान ने यह तजरबा हमारे इलाके में किया। वह गधा पाँच साल शिक्षा मंत्री रहा।
यह निष्कर्ष मेरा उसी समय का निकाला हुआ है कि आदमी का आधार अपने गाँव में मजबूत होना चाहिए। गाँव में कोई भी अच्छी-बुरी घटना घटती है, उसका हल सियासी हितों के आधार पर करो। अगले बरसों में मैं चेअरमैनी करता रहा और गाँव में अपना आधार मजबूत करता रहा। लेकिन, इस बार हमारा गाँव आरक्षित हो गया।
गिद्धे में लड़कियाँ बोली डालते हुए तमाशा-सा किया करती हैं। एक लड़की सिर पर चुन्नी लपेटकर 'करतारे का भाइया' बन जाती है। दूसरी लड़की बोली डालती है-
-रे, करतारे के भाइया !
-हाँ जी।
-रे, मेरे पीर कलेजे !
-हाँ जी।
-रे, दो खट्टियाँ ला दे।
-हाँ जी।
-रे दो मिट्ठियाँ ला दे।
-हाँ जी।
-रे मैं मरती जाती...
-हाँ जी।
वह तंग आकर कहती है-
-रे, तेरी मर जाए हाँ जी !
-हाँ जी।
मुझे ऐसे उम्मीदवार की आवश्यकता थी जो मेरी हाँ में हाँ मिलाये। उसका हर उत्तर 'हाँ जी' हो। सबसे पहले मेरी निगाह हमारे घर में काम करती माया पर पड़ी। वह हमारी सीरी भइये की घरवाली थी। मैं उसे मजाक में मायावती भी कह देता। भइया साला मूर्ख निकला, बोला, ''हम क्यूं चमरवा बनें, हम तो यादव हैं।'' चमरवा तो मैं उसे बना लेता, फिर सोचा- इस उड़ते पंछी का क्या पता, कब उड़ जाए। अगर इसने किसी के सामने भौंक दिया तो सारे किए कराये पर पानी फिर जाएगा। भइये के जवाब देने के बाद बस्ती और बाज़ीगरों के डेरे पर निगाह दौड़ाई।
हम निजी सम्पर्क प्रोग्राम के अधीन घर-घर जाकर लोगों को शराब बांट रहे थे और अपना चुनाव चिह्न समझा रहे थे। मेरा फार्मूला है कि वोट मांगने दुश्मन के घर भी जाओ। माना कि 'गुग्गा पुत्त' नहीं बख्शेगा, पर माथा तो टेकने से नहीं रोकेगा। हम इनके घर गए। साथ में और लोग भी थे। मैंने मुख्तियारो से कहा, ''मुख्तयार कौर, इस बार हाथ को वोट डालनी है।''
मेरे साथ गए बुज़ुर्गों से पल्ला करते हुए उसने कहा, ''हाँ जी, सरकार जी, हम तो हर बार आपके पंथ (अकालियों) को ही वोट डालते हैं।''
सभी हँसने लगे तो यह घबरा गयी। मैंने बात संभाली, ''मुख्तयार कौर, इस बार पंथ की तरफ नहीं हाथ की तरफ हूँ। मोहरें हमने हाथ पर लगानी हैं। मैंने उनकी तरफ रहकर भी देख लिया, पंथ-वंथ उनका कोई नहीं। उनका तो वह काम है कि 'नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे मेरे पुत्त दा भला।''
वह शर्मसार-सी होकर कहती रही, ''सरदार जी, हमने क्या लेना किसी पंथ-वंथ से, हमारा तो सब कुछ आप ही हो।''
ऐसे ही उम्मीदवार की मुझे ज़रूरत थी। बात मुख्तियारे के मान जाने की नहीं थी। उसने तो 'हाँ जी, हाँ जी' ही कह देना था। बात तो गुलगुलजारे के मानने की थी। शाम को घर जाकर इन्हें समझाया। गुलगुलजारा पैरों पर पानी नहीं पड़ने देता था। साला लंगड़दीन !
''ये तो अनपढ़ है।''
''अपनी पार्लियामेंट के आधे नेता अनपढ़ हैं। वे देश चलाये जाते हैं। इसने तो गाँव को देखना है। जब तू सरपंच बना हुआ था, तू कौन-सा बी.ए. पास था।''
''हम गरीब हैं। इतना खर्च कहाँ से करेंगे। पिछली बार खर्चा न करने के कारण मेरा डिब्बा खाली निकला।''
''तू क्या समझता है, स्कूल के आगे गोलियाँ-टाफियाँ बेचकर टाटा-बिरला बन जाएगा। मुख्तियारो घास खोद-खोद कर इंदिरा गांधी बन जाएगी। सरपंची तो पहली सीढ़ी है। अपने हलके का एम.एल.ए. जिसका बाप टांगा चलाया करता था, वह अब कारू बादशाह से भी ज्यादा माया इकट्ठी किए बैठा है। चुनाव में तेरा सारा खर्चा मैं करुँगा। फिर लाखों की ग्रांटें मिलेंगी। छत लेना पक्का मकान। खाते रहना सरकारी पैसा।''
''पर सरदार, हमारी पार्टी ने तो बन्दा खड़ा किया हुआ है।''
''तुझे सौ की एक सुनाऊँ, पार्टी-वार्टी कुछ नहीं होती। यूं ही कुर्सियाँ लेने के लिए पार्टियों के नाम रखे हुए हैं। गुलजार सिंह, सब कुछ कुर्सी के लिए होता है। राज यहाँ न अकालियों का, न कांग्रेसियों का, न भाजपा का। राज है यहाँ सरमायेदारों का। अगर हमने इनसे राज छीनना है तो हमें उठना होगा। अब आ रहा है पंचायती राज। मैं तो चाहता था, यह राज हमारी भाभी करे, आगे तुम्हारी मर्जी।'' मेरे शब्दजाल में फंस कर उसने 'जैसे आपकी मर्जी' कहकर हथियार फेंक दिए।
जैसे-तैसे करके मैंने इसे सरपंचनी बनवा दिया। ग्रांट इससे गलत ढंग से खर्च करवा दी। अब अगर यह अपना सब कुछ भी बेच दे, सरकारी पैसा जो इसने नहीं खाया, इससे वापस होने से रहा।
थानेदार आ गया। दोनों दलों के आदमी सींखचों से बाहर निकाल लाए गए। राज़ीनामे पर दस्तख़त-अंगूठे हुए। दोनों दल अपनी-अपनी ट्रालियों में जा बैठे। मुख्तियारो कार में आ बैठी। ट्रालियाँ अभी खड़ी हैं क्योंकि अभी नंबरदार नहीं आया है। मैंने मुख्तियारो से कहा, ''हो तो अंधेरा ही गया, पर थानेदार के आए बग़ैर बात खत्म नहीं होनी थी। तेरे दस्तख्तों के बिना राज़ीनामा नहीं होना था।'' कह कर मैंने उसे चौड़ा कर दिया। वह बोली, ''हम अब गाँव का फैसला गाँव में ही कर लिया करेंगे। अपने लोगों को थाणे-कचेरियों में नहीं भटकने देंगे।'' उसके मुँह से सियानी-सी बात सुन कर मैं हैरान रह गया। नंबरदार को हांक मारते-मारते रुक गया। सरपंचनी की छातियों की ओर देखकर कार आगे बढ़ा ली। कार के अन्दर वाली लाइट का स्विच आफ कर दिया।

गुलजारा : सरकारी हाई-स्कूल के सामने टाफियाँ-बिस्कुट और दूसरा छोटा-मोटा सामान बेचने के लिए पूरी दिहाड़ी दुकान लगाकर बैठा रहा। पर आज कमाई अधिक नहीं हुई।
पी.टी. मास्टर हाथ में अखबार लिए निकला। अखबार हर वक्त उसके हाथ में ही होता है। बड़ा कमीना आदमी है। खाता भी रहेगा और साथ में कहता भी रहेगा- 'भई सरपंच, सामान बढ़िया रखा कर।' जितनी कमाई होती है, उससे अधिक नुकसान ये मोटे पेट वाला कर देता है। पर आज उसका व्यवहार बदला हुआ था।
''सरपंच, तुम्हारी तो मौजें हैं। पंचायती राज आ गया अब। ये देख, सरकार पंचायतों को कितने अधिकार दिए जा रही है। ये देख, आज का अख़बार, शिक्षा विभाग और स्वास्थ्य विभाग तुम्हारे अंडर हैं। अगर अब तू कहा करेगा कि मास्टर जी, बच्चों को फिर पढ़ाना, पहले मेरी ये दुकान देखना, तो मुझे देखनी ही पड़ेगी। भई अब हमारे पर मेहरबानी रखना...ं।''
सरपंचनी तो मेरी घरवाली है मुख्तियारो, पर लोग मुझे ही सरपंच कहे जाते हैं।
''छोड़ो जी, क्यूं मजाक करते हो। आप तो हमारे अफसर हो।'' मैंने कहा। लेकिन, मन में खुशी के लड्डू फूटने लगे। मन में सोचा, ''जरा अंडर हो जाओ बेटा, फिर देखना हाथ।'' एक फायदा तो होगा ही, हैड-मास्टर आकर घूरा नहीं करेगा कि तेरी चीजें खाकर बच्चे बीमार हो जाते हैं। न ही ये मोटे पेट वाला मेरी चीजें डकार कर मेरा नुकसान किया करेगा।
''नहीं मास्टर जी, सरपंच तनखाहें कहाँ से दिया करेंगे।'' मैंने अपनी चिन्ता ज़ाहिर की।
''उसकी तू चिन्ता न कर... बस हमारे ऊपर कृपा रखना...ं।'' कह कर पकौड़ियों की मुट्ठी भर कर वह स्कूल की ओर चल दिया।
मेरा मन हुआ, पी.टी. मास्टर से अख़बार लेकर उसकी फोटो कापियाँ करवा कर गली-गली में लगवा दूँ। हर एक को बताता घूमूंं कि आ गया जनता का राज। अख़बारें तो कब से ख़बरें दे रही हैं कि पंचायती राज होने वाला है। पंद्रह अगस्त को ईसड़ू में होने वाली सभा में लीडर भी तो भाषण झाड़ते थे। कहते थे, ''अंग्रेजों के जाने के बाद अब धोतियों वाले काले अंग्रेजों के हाथ में राज आ गया। हमारे देश का भला तब तक नहीं होगा जब तक शक्तियाँ निचले स्तर पर नहीं बांटी जातीं। यानी पंचायती राज।'' शायद वही पंचायती राज आ गया। मुख्तियारो को सरपंचनी बनाकर मैंने कोई गलती नहीं की।
सामान समेटकर घर को चल पड़ता हूँ। घर जाकर मुख्तियारो को बताऊँ- जैसे इंदिरा देश की रानी थी, मायावती किसी सूबे की रानी है, वैसे तू गाँव की रानी है। इसे कहते हैं- ऊपर की नीचे, नीचे की ऊपर। सरपंचों के भी अधिकार होते हैं। लोग यों ही नहीं सरपंची के पीछे लड़ते घूमते। चेअरमैन के कहने के मुताबिक, कुर्सी बड़ी कुत्ती चीज है।
खुद-ब-खुद मेरे होंठ गुनगुनाने लगे-

होवां नशियां' च गहिरा
दसां शाम नूं दुपहिरा
किहड़ा ढेका ला लूं पहिरा
झल्लणी मुताज ना
ढाई घंटे साडे ते
किसे दा राज ना।

मुझे लगा मानो मेरी व्हील-चेअर लाल बत्ती वाली कार हो। सड़कों पर चलते-फिरते लोग कीड़े-मकोड़े हों। अब समझ में आया कि जो लोग हमारे बीच से कुर्सियों के मालिक बनते हैं, वे बड़े लोगों की बोली क्यों बोलने लगते हैं। अभी अख़बार में ख़बर ही आयी है। लोग 'सरपंच जी, सरपंच जी' कहकर झुक-झुककर सलाम कर रहे हैं। अभी मेरी पहियों वाली कुर्सी गाँव के बाहर ही थी कि 'कीकनियों' का भजना खेतों की ओर जाता मिल गया। बोला, ''आ भई खड़पैंचा, तुझे कैसा गाँव का मोहरी बनाया, तू जिम्मेवारी समझता ही नहीं। गाँव में आंधी चल रही है, तू आराम से व्यापार करता घूम रहा है। तुझे गाँव की जरा भी फिकर है ? सारा गाँव थाणे पहुँचा हुआ है। गाँव की तो क्या, तुझे घर की भी फिकर नहीं। तुझे तब अकल आएगी जब चेअरमैन सरपंचनी को शहर वाली कोठी में रख लेगा।'' मुझे लगा, ठीकठाक खड़े को अचानक पीछे से किसी ने पीट डाला हो।
''जा, भैण का यार कुत्ता।'' जब मैंने कहा, वह दूर निकल चुका था।

मुख्तियारो को शहर वाली कोठी में रखने वाली उसकी बात मुझे डसे जा रही थी। नहीं, चेअरमैन ऐसा नहीं कर सकता। न ही मुख्तियारो ऐसा कर सकती है। पर 'चार बच्चों की माँ प्रेमी के साथ फरार' वाली खबर भी तो पी.टी. मास्टर ने सवेरे सुनाई थी, जो पंचायतों को अधिक अधिकार वाली ख़बर के नीचे दबकर रह गयी थी। घर लौटा तो दरवाजे बन्द। ज़रूर मुख्तियारो थाणे गई होगी- भैण देने चेअरमैन के साथ। बच्चे भैंस के लिए चारा लेने गए होंगे। मुझे मुख्तियारो पर गुस्सा आने लगा। अब उसे मुझ अपाहिज से क्या लेना। जब से टांगों से मुहताज हुआ हूँ, कुत्ती औरत को पंख लग गए। बिलांद भर लम्बी ज़बान लग गयी। पहले साली के मुँह से रोने के सिवा कोई आवाज़ नहीं निकलती थी। उसका फ़र्ज़ नहीं बनता था कि अपने खसम से पूछकर जाती। मैं मछली की भांति छटपटाने लगा। पहियों वाली कुर्सी कभी इधर, कभी उधर घूमने लगी। कहाँ से साला सरपंची का स्यापा गले में डाल लिया। पहले सुख से दो रोटी खाते थे। जात-बिरादरी भी तोड़ ली। कहते हैं- जब हम पहले खड़े थे, फिर तूने क्यों मुख्तियारो को सरपंच बनाया। चुनाव हारकर भी रुलिया ने कहा, ''कोई बात नहीं गुलजार सिंह, लोगों का फैसला सिर माथे।'' पर चेअरमैन ने दरार बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। छोटे-छोटे बच्चों से गाँव में जुलूस निकलवाया, नारे लगवाये-

जित्ती आ भई जित्ती आ,
जित्त गई मुख्तियारो।
हार गया भई हार गया,
हार गया रुलिया।
की करुगा गोहा-कूड़ा।

पहले हम भाइयों की तरह बरतते थे। दुख-सुख में आते-जाते थे। अब सभी मेरी खिल्ली उड़ाते हैं।
अंधेरा हो गया। मुख्तियारो अभी घर नहीं लौटी। मेरी पहियों वाली कुर्सी का मुँह चेअरमैन के घर की तरफ हो गया। उसके घर में बन रहे पकवानों की खुशबू मेरे दिमाग को चढ़ गयी। मेरी भूख और चमक उठी। गुस्सा फितूर बनकर दिमाग को चढ़ गया। गुस्से पर काबू करते हुए सरदारनी के आगे हाथ जोड़े, ''सरदारनी जी, मेरा टब्बर भूख से परेशान है। डंगर-पशु भूखे खड़े हैं। सरदार को फोन करो।''

अंधेरा और गहरा हो गया। मेरी पहियों वाली कुर्सी चेअरमैन के आंगन में इधर-उधर घूमे जा रही थी। क्रोध में ऑंखों के आगे अंधेरा छा रहा था। पता नहीं, किस वक्त मेरे मुँह से चेअरमैन के लिए गालियाँ निकलने लगीं। हर वक्त हँसने वाली सरदारनी लाल-पीली होकर अन्दर से निकली और बोली, ''अपनी औकात में रह।'' भइये ने 'साला चमरुआ' कहकर मेरे थप्पड़ मारे। मेरी कुर्सी घुमा दी। फिर उलटा दी। सरदारनी ने उसे रोका, ''छोड़ परे रामू, छोटे लोगों के मुँह नहीं लगा करते।'' मेरी कुर्सी भइये से ठीक करके मुझे उस पर बिठाया। शायद मेरे नाक से बहता खून देखकर उसे तरस आ गया हो। मुझे कहने लगी, ''गुलजार भाई, लोगों से लड़ने की बजाय मुख्तियारो को समझा।''

कुर्सी को धकेलता पता नहीं कैसे मैं घर पहुँचा। भूखे-प्यासे बच्चों ने शोर मचा रखा था। घर के अन्दर अंधेरा था। बिल न भरने के कारण बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। दीया पता नहीं कहाँ रखा है। मूर्ख औरत लौटकर वापस घर आये तो सही... आज नहीं छोड़ूंगा। साली कार का मजा लिए घूमती है !
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जतिंदर सिंह हांस
शिक्षा- एम ए , बी एड।
प्रकाशित कृति : पावे नाल बन्निया होया काल(कहानी संग्रह)- पंजाबी में।
पाये स बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)- हिन्दी में।
संपर्क : गाँव-अलूना तोला, पोस्ट आफिस-अलूना पल्लाह,जिला-लुधियाना(पंजाब)-41414
फोन : 01628-275220, 09463352107

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