
‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में हिंदी अकादमी, दिल्ली के ताज़ा प्रकरण पर “मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत पढ़ें- डॉ0 रूपसिंह चन्देल का आलेख ‘दिल्ली में क्या साहित्यकारों का अभाव है?” इसके अतिरिक्त, समकालीन हिंदी कविता में उभरती हुई कवयित्री सुश्री ममता किरण के चार कविताएं, हिंदी की प्रख्यात कथा लेखिका सुधा अरोड़ा की कहानी ‘डेजर्ट फोबिया उर्फ़ समुद्र में रेगिस्तान’, पंजाबी लघुकथा की प्रथम पीढ़ी के चर्चित और सशक्त लेखक श्यामसुंदर अग्रवाल की दो लघुकथाएं तथा ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की आठवीं किस्त।
संपादक : साहित्य-सृजन
मेरी बात

दिल्ली में क्या साहित्यकारों का अभाव है ?
-डॉ. रूपसिंह चन्देल
यह सर्वविदित है कि सभी साहित्यिक संस्थांओं में शीर्ष पदों के चयन प्राय: विवादित होते रहे हैं. विवाद व्यक्ति की योग्यता, साहित्यिक क्षमता और उसके साहित्यिक अवदान की अपेक्षा चयन प्रक्रिया को लेकर अधिक होता है. अधिकांश जोड़-जुगाड़ और राजनैतिक पैठ वाले लोग ही अपने सिर पर उस पद का ताज पहनने में सफल होते हैं. हिन्दी अकादमी दिल्ली इसका अपवाद कैसे हो सकती है. अपनी संस्थापना से लेकर आज तक वहां यही होता आया, लेकिन तमाम विवादों और आंतरिक विद्रूपताओं के बावजूद यहां वह सब नहीं हुआ जो आज हो रहा है. इससे स्पष्ट है कि हिन्दी में सहिष्णुता के लिए अब कोई स्थान नहीं रहा. अहंकार सदैव टकराते रहे, लेकिन सार्वजनिक तौर पर किसी साहित्यकार के लिए अपमानजनक शब्दों के प्रयोग से लोग परहेज करते थे. हिन्दी अकादमी दिल्ली में पिछले सप्ताह जो घटित हुआ, वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि हिन्दी साहित्य की पतनशील राजनीति का एक ज्वलंत उदाहरण भी है.
अकादमी की 'अध्यक्ष' और दिल्ली की मुख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित हैं. शीला जी का हिन्दी प्रेम सर्वविदित है. हिन्दी के विकास के लिए उनके प्रयास श्लाघनीय हैं. यही कारण है कि उन्होंने अकादमी का बजट वर्षों पहले दो करोड़ कर दिया था, लेकिन बजट की घोषणा कर देना ही पर्याप्त नहीं था. 'बजट' कैसे खर्च किया जा रहा है… इस पर दृष्टि रखना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा, क्योंकि शायद अकादमी के अधिकारियों पर उन्हें कुछ अधिक ही विश्वास रहा. इस दृष्टि से अकादमी के विगत कुछ वर्ष अधिक ही ध्यानाकर्षण करने वाले रहे. आश्चर्यजनक रूप से कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई थी जो अनेक आशंकाओं को जन्म देने के लिए पर्याप्त थे. तरह-तरह की चर्चाएं थीं. वह सब हिन्दी साहित्य के विकास के नाम पर आम जनता के धन का सदुपयोग था या दुरुपयोग, यह एक निष्पक्ष जांच के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा. और उस काल में अकादमी की वर्तमान संचालन समिति से त्यागपत्र देनेवाली प्रसिद्ध आलोचक अर्चना वर्मा तब भी संचालन समिति की सदस्य थीं. अर्चना जी ने अशोक चक्रधर के विरोध में संचालन समिति से त्यागपत्र दिया, जिन्हें अकादमी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है. समाचार पत्रों के अनुसार अशोक चक्रधर के लिए 'विदूषक' के अतिरिक्त अन्य अनेक आपत्तिजनक उपाधियों से संबोधित करते हुए उन्होंने अपना त्यागपत्र दिया है. उनके बाद युवा आलोचक और अकादमी के सचिव डॉ. ज्यातिष जोशी ने भी त्यागपत्र दे दिया, लेकिन अपनी छवि के अनरूप डॉ. जोशी ने चक्रधर के विरुद्ध विष वमन नहीं किया. आखिर यह त्याग पत्र उसी दिन क्यों नहीं दिये गये थे जिस दिन चक्रधर को अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था ?
अशोक चक्रधर से मेरा परिचय नहीं है. मैं उनका प्रशंसक भी नहीं हूँ, लेकिन मुझे उनके लिए 'विदूषक' जैसा अपमानजनक शब्द प्रयोग करने पर आपत्ति है. अर्चना जी सुरेन्द्र शर्मा के साथ बैठकर काम कर सकती हैं, पर अशोक चक्रधर के साथ नहीं. मैं जानना चाहूंगा. अर्चना जी एक गंभीर आलोचक और कहानीकार हैं. मिरांडा कॉलेज में हिन्दी की प्रोफेसर हैं. वह इससे इंकार नहीं करेगीं कि 'हास्य' भी साहित्य की एक विधा है. हास्य और व्यंग्य रचनाएं लिखना सहज नहीं है. एक अतिरिक्त प्रतिभा की दरकार होती है. शायद इसीलिए ऐसे रचनाकारों की संख्या कम होती है और इन विधाओं को हाशिये पर डाला जाता रहा है. अशोक चक्रधर ने जामिया मिलिया में वर्षों हिन्दी पढ़ाई है, अत: उन्हें साहित्य की तमीज नहीं, यह कहना उचित नहीं होगा. उनकी जिस टिप्पणी से उनके गुरू और अकादमी के वर्षों से संचालन समिति के सदस्य बनते आ रहे डॉ. नित्यानंद तिवारी को आपत्ति है और शायद त्यागपत्र देने वालों को भी इस टिप्पणी ने उत्तेजित किया होगा, वह थी 'साहित्य को लोकरंजन' का रूप बताया जाना और हास्य-व्यंग्य साहित्य और गंभीर साहित्य में एक सांमजस्य स्थापित करना. अर्थात नये उपाध्यक्ष की कार्यशैली पूर्व उपाध्यक्षों से भिन्न होने वाली थी. इससे संचालन समिति के सदस्यों और अकादमी के अधिकारियों की गतिविधियां बाधित होने वाली थीं. अच्छा तो यह रहा होता यदि कुछ माह चक्रधर की कार्यशैली को देखने के बाद उसे साहित्य और अकादमी के प्रतिकूल पाकर ये कदम उठाये गये होते.
यहां एक तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने के बाद अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा. 6 जुलाई को अकादमी की संचालन समिति के लिए चौबीस लोगों के नामों की घोषणा की गई. इनमें से अनेक नाम ऐसे हैं जो वर्षों से संचालन समिति की शोभा बढ़ा रहे हैं. क्या दिल्ली में साहित्याकारों का इतना अभाव है? अर्चना जी भी उनमें से एक हैं. कहते हैं कि देश में सर्वाधिक साहित्याकार और पत्रकार दिल्ली में बसते हैं, फिर अकादमी द्रोणवीर कोहली, राजी सेठ, कृष्ण बलदेव वैद,, विष्णुचन्द्र शर्मा, हरिपाल त्यागी, महेश दर्पण, राजेन्द्र गौतम, राजकिशोर, विभांशु दिव्याल, मधुसूदन आनंद, अशोक कुमार आदि लोगों को कैसे भूल जाती है?
एक साहित्यकार के नाते मैं हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष और दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित जी से कहना चाहता हूँ कि अकादमी में ऐसे नियम बनाये जाने चाहिएं कि एक व्यक्ति को एक बार से अधिक संचालन समिति का सदस्य न बनाया जाये और यदि बनाया ही जाये तो दस वर्ष के बाद. इसके अतिरिक्त एक 'मॉनीटरिंग कमेटी' भी बनायी जाये जो न केवल अकादमी के आर्थिक मुद्दों पर दृष्टि रखे बल्कि पुरस्कारों पर भी दृष्टि रखे- हस्तक्षेप नहीं. मैं चित्रा मुद्गल और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के विचारों से सहमत हूँ जो उन्होंने कवि और अनुवादक नीलाभ द्वारा साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार को अस्वीकार करने पर राष्ट्रीय सहारा में व्यक्त मिये थे. चित्रा जी का कहना था कि दस में दो पुरस्कारों का चयन ही निष्पक्ष होता है. अर्थात अस्सी प्रतिशत 'मैनेज' किये जाते हैं (चित्रा जी भी अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चकी हैं). इस दृष्टि से विगत कुछ वर्षों के अकादमी पुरस्कारों की पड़ताल की जानी चाहिए. आखिर क्या कारण है कि 'वाह कैम्प' (प्रकाशन वर्ष 1994) जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले द्रोणवीर कोहली पचहत्तर पार कर गये और आज तक अकादमी ने उन्हें साहित्याकार पुरस्कार के याग्य भी नहीं माना, जबकि कुछ लोगों के खाते में मात्र एक कृति जुड़ते ही उन्हें इस पुरस्कार से नवाजा गया. यह बातें हिन्दी अकादमी की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त हैं.
हिन्दी अकादमी को इस साहित्यिक राजनीतिक उठा-पटक और बंदरबांट से उबारने की आवश्यकता है, ताकि लक्ष्य से भटक चुकी यह संस्था पूर्णत: अपना लक्ष्य ही न खो बैठे.
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