बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

लघुकथाएं


दो लघुकथाएं/सुधीर राव

कोशिश

एक महीना अस्पाल में रहने के बाद वह आज घर लौटा। बैसाखियों के सहारे चलता-चलता अंदर आया और बिस्तर पर लेट-सा गया।

शाम होते-होते घर में लोगों का आना-जाना शुरू हो गया। सभी हमदर्दी जता रहे थे। पड़ोस के शर्मा जी बोले- ''भैया, परमात्मा का शुक्र मनाओ, जो बच गए। कहीं बदन पर से पहिया निकल जाता तो बच्चे अनाथ हो जाते।'' तभी पांडे जी बोले, ''यह भौजाई का पुण्य है जो काम आया।''

रात का खाना परोसते हुए पत्नी ने पूछा, ''क्यों जी, कम्पनी भी तो कुछ मुआवजा देगी, कितना देगी ?''
''पांच-दस हजार शायद !'' उसने कहा।
तभी छोटे लड़के ने कहा, ''पापा, कल से फैक्टरी जाओगे ?''
''नहीं बेटा, अभी दर्द है, आराम करूँगा।''
''महीने भर के इलाज में पंद्रह-बीस हजार खर्च हो गए और तुम हो कि आराम करोगे ! मैं अकेली क्या-क्या देखूँ, कहाँ जाऊँ ? लाख-दो लाख का मुआवजा हो तो बात है। पांच-दस हजार में क्या होता है ? कल जाकर कोशिश करके देखना।'' पत्नी ने परेशान स्वर में कहा।
'हाँ, सच ही कहती है,' निवाला मुँह में रखते हुए उसने सोचा। वह कैसे कहे कि पांच-दस हजार नहीं, लाख-दो लाख के लिए ही उसने कोशिश की थी। अब पहिया सिर्फ पैर पर चढ़ा तो उसका क्या कसूर ?
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फैसला

वह एक आदर्शवादी नवयुवक था। हर महकमें में फैले भ्रष्टाचार को देखते हुए उसने एक निजी स्कूल में अध्यापक की नौकरी करना अच्छा समझा। वह बच्चों को बड़ी मेहनत और लगन से पढ़ाता था। शिक्षा सत्र के अन्त में बोर्ड की परीक्षाओं में निरीक्षक के रूप में उसकी डयूटी लगी। एक-दो दिन बाद ही प्रिंसीपल ने उसे ऑफिस में बुलवा लिया।

''आइए शर्मा जी, कैसे हैं? भई आप जिस मेहनत से बच्चों को पढ़ाते हैं, उससे मैं ही नहीं, बल्कि ट्रस्टीगण भी काफी खुश हैं।''
''जी, सब आपकी कृपा है।''
''पर देखिए मास्टर जी, स्कूल चलता रहे इसके लिए अच्छा रिजल्ट भी बहुत ज़रूरी है। बोर्ड की परीक्षा का रिजल्ट अपने हाथ में नहीं होता, इसलिए आप ज़रा परीक्षार्थियों के साथ ज्यादा से ज्यादा उदार रहे। समझ रहे हैं न, मैं जो कहना चाहता हूँ।''
''तो क्या नकल करने दूँ?'' वह तड़प कर बोला, ''आप चाहते हैं मैं उनके भविष्य से खिलवाड़ करूँ ? इससे बेहतर है कि मैं इस्तीफा दे दूँ।''
''न-न जोश से नहीं, होश से काम लीजिए।'' प्रिंसीपल साहब बोले, ''इन बच्चों के माँ-बाप के भी कुछ सपने हैं और इन्हें तोड़ने का आपको कोई हक नहीं बनता। सब आपकी तरह मास्टरी कराने के लिए अपने बच्चों को नहीं पढ़ा रहे हैं। सोच लीजिए, मन हो तो कल दोपहर की पाली में । ड्यूटी पर आ जाना। ''

रात देर तक वह इसी कशमकश में करवट बदलता रहा कि क्या करे। इस भ्रष्टाचार से बचने के लिए यह नौकरी की थी, वह तो यहाँ भी निकला। यही सोचते-सोचते कब नींद आ गई, मालूम नहीं।
सुबह पत्नी ने झकझोर कर उठाया, ''आज क्या ड्यूटी पर नहीं जाना है, जो अभी तक सो रहे हो?''
उसने अधखुली आँखों से पत्नी की ओर देखा, बोला, ''नहीं, आज दोपहर की पाली में जाना है।''
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जन्म : 25 मई 1955
शिक्षा : बी.काम।
प्रारंभिक दौर में सुधीर 'अज्ञात' नाम से लेखन और अनेक कहानियों, लघुकथाओं और लेखों का प्रकाशन। वर्तमान में इन्दौर से प्रकाशित 'नई दुनिया' में लघुकथाएं और भोपाल से प्रकाशित 'समरलोक' में लघुकथाएं सुधीर राव नाम से प्रकाशित।
संप्रति : पंजाब नेशनल बैंक में प्रबंधक।
सम्पर्क : 101/45, लोकमान्य नगर, इन्दौर-454009
दूरभाष : 09855500140(मोबाइल)

5 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

कोशिश और फैसला दोनो कहानिया आज के समाज का सच हैं सुधीर जी को बहुत बहुत बधाई

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

अरे यही सुधीर अज्ञात हैं ? भाई कहीं मिल जाएं तो पहचान पाना कठिन होगा. लगभग २५ वर्षों का अंतराल ---- उनकी दोनॊं लघुकथाओं के बहाने मुलाकात--- दोनों लघुकथाएं अच्छी हैं ---आज-समाज का सच. बधाई.

चन्देल

बलराम अग्रवाल ने कहा…

'कोशिश' नकारात्मक यथार्थ की लघुकथा है, जबकि 'फैसला' आम आदमी के अस्तित्व के संकट को और उसे बचाने के संघर्ष का चित्रण करती है। बेशक 'कोशिश' में भी यही बात है, लेकिन कथ्य की दृष्टि से 'फैसला' बेहतर है। बधाई।

Unknown ने कहा…

aaj ke satye ko charitarth karti hui dono laghu kathayen ek doosre se bath kar hain.
ek saath kaam karne ke bawjood bhi aap mein chhipi is pratibha ka pata nahin tha. chalie isi bahane aap ke ander chhupe hue sahityekar ka pata chala.
RANJIV SUNEJA
(AUDITOR)
Punjab National bank

Unknown ने कहा…

aap ke dwara ek kiya gaya ek achha paryas.
aap ke saath rahne ke bawjood bhi aap mein chhupi is pratibha ka pata nahi tha.
Ranjiv Suneja