बुधवार, 2 दिसंबर 2009

साहित्य सृजन – नवम्बर-दिसम्बर 2009




‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में आप पढ़ेंगे –
“मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत वरिष्ठ कथाकार रूप सिंह चंदेल का आलेख “साहित्यिक सर्वेक्षणों के मायने.”, कवयित्री- रश्मि प्रभा की कविताएं, कथाकार बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ, पंजाबी के युवा कथाकार जतिंदर सिंह हांस की पंजाबी कहानी “ बूँद बूँद कहानी ” का हिन्दी अनुवाद, ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की दसवीं किस्त, वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा शरद सिंह के चर्चित उपन्यास ‘पिछ्ले पन्ने की औरतें’ की समीक्षा…
संपादक : साहित्य-सृजन

मेरी बात

साहित्यिक सर्वेक्षणों के मायने
-रूपसिंह चन्देल

इस परम्परा का प्रादुर्भाव कब हुआ प्रामाणिकता के साथ यह बता पाना मेरे लिए कठिन है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसे सर्वेक्षणों की बाढ़-सी आ गई और इस दिशा में प्रतिष्ठित साहित्यिक-राजनैतिक पत्रिकाओं के साथ छोटी-मझोली, चर्चित-अचर्चित पत्रिकाएं भी अपनी सक्रियता प्रदर्शित करती दिखीं. अधिकांश पत्रिकाओं ने कहानी और उपन्यास को ही केन्द्र में रखा. लघुकथा, आलोचना, रिपोर्ताज, यात्रा, संस्मरण, आत्मकथा, व्यंग्य, बाल-साहित्य .... अर्थात् साहित्य की अन्य विधाओं को दरकिनार रखा गया. यही वह कारण है जिसने मुझे इस दिशा में सोचने और अपने विचार आपके विचारार्थ प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया.

प्रश्न है कि ऐसे कौन-से कारण हैं जिससे केवल दो विधाओं को ही सर्वेक्षण का आधार बनाया गया और अन्य विधाओं को छोड़ दिया गया. एक तर्क यह हो सकता है कि हिन्दी साहित्य की ये दो विधाएं ही सर्वाधिक चर्चा में रहती हैं. दूसरा तर्क यह कि लेखकों की सर्वाधिक हिस्सेदारी इन्हीं विधाओं में है और उनमें उत्कृष्टता की पहचान कर पाठकों को उससे अवगत कराना सर्वेक्षक पत्रिकाओं का मुख्य ध्येय होता है. एक तर्क यह भी कि शेष विधाओं में रचनाकारों की सीमित संख्या के कारण पाठक स्वयं उनकी श्रेष्ठता या स्तरहीनता का आकलन करने में सक्षम रहता है.

संभव है सर्वेक्षकों (सम्पादकों) के पास अपने सर्वेक्षण के लिए कुछ अन्य तर्क भी हों, लेकिन मेरी मोटी अक्ल में उपरोक्त या अन्य तर्कों से इतर सर्वेक्षण करवाने के पीछे सम्पादकों की नीयत और अपनों के अस्तित्व संकट का प्रश्न सबसे बड़ा कारण समझ आता है. इस अस्तित्व संकट ने साहित्य में 'मुख्यधारा' जैसे राजनैतिक शब्द को कुछ इस तरह परोसा कि हर दूसरा साहित्यकार उसको चभुलाता घूम रहा है और यह सोचकर प्रसन्न है कि वह मुख्यधारा का लेखक है इसलिए वह एक सफल और समर्थ लेखक है.

साहित्यिक सर्वेक्षणों के द्वारा सम्पादक उन लेखकों की रचनाओं को उस सूची में शामिल कर उन्हें महत्वपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं जो उनके चहेते होते हैं और उनके पीछे तन-मन और धन से समर्पित रहते हैं.

इन सर्वेक्षणों के पीछे सर्वथा दृष्टि का अभाव होता है. प्राय: ये एकल निर्णय का परिणाम होते हैं, और रचनाओं और रचनाकारों की सूची में कुछ स्थापित रचनाकारों को शामिल कर निर्णायक शेष उन्ही नामों को शामिल करते हैं जिनके लिए उन्हें वह आयोजन करना पड़ता हैं. यह सब किसी षडयंत्र की भांति होता है और इस प्रक्रिया में कितनी ही उत्कृष्ट रचनाओं की उपेक्षा की जाती है और अपने चहेते की दोयम दर्जे की रचना को सदी या पचीस वर्षों की श्रेष्ठतम रचनाओं में शुमार कर लेते हैं. क्या कभी किसी सम्पादक ने पाठकों से यह जानने की कोशिश की कि उनकी दृष्टि में कौन-सी रचना क्रमानुसार श्रेष्ठता की किस श्रेणी में आती है ? क्या किसी पत्रिका ने किसी मान्यता प्राप्त सर्वेक्षक संस्था से कभी ऐसे सर्वेक्षण करवाए ? नहीं , क्योंकि तब वर्षों से उनके द्वारा प्रकाशित की जाने वाली सूची से कितने ही नाम नदारत हो जाते. ऐसी संस्थाओं को कार्य सौंपने के विषय में सीमित साधनों से निकलने वाली पत्रिकाएं यह कह सकती हैं कि इस कार्य हेतु उन संस्थाओं को देने के लिए उनके पास पर्याप्त आर्थिक आधार नहीं हैं, लेकिन ऐसे साहित्यिक सर्वेक्षण इंडिया टुडे जैसी साधन-सम्पन्न पत्रिकाएं भी करवाती रही हैं और आगे भी करवाएंगी. इंडिया टुडे ने भी इस कार्य के प्रति कभी गंभीर दृष्टिकोण का परिचय न देते हुए उन्हीं लोगों को इसमें संलग्न किया जिनके चहेतों की अपनी फेहरिश्त होती है. यदि किसी शोघकर्ता से यह कार्य करवाया भी गया तो उसके द्वारा सौंपी गयी रपट को कूड़ेदान के हवाले किया गया. (सम्पादकों और आलोचकों के साथ जे.एन.यू. के एक शोधछात्र से कुछ वर्ष पहले यह कार्य करवाया गया था और उसकी रपट प्रकाशित नहीं की गई थी, जबकि वह एक निष्पक्ष रपट थी). इंडिया टुडे भी उन्हीं सम्पादकों या सेठाश्रयी आलोचकों को यह कार्य सौंपकर इति मान लेती रही जो साहित्यिक राजनीति के अच्छे खिलाड़ी हैं. कुछ लोगों ने अपनी इस स्थिति का भरपूर दोहन किया. देश-विदेश की मुफ्त यात्राओं का लाभ ही नहीं मिला उन्हें बल्कि साहित्यिक आयोजनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका तय होने लगी.

पिछले दिनों एक आश्चर्यजनक घटना हुई. दिल्ली के एक उपन्यासकार एक सम्पादक से मिले और उसे उपन्यासों के सर्वेक्षण के लिए प्रेरित करना चाहा. हाल में उन लेखक का नया उपन्यास प्रकाशित हुआ था. सम्पादक ने उनकी प्रेरणा ग्रहण नहीं की. यदि कर लेते तब वह उसे सर्वेक्षित सूची में अपने उपन्यास को शामिल करने के लिए दबाव बनाते. सम्पादक ने उनकी नीयत भांप ली थी.

हिन्दी में मुझे एक ही पत्रिका की जानकारी है जो अपनी पत्रिका में प्रकाशित वर्ष भर की कहानियों पर अपने पाठकों की राय मांगती है और उनसे मिली राय के आधार पर वह तीन रचनाकारों को सम्मानित करती है. पत्रिका का नाम है 'कथाबिंब'- रचनाओं की उत्कृष्टता मापने का पैमाना पाठकों से बड़ा दूसरी नहीं हो सकता.

साहित्यकार के लिए पाठकों की अदालत से बड़ी कोई अदालत नहीं. प्रतिवर्ष विभिन्न पत्रिकाओं की सर्वेक्षित सूची को वे कभी गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि उन्हें स्वयं पर अधिक भरोसा है और वे सर्वेक्षणकर्ताओं की नीयत को भी अब जान गए हैं. आज का पाठक साहित्य की हकीकत को बखूबी जानता है. कोई सम्पादक या सर्वेक्षक उसे भ्रमित नहीं कर सकता.
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कविता


रश्मि प्रभा की दो कविताएँ
दुआओं के दीप
आंसुओं की नदी में
मैंने अपने मन को, अपनी भावनाओं को
पाल संग उतार दिया है.
आंसुओं के मध्य
जाने कितनी अजनबी आंखों से
मुलाक़ात हो जाती है-
फिर उन लम्हों को पढ़ते हुए
मेरी आँखें
उनके जज्बातों की तिजोरी बन जाती हैं।
जाने कितनी चाभियाँ
गुच्छे में गूंथी
मेरी कमर में,मेरे साथ चलती हैं
और रात होते
मेरे सिरहाने,
मेरे सपनों का हिस्सा बन जाती हैं,
जहाँ मैं हर आंखों के नाम
दुआओं के दीप जलाती हूँ !
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इल्तज़ा
‘घर’ एक विस्तृत शब्द है,
जहां रिश्तों के बीज पड़ते हैं !
’प्यार’ के ढाई अक्षर को जोड़ने का सलीका
सिखाया जाता है,
विनम्र मर्यादाओं की रेखाएं खींची जाती हैं!
घर के प्रवेश-द्वार पर ’विंड शाइम’ क्यूँ लगाते हैं?
निःसंदेह, जलतरंग - सी मीठी ध्वनि से
स्वागत द्वार खोलने के लिए।
’कड़वे बोल’ ना घर की शान होते हैं,
ना ही किसी की ‘जीत’ बनते हैं

कैक्टस लगा कर कितना लहू लुहान करोगे ?
सोच पर नियंत्रण न रख कर कितनों का अपमान करोगे?
फिर उनकी सर्द आंखो को ईर्ष्या का नाम दोगे?
आँसू कभी ईर्ष्या का सबब नही होते
उसे समझाना भी मुश्किल है अब!
तुम्हारी सारी सोच ज़हरीली हो चुकी है!
पर दोष तुम्हारा नहीं-"धृतराष्ट्र" का है ,
जिसने ‘दुर्योधन’ बनाने मे कोई कसर नही छोड़ी।
यहाँ, एक ‘दुर्योधन’ का होना ही काफी था
जो आज तक हावी है!
ऐसे मे, तुमसे वक़्त की इल्तज़ा है
अब कोई ‘दुर्योधन’ मत बनाना
और आँखो के रहते हुए
’धृतराष्टृ’ की उपाधि मत पाना।
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जन्म- १३ फरवरी, सीतामढी (बिहार)
शैक्षणिक योग्यता - स्नातक ( इतिहास प्रतिष्ठा )
रुचि - कलम और भावनाओं के साथ रहना
"कादम्बिनी" में और कुछ महत्त्वपूर्ण अखबारों में रचनायें प्रकाशित
ब्लॉग : मेरी भावनाएं (www.lifeteacheseverything.blogspot.com)
ई-मेल : rasprabha@gmail.com


लघुकथाएं



दो लघुकथाएं/ बलराम अग्रवाल

गुलमोहर
मकान के बाहर लॉन में सूरज की ओर पीठ किए बैठे जतन बाबू न जाने क्या-क्या सोचते रहते है। मैं लगभग रोजाना ही देखता हूँ कि वह सवेरे कुर्सी को ले आते हैं। कंधों पर शाल डाले, लॉन के किनारे पर खड़े दिन-ब-दिन झरते गुलमोहर की ओर मुँह करके, चुपचाप कुर्सी पर बैठकर वह धूप में सिंकने लगते हैं। कभी भी उनके हाथों में मैंने कोई अखबार या पुस्तक-पत्रिका नहीं देखी। इस तरह निठल्ले बैठे वह कितना वक्त वहाँ बिता देते हैं, नहीं मालूम। बहरहाल, मेरे दफ्तर जाने तक वह वहीं बैठे होते हैं और तेज धूप में भी उठकर अन्दर जाने के मूड में नहीं होते।
“लालाजी,” ऑफिस जाने के सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आया हुआ मैं अपने मकान-मालिक से पूछता हूँ—“वह सामने…”
“वह जतन बाबू है, गुलामी…”
“सो तो मैं जानता हूँ।” लालाजी की तरह ही मैं भी उनका वाक्य बीच में ही लपक लेता हूँ—“मेरा मतलब था कि जतन बाबू रोजाना ही…इस तरह…गुलमोहर के सामने…?”
“वही तो बता रहा हूँ बाबूजी!” सीधी-सादी बातचीत के दौरान भी चापलूस हँसी हँसना लालाजी की आदत में शामिल है। स्वाभानुसार ही खीसें निपोरते-से वह बताते हैं—“गुलामी के दिनों में जतन बाबू ने कितने अफसरान को गोलियों-बमों से उड़ा दिया होगा, कोई बता नहीं सकता। कहते हैं कि गुलमोहर के इस पौधे को जतन बाबू के एक बागी दोस्त ने यह कहकर यहाँ रोपा था कि इस पर आजाद हिन्दुस्तान की खुशहालियाँ फूलेंगी। वक्त की बात बाबूजी, उसी रात अपने चार साथियों के साथ वह पुलिस के बीच घिर गया और…”
“और शहीद हो गया।” लालाजी के वाक्य को पूरा करते हुए मैं बोलता हूँ।
“हाँ बाबूजी। जतन बाबू ने तभी से इस पौधे को अपने बच्चे की तरह सींच-सींचकर वृक्ष बनाया है। खाद, पानी…कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी। खूब हरा-भरा रहता है यह; लेकिन……”
“लेकिन क्या?”
“हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए इतने बरस बीत गए।” चलते-चलते लालाजी रुक जाते हैं—“पता नहीं क्या बात है कि इस पर फूल एक भी नहीं खिला…।”

लड़ाई
दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखा—सामने बैठे नौजवान पर मेरी नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन…बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होता—अपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
“अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त!” मैं उससे बोला।
“गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोश—कोई भी आम-वजह समझ लो।” वह लापरवाह अंदाज में बोला,“तुम सुनाओ।”
“मैं!” मैं हिचका। इस बीच दो ‘नीट’ गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
“है कुछ बताने का मूड?” वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की ‘कैपिसिटी’ थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
“मैं…एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…।” सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया,“लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है…हम तीन भाई हैं…तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले…माँ कई साल पहले गुजर गई थी…और बाप बुढ़ापे और…कमजोरी की वजह से…खाट में पड़ा है…कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को…उसने…पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन…तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का…अपनी मर्जी के मुताबिक…इस्तेमाल नहीं कर सकता…।”
“क्यों?” मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
“बुड्ढा सोचता है कि…हम…तीनों-के-तीनों भाई…बेवकूफ और अय्याश हैं…शराब और जुए में…जाया कर देंगे जायदाद को…।” मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला, “पैसा कमाना…बचाना…और बढ़ाना…पुरखे भी यही करते रहे…न खुद खाया…न बच्चों को खाने-पहनने दिया…बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले…लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को…लेकिन मैं…मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ…”
“तू…ऽ…” मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा, “बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।”
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर मैं उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे मैंने उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को मैंने बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
“कैसे हो?” आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
“ये पट्टियाँ…?” दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
“इसीलिए पीने से रोकती हूँ मैं।” वह बोली, “ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा…रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता…पता है?”
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
“वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…।” मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।
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जन्म: 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
पुस्तकें : सरसों के फूल(1994), दूसरा भीम(1997), जुबैदा(2004), चन्ना चरनदास(2004), संस्कृत नाट्य:चिन्तन परम्परा और समाज (अप्रकाशित), समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन (अप्रकाशित)।
सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997) के अतिरिक्त प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की कहानियों के लगभग 15 कहानी-संकलनों एवं ‘वर्तमान जनगाथा’ सहित कुछेक पत्रिकाओं का संपादन/अतिथि संपादन। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। 1997 से हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्ट ब्लेयर(अण्डमान-निकोबार द्वीप-समूह) की पत्रिका ‘द्वीप लहरी’ के संपादन में सहयोग। कुछेक कहानियों का अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। हिन्दी फीचर फिल्म ‘पोस्टर’(1983) व ‘कोख’(1992) के संवाद-लेखन में सहयोग। हिन्दी ब्लॉग जनगाथा(Link:http://www.jangatha.blogspot.com), कथायात्रा(Link: http://kathayatra.blogspot.com) एवं लघुकथा-वार्ता(Link: http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com) का संपादन/संचालन।
सम्प्रति : अध्ययन और लेखन।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 (भारत)
दूरभाष : 011-22323249 मो0 : 09968094431
ई-मेल :
2611ableram@gmail.com

पंजाबी कहानी




बूँद बूँद कहानी
जतिंदर सिंह हांस

अनुवाद: सुभाष नीरव

''...भाई साहब, यह न समझना, मैं दारू के घूंट पर मर जाने वाला टुच्चा बंदा हूँ। मैं तो पूरा जट्ट हूँ। इस ढाबे पर मेरी ही दारू चलती है। दारू मैं फन्ने बनाता हूँ। आग ऐसी लगती है जैसे पट्रोल को लगती है। पंजाबी भाइयों के लिए तो मैं लंगर लगाये रखता हूँ। यहाँ आज भी मेरी ही दारू चलनी थी, पर अब थोड़े दिनों से बाजी उलटी पड़ी हुई है। सारी दुनिया मुँह फेर गयी। बस जी, अब तो रस्सियों के साँप बन रहे हैं। महिगल गंज वाले थाने का दरोगा, जब मैं हाथ झाड़ता था तो कुत्ते की तरह पूंछ हिलाता था। अब वो रस्सी भी साँप बनी बैठी है। साब, ये यू.पी. बड़ी कसूती(टेढ़ी चीज) है।''
''वो परे बैठा जो डरैवर दारू पी रहा है, मैं उसके पास चला गया कि भई देस से आया है। देस का हालचाल पूछ लूँ। वह मुझे उल्टा पड़ गया, बोला- जा ओए टुच्चे, दारू देखकर राल टपकाने लगा।''
''पकड़ लेना था गिरेबान से।''
''ना जी, हम नहीं गुस्सा करते। जो मन्दा बोलेगा, खुद उसका मुँह गन्दा होगा।... भाई साहब, मैं कोई मलंग नहीं, ना ही दारू की बूँद पर मर जाने वाला भड़भूजा। मैंने तो दस हजार रुपया यूँ ही फूँक दिया एक जनानी पर। रही वो मेरे पास दसेक रातें। वैसे, मैं भी दुनिया को कहने लायक हो गया कि मेरे भी जनानी थी।''
''फिर तो एक हजार रुपये में एक रात पड़ गयी।''
''आपकी बात ठीक है, हजार रुपये में रात पड़ गयी। वैसे हजार में भी कहाँ पड़ी, जब आपको असली बात का पता लगेगा, आप कहोगे- सुखिया, तू तो बिलकुल ही लुट गया। पहले ये बताओ, जो बंदा हजार रुपया एक रात का फूँक सकता है, वह टुच्चा बंदा हो सकता है ?''
''न, बिलकुल नहीं।''
''वो ढाबे की दीवार पर देखते हो, फिल्मों में काम करने वाली औरत की फोटो। वो तो जी मेरी औरत के सामने कुछ भी नहीं। भाई साब, हम झूठ नहीं बोलते, गांजा भी पिया है, दारू आपने खुद पिलायी है, फिर भी बिलकुल सूफी हूँ। पर मेरी औरत इतनी सुन्दर थी कि उसे देखकर ही नशा हो जाता था।''
''अच्छा !''
''जिस पर मैंने दस हजार रुपया फूँका, वो मेरी ही औरत थी। बेड़ा गर्क हो गया लोगों की पत्थर-पाड़ नज़रों का और साथ में बीबी(माँ) का। तुमने वो बात सुनी है, साँपिन अपने बच्चे खुद ही खा जाती है। मैंने तो जी खाते हुए देखी है।''
''ओए काका पानी लाना।''
''ना जी ना, आप मुंडू को हांक न मारो। पानी मैं लेकर आता हूँ, बर्फ़ डलवा कर। आप हो हमारे मेहमान, मुझे करनी है आपकी सेवा। और क्या इन भइयों ने सेवा करनी है ?''
''...ये लो सलाद, और ये बर्फ़ वाला पानी। इस ढाबे वाले तो हमको बाप की तरह मानते हैं। जब कोई पंजाबी मिलता है तो मुझे चाव चढ़ जाता है, जैसे किसी रिश्तेदार से मिलने पर चढ़ता है।''
''फिर तेरा दस हजार रुपया कुएँ में ही गया ?''
''वही बात बताने लगा हूँ जी... ऐसे नहीं आपकी समझ में आने वाली, शुरू से बताता हूँ।''
''डाल ले फिर बूँद-बूँद, ज्यादा न डालना। इसका कौन-सा कोई लालच है।''
''नाम है भाई साहब मेरा- सुक्खा। सुक्खा यानी भांग। दुनिया में हर तरफ मिल जाता है सुक्खा, चाहे यू.पी. चाहे पंजाब। आप कौन-सा अनजान हो, ट्रकों के मालिक हो, दुनिया घूम रखी है आपने...। सुक्खे से जो सुख मिलता है, दूसरी किसी चीज से नहीं मिलता। इसके पत्तों को हाथ से मलो, बत्तियाँ उतारो, बन जाता है बढ़िया गांजा। गांजा बड़ा राजा नशा है। दरख्त के पत्तों की चिलम बनाओ। बीड़ी के तम्बाकू में गांजा मिलाकर सुट्टा मारो। स्वर्ग दिखता है, स्वर्ग ! जब इंदिरा का कत्ल हुआ, तब जट्ट और झाले (पंजाबियों के घर) के पास पचास बूटे सुक्खे के खड़े थे। देहाती, पंजाबियों के घर लूटने लगे। हम अपनी जानें बचा कर भाग खड़े हुए। और तो जो उन्होंने लूटना था, लूटा, मेरे साले मेरा सुक्खा भी काटकर ले गए। भाई साहब, ये यू.पी. बड़ी कसूती है। इंदिरा को मारा किसी ने, सुक्खा मेरा काटकर ले गए।... वैसे क्यों मारनी थी औरत, किसी का घर ही बसाती।''
''वो तो बहुत बड़ी औरत थी।''
''अच्छा जी, फिर भी किसी का बसता घर क्यों उजाड़ना था।''
''... ये जो लोग औरतों को मारते हैं, ये लेने-देने के पीछे, मुझे तो ज़हर लगते हैं। अगर मैं दुनिया का राजा होऊँ, औरत मारने वालों को खुरचने गरम कर-कर के लगाऊँ हाथों पर। पूछूं, भाई सालो, इन्हीं हाथों से ही मारा ? फिर दूसरे तसीहे (यंत्रणाएं) दे-देकर खत्म कर दूँ। भाई साहब, मैंने तो औरत पर एक बार हाथ उठाया था। उसी पाप का मारा हुआ हूँ। आज तक औरत नसीब नहीं हुई।''
''अभी तो कहता था, मैंने अपनी औरत पर दस हज़ार फूंका है।''
''वह भी बताता हूँ भाई साहब, पहले पाप वाली बात तो सुन लो।''
''बचपन में मैंने बड़ा राज भोगा। सारे परिवार का लाड़ला था। तीन-चार जमातें पढ़ा। पढ़ा भी क्या था, बस यों ही स्कूल फेरा लगाने चला जाता झोला उठाकर। कभी किसी से तख्ती लिखा लेता, कभी किसी से। आता मुझे कुछ भी नहीं था। एक दिन मास्टर ने हमारे गाँव वाले जागर की लड़की को कछुए और खरगोश की कहानी पढ़ने पर लगा दिया। खुद कमरे में जाकर, कुर्सियाँ जोड़ कर, पंखा चला कर आराम से सो गया। जागर की लड़की कहानी पढ़कर कहने लगी, इस कहानी का यह सार निकलता है -कुछए ने नारा मारा कि जिसने अंहकार किया, वही मारा गया। मुझे बड़ा गुस्सा आया। नारा हमारे बापू का नाम है जी। मैंने उसे कहा, कछुए ने नारा-नूरा कुछ नहीं मारा। कछुए ने जागर मारा। मैंने तख्ती मारकर उसका सिर फाड़ दिया। मेरी स्कूल से छुट्टी हो गयी। इसी श्राप ने मुझे मार लिया।''
''पंजाब में कौन-सा गाँव है तेरा ?''
''गाँव भी बताता हूँ भाई साहब, डाल लो बूँद-बूँद। किसी महापुरुष ने कहा है- जब तक जी, जी भरकर पी। जब उड़ गया जी, फिर कौन कहेगा पी।''
''पीछा हमारा है खानपुर का, लुधियाने के पास। परिवार बड़ा तगड़ा था। चाचा-ताऊ अभी भी उधर ही हैं। घर अभी पंजाब में हैं, वह हमने बेचा नहीं। परिवार इकट्ठा था, ट्रैक्टर था हमारे पास। मैंने कभी काम को हाथ लगाकर नहीं देखा था। अलग होने को बापू ने ही पहल की थी। अपने भाइयों से बोला- तुम लोग चोरी-चोरी पैसा इकट्ठा किये जाते हो, मेरे बच्चों का कुछ बनता नहीं। बंटवारा होने पर तीन किल्ले ज़मीन हाथ आयी, दो कमरो का घर। मुरब्बा जोतने वालों को तीन किल्ले यों लगे मानो किसी को महलों में से निकालकर मोटर (टयूबवैल) वाले कमरे में बन्द कर दें। हम दोनों भाई ब्याहने वाले, कोई देखने नहीं आता था। अगर आता तो घर तक न पहुँच पाता। लोग भाजी मार देते कि ज़मीन कम है, लड़के अनपढ़ हैं। अपने लोग भी साले उलटे हैं। लड़की वहाँ देंगे जो लेन-देन के कारण तंग करे, जो मेरे जैसा औरत के पैर धो-धो कर पीने को फिरे, वहाँ नहीं देते। बापू बैलों से खेती करता तो लोग हँसी उड़ाते। उसके भाई ताने मार-मार कर जीने न देते, कहते, ''अलग होकर शाह बन गया।'' बापू कहता, ''शाह बनकर दिखाऊँगा।'' हमने गाँव की ज़मीन बेच कर यहाँ ले ली यू.पी. में। ये महिगल गंज से तीनेक मील दूर, औरंगाबाद वाली सड़क पर। जैसा कि कहा करते हैं- चाहे सिरहाने पड़ जा, चाहे पैताने, बीच में ही आएंगे। जो फसल पंजाब में तीन किल्लों में निकलती थी, यहाँ सात किल्लों में निकलती है। फिर इंदिरा मरी तो देहाती हमारे बर्तन-औजार लूट कर ले गये। तभी तो मैं कहता हूँ- ये यू.पी. बड़ी कसूती है।''
''पंजाब भी बहुत खराब है।''
''हाँ, जी है पंजाब भी खराब, पर यहाँ अगर गांजा, तम्बाकू और दारू न हो तो बंदा शाम को मर जाए। ये डाल लो दो-दो बूँद। साला हलक-सा सूख गया। भाई साब, कहते हैं- राम के वक्त दूध था, कृष्ण के वक्त घी। आजकल तो दारू है, जी भरके पी। वैसे भाई साब, दारू तो राम के समय भी होती होगी, नहीं तो चौदह साल जंगलों में बनवास काटना कौन-सा आसान है। पर एक बात है, औरत उसकी साथ थी। औरत साथ हो तो आदमी नरकों में भी रह सकता है। ये यू.पी. भी साली बनवास है निरा।''
''...भाई साब, मुझे सब पता है, कैसे रात-रात भर जाग कर पैसा बनाते हो। मेरा छोटा भाई भी ट्रक चलाता है। औरत उसे भी नहीं नसीब हुई, पर वह पट्ठू सीतापुर बाजार में चक्कर लगा आता है। एक-दो बार मुझे भी लेकर गया। मैंने उससे कहा- छोटे भाई, मैं तेरा कर्जा कैसे उतारुँगा, यह तो स्वर्ग में ले आया तू। आप यकीन नहीं करोगे, यहाँ हम औरतों को तरसते हैं, वहाँ औरतें हांकें मारती हैं।... पर आप कौन-सा भूले हो। दुनिया घूमी है।''
''दुनिया घूमने को हम क्या ऐसी-वैसी जगह फिरते हैं ?''
''आप तो जी यूँ ही गुस्सा कर गये, मैं ये कहाँ कहता हूँ कि आप खराब जगह जाते हो। और वह तो खराब जगह हो ही नहीं सकती। खराब जगह तो हमारा घर है, जहाँ औरत को तरसते हैं। हम तो दूसरे ही रास्ते पड़ गये। अभी तो बोतल भी पूरी नहीं हुई। इस दुनिया से कुछ लेकर नहीं जाना। यहीं है जो खा-पी जाना है। पिछले दिनों हमारी बुढ़िया जाने वाली थी। बहुत ही बीमार हो गयी। कभी तो यूँ लगे भई अब नहीं बचेगी। मैंने कहा- बीबी, आज जो तेरी बहू होती तो सेवा करती... अब मर हड्डियाँ रगड़-रगड़ कर। एक तो बैठे बड़ी खराब जगह हैं। कोई नाते-रिश्तेदार नहीं। कोस-कोस तक कोई घर नहीं। यहाँ तो भाई साब, अगर औरत को देखने को दिल करे तो महिगलगंज आना पड़ता है। सबब से पंजाब में पता लग गया। चाचा-चाची खबर लेने आ गये। वैसे खबर भी कैसी लेने आये थे, हमारे खानपुर वाले घर की चाबी लेने आये थे कि हम इस्तेमाल करेंगे। चाची बड़े-बड़े गपोड़े मारती रही, कहती- भैण जी, तू तो बिलकुल ही बीत गयी। पंजाब चल, वहाँ तेरा इलाज करवायेंगे। यहाँ डाक्टर नहीं अच्छे, बीड़ियाँ पीने वाले। साथ ही, आँखों का इलाज करवा। अगर आँखों से रह गयी तो कोई नहीं पूछेगा। बंदा तभी तक जिंदा रहे जब तक अपनी क्रिया आप कर सके। परमात्मा किसी के आसरे तो डाले ना।''
चाचा बोला- आँखों का इलाज ज़रूर करवा। खर्चा मैं करुँगा। आँखों की कीमत अंधा आदमी ही जान सकता है। खन्ना शहर में बस-अड्डे पर एक बंदा यह कहकर भीख मांगा करता है- आँखों वालो, आँखें बड़ी नियामत चीज हैं।''
''मैंने मन में कहा -ये सब बातें ही हैं। किसने इसका इलाज करवाना है। तुम चाबी लेने आए हो, चाबी लेकर रास्ता पकड़ लोगे। यूँ ही मीठा बोल कर ठगने वाले...।''
''एक रात मैं अंधेरा होने के बाद महिगलगंज से घर लौटा। इसी ढाबे पर दारू बेच कर गया था। एक कमरे में बीमार बीवी के पास बापू पड़ा था। दूसरे कमरे में चाचा-चाची। मैं बाहर पड़ी चारपाई पर पड़ गया। दारू और गांजे के नशे में डूबा, पर मुझे नींद न आवे। मन में आता रहा, सुक्खे अगर आज तेरी बीवी होती, तू भी कहीं उसे लिए पड़ा होता। चाचा वाले कमरे से अजीब-सी आवाजें आती रहीं। बहू-बूटों के पास सोने वालों को आज मुश्किल से मौका मिला था। मैं कानों में उंगलियाँ ठूँसे पड़ा रहा। पता नहीं, मुझे क्या हो रहा था। दिल करे कि खन्ने वाले अंधे की तरह शोर मचा कर कहूँ- औरतों वालो, औरतें बड़ी नियामत चीज हैं। अपने आप से कहा- सुक्खे, कल सीतापुर बाजार में चक्कर लगा आ। पर दूसरे दिन और ही पंगा पड़ गया। माँ ज्यादा ही बीमार हो गयी। बापू और चाचा उसे लेकर डाक्टर के पास महिगलगंज चले गये। मुझे घर में रुकना पड़ गया। मेरे दिमाग में कुछ चढ़ता रहा, कान सुन्न होते रहे। चाची काम खत्म करके सोई पड़ी थी। उसे देखकर रात वाली अजीब-सी आवाजें कानों में गूंजने लगीं। सिर में बजने लगीं। मेरी चारपाई घूमने लगी। मुझे लगा, मानो मैं जाकर उसकी चारपाई पर पड़ गया होऊँ। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी, लगी मुझे गालियाँ निकालने। कहने लगी- ''मरजाणे सुक्खे, मैंने तुझे अपने हाथों में पाला। अभी तो मेरे नाखूनों से तेरा गूं भी नहीं निकला। तू एकदम ही गरक गया।'' मेरा तो जी रोना निकल गया। रोना सुनकर चाची चारपाई से उठकर मेरे पास आई, पूछा- क्या हुआ रे सुक्खे ?''
मैं तो बिलख उठा। मैंने कहा, ''चाची, ये यू.पी. बड़ी कसूती है। हुआ तो कुछ नहीं, पर हो बहुत कुछ जाने वाला था।''
''तू तो बड़ा पापी है।''
''पापी का एक और मतलब है- पा और पी यानी डालो और पिओ। फिर डाल लो जी बूँद-बूँद।''
''फिर, बुढ़िया चल बसी ?''
''कहाँ मरी है जी, अगर मर जाती तो अच्छा था, तड़पती ना। मुझे कहा करती थी- रे सुक्खे, मेरा तुम्हारे सिरों से पानी वार कर पीने को जी करता है। रे कुत्ते, अगर चार अक्खर तुम्हारे पेट में होते या तुम्हारे बाप के पास चार पैसे ज्यादा होते, आज छड़े-छड़ांक न होते। मैंने कहा- चल बीबी, मेरे पेट में तो कोई अक्खर है नहीं, छोटा तो अक्खरों से गले तक भरा हुआ है। सात जमातें पास है। उसका ब्याह कर ले। वैसे, भाई साब, बात अक्खरों की भी नहीं होती, बात किस्मत की होती है। मैंने दो पैसे के आदमी परियों जैसी औरतें लिये देखे हैं। मेरी बुरी आदत है, ऐरे -गैरे के साथ हाथ मिलाते रहने की। कुछ काम करते हुए लकीरें मिट गयीं, कुछ हाथ मिला-मिलाकर कर मिटा लीं। ब्याह वाली रेखा बिलकुल ही मिट गयी। एक दिन चाकू लेकर, जहाँ पंडित ने बताया था कि यहाँ विवाह वाली रेखा होती है, वहाँ बड़ा-सा चीरा मार लिया। बापू से कहा- बापू, ये यू.पी. बड़ी कसूती है, पास में पैसा हो तो चाहे शाम को ही औरत ले आएं। मैंने एक बंदे से बात कर ली है। लड़कियाँ हैं दो। बड़ी जो तेरी बहू बन जाएगी, वो है दस हज़ार की, छोटी पांच हज़ार की है।''
''पंजाब से शाह बनने आया बापू मेरी बातें सुनता रहा। दरगाह के चौकीदार की तरह देखता रहा। मैंने उसे कहा- शाह जी, पैसों का इन्तज़ाम करो अगर बहू वाला बनना है। नहीं तो दूसरा कुआँ खोदता हूँ...।''
''वह बोला- छोटे लड़के और मेरे हिस्से की ज़मीन की ओर तो झांकना मत। तेरे हिस्से की गिरवी रख देते हैं, जो चाहे कर।''
माँ की 'खानदानी -खानदानी' वाली रट मैंने सुनी ही नहीं। मेरे हिस्से की ज़मीन गिरवी रखकर शाहजहांपुर से पाँच हजार वाली औरत ले आए।''
''तू तो कहता था, दस हज़ार खर्च किया ?''
''रुपया दस हज़ार ही लगा भाई साब। वह भी बताता हूँ, डाल लो बूँद-बूँद। एक बात है, बंदे का जी दारू और औरत से भरता नहीं।''
''औरत लाई थी पहले तोड़ की बोतल जैसी। लोगों के कलेजे फुंक गए। सालों ने दरोगा को जा बताया, और क्या दरोगा को खुशबू आती थी ! दरोगा ने बापू को पकड़ लिया। बोला, तुम वो लड़की ब्याह लाये जिसकी अभी ब्याह की उम्र ही नहीं।''
''बापू ने और ज़मीन गिरवी रखकर पाँच हज़ार दरोगा को दिया, तब कहीं जाकर छुटकारा मिला। मैंने माँ से कहा- बीबी, यह यू.पी. बड़ी कसूती है। मैं इसे पंजाब लेकर जाता हूँ। वह भी तैयार हो गयी जैसे वह सरबाला हो।''
''हम खानपुर चले गए। माँ उसकी ऐसे रखवाली करती जैसे किसान फसल की करता है। उसके साथ ही सोती थी। अगर मैं बहाने-बेबहाने करीब जाता तो तुरन्त पास आकर खड़ी हो जाती। मुझे बात ही न करने देती। पूरी निगाह रखती। मुझ खीझे हुए के मन से बद्दुआएँ निकलती रहतीं। कितना अच्छा होता, माँ अगर तू आँख से अंधी हो जाती।''
''एक दिन पगड़ी बांधते समय मैंने ध्यान से देखा। आधा सिर धौला हुआ पड़ा था। बुढ़ापा तेजी से करीब आ रहा था। अगर साल-छमाही इन्तज़ार करता रहा तो तब तक मर मरा जाऊँगा। बूढ़ी कुड़क मुर्गी की तरह पंखों के नीचे मेरी औरत को छिपाये रखती। मैंने सोचा, कोई तरकीब सोचनी पड़ेगी। चाची जो यू.पी. गयी थी, उसके संग माँ का अच्छा सखीपना था। चाची का स्वभाव थोड़ा लालची है जी। रोज की तरह मैंने चाचा के साथ पशुओं के लिए हरा चारा कटवाया। लौटते समय किसी के खेत में से कद्दू तोड़ लाया। चाची की खाट पर कद्दू रखे। खुद धरती पर बैठ गया।
चाची बोली, ''नीचे क्यों बैठता है, सुख में ?''
मैंने कहा, ''सुख कहाँ है चाची, देख ले बूढ़ी की करतूतें। बीवी मेरी है कि उसकी।''
चाची मेरी बात का जवाब देने के बजाय कद्दुओं की तरफ देखने लगी। मैंने सोचा था, सब्जी देखकर खुश होगी। मेरे हक में माँ से बात करेगी।
वह छोटे-छोटे कद्दू उठाकर कहने लगी, ''रे सुक्खे, तू तो बिलकुल ही बर्बाद हो गया। ये छोटे-छोटे चूएं(कच्चे छोटे फल) तोड़ लाया, इनका तो पाप ही मार देगा... इक कद्दु की बुरकी लायक सब्जी नहीं बनेगी। बेटा, चूआं तोड़ना तो बहुत ही बुरा है।''
मैं औरत की बात करता रहा, वह कद्दुओं की बात करती रही। सोचा- सुक्खा सिंह, यह भी बूढ़ी के साथ मिली हुई है। अपना मुँह खुद ही धोना पड़ेगा।
एक दिन मैंने अवसर पाकर अन्दर से कुंडा लगा लिया। वह रोने लगी। मेरा उठना-बैठना आप जैसे सयाने बंदों के साथ था। उनसे सुन रखा था कि औरत का रोना यों ही चलित्तर होता है। अगर वह ना-ना करे तो असल में उसकी हाँ-हाँ होती है। उसका रोना सुनकर बाहर भीड़ जमा हो गयी। लोग दरवाजा खटखटाने लगे और हांकें मारने लगे। मैंने कहा, कुंडा मैं भी नहीं खोलने वाला। वे चौखट उखाड़ कर अन्दर आ गये। माँ ने तड़ाक से मेरे थप्पड़ दे मारा। ये तो थी जी मेरी सुहाग रात ! रात को पता नहीं उसे धरती खा गयी। कोना-कोना खोज मारा, पता नहीं चला कहाँ चली गयी। चित्त करे, माँ का सिर फोड़ दूँ, जिसने 'बच्ची है', 'बच्ची है' कहकर औरत हाथ से निकाल दी। चलो जी, डाल लो फिर बूँद-बूँद।''
''वो जो मुंडू घूम रहा है, आठ-नौ बरस का, इतनी थी ?''
''इससे बस कुछ ही बड़ी होगी।''
''तू तो सचमुच ही टुच्चा है। चल उठ...।''
''जाता हूँ जी, जाता हूँ... आपकी चीज है, अपना कौन-सा जोर है। वैसे अगर दो-एक बूँदें डाल देते तो रोटी लायक... ।''
''उठता है कि नहीं, साला महानंद का....।''
''जाता हूँ जी... जाता हूँ... ये यू.पी. बड़ी...।''

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संपर्क : गाँव-अलूना तोला,
पोस्ट आफिस-अलूना पल्लाह
जिला-लुधियाना(पंजाब)-141414

भाषांतर



धारावाहिक रूसी उपन्यास(किस्त-10)

हाजी मुराद
लियो तोलस्तोय
हिन्दी अनुवाद : रूपसिंह चंदेल

॥ दस ॥

अगले दिन जब हाजी मुराद को वोरोन्त्सोव के पास लाया गया, प्रिन्स का प्रतीक्षा-कक्ष लोगों से खचाखच भरा हुआ था। खुरदरी मूंछोंवाला जनरल पूरी फौजी ड्रैस और तमगे धारण किये हुए, छुट्टी मंजूर करवाने के लिए वहाँ उपस्थित था। एक रेजीमेण्टल कमाण्डर वहाँ था, जिसे रेजीमेण्ट की सप्लाई के दुरुपयोग के लिए अभियोग की चेतावनी मिली हुई थी। डाक्टर आन्द्रेयेवस्की का संरक्षण प्राप्त एक धनी आर्मेनियन वहाँ उपस्थित था, जिसका वोद्का के व्यवसाय में एकाधिकार था और वह अपने अनुबंध का नवीनीकरण करवाना चाहता था। युद्ध में मारे गये एक अधिकारी की पत्नी बच्चों के पालन-पोषण के लिए अपनी पेंशन अथवा राज्य के वित्तीय भत्ते के लिए आयी हुई थी। भव्य जार्जियन वेशभूषा में, जार्जिया का एक बरबाद हो चुका प्रिन्स वहाँ था जो चर्च की खाली सम्पत्ति पर कब्जा चाहता था। काकेशस पर विजय प्राप्त करने के लिए नयी योजना वाले कागजातों का बड़ा पुलिन्दा थामे एक पुलिस अधिकारी भी वहाँ था। इनके अतिरिक्त एक स्थानीय खान वहाँ था जो केवल इसलिए आया था कि वह अपने लोगों के बीच यह बता सके कि प्रिन्स ने किस प्रकार उसका स्वागत किया था।
वे सभी अपने अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे और सुन्दर बालों वाले खूबसूरत युवा परिसहायक द्वारा एक के बाद दूसरा प्रिन्स की स्टडी में भेजे जा रहे थे।
जब हाजी मुराद ने हल्की लंगड़ाहट के साथ प्रतीक्षा कक्ष में प्रवेश किया, सभी की आँखें उसकी ओर घूम गयीं और कक्ष के विभिन्न कोनों से अपने नाम की फुसफुसाहट उसे सुनाई दी थी।
हाजी मुराद ने सुन्दर चाँदी का गोटा लगे खाकी कपड़े पर लंबा सफेद टयूनिक पहना हुआ था। उसकी पतलून और चुस्त-दुरस्त जुराबें काली थीं, और उसने पगड़ी के साथ फर का टोप पहना हुआ था -जिस पगड़ी को पहनने के कारण उसे अहमद खां द्वारा अपमानित और जनरल क्लूगेनाऊ द्वारा गिरफ्तार किया गया था, और वही शमील से उसके मिलने का कारण बना था। हल्की लंगड़ाहट के साथ छोटी टांग पर अपने छरहरे शरीर को झुलाता हुआ हाजी मुराद तेजी से प्रतीक्षा कक्ष की फर्श पर चल रहा था। उसकी बड़ी आँखें शांतिपूर्वक सामने की ओर देख रहीं थीं और किसी को भी न देखने का आभास दे रही थीं।
खूबसूरत सहायक ने उसका स्वागत किया और तब तक बैठ जाने की प्रार्थना की जब तक वह प्रिन्स के पास जाने के लिए उसे नहीं पुकारता। लेकिन हाजी मुराद ने बैठने से इंकार कर दिया। उसने कटार पर अपना हाथ रखा और एक पैर आगे बढ़ाकर वहाँ एकत्रित लोगों का तिरस्कारपूर्वक पर्यवेक्षण करता हुआ खड़ा रहा।
एक दुभाषिया, प्रिन्स तर्खानोव हाजी मुराद के पास आया और उसे वार्तालाप में व्यस्त कर लिया। हाजी मुराद ने अनिच्छापूर्वक और एकाएक उत्तर दिए। एक कुमिक प्रिन्स, जिसने पुलिस अधिकारी के विरुद्ध शिकायत की थी, स्टडी से बाहर आया, और उसके पश्चात् सहायक ने हाजी मुराद को बुलाया और अंदर का मार्ग दिखाने के लिए स्टडी के दरवाजे तक उसके साथ गया।
वोरोन्त्सोव ने मेज के पास खड़े होकर हाजी मुराद का स्वागत किया। वृद्ध सुप्रीम कमाण्डर का गोरा चेहरा पिछले दिन जैसा मुस्कराहट भरा नहीं था, बल्कि कठोर और गंभीर था।
बड़ी मेज और हरे रंग की बड़ी बंद खिड़कियों वाले विशाल कमरे में प्रवेश करते ही हाजी मुराद ने धूप से झुलसे अपने छोटे हाथों को छाती पर रखा जहाँ सफेद टयूनिक की तहें एक दूसरे को काटती थीं; और, ऑंखे झुकाकर कुमिक भाषा में, जिसे वह भलीभाँति बोल सकता था, धीरे-धीरे, स्पष्ट और सम्मानपूर्वक बोला।
''महान जार और आपके उदात्त संरक्षण के लिए मैंने अपना आत्म-समर्पण किया है। मैं खून की आखिरी बूंद तक बा-एतेमाद (निष्ठापूर्वक) गोरे जार की सेवा करने का वचन देता हँ और आपके और मेरे दुश्मन शमील के खिलाफ लड़ाई में फायदामंद होने की उम्मीद करता हँ।''
दुभाषिये को सुन लेने के बाद वोरोन्त्सोव ने हाजी मुराद की ओर, और हाजी मुराद ने वोरोन्त्सोव की ओर देखा।
दोनों की आँखें एक-दूसरे से मिलीं और आँखों ने एक दूसरे से बहुत कुछ कह दिया, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता था और न ही बिल्कुल वैसा जैसा दुभाषिये ने कहा था। उन्होंनें बिना शब्दों के पूर्ण सत्य सीधे एक दूसरे को अभिव्यक्त कर दिया था। वोरोन्त्सोव की आँखों ने कहा कि वह हाजी मुराद के कहे एक भी शब्द पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि वह जानता था कि वह रूसियों के सब कुछ का शत्रु था, और सदैव रहेगा, और वह केवल इसलिए इस समय आत्म-समर्पण कर रहा है क्योंकि ऐसा करने के लिए वह बाध्य था। हाजी मुराद ने यह समझ लिया, फिर भी उसने उसे अपनी निष्ठा का पूर्ण आश्वासन दिया। हाजी मुराद की आँखों ने कहा कि वोरोन्त्सोव जैसा बूढ़ा आदमी मृत्यु के विषय में सोच रहा होगा, न कि युद्ध के विषय में। हालांकि अगला बूढ़ा हो चुका था, फिर भी वह धूर्त था, और उसे उससे सतर्क रहना आवश्यक था। और वोरोन्त्सोव ने यह सब समझा, फिर भी उसने हाजी मुराद को बताया कि युद्ध की सफलता के लिए वह क्या आवश्यक समझता था।
''उससे कहो'' वोरोन्त्सोव ने लापरवाही से नौजवान दुभाषिये से कहा, ''कि हमारे सम्राट उतने ही दयालु हैं जितने कि वह शक्तिशाली हैं और पूरी संभावना है, कि मेरे अनुरोध पर, वे उसे क्षमा कर देगें और उसे अपनी सेवा में अंगीकर कर लेगें। तुमने अनुवाद कर दिया।'' हाजी मुराद की ओर देखते हुए उसने पूछा। ''जब तक मैं अपने स्वामी का कृपापूर्ण निर्णय प्राप्त करूं, उससे कहो, उस समय तक उसके स्वागत और उसे अपने साथ ठहाराने की व्यवस्था की जिम्मेदारी मेरी होगी। यह उसे स्वीकार्य है।''
हाज़ी मुराद ने एक बार पुन: हाथ अपने वक्षस्थल पर रखा और सोत्साह बोलना प्रारंभ किया।
उसने कहा, जैसा कि दुभाषिये ने वर्णन किया, कि 1839 में, जब वह आवेरिया में शासन करता था, उसने निष्ठापूर्वक रूसियों की सेवा की थी और उन्हें कभी धोखा नहीं दिया था लेकिन उसके शत्रु अहमद खाँ ने, जो उसके पतन का षडयंत्र करना चाहता था, जनरल क्लूगेनाऊ से उसके विषय में निन्दात्मक बातें कही थीं।
''हाँ, मैं जानता हँ'' वोरोन्त्सोव ने कहा ( हालांकि यदि वह जानता भी था, तो वह उसे बहुत पहले भूल चुका था ) ''मैं जानता हँ,'' बैठते हुए उसने कहा और दीवार के पास पड़े दीवान की ओर संकेत करते हुए हाजी मुराद से बैठने के लिए कहा। लेकिन हाजी मुराद बैठा नहीं। अपने मजबूत कंधों को उचका कर उसने संकेत दिया कि इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति की उपस्थिति में वह बैठना नहीं चाहता। वह पुन: बोला :
''अहमद खाँ और शमील, दोनों मेरे शत्रु हैं,'' दुभाषिये को संबोधित करते हुए उसने कहना जारी रखा। ''प्रिन्स को बता दो कि अहमद खाँ मर चुका है और मैं उससे प्रतिशोध नहीं ले सका, लेकिन शमील अभी भी जीवित है, और जब तक मैं उससे बदला नहीं चुका लेता, मैं मरूंगा नहीं,'' त्यौरियाँ चढ़ा और दांतों को भींचते हुए वह बोला।
''ठीक है '' वोरोन्त्सोव शांतिपूर्वक बोला, ''शमील से वह किस प्रकार बदला चुकाना चाहता है ?'' दुभाषिये से उसने कहा, ''और उससे कहो कि वह बैठ जाये।''
हाजी मुराद ने पुन: बैठने से इंकार कर दिया, और प्रश्न का उत्तर यह कहते हुए दिया कि वह रूसियों के पास शमील को नष्ट करने में उनकी सहायता करने के लिए आया है।
''अच्छा, अच्छा,'' वोरोन्त्सोव बोला, ''वास्तव में वह करना क्या चाहता है ? बैठ जाइये, बैठ जाइये...।''
हाजी मुराद बैठ गया और बोला कि यदि वे उसे लेज्गियन मोर्चे पर भेजें और उसे सेना दें तो वह इस बात की गारण्टी देता है कि वह सम्पूर्ण डागेस्तान पर अधिकार कर लेगा और तब शमील वहाँ डटे रहने में असमर्थ हो जाएगा।''
''यह अच्छा है। यह संभव है,'' वोरोन्त्सोव ने कहा, ''मैं इस पर विचार करूगा।''
दुभाषिये ने वोरोन्त्सोव के शब्दों का हाजी मुराद के लिए अनुवाद किया। हाजी मुराद क्षणभर तक सोचता रहा।
''सरदार को बताएं,'' उसने कहा, '''कि मेरा परिवार मेरे शत्रु के हाथों में है, और जब तक मेरा परिवार पहाड़ों में है, मैं बंधा हुआ हँ और मैं सेवा नहीं कर सकता। यदि मैं उस पर सीधे आक्रमण करता हूँ तो वह मेरी पत्नी, मेरी माँ ओर मेरे बच्चों को मार देगा। युद्ध- बन्दियों के बदले में प्रिन्स मेरे परिवार को मुक्त करा लें, और तब मैं या तो शमील को उखाड़ फेकूंगा या मर जाऊँगा।''
''अच्छा, अच्छा,'' वोरोन्त्सोंव बोला, ''हम इस विषय में सोचेगें। अब उसे सेनाध्यक्ष के पास ले जाओ और उसे विस्तार से उसकी स्थिति, उसकी योजनाओं और उम्मीदों के विषय में बताओ।''
इस प्रकार वोरोन्त्सोव के साथ हाजी मुराद का पहला साक्षात्कार समाप्त हुआ।

उसी शाम एशियाई ढंग से नव-सज्जित थियेटर में इटैलियन ओपेरा का एक प्रदर्शन था। वोरोन्त्सोव बॉक्स में बैठा हुआ था। सिर पर पगड़ी के ऊपर टोप पहने हाजी मुराद की लंगड़ाती स्पष्ट आकृति नाटयशाला में प्रकट हुई। वोरोन्त्सोव द्वारा उसके साथ सम्बद्ध किया गया एक सहायक, लोरिस-मेलीकोव के साथ वह प्रविष्ट हुआ और आगे की पंक्ति में सीट ग्रहण कर बैठ गया। वह प्राच्य मुस्लिम गौरव को प्रदर्शित करने वाले प्रथम दृश्य तक बैठा रहा। उसने आश्चर्य का कोई भाव व्यक्त नहीं किया, बल्कि एक प्रकार से वह उदासीन-सा बैठा रहा। फिर वह उठा, दर्शकों पर शांत दृष्टि डाली और सभी दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता हुआ चला गया।
अगला दिन सोमवार था। इस दिन वोरोन्त्सोव प्राय: 'घर' में रहता था। शिशिरोद्यान के जगमगाते हॉल में दिखाई न देने वाला एक ऑकेस्ट्रा ऊँचे स्वर में बज रहा था। गले, बांहों और वक्षस्थलों को प्रदर्शित करने वाले परिधानों में सजी-संवरी युवा और प्रौढ़ महिलाएं आकर्षक वस्त्र पहने हुए पुरुषों की बाहों में तेजी से थिरक रही थीं। उपहार कक्ष में लाल जैकेट, जुराबों और स्लिपर्स में पहाड़ी बैरे शैम्पेन सर्व कर रहे थे और महिलाओं को मिष्ठान्न परोस रहे थे। सरदार की पत्नी, उम्रदराज होने के बावजूद, तंग वस्त्रों में गर्मजोशी से मुस्कराती हुई अतिथियों के बीच घूम रही थी और दुभाषिये के माध्यम से उसने कुछ कृपालु शब्द हाजी मुराद से कहे थे, जो उसी उदासीन भाव से लोगों का निरीक्षण कर रहा था, जैसा थियेटर में उसने किया था। मेहमानदारी के बाद अंगों का कुछ अधिक ही प्रदर्शन करने वाली दूसरी महिलाएं हाजी मुराद के पास आयीं और सभी नि:संकोच उसके सामने खड़ी हो गयीं, मुस्कराती रहीं, और फिर वही प्रश्न किया -- 'उसने जो देखा उसे कैसा लगा ?' वोरोन्त्सोव भी सोने के तमगे धारण किये, 'शोल्डर ब्रेड', गले में सफेद क्रास और रिबन पहने हुए आया और स्पष्टरूप से आश्वस्त होते हुए भी, हाजी मुराद के सभी प्रश्नकर्ताओं की भाँति, उससे वही प्रश्न किया, कि उसने जो सब कुछ देखा उसे पसंद आया या नहीं। और हाजी मुराद ने वोरोन्त्सोव को बिना यह कहे कि उसने जो देखा अच्छा था या खराब, उसने वही उत्तर दिया जो उसने सभी को दिया था, कि उन लोगों के पास उस जैसा कुछ नहीं था।
हाजी मुराद ने उस नृत्य सभा में वोरोन्त्सोव से अपने परिवार की फिरौती के प्रश्न को छेड़ना चाहा था, लेकिन वोरोन्त्सोव ने न सुनने का अभिनय किया था और दूर चला गया था। तब लोरिस मेलीकोव ने हाजी मुराद से कहा था कि वह स्थान सौदेबाजी के लिए उपयुक्त नहीं था।
जब ग्यारह बजे का घण्टा बजा, हाजी मुराद ने मेरी वसीलीव्ना द्वारा दी गई घड़ी में समय देखा, और लोरिस -मेलीकोव से पूछा कि क्या वह जा सकता है। लोरिस मेलीकोव ने कहा कि वह जा तो सकता है, लेकिन बेहतर होगा कि वह रुका रहे। फिर भी हाजी मुराद रुका नही, और उसके लिए जिस गाड़ी की व्यवस्था की गई थी, उसमें अपने ठहरने के लिए निर्धारित मकान की ओर चला गया था।
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(क्रमश: जारी…)

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पुस्तक समीक्षा

कृति : पिछले पन्ने की औरतें(उपन्यास)
लेखिका - शरद सिंह
सामयिक प्रकाशन,
3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
पृष्ठ : 304, मूल्य : 150 रुपये(पेपर बैक)



कई-कई बार इस कृति को पढ़ना ज़रूरी
- परमानन्द श्रीवास्तव

रोमांस की मिथकीयता के लिए कोई भी कथा छलांग लगा सकती है। शरद सिंह का उपन्यास 'पिछले पन्ने की औरतें' बेड़िया समाज की देह व्यापार करने वाली औरतों की यातना भरी दास्तान है। शरद सिंह की प्रतिभा 'तीली-तीली आग' कहानी संग्रह से खुली। स्त्री विमर्श में उनका हस्तक्षेप और प्रामाणिक अनुभव अनुसंधान के आधार पर है। शरद सिंह वर्जना मुक्त हो कर इस अंधेरी दुनिया में धंसती हैं। उन्हें पता है कि स्त्री देह के संपर्क में हर कोई फायदे में रहना चाहता है। शरद सिंह ने ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबाफुले आदि के स्त्री जागरण को समझते हुए इस नरककुंड से सीधा साक्षात किया है। शरद सिंह को दुख है कि जब देश में स्त्री उद्धार के आंदोलन चल रहे थे तब बेड़िया जाति की नचनारी, पतुरिया-जैसी स्त्रियों की मुक्ति का सवाल क्यों नहीं उठा? नैतिकता के दावेदार कहां थे?
विडम्बना यह कि जो पुरुष इन बेड़िया औरतों को रखैल बना कर रखते, उन्हीं के घर के उत्सवों में इन्हें नाचने जाना पड़ता था। कहानी में एक प्रसंग किन्हीं ठाकुर साहब की रखैल कौशल्याबाई का आता है जो दुगुनी आयु के हैं। पर पुरुष का तो मन है, चाहे जिस पर आ जाए। एक ग्रामीण लंबरदार दो बेड़नियों का 'सिंर ढंकना' कर चुका है। यह रस्म 'नथ उतराई' जैसी है जो वेश्यावृत्ति की स्वीकृति है। शरद सिंह के शोध के अनुसार पथरिया गांव में लगभग पचास राई नर्तकियां थीं। राई नृत्य भी बेड़िया जाति का अपना नृत्य है। कभी किसी बालाबाई पर फिरंगी का मन आ गया तो वह उसी की रखैल बन गई। उनका प्रेम परवान चढ़ता गया। चमन सिंह अपनी प्रेमिका को अंग्रेज की रखैल कैसे बनने देता, वह उसकी हत्या कर देता है। नचनारी को जब एक ठाकुर के संसर्ग से गर्भ रह गया, ठाकुर ने संसर्ग का सिलसिला बंद नहीं किया। यह लैंगिक कामोत्तेजन का परिणाम है।
शरद सिंह उपन्यास लिखते-लिखते इतिहास लिखने लगती हैं। बुन्देलखण्ड का बुन्देला विद्रोह अंग्रेजों के दमन की वजह बना। दो रोटी नसीब हो यह भी असंभव हो गया। फुलवा बेड़नी की सुन्दरता उत्तेजक थी। फुलवा को चोरी के नए ढंग-कुढंग मां ने ही बताए। रजस्वला होने के पहले ही साप्ताहिक हाट में बिछोड़े देखते-देखते मां के दबाव में अपनी योनि में छिपा लिए। वह सोने का फूल था। फुलवा का डेलन से ब्याह हुआ जिससे छ: बच्चे हुए। एक रसूबाई जो बेड़िन के रूप में प्रसिद्ध हुई। कभी इतिहास जान कर पुलिस रसूबाई के पीछे पड़ गई। दल के कई सदस्य पुलिस की चपेट में आ गए। उधर पुरुषों की स्त्री शोषण की प्रवृति ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा। वे देह व्यापार में ही लिप्त रहने लगीं। बेड़िया जाति को भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति में गिना गया है। शरद सिंह इस बहाने जनजातियों का इतिहास बता जाती हैं। ये जातियां हैं- वधिक, बेड़िया, बैदिया, जादुआ, कंजर, खंगर, कोलो, गरैरी आदि। बेड़ियों के बारे में बताया गया है कि यह एक घुमक्कड़ खानाबदोश जाति है। बेड़िनों ने आर्थिक आधार पर पुरुषों से देहसंबंध तो बनाया बदले में किसी रिश्ते का अधिकार नहीं मांगा। अविवाहित मातृत्व निषिद्ध नहीं था। हां, बच्चों को जन्म देने के बाद पिता का नाम बताना जरूरी हो गया।
एक नचनारी ठाकुर की रखैल थी। उसकी प्रवसपूर्व अवस्था में भी ठाकुर संसर्ग से बाज नहीं आता। न्यौते बिचौलिया है पर उसका प्रेम बेड़िनी या नचनारी को सच्चा जान पड़ता है। नचनारी ने बेटी को जन्म दिया। ठाकुर की कल्पना में यह उसकी भावी संतान नहीं, भावी प्रेमिका या विलास चर्चा में सहयोगिनी बनेगी। ब्रिक्सटन के संपर्क में नचनारी का आना एक संयोग था। लाट साहब सागर चले गए तो नचनारी न्यौते के साथ उनकी खोज में गई। फिरंगी चकित था कि ठाकुर को छोड़ कर उसके प्रेम में पागल हो कर नचनारी उस तक आई। वह बताती है -'हम बेड़नियों का कोई न कोई ठाकुर होता ही है, हुजूर! वे हमें अपनी बना कर रखते हैं लेकिन खुद वे हमारे कभी नहीं होते।....बेड़नी के गले में पड़ा पट्टा किसी को दिखाई नहीं देता.....क्योंकि वह तो सोने से मढ़ दिया जाता है न!' बस, वह धंधा नहीं छोड़ सकती। नचनारी चकित थी कि उसके प्रेमी लाट साहब ने उसे छुआ भी नहीं, बस कोई और धंधा अपनाने के लिए प्रेरित करता रहा। शरद सिंह वेश्यावृत्ति के कारणों पर विचार करती हैं और जो मनोसामाजिक अध्ययन हुए हैं, उनके सूत्र बताती हैं, जैसे-दरिद्रता से ऊब कर, बहकावे में आ कर, महिला दलालों के प्रलोभन पा कर, पति द्वारा तलाक ले लेने पर, पति की प्रेरणा से, बुरी संगत के कारण। मां-बाप भी कम उम्र की लड़कियों से वेश्यावृत्ति करा सकते हैं। शरद सिंह के अनुसार वातावरण और सामाजिक दशाएं भी बेड़नियों के देह धंधे में लिप्त होने का एक प्रमुख कारण है। निर्मला देशपांडे जैसी समाजसेवी स्त्रियों ने इस स्थिति को बदलने के लिए अथक संघर्ष किया है। अब कई एनजीओ नए-नए काम उपलब्ध कराते हैं। शिक्षा अभियान चलाते हैं। उधर बेड़नियों के समाज में रखैल स्त्री की तरह रखैल पुरुष का भी चलन है। शरद सिंह फ्रायड, एडलर, युंग के सिद्धांतों के आधार पर भी स्त्री विमर्श का रास्ता बनाती हैं।
इधर कुछ नई घटनाएं सामने हैं। चुनाव में बेड़नी स्त्री जीत कर सरपंच तक बन सकती है। चंदा बेड़नी चुनाव में विजयी हुई पर वे बेड़नी जाति से देह धंधा खत्म नहीं करा पाई। शरद सिंह लिखती हैं -'नए रास्ते की खोज में श्यामा का भटकाव अब मैं जान चुकी थी। मंत्री के घर जा कर राई नाचने से ले कर चंद महीनों की रखैल बनने की कथा श्यामा की उस जिजीविषा को व्यक्त करती है जो अपनी जीवनधारा बदलने की प्रबल इच्छा के रूप में उसके मन में विद्यमान है।' संदेह है कि आगे श्यामा क्या करेगी। जब देह में कसावट नहीं रहेगी तो क्या-क्या कर पाएगी। यह जान कर खिन्न हुई कि ऐसे भी सामंत इसी समाज में है जो अपने शयनकक्ष में पत्नी के साथ बेड़नी रखैल को भी रख पाते हैं। उन्हें प्रेम नहीं सनसनी चाहिए।
शरद सिंह का बीहड़ क्षेत्रों में प्रवेश ही इतना महत्वपूर्ण है कि एक बार ही नहीं, कई-कई बार इस कृति को पढ़ना जरूरी जान पड़ेगा। अंत में शरद सिंह के शब्द हैं- 'लेकिन गुड्डी के निश्चय को देख कर मुझे लगा कि नचनारी, रसूबाई, चम्पा, फुलवा और श्यामा जैसी स्त्रियों ने जिस आशा की लौ को अपने मन में संजोया था, वह अभी बुझी नहीं है.....।' शरद सिंह ने जैसे एक सर्वेक्षण के आधार पर बेड़नियों के देहव्यापार का कच्चा चिट्ठा लिख दिया है। तथ्य कल्पना पर हावी है। शरद सिंह की बोल्डनेस राही मासूम रजा जैसी है। या मृदुला गर्ग जैसी। या लवलीन जैसी। पर शरद सिंह एक और अकेली हैं। फिलहाल उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी कथाक्षेत्र में नहीं है।
'पिछले पन्ने की औरतें' उपन्यास लिखित से अधिक वाचिक (ओरल) इतिहास पर आधारित है। इस बेलाग कथा पर शील-अश्लील का आरोप संभव नहीं है। अश्लील दिखता हुआ ज्यादा नैतिक दिख सकता है। भद्रलोक की कुरूपताएं छिपी नहीं रह गई हैं।
शरद सिंह के उपन्यास को एक लम्बे समय-प्रबंध की तरह पढ़ना होगा जिसके साथ संदर्भ और टिप्पणियों की जानकारी जरूरी होगी। पर कथा-रस से वंचित नहीं है यह कृति 'पिछले पन्ने की औरतें'।
जब दलित विमर्श और स्त्री विमर्श केन्द्र में हैं, संसद में स्त्री सीटों के आरक्षण पर जोर दिया जा रहा हो पर पुरुष वर्चस्व के पास टालने के हजार बहाने हों- यह उपन्यास एक नए तरह की प्रासंगिकता अर्जित करेगा।
जर्मन ग्रियर कहती हैं- 'स्त्रियों से अब रति का आनन्द उठाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन केन्द्र से निकल कर बुर्जुवा मंदिर में आने की नहीं। इसके बजाए रति को अनुष्ठान के जंग के रूप में मंदिर में लाया जा रहा है।' शरद सिंह को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे बिना फेमिनिस्ट या स्त्रीवादी होने का दावा किए स्त्री मुक्ति की अग्रिम पंक्ति में जगह बना सकीं।
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परमानंद श्रीवास्तव
बी-70, आवास विकास कालोनी,
सूरज कुण्ड,
गोरखपुर -273015


बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

साहित्य सृजन – सितम्बर-अक्तूबर 2009



‘साहित्य सृजन’ के इस अंक में आप पढ़ेंगे – हिन्दुस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर की पुण्य-तिथि(30 अक्तूबर) पर “मेरी बात” स्तंभ के अन्तर्गत कथाकार अशोक गुप्ता का मार्मिक आलेख “जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....”, समकालीन हिंदी कविता में अपनी विशिष्ट और पृथक पहचान रखने वाली कवयित्री कात्यायनी की कविताएं, सुपरिचित हिंदी कवयित्री-कथाकार अलका सिन्हा की कहानी “फिर आओगी न”, एक अरसे बाद लेखन में पुन: सक्रिय हुए लेखक सुधीर राव की लघुकथाएं, ‘भाषांतर’ के अन्तर्गत डॉ0 रूपसिंह चन्देल द्वारा अनूदित प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ की नौवी किस्त, वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की पुस्तक “आम औरत, ज़िन्दा सवाल” की समीक्षा तथा गतिविधियाँ…
संपादक : साहित्य-सृजन


मेरी बात

बेगम अख़्तर की पुण्यतिथि पर विशेष
जब तवक्को ही उठ गयी गालिब....
-अशोक गुप्ता

“जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है, जो साज़ पे गुज़री है वो किस दिल को पता है ? ”
यह एक बहुत पुराना शे’र है जो मुझे याद आ गया है। यह शे’र अचानक नहीं याद आया, अचानक याद आयीं बेगम अख्तर, जब मैंने किसी को यूँ ही गुनगुनाते सुना,
“जिस से लगाई आँख उसी को दिल का दुश्मन देखा है...”
तस्कीन कुरैशी के यह बोल जब भी, जैसे भी कानों में पड़ते हैं, कद्रदान श्रोता झूम उठते हैं, एक बार नहीं, सौ सौ बार.. लेकिन इसके आगे कभी किसी की नज़र बेगम अख्तर की ज़िन्दगी के उन पन्नों की तरफ नहीं जाती जहाँ इबारत खून से लिखी हैं और उस कलम पर बाकायदा नामज़द उँगलियों के निशान देखे जा सकते हैं। वहां तक तो न किसी नज़र गयी न किसी का वास्ता रहा। बेगम अख्तर गाती रहीं, हम सब सुनते रहे..
“तमाम उम्र रहे हम तो खैर काँटों में...”

इत्तेफाक से इस समय मेरे हाथ में उन्हीं पन्नों से उठाए हुए दर्द के कुछ टुकडे हैं, जिन्हें जानना, जो साज़ पर गुज़री है, उसे जानने जैसा है... कहता हूँ ।

मुश्तरी उस बीबी अख्तर की माँ का नाम है, जिसे पहले अख्तरी बाई के नाम से जाना गया फिर, बेगम अख्तर के नाम से. मुश्तरी जब कमसिन ही थीं, जनाब असगर हुसैन उन पर फ़िदा हो गए। वह एक नौजवान वकील थे, बाकायदा कानून से वाकिफ थे, सो बावजूद उस वक्त एक बीबी के शौहर होने के, उन्होंने मुश्तरी से शादी की। उस शादी से मुश्तरी ने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया जो जोहरा और बीबी अख्तरी कहलाईं। उसके बाद असगर हुसैन साहब ने अपनी इस मुश्तरी बेगम को उनकी दो दुधमुहीं बच्चियों के साथ घर से निकाल फेंका.... हो गया उनका इश्क का शौक पूरा।

अख्तरी और जोहरा को ले कर मुश्तरी ने संघर्ष किया। दोनों लड़कियों को कुदरत ने गायन का हुनर दिया था और बाप ने दर्द का समंदर.. खारे पानी में कोई आसानी से कहाँ डूबता है.. धीरे-धीरे अख्तरी बाई की गायकी पहचान पाने लगी, शोहरत उसके दरवाज़े पर आ खड़ी हुई, लेकिन शोहरत और नाम एक चीज़ है और मर्द की फितरत एकदम दूसरी। इसी रवायत के चलते एक दिन अख्तरी बाई के एक सरपरस्त ने उन्हें अपनी हवस का शिकार बना डाला। खुदा ने भी अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। अख्तरी बाई लड़की से औरत तो बनी ही, औरत से माँ भी बनने की दुर्गति में फंस गईं। सन तीस के सालों में, न तो लोगों में जानकारी थी, न ही सहूलियत, हिम्मत भी थी तो उसे जज़्बात ने अपनी मुठ्ठी में कर रखा था। तो नतीजा यह हुआ कि अख्तरी बाई ने एक बेटी तो जनी लेकिन उम्र भर उसे अपनी बेटी कह कर पुकार नहीं सकीं। परवरिश तो दी, लेकिन बतौर उस यतीम की रिश्तेदार। अख्तरी बाई को बाप नसीब नहीं हुआ था लेकिन उसे बाप का नाम तो मिला था और माँ भी उसके पास थी। अख्तरी बाई की बेटी को न तो बाप का मान मिला और न माँ का दामन...

अख्तर बाई गाती हैं-
“मेरे दुःख की दवा करे कोई...”
ग़ालिब के शे’र में अख्तरी बाई के लिए सिर छुपाने की जगह है. ओह ग़ालिब, अगर तुम न होते तो...?
वक्त के अगले दौर में जब अख्तरी बाई अपनी शोहरत और अपने हुनर की बुलंदी पर थीं, सन पैंतालिस का साल, बीबी अख्तरी की तीस को छूती उम्र, उन्होंने भी एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी कर ली। फिर, ढाक के तीन पात, शौहर की पाबन्दी बरपा हुई कि गायकी बंद।

पांच लम्बे बरसों तक बेगम अख्तर की आवाज़ उनके भीतर घुटती रही और बाहर आने को तरस गई. दुनिया जानती थी कि गायन बेगम अख्तर की जिंदगी का दूसरा नाम है, लेकिन बतौर शौहर, बैरिस्टर साहब का हुकुम आखिरी अदालत था..

दिनोंदिन बेगम अख्तर कि सांसें गर्क होती गईं, पहले एहसास और फिर शरीर गहरी बीमारी की लपेट में आ गया। गनीमत हुई कि एक डाक्टर ने मर्ज़ को समझा और कहा कि गाना शुरू करना ही मरीज़ का इलाज़ है, वरना मौत तो दरवाज़े पर ही खड़ी है।

बेहद मजबूरी में अब्बासी साहब में बेमन से हामी भरी और बेगम अख्तर ने गाना शुरू किया। सबसे पहले लखनऊ रेडियो स्टेशन पर बेगम अख्तर ने तीन गज़लें गाईं और उसके बाद वहीँ वह फूट-फूट कर रोने लगीं। उनका वह रोना हज़ार हज़ार ग़ज़लों से ज्यादा मन को झग्झोरने वाला था लेकिन वह किसी सीडी, किसी कैसेट में दर्ज नहीं है. किसी को उसकी तलब भी नहीं है।

30 अक्तूबर 1974 को जब उन्होंने दम तोडा, तब वह अहमदाबाद के एक सम्मलेन में गाने गईं थीं और अपने फेफडों की हैसियत पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा कर बैठीं, लेकिन फेफडे उन्हें दगा दे गए।

दगा तो बेगम अख्तर को उम्र भर किसी न किसी ने दिया, लेकिन उनको दिल पर भरोसा करने की बीमारी थी. वह मीर तकी मीर कि ग़ज़ल गाती थीं न -
“देखा इस बीमारिए दिल ने, आखिर काम तमाम किया...”

कितना सही था उनका अंदाज़, अपने बारे में और अपनी उस दुनिया के बारे में भी, जिसमे हम और आप आज भी हैं.
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29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली – 110089 मोबाईल नं- 09871187875